ईश्वर विश्वास की प्रतिक्रिया - सर्वतोमुखी सुख शान्ति

December 1975

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ईश्वर विश्वास की इसलिए आवश्यकता है कि उसके सहारे हम जीवन का स्वरूप, लक्ष्य एवं उपयोग समझने में समर्थ होते हैं। यदि ईश्वरीय विधान को अमान्य ठहरा दिया जाय तो फिर मत्स्यन्याय का ही बोलबाला रहेगा। आंतरिक नियन्त्रण के अभाव में बाह्य नियन्त्रण मनुष्य जैसे चतुर प्राणी के लिए कुछ बहुत अधिक कारगर सिद्ध नहीं हो सकता। नियंत्रण के अभाव में सब कुछ निश्चित और अविश्वस्त बन जायेगा। ऐसी दशा में, हमें आदिमकाल में, वन्य स्थिति में वापिस लौटना पड़ेगा और शरीर निर्वाह करते रहने के लिए पेट, प्रजनन एवं सुरक्षा जैसे पशु प्रयत्नों तक सीमित रहना पड़ेगा। ईश्वर विश्वास ने आत्म-नियन्त्रण का पथ-प्रशस्त किया है और उसी आधार पर मानवी सभ्यता का, आचार संहिता का, स्नेह, सहयोग एवं विकास परिष्कार का पथ प्रशस्त किया है। यदि मान्यता क्षेत्र से ईश्वरीय सत्ता को हटा दिया जाये तो फिर संयम और उदारता जैसी मानवी विशेषताओं को बनाये रहने का कोई दार्शनिक आधार शेष न रह जायगा। तब चिन्तन क्षेत्र में जो उच्छृंखलता प्रवेश करेंगी उसके दुष्परिणाम वैसे ही प्रस्तुत होंगे जैसे कि पुराणकाल की कथा गाथाओं में असुरों के नृशंस क्रिया-कलाप का वर्णन पढ़ने-सुनने को मिलता है।

ईश्वर अन्ध-विश्वास नहीं एक तथ्य है। विश्व की व्यवस्था सुनियन्त्रित है, सूर्य, चन्द्र, ग्रह नक्षत्र आदि सभी का उदय- अस्त क्रम अपने ढर्रे पर ठीक तरह चल रहा है, प्रत्येक प्राणी अपने ही जैसी सन्तान उत्पन्न करता है और हर बीज अपनी ही जाति के पौधे उत्पन्न करता है। अणु-परमाणुओं से लेकर समुद्र, पर्वतों तक की उत्पादन वृद्धि एवं मरण का क्रिया- कलाप अपने ढंग से ठीक प्रकार चल रहा है। शरीर और मस्तिष्क की संरचना और कार्यशैली देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। इतनी सुव्यवस्थित कार्यपद्धति बिना किसी चेतना शक्ति के अनायास ही नहीं चल सकती। उस नियन्ता को अस्तित्व जड़ और चेतन के दोनों क्षेत्रों में प्रत्यक्ष और परोक्ष की दोनों कसौटियों पर पूर्णतया खरा सिद्ध होता है। वह समय चला गया जब अधकचरे विज्ञान के नाम पर संसार क्रम को स्वसंचालित और प्राणी को चलता-फिरता पौधा मात्र ठहराया गया था। अब पदार्थ विज्ञान और चेतन विज्ञान में इतनी प्रौढ़ता आ गई है कि वे नियामक चेतना शक्ति के अस्तित्व को बिना किसी आना-कानी के स्वीकार कर सके।

कर्मफल की व्यवस्था भी उसी नियन्त्रण के अंतर्गत आती है। समाज और शासन द्वारा दण्ड, पुरस्कार की व्यवस्था है। ईश्वरीय न्याय में भी सत्कर्मों और दुष्कर्मों के लिए समुचित दण्ड और पुरस्कार का विधान है। देर तो मुकदमा फैसला होने में भी लगती है और बीज बोने के बाद फसल काटने में भी। इस व्यवस्था को स्थूल बुद्धि समझ नहीं पाती। सत्कर्मों का फल तत्काल न मिलने पर लोग अधीर होने लगते हैं और दुष्कर्मों का तात्कालिक लाभ देखकर उनके लिए आतुरता प्रकट करते हैं। इन भूलभुलैयों में भटका व्यक्ति अपना और समाज का भविष्य अन्धकारमय बनाता है और वर्तमान को अवाँछनीयताओं से भर देता है। इस गड़बड़ी की रोकथाम में ईश्वर विश्वास से भारी सहायता मिलती है और व्यक्तिगत चरित्र-निष्ठा एवं समाजगत सुव्यवस्था का आधार सुदृढ़ बना रहता है। इन्हीं सब दूरगामी परिणामों को देखते हुए तत्वज्ञानियों ने ईश्वर विश्वास को दृढ़तापूर्वक अपनाये रहने के लिए जन-साधारण को विशेष रूप से प्रेरणा दी है। वह आधार दुर्बल न होने पाये, हर रोज स्मृतिपटल पर जमा रहे इसलिए साधना, उपासना के धर्मकृत्यों का सुविस्तृत विधि-विधान विनिर्मित किया है। इन्हें अपनाकर मनुष्य दिव्यसत्ता को अपने भीतर-बाहर विद्यमान देखता है और कुमार्ग से विरत रहकर सुमार्ग पर चलने का अधिक उत्साह के साथ प्रयत्न करता है। ईश्वर विश्वास के फलस्वरूप पशु प्रवृत्तियों के नियन्त्रण में भारी सहायता मिलती है और व्यक्ति तथा समाज का स्तर सन्तुलित बनाये रहने का प्रयोजन बहुत अंशों तक पूरा होता है। नास्तिकता अपनाकर विश्व-शान्ति का मानवी उत्कृष्टता का आधार ही डगमगाने लगेगा, इसलिए तत्वदर्शियों ने आध्यात्मिक अनास्था की - नास्तिकता की कठोर शब्दों में भर्त्सना की है।

जीवन दर्शन को ईश्वर से उच्चस्तरीय प्रेरणा मिलती है। संसार के सभी प्राणी ईश्वर के पुत्र हैं। कोई न्यायप्रिय, निष्पक्ष पिता अपनी सभी सन्तानों को लगभग समान स्नेह और समान अनुदान देने का प्रयत्न करता है। ईश्वर ने अन्य प्राणियों को मात्र शरीर निर्वाह जितनी बुद्धि और सुविधा दी तथा मनुष्य को बोलने, सोचने, पढ़ने, कमाने, बनाने आदि की अनेकों विभूतियाँ दी हैं। अन्य प्राणियों की और मनुष्यों की स्थिति की तुलना करने पर जमीन आसमान जैसा अन्तर दिखाई पड़ता है। इसमें पक्षपात और अनीति का आक्षेप ईश्वर पर लगता है। जब सामान्य प्राणी अपनी सन्तान को समान स्नेह, सहयोग देते हैं तो फिर ईश्वर ने इतना अन्तर किसलिए रखा ? एक को इतना ऊँचा और दूसरों को इतना नीचा कैसे रखा ? इस विभेद को समझने में प्रत्येक विवेक सम्पन्न व्यक्ति को भारी उलझन का सामना करना पड़ता है।

तत्वदर्शी विवेक बुद्धि इस विभेद के अन्तर का कारण भली प्रकार स्पष्ट कर देती है। मनुष्य को अपने वरिष्ठ सहकारी जेष्ठ पुत्र के रूप में सृजा गया है। उसके कन्धों पर सृष्टि को अधिक सुन्दर, समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने का उत्तरदायित्व सौंपा गया है। इसके लिए उसे विशिष्ठ साधन उसी विशिष्ठ प्रयोजन के लिए अमानत के रूप में दिये गये हैं। मिनिस्टरों को सामान्य कर्मचारियों की तुलना में सरकार अधिक सुविधा साधन इसलिए देती है कि उनकी सहायता से वे अपने विशिष्ठ उत्तरदायित्वों का निर्वाह सुविधापूर्वक कर सकें। यह सुविधाएं उनके व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं वरन् जनसेवा के लिए दी जाती हैं। बैंक के खजांची के हाथ में बहुत सा पैसा रहता है यह उसके निजी उपभोग के लिए बैंक प्रयोजन के लिए अमानत रूप में रहता है। निजी प्रयोजन के लिए तो क्या मिनिस्टर, क्या खजांची सभी को सीमित सुविधा मिलती है। अत्यधिक साधन जो उनके हाथ में रहते हैं उन्हें वे निर्दिष्ट कार्यों में ही खर्च कर सकते हैं। निजी कार्यों में उपभोग करने लगें तो यह दण्डनीय अपराध होगा।

ठीक इसी प्रकार मनुष्य के पास सामान्य प्राणियों को उपलब्ध शरीर निर्वाह भर के साधनों से अतिरिक्त जो कुछ भी श्रम, समय, वैभव, धन, प्रभाव, प्रतिभा आदि की विभूतियाँ हैं, वह सभी लोकोपयोगी प्रयोजनों के लिए मिली हुई सार्वजनिक सम्पत्ति है। शरीर रक्षा एवं पारिवारिक उत्तरदायित्वों के लिए औसत नागरिक स्तर का निर्वाह कर लेने के अतिरिक्त मनुष्य के पास जो कुछ बचता है उसकी एक-एक बूँद उसे लोक कल्याण के लिए नियोजित करनी चाहिए। इसी में ईश्वरीय अनुदान और मानवी गरिमा की सार्थकता है। प्रत्येक आस्तिक को सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन की गरिमा, उपयोगिता और जिम्मेदारी समझनी चाहिए तथा उसी के अनुरूप अपने चिन्तन तथा कर्तव्य का निर्धारण करना चाहिए। अपनी विशेषताओं का उपयोग इसी महान प्रयोजन के लिए करना चाहिए।

जीवन दर्शन की यह उत्कृष्ट प्रेरणा ईश्वर विश्वास के आधार पर ही मिलती है। जीवन क्या है, क्यों है, उसका लक्ष्य एवं उपयोग क्या है ? इन प्रश्नों का समाधान मात्र आस्तिकता के साथ जुड़ी हुई दिव्य दूरदर्शिता के आधार पर ही मिलता है। इसी प्रेरणा से प्रेरित मनुष्य संकीर्ण स्वार्थपरता से - वासना, तृष्णा के भव-बन्धनों से छुटकारा पाकर आत्म-निर्माण की ओर - आत्मविस्तार की ओर - आत्मविकास की ओर अग्रसर होता है और ऐतिहासिक महामानवों जैसी देव भूमिका अपनाने के लिए अग्रसर होता है। व्यक्ति और समाज के कल्याण के महान आधार खड़े करने वाली यह एक बहुत बड़ी दार्शनिक उपलब्धि है। यदि आस्तिकता के सही स्वरूप समझा जा सके और जीवन दर्शन के साथ उसे ठीक प्रकार जोड़ा जा सके तो निश्चय ही मनुष्य में देवत्व का उदय और इसी धरती पर स्वर्ग का अवतरण सम्भव हो सकता है। यही तो ईश्वर द्वारा मनुष्य सृजन का एकमात्र उद्देश्य है।

सृष्टि के सभी प्राणी एक पिता के पुत्र होने के नाते सहोदर भाई हैं और वे परस्पर एक दूसरे का स्नेह, सहयोग पाने के अधिकारी हैं। आस्तिकता यही मान्यता अपनाने के लिए प्रत्येक विचारशील को प्रेरणा देती है। इसका अनुसरण करके प्राणीमात्र के बीच आत्मीयता की भावना विकसित हो सकती है और उसके आधार पर एक दूसरे के दुख दर्द को अपना समझने एवं उदार व्यवहार करने की आकांक्षा प्रबल हो सकती है। विश्व कल्याण की दृष्टि से इस प्रकार की भावनात्मक स्थापनाएं अतीव श्रेयस्कर परिणाम प्रस्तुत कर सकती हैं। कहना न होगा कि यह दृष्टिकोण हर दृष्टि से - हर क्षेत्र से उज्ज्वल भविष्य की भूमिका प्रस्तुत कर सकने वाला सिद्ध हो सकता है।

ईश्वर विश्वास के कल्पवृक्ष पर तीन फल लगते बताये गये हैं - (1) सिद्धि (2) स्वर्ग (3) मुक्ति। सिद्धि का अर्थ है प्रतिभावान परिष्कृत व्यक्तित्व और उसके आधार पर बन पड़ने वाले प्रबल पुरुषार्थ की प्रतिक्रिया अनेकानेक भौतिक सफलताओं के रूप में प्राप्त होना। स्पष्ट है कि चिरस्थायी और प्रशंसनीय सफलताएं गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता के फलस्वरूप ही उपलब्ध होती हैं। मनुष्य को दुष्प्रवृत्तियों से विरत करने और सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाना पड़ता है। यह सभी आधार आस्तिकतावादी दर्शन में कूट-कूटकर भरे हैं। आज का विकृत अध्यात्म-दर्शन तो मनुष्य को उलटे भ्रम जंजालों में फँसाकर सामान्य व्यक्तियों से भी गई गुजरी स्थिति में धकेलता है, पर यदि उसका यथार्थ स्वरूप विदित हो तो उसे अपनाने का साहस बन पड़े तो निश्चित रूप से परिष्कृत व्यक्तित्व का लाभ मिलेगा। जहाँ यह सफलता मिली वहाँ अन्य सफलताएं हाथ बाँधकर सामने खड़ी दिखाई पड़ेंगीं। महामानवों द्वारा प्रस्तुत किये गये चमत्कारी क्रिया कलाप इसी तथ्य की साक्षी देते हैं। इसी को सिद्धि कहते हैं। अध्यात्मवादी आस्तिक व्यक्ति चमत्कारी सिद्धियों से भरे-पूरे होते हैं। इस मान्यता को उपरोक्त आधार पर अक्षरशः सही ठहराया जा सकता है। किन्तु यदि सिद्धि का मतलब बाजीगरी जैसी अचम्भे में डालने वाली करामातें समझा जाये तो यही कहा जायेगा कि वैसा दिखाने वाले धूर्त और देखने के लिए लालायित व्यक्ति मूर्ख के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

आस्तिकता के कल्पवृक्ष पर लगने वाला दूसरा फल है - स्वर्ग। स्वर्ग का अर्थ है - परिष्कृत गुणग्राही विधायक दृष्टिकोण। परिष्कृत दृष्टिकोण होने पर अभावग्रस्त दरिद्र मानने की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि मनुष्य जीवन अपने आप में इतना पूर्ण है कि उस सम्पत्ति को संसार की समस्त एकत्रित सम्पदा की तुलना में भी अधिक भारी माना जा सकता है। शरीर यात्रा के अनिवार्य साधन प्रायः हर किसी को मिले होते हैं, अभाव तृष्णाओं की तुलना में उपलब्धियों से कम आँकने के कारण ही प्रतीत होता है। अभावों की कठिनाइयों की विरोधियों की लिस्ट फाड़ फेंकी जाय और उपलब्धियों, सुविधाओं सहयोगियों की सूची नये सिरे से बनाई जाये तो प्रतीत होगा कि कायाकल्प जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई। दरिद्र चला गया, उसके स्थान पर वैभव आ विराजा। छिद्रान्वेषण की आदत हटाकर गुण ग्राहकता अपनाई जाये तो प्रतीत होगा कि इस संसार में ईश्वरीय उद्यान की - नन्दन वन की सारी विशेषताएं विद्यमान हैं। स्वर्ग इसी विधायक दृष्टिकोण का नाम


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