जड़ता का नाम मर्यादा नहीं है।

December 1975

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बच्चों ने घरौंदा बनाने की ठानी, समुद्र की लहरें उनके लिए बालू ढोकर लाईं। जब बन गया तो उन्होंने तोड़ने की ठानी और ठोकर मारकर उसे विस्मार कर दिया। सृजन की तरह अपने ध्वंस प्रयास में उन्हें मजा आया और ताली बजाते हुए खुशी से नाचने लगे। समुद्र ने इस हंसी में भी उनका साथ दिया। लहरों ने अपनी गर्जन उसी ह्रास में मिलाई और आनन्द को दूना बना दिया। दुहरा रोल क्यों ? इस प्रश्न के उत्तर में समुद्र ने इतना ही कहा - “निश्छल आत्माओं के साथ हंसना उसे सदा ही भला लगता है।”

हमारा सृजन दुरभिसंधियों से रहित होना चाहिए उसके पीछे आत्मा की कलाकारिता का स्पन्दन भरा होना चाहिए। किन्तु आवश्यक हो गया हो तो ध्वंस का भी आनन्द लिया जा सकता है। किसी समय के भवन दूसरे समय खण्डहर बन जाते हैं, तब उन्हें उखाड़ फेंकना पड़ता है और नई इमारत का शिलान्यास करना पड़ता है। भवन चिनने में आनन्द है, पर नींव खोदने में क्रिया की भिन्नता रहते हुए भी कुछ कम आनन्द नहीं है। मीनार बनाना अपनी जगह अच्छा है। पर क्या कुएं बनाते हुए जो नीचे उतरता जा रहा है, वह कुछ बुरा कर रहा है। भवन की अट्टालिकाएं दूर से दीख पड़ेंगी और गौरवान्वित होंगी, पर कुएं का जल भी तो प्राणियों और पौधों की प्यास ही बुझायेगा। क्रिया की विपरीतता देखकर भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं है सदुद्देश्य के लिए सृजन जितना आवश्यक है उतना ही ध्वंस भी। धर्म दोनों का समर्थन करता है। समुद्र हर निश्छल क्रिया के साथ जुड़े हुए आनन्द में सहभागी बनता है। धर्म भी समुद्र की तरह ही महान है, उसकी एक भुजा सृजन को वरदान देती है और दूसरी ओर ध्वंस को उपहार।

जड़ता धर्म नहीं है। परम्परा को शास्त्र नहीं कह सकते। समय की गति के साथ पक्षी चहचहाते और कमल खिलते हैं। युग की पुकार विवेक को झकझोरती है और सृजन की ही तरह ध्वंस की भी पुकार करती है। प्रभात काल का अरुणिमा सूर्य इसीलिए तो अभिनन्दनीय माना जाता है कि वह अन्धकार से लड़ने में लहूलुहान होते - होते भी प्रकाश की स्थापना करता है। अपने समय की अवाँछनीयताओं से जूझने में यदि परम्पराएं टूटती हैं तो चिन्ता नहीं। मोर कब परवा करता है कि उसके नृत्य में कभी बाँई ओर और कभी दाहिनी ओर पंख लहराते हैं। समीक्षा करने वाले भौंरे की गुंजार में उलटी-सीधी स्वर लहरी की अव्यवस्था देखते हैं। पर जिन्हें कला का ज्ञान है - उन्हें भ्रमर नृत्य में उन्मुक्त थिरकन भली भी लगती है और भोली भी।

कोल्हू का बैल बन विहारी मृगों को निरुद्देश्य पर्यटक कहता है। बूढ़ा अजगर फुदकने वाली गौरैया को उच्छृंखल ठहराता है। लोग तो विचित्र हैं प्रीतिभोजों में छककर माल उड़ाते हैं और कहते हैं बड़ी दावतों में कानून का उल्लंघन होता है, इन्हें रोका जाना चाहिए। सूर्य की ओर पीठ करके चलने वाले छाया को ही विधि-विधान मानते हैं और उसी का अनुसरण करने का उपदेश देते हैं। उनकी दृष्टि में प्रकाश की ओर मुँह करके चलने वाला अधार्मिक है क्योंकि छाया को अपने पीछे चलाने का प्रयास करता है। उनकी दृष्टि में सूर्य नहीं छाया वन्दनीय है। समुद्र को शान्त और नदी को अचल रखा जाना चाहे सम्भव भले ही न हो, पर पुरातनवादी चाहते यहीं हैं। उनकी दृष्टि में परम्परा ही सब कुछ है परिवर्तन में वे अशालीनता देखते हैं।

खलील जिब्रान ने आर्फलीज निवासियों को सम्बोधित करते हुए कहा था - “तुम कोलाहल को घृणा करते हो और शान्ति के समर्थन की दुहाई देते हो - सो कहो। नगाड़ों की चमड़ी उखाड़ सकते हो और तुरही का छेद बन्द कर सकते हो, पर कोयल को कूकने से रोक नहीं सकते, वह बिना किसी की परवा किये प्रभात का सन्देश सुनाने के लिए निर्भय होकर पंचम स्वर में कूकती ही रहेगी।


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