हम माया मूढ़ होकर भ्रम जंजाल में भटक रहे हैं।

December 1975

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जो कुछ हम देखते, जानते या अनुभव करते हैं- क्या वह सत्य है ? इस प्रश्न का मोटा उतर हाँ में दिया जा सकता है; क्योंकि जो कुछ सामने है, प्रत्यक्ष है, अनुभव किया जा रहा है, उसके असत्य होने का कोई कारण नहीं। चूँकि हमें अपने पर, अपनी इन्द्रियों और अनुभूतियों पर विश्वास होता है इसलिए वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति के बारे में जो समझते हैं, उसे भी सत्य ही मानते हैं। इतने पर भी जब गहराई में उतरते हैं, तो प्रतीत होता है कि हमारी मान्यताएं और अनुभूतियाँ हमें नितान्त सत्य का बोध कराने में असमर्थ हैं। वे केवल पूर्व मान्यताओं की अपेक्षा से ही कुछ अनुभूतियाँ करती हैं। यदि पूर्व मान्यताएं बदल जायं तो फिर अपने सारे निष्कर्ष या अनुभव भी बदलने पड़ेंगे।

हमारा बुद्धि संस्थान केवल अपेक्षाकृत स्तर जानकारियाँ दे सकने में ही समर्थ है। इतने से यदि सन्तोष होता हो तो यह कहा जा सकता है कि हम जो जानते या मानते हैं वह सत्य है। किन्तु अपनी मान्यताओं को ही यदि नितान्त सत्य की कसौटी पर कसने लगें तो प्रतीत होगा कि यह बुद्धि संस्थान की बेतरह भ्रम ग्रसित हो रहा है फिर उसके सहारे नितान्त सत्य को कैसे प्राप्त किया जाय ? यह एक ऐसा विकट प्रश्न है जो सुलझाये नहीं सुलझता।

वजन जिनके आधार पर वस्तुओं का विनिमय चल रहा है एक मान्यता प्राप्त तथ्य है। वजन के बिना व्यापार नहीं चल सकता। पर वजन सम्बन्धी हमारी मान्यताएं क्या सर्वथा सत्य हैं ? इस पर विचार करते हैं तो पैरों तले से जमीन खिसकने लगती है। वजन का अपना अस्तित्व नहीं। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति का जितना प्रभाव जिस वस्तु पर पड़ रहा है उसे रोकने के लिए जितनी शक्ति लगानी पड़ेगी वही उसका वजन होगा। तराजू बाटों के आधार पर हमें इसी बात का पता चलता है और उसी जानकारी को वजन मानते हैं, पर यह वजन तो घटता-बढ़ता रहता है। पृथ्वी पर जो वस्तु एक मन भारी है वह साड़े तीन मील ऊपर आकाश में उठ जाने पर आधी अर्थात् बीस सेर रहा जायगी। इससे ऊपर उठने पर वह और हलकी होती चली जायगी। पृथ्वी और चन्द्रमा के बीच जगह ऐसी आती है जहाँ पहुँचने पर उस वस्तु का वजन कुछ भी नहीं रहेगा। वहाँ अगर एक विशाल पर्वत भी रख दिया जाय तो वह बिना वजन का होने के कारण जहाँ का तहां लटका रहेगा। अन्य ग्रहों की गुरुता और आकर्षण शक्ति भिन्न है वहाँ पहुँचने पर अपनी पृथ्वी का भार माप सर्वथा अमान्य ठहराया जाय। ऐसी दशा में यही कहा जा सकता है कि वजन सापेक्ष है। किसी पूर्वमान्यता, स्थिति या तुलना के आधार पर ही उसका निर्धारण हो सकता है।

लोक व्यवहार की दूसरी इकाई है ‘गति’। वजन की तरह ही उसका भी महत्व है। गति ज्ञान के आधार पर ही एक स्थान के दूसरे स्थान तक पहुँचने के विभिन्न साधनों का मूल्यांकन होता है; पर देखना यह है कि ‘गति’ के सम्बन्ध में हमारे निर्धारण नितान्त सत्य की कसौटी पर खरे उतरते हैं या नहीं।

हम अपनी कुर्सी पर बैठे लिख रहे हैं और जानते हैं कि स्थिर है। पर वस्तुतः एक हजार प्रति घण्टा की चाल से हम एक दिशा में उड़ते चले जा रहे हैं। पृथ्वी की यही चाल है। पृथ्वी पर बैठे होने के कारण हम उसी चाल से उड़ने के लिए विवश हैं। यद्यपि यह तथ्य हमारी इन्द्रियजन्य जानकारी की पकड़ में नहीं आता और निरन्तर स्थिरता प्रतीत होती है। पैरों से या सवारी से जितना चला जाता है, उसी को गति मानते हैं।

पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है, इसलिए इस क्षण जहाँ हैं वहाँ वापिस 24 घण्टे बाद ही आ सकेंगे। पर यह सोचना भी व्यर्थ है; क्योंकि पृथ्वी 666000 मील प्रति घण्टा की चाल से सूर्य की परिक्रमा जिये दौड़ी जा रही है। वह आकाश में जिस जगह है वहाँ लोट कर एक वर्ष बाद ही आ सकती है; किन्तु यह मानना भी मिथ्या है क्योंकि सूर्य महासूर्य की परिक्रमा कर रहा है और पृथ्वी समेत अपने सौर परिवार के समस्त ग्रह उपग्रहों को लेकर और भी तीव्र गति से दौड़ता चला जा रहा है और वह महासूर्य अन्य किसी अति सूर्य की परिक्रमा कर रहा है। यह सिलसिला न जाने कितनी असंख्य कड़ियों से जुड़ा होगा। अस्तु एक शब्द में यों कह सकते हैं कि जिस जगह आज हम है कम से कम इस जन्म में तो वहाँ फिर कभी लौट कर आ ही नहीं सकते। अपना आकाश छूटा तो सदा सर्वदा के लिए छूटेगा। इतने पर भी समझते यही रहते हैं कि जहाँ थे उसी क्षेत्र, देश या आकाश के नीचे वहीं जन्म भर बने रहेंगे।

स्थान की भाँति गति की मात्रा भी भ्रामक है। दो रेल गाड़ियां समान पटरियों पर साथ-साथ दौड़ रही हों तो वे साथ-साथ हिलती-जुलती भर दिखाई पड़ेगी दो मोटरें आमने सामने से आ रही हों और दोनों चालीस-चालीस मील प्रति घण्टे की चाल से चल रही हों तो जब वे बराबर से गुजरेंगी तो 80 मील की चाल का आभास होगा। जब कभी आमने सामने से आती हुई रेल गाड़ियाँ बराबर से गुजरती है तो दूना वेग मालूम पड़ता है; यद्यपि वे दोनों ही अपनी-अपनी साधारण चाल से चल रही है वही गति और दिशा अन्य ग्रह नक्षत्रों की रही होती तो आकाश पूर्णतया स्थिर दीखता। सूर्य तारे कभी न उगते न चलते न डूबते। जो जहाँ हैं वहीं सदा बना रहता। तब पूर्ण स्थिरता की अनुभूति होते हुए भी सब गतिशीलता यथावत् रहती।

गति सापेक्ष है। अन्तर कितनी ही तरह निकला जा सकता है। सौर में से नब्बे निकालने पर दस बचते हैं। तीस में से बीस निकालने पर भी-पचास में से चालीस निकालने पर भी दस बचेंगे। अन्तर एक ही निकले इसके लिए अनेकों अंकों का अनेक प्रकार से उपयोग हो सकता है। इतनी भिन्नता रहने पर भी परिणाम में अन्तर न पड़ेगा। एक हजार का जोड़ निकालना हो तो कितने ही अंकों का कितनी ही प्रकार से वही जोड़ बन सकता है। गति मापने के बारे में भी यही बात है। भूतकाल के खगोलवेत्ता सूर्य को स्थिर मान कर ग्रह गणित करते रहे हैं। चन्द्र-ग्रहण, सूर्य-ग्रहण सौर मण्डल के ग्रह-उपग्रहों का उदय अस्त दिन मान, रात्रि मान आदि इसी आधार पर निकाला जाता रहा है। फिर भी वह बिलकुल सही बैठता रहा है। यद्यपि सूर्य को स्थिर मानकर चलने की मान्यता सर्वथा मिथ्या है। मिथ्या आधार भी जब सत्य परिणाम प्रस्तुत करते हैं; तो फिर सत्य असत्य का भेद किस प्रकार किया जाय, यह सोचने तक बुद्धि थककर बैठ जाती है।

दिशा का निर्धारण भी लोक व्यवहार में आवश्यक है। इसके बिना भूगोल नक्शा, यातायात की कोई व्यवस्था ही न बनेगी। रेखा गणित में आड़ी, सीधी, तिरछी रेखाओं को ही आधार माना गया है। दिशा ज्ञान के बिना वायुयान और जलयानों के लिए निर्दिष्ट लक्ष्य तक पहुँच सकना ही सम्भव न होगा। पूर्व, पश्चिम आदि आठ और दो ऊपर नीचे की दिशो दिशाएं लोक व्यवहार की दृष्टि से महत्वपूर्ण आधार हैं, पर ‘नितान्त सत्य’ का आश्रय लेने पर यह दिशा मान्यता भी लड़खड़ा कर भूमिसात् हो जाती है।

यह लम्बी नाली लगातार खोदते चले जायं तो प्रतीत होगा कि वह सीधी समतल जा रही है, पर वस्तुतः वह गोलाई में ही खुद रही है और वह क्रम चलता रहने पर खुदाई उसी स्थान पर आ पहुँचेगी जहाँ से वह आरम्भ हुई थी। रबड़ की गेंद पर बिलकुल सीधी रेखा खींचने का मतलब उसके दोनों सिरों का अन्तर सदा बना रहना ही होना चाहिए, पर जब वे अंततः एक में आ मिले तो फिर सीधी लकीर कहाँ हुई ? कागज पर जमीन पर या कहीं भी छोटी बड़ी सीधी लकीर खींची जाय वह कभी भी सीधी नहीं हो सकती। स्वल्प गोलाई अपने नाप साधनों से भले ही पकड़ में न आवे, पर वस्तुतः वह गोल ही बन रही होगी। जिस भूमि को हम समतल समझते हैं वस्तुतः वह भी गोल है। समुद्र समतल दीखता है, पर उस पर चलने वाले जहाजों का मस्तूल ही पहले दीखता है इससे प्रतीत होता है कि पानी समतल प्रतीत होते हुए भी पृथ्वी के अनुपात में गोलाई लिए हुए है। जमीन पर खड़े होकर जमीन और आसमान मिलने वाला क्षितिज प्रायः 3 मील पर दिखाई पड़ता है पर यदि दो सौ फुट ऊंचाई पर चढ़ कर देखें तो वह बीस मील दूरी पर मिलता दिखाई देगा। यह बातें पृथ्वी की गोलाई सिद्ध करती हैं। फिर भी मोटी बुद्धि से उसे गोल देख पाने का कोई प्रत्यक्ष साधन अपने पास नहीं है। वह समतल या ऊंची-नीची दीखती है गोल नहीं। ऐसी दशा में हमारा दिशा ज्ञान भी अविश्वस्त ही ठहरता है।

चन्द्रमा हमसे ऊंचा है पर यदि चन्द्रतल पर जा खड़े हों तो प्रतीत होगा कि पृथ्वी ऊपर आकाश में उदय होती है सौर मण्डल से बाहर निकल कर कहीं आकाश में हम जा खड़े हों तो प्रतीत होगा कि पूर्व, पश्चिम, उतर, दक्षिण ऊपर नीचे जैसी कोई दिशा नहीं है। दिशाज्ञान सर्वथा अपेक्षाकृत है। दिल्ली, लखनऊ से पश्चिम से पश्चिम में बम्बई में पूर्व से मद्रास में उतर से और हरिद्वार से दक्षिण में है। दिल्ली किस दिशा में यह तो कहना किसी की तुलना अपेक्षा ही सम्भव हो सकता है वस्तुतः वह दिशा विहीन है।

समय की ईकाई लोक व्यवहार में एक तथ्य है। घण्टा मिनट के सहारे ही दफ्तरों का खुलना बन्द होना रेलगाड़ियों का चलना रुकना-संभव होता है। अपनी सारी दिनचर्या समय के आधार पर ही बनती है। पर समय की मान्यता भी असंदिग्ध नहीं है। सूर्योदय और सूर्यास्त का समय वही नहीं होता जो हम देखते या जानते हैं। जब हमें सूर्य उदय होते दीखता है उससे प्रायः 8॥ मिनट पहले ही उग चुका होता है। उसकी किरणें पृथ्वी तक आने में इतना समय लग जाता है। अस्त होता जब दीखता है, उससे 8॥ मिनट पूर्व ही वह डूब चुका होता है। आकाश में कितने ही तारे ऐसे हैं जो हजारों वर्ष पूर्व अस्त हो चुके पर वे अभी तक हमें चमकते दीखते हैं। यह भ्रम इसलिए रहता है कि उनका प्रकाश पृथ्वी तक आने में हजारों वर्ष लग जाते हैं। जब वे वस्तुतः अस्तु हुए है उसकी जानकारी अब कहीं इतनी लम्बी अवधि के पश्चात हमें मिल रही है। सौर मण्डल के अपने ग्रहों के बारे में भी यही बात है, वे पंचांगों में लिखे समय से बहुत पहले या बाद में उदय तथा अस्त होते हैं।

जो तारा हमें सीध में दीखता है आवश्यक नहीं है कि उसी स्थिति में है। प्रकाश की गति सर्वथा सीधी नहीं है। प्रकाश भी एक पदार्थ है और उसकी भी तोल है। एक मिनट में एक वर्ग मील जमीन पर सूर्य का जितना प्रकाश गिरता है उसका वजन प्रायः एक ओंस होता है। पदार्थ पर आकर्षण शक्ति प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। तारों का प्रकाश सौर मण्डल में प्रवेश करता है तो सूर्य तथा अन्य ग्रहों के आकर्षण के प्रभाव से लड़खड़ाता हुआ टेढ़ा तिरछा होकर पृथ्वी तक पहुँचता है। पर हमारी आंखें उसे सीधी धारा में आता हुआ अनुभव करती है। हो सकता है कि कोई तारा सूर्य या किसी अन्य ग्रह की ओट में छिपा बैठा हो पर उसका प्रकाश हमें आँखों की सीध में दीख रहा हो। इसी प्रकार ठीक सिर के ऊपर चमकने वाला तारा वस्तुतः उस स्थान पर बहुत नीचा या तिरछा भी हो सकता है। इस प्रकार दिशा ही नहीं समय सम्बन्धी मान्यताएं भी निभ्रान्त नहीं है।

दार्शनिक विवेचनाओं से देश, काल का उल्लेख होता रहता है। उसे कोई मुल्क या घण्टा मिनट वाला समय नहीं समझ लेना चाहिएं यह पारिभाषिक शब्द है। वस्तुओं की लम्बाई चौड़ाई मोटाई को ‘देश’ कहा जाता है और उनके परिवर्तन को ‘काल’। आमतौर से वस्तुएं देश की अर्थात् लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई के आधार पर ही देखी जाती है जब कि उनकी व्याख्या विवेचना करते हुए काल का चौथा ‘आयाम’ भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। किन्तु गतियाँ और दिशाएं अनिश्चित भी हैं और भ्रामक भी। काल तो उन्हीं पर आश्रित है यदि आधार ही गड़बड़ा रहा है तो काल का परिणाम कैसे निश्चित हो। अस्तु वस्तुओं को तीन आयाम की अपेक्षा चार आयाम वाली भी कहा जाय तो भी बात बनेगी नहीं। वस्तुएं क्या है ? उनका रूप, गुण, कर्म, स्वभाव क्या है ? यह कहते नहीं बनता क्योंकि उनके परमाणु जिस द्रुतगति से भ्रमणशील रहते हैं उस अस्थिरता को देखते हुए एक क्षण में गई व्याख्या दूसरे क्षण परिवर्तित हो जायगी।

कौन बड़ा कौन छोटा इसका निश्चय भी निःसंकोच नहीं किया जा सकता है। पाँच फुट की लकड़ी छह फुट वाली की तुलना में छोटी है आर चार फुट वाली की तुलना में बड़ी। एक फुट मोटाई वाले तने की तुलना में दो फुट वाला मोटा अधिक है और दो फुट वाले की तुलना में एक फुट वाला पतला। वह वस्तुतः मोटा है या पतला ऐसा कुछ नहीं कहा जा सकता । तुलना बदलते ही यह छोटा या बड़ा होना-पतला और मोटा होना सहज ही बदल जायगा।

कौन धनी है और कौन निर्धन, कौन सुखी है और कौन दुःखी, कौन सन्त है, कौन ज्ञानी है कौन अज्ञानी कौन सदाचारी है, कौन दुराचारी, इसका निर्णय अनायास ही कर सकना असम्भव है। इस प्रकार का निर्धारण करने से पूर्व यह देखना होगा कि किस की तुलना में यह निर्णय किया जाय। नितान्त निर्धन की तुलना में वह धनी है जिसके पास पेट भरने के साधन हैं। किन्तु लक्षाधीश की तुलना में वह निर्धन ही है। जिसे दस कष्ट हैं उसकी तुलना में तीन कष्ट वाली सुखी है, पर एक कष्ट वाले की तुलना में वह दुखी है यह नहीं कहा जा सकता। डाकू की तुलना में चोर सहृदय है किन्तु उठाईगीरे की तुलना में वह भी अधिक दुष्ट है। एक सामान्य नागरिक की तुलना में उठाईगीरा भी दुष्ट है; जबकि वह सामान्य नागरिक भी सन्त की तुलना में पिछड़ा हुआ है गया-गुजरा है। सन्त भी किसी महा सन्त आत्मत्यागी शहीद की तुलना में हलका बैठेगा।

अपेक्षा से हम किसी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति का मूल्याँकन करते हैं तुलना ही एक मोटी कसौटी हमारे पास है जिससे किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है। जिनके बारे में वह निर्धारण किया गया है वे वस्तुतः क्या हैं? इसका पता लगाना अपनी ज्ञानेन्द्रियों के लिए जिनके मस्तिष्क भी सम्मिलित है, अति कठिन है। क्योंकि वे सभी अपूर्ण और सीमित हैं। कई अर्थों में तो उन्हें भ्रान्त भी कहा जा सकता है। सिनेमा के पर्दे पर तस्वीरें चलती-फिरती दिखाई देती हैं वस्तुतः वे स्थिर होती है; उनके बदलने का क्रम ही इतना तेज होता है कि आंखें उसे ठीक तरह पकड़ नहीं पाती और आकृतियों को ही हाथ पैर हिलाती, बोलती, गाती समझ बैठती हैं।

हमारी अपूर्ण क्षमताएं तब और भी अधिक गड़बड़ा जाती हैं जब हम अवाँछनीय तुलना करने पर उतारू हो जाते हैं। इस दुहरी मार से लड़खड़ाई हुई चेतना हमें उस स्थिति में पटक देती है जिसे हम भ्रम अज्ञान एवं माया कहते हैं। वेदान्त दर्शन का प्रतिपादन यह है कि संसार मिथ्या और स्वप्न है। परमाणुओं की द्रुतगामी हलचलों को न समझते हुए आंखें जब वस्तुओं को स्थिर देखती है तो वैज्ञानिकों को यही कहना पड़ता है कि हम सब वस्तुस्थिति नहीं समझ पाते , मात्र स्वप्न देखते हैं। अपेक्षा का माप दण्ड सही न रखकर ही हम खीचते झल्लाते, रोते-कलपते ओर दुःख-शोक के सागर में डूबते उतराते हैं। बाहरी परिस्थितियों के बारे में वह मान्यता बनाते हैं, जिनकी यथार्थता असंदिग्ध है। सत्य का आग्रह भर करते हैं, पर नितान्त सत्य क्या है- यह समझ सकना ही अपने बुद्धि संस्थान एवं इन्द्रिय चेतना के लिए अति कठिन है।

शाश्वत सत्य को प्राप्त करने के लिए हमें उच्चस्तरीय आदर्शों का आश्रय लेना पड़ेगा। मानवी गरिमा का उज्ज्वल रूप है जिनकी आवश्यकता अन्तरात्मा को निरन्तर होती रहती है और हर स्थिति का व्यक्ति अपने प्रति दूसरों से वैसी ही अपेक्षा करता है। हम चाहते हैं दूसरों का व्यवहार हमारे प्रति सज्जनता, प्रामाणिकता और उदारता से परिपूर्ण हो यही आत्यान्तिक सत्य है। वस्तुओं व्यक्तियों और परिस्थितियों में सुख ढूंढ़ने की अपेक्षा जब हम मनःस्थिति का भावनात्मक परिष्कार करते हुए दिव्य चिन्तन को अपनाने के लिए तत्पर होते हैं, तो अपना आपा ही इतना सर्वांग सुन्दर बन जाता है कि बाहर भटकने की अपेक्षा अन्तरात्मा के आलोक में निरन्तर आनन्द मग्न रहा जा सके। यह आत्मबोध ही यथार्थ ज्ञान है जो इंद्रियानुभूति से नहीं परिष्कृत आत्मचेतना से ही उपलब्ध हो सकता है।


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