अपनापन ही सबसे अधिक प्रिय है। आत्मबोध से ही जीवन और संसार के रहस्यों पर से पर्दा उठता है। आत्म जागृति ही दिव्य -जीवन में प्रवेश का द्वार है। आत्म-विश्वास से हिम्मत बंधती है और प्रबल पुरुषार्थ करके बढ़ी-चढ़ी सफलताएँ प्राप्त करना सम्भव होता है। आत्म तृप्ति के लिए ही सारी दौड़−धूप हो रही है। आत्मसन्तोष पाने के लिए बड़े से बड़े कष्ट सहे जा सकते हैं। आत्म-परिष्कार के साथ देवत्व की सारी सिद्धियाँ जुड़ी हुई हैं। जीवन का लक्ष्य है - आत्म कल्याण। आत्मा से बढ़कर और कुछ नहीं। विकसित आत्मा ही दूसरे शब्दों में परमात्मा कहा जाता है।
वैभव की व्याख्या आत्म विस्तार के रूप में की जायेगी। जिस वस्तु पर अपना अधिकार है, मोह है, सम्बन्ध है, वही प्रिय लगती है। यहाँ सब कुछ पराया है- सब कुछ कुरूप है। जो अपना है वही प्रिय है, वही सुन्दर है। पंचतत्वों से बने निर्जीव पदार्थों और मल-मूत्र के पिटारे शरीर में प्रिय लगने लायक भला है ही क्या? जिसे हम सुन्दर कहते हैं और प्रिय मानते हैं वह अपनेपन के आरोपण से ही वैसा लगता है।
यदि हमें इस संसार में अधिक प्रिय पदार्थों का संग्रह करना हो और अधिक प्रियजनों के साथ रहना हो तो आत्मीयता का अधिकाधिक विस्तार करना चाहिए। जिस पदार्थ या व्यक्ति पर आत्मीयता का आरोपण जितनी मात्रा में करते चलेंगे वह उतना ही प्रिय, सुन्दर और सुखद लगता जायेगा। यदि आत्मीयता का विस्तार समस्त संसार तक कर दिया जाये तो सर्वत्र अनन्त आनन्द का अनुभव और असीम सौंदर्य का दर्शन हर घड़ी होता रहेगा।