खाद्य को अखाद्य बनाकर न खाएँ

December 1975

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अपने देश में गरीबी के कारण पौष्टिक खाद्य-पदार्थ समुचित मात्रा में प्राप्त कर सकना अपने देशवासियों के लिए बहुत कठिन पड़ता है। इससे भी बड़ी कठिनाई यह है कि जो कुछ उपलब्ध है उसे भी ठीक तरह पकाने और खाने की विधि से हम अपरिचित हैं। फल-स्वरूप जो सामने है उसका भी पूरा लाभ उठा नहीं पाते। पोषक तत्व को निकाल डालते हैं और उसके सारहीन भाग को ग्रहण करते हैं। पकाने और खाने की बुरी आदतें गरीबी से अधिक महंगी पड़ती हैं और भोजन करने के उद्देश्य को ही समाप्त कर देती है।

इंटरनेशनल क्लब के लखनऊ द्वारा आयोजित एक विचार गोष्ठी में हाइजीन इन्स्टीट्यूट के संचालन डा0 के0 गाविल ने बताया कि भारत में शाक-भाजी और फलों का उत्पादन कम होने से जन-साधारण को उपयुक्त पौष्टिक आहार की तो कमी पड़ती ही थी। अब भूमि की उर्वरा शक्ति घट जाने से एक नया संकट और उसमें जुड़ गया है। अब फल और शाकों में पोषक तत्व उससे कहीं कम रहते हैं जितने कि अब से पचास वर्ष पूर्व रहते थे।

स्वास्थ्य संरक्षण के लिए कैल्शियम, फास्फोरस, लौह, पोटाश आदि जिन रसायनों की जरूरत पड़ती है उन्हें प्राकृतिक रूप से फलों और शाकों में ही पाया जाता है। औषध रूप में इन्हें लिया जाय तो वे रक्त में उस तरह नहीं धुल पाते जैसे कि फलों के द्वारा ग्रहण करने पर शरीर के अंग बनते हैं। आँवला, टमाटर, मौसम्बी जैसे फलों में विटामिन सी. की समुचित मात्रा रहती है। गाजर, चुकन्दर, बन्दगोभी जैसे सामान्य एवं सस्ते शाकों से विटामिन ‘ए’ की पूर्ति सहज ही हो जाती है। सस्ता और प्रचुर परिमाण में कहीं भी उगाया जा सकने वाला केला तक विटामिन ए.बी.सी.डी. और ई. से भरा-पूरा होता है।

भारत में संसार के अन्य सभी देशों की तुलना में फल और शाकों की भारी कमी है। फलों की वार्षिक उपज 60 लाख टन और तरकारियों की 40 लाख टन है। इसका अर्थ हुआ हर व्यक्ति पीछे 1.6 ओंस फल और 1.3 ओंस तरकारी। जबकि स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार हर व्यक्ति को कम से कम 3 ओंस फल और 10 ओंस तरकारी स्वास्थ्य संरक्षण की दृष्टि से आवश्यक है।

फल महँगे पड़ें तो मौसमी सस्ते फलों से भी काम चल सकता है। अमरूद, आम, बैर, जामुन आदि फल अपनी ऋतुओं पर प्रायः सस्ते ही बिकते हैं। खरबूजा, तरबूजा, ककड़ी, खीरा जैसे बेलों पर लगने वाले फल भी गरीबों के लिए कीमती फलों की आवश्यकता पूरी कर सकते हैं। गाजर, टमाटर, मूली, भिंडी आदि शाक ऐसे हैं जो कच्चे खायें जा सकते हैं। पालक, सलाद आदि की पत्तियाँ बहुत उपयोगी होती हैं। नीबू और आँवला अधिक महँगे नहीं होते, पर उपयोगिता की दृष्टि से उनकी गिनती किसी कीमती फल से कम नहीं।

शाकों को पकाने में हम बहुत भूल करते हैं। यह नहीं सोचते कि अधिक जलाने-भूनने से उनके पोषक तत्व नष्ट हो जायेंगे और फिर उस निर्जीव भोजन से पेट भरने के अतिरिक्त और कोई प्रयोजन सिद्ध न होगा। शाकों को पकाने में यदि थोड़ी सावधानी बरती जाय तो उसकी उपयोगिता अक्षुण्ण रह सकती है।

केवल ताजी और अच्छी तरकारियाँ छाँटिये, सस्तेपन के लोभ में सड़ी-गली और बासी-बुसी मत खरीदिये। चूँकि वे खरीदी जा चुकी इसलिए अब तो उनकी पेट में डाल ही लिया जाय, इस तरह मत सोचिये। खराब चीजें खरीदने में पैसा चला गया ता अब उसके साथ ही स्वास्थ्य भी गवा देना चाहिए।

पकाने से पूर्व उन्हें अच्छी तरह घोल लीजिये ताकि उनके ऊपर चिपकी हुई अदृश्य से ठीक तरह छुटकारा पाया जा सके।

उतनी पकाइये जितने से वे खाने योग्य थोड़ी मुलायम हो जायँ। देर तक इतना मत पकाइये जिससे वे बुरी तरह धुल जायं। स्मरण रखिये उन्हें जितना अधिक पकाया जायेगा उतना ही उनका पोषक तत्व नष्ट होता चला जायगा।

जहाँ तक हो सके पानी में उबालने की अपेक्षा भाप से उबालिये। तेज आग की अपेक्षा मन्दी आग का उपयोग कीजिए, भले ही पकाने में कुछ देर लग जाय। जब पानी खोलने लगे तब उसमें सब्जियाँ डालिए, आरम्भ में ही डाल देने पर अधिक देर अग्नि संस्कार के कारण वे अपना गुण खो बैठती हैं। प्रेशर, कुकर या कोयले से प्रयुक्त होने वाले भाप कुकर सब्जियाँ पकाने की दृष्टि से सर्वोत्तम हैं।

पकाने में पानी उतना ही डालिए जो उन्हीं में खप जाय, फेंकना न पड़े। इस पानी में सब्जियों का बहुत सा सार तत्व रहता है। फेंकने की अपेक्षा तो उसे सूप बनाकर पी लेना अच्छा है।

जहाँ तक सम्भव हो छिलके समेत सब्जियाँ पकाइये। बहुत कड़े या अत्यन्त अस्वाद छिलके ही हटाने चाहिए। बहुत छोटे टुकड़े काटने की अपेक्षा बड़े टुकड़े रहने दीजिए।

सन्तरे का रस निकालकर यदि उसे आधा घण्टा पड़ा रहने दिया जाय तो उसमें रहने वाला विटामिन सी. नष्ट हो जायगा। काटकर खुले पटक देने पर अन्य फल भी अपनी विशेषता खो देते हैं। शाक-भाजियों में रहने वाले विटामिनों का भी यही हाल है। उन्हें यदि तेज आग पर पकाया जायगा तो बहुमूल्य तत्व नष्ट हो जायेंगे और शाक की छूंछ भर खाने के लिए शेष रह जायगी। घी, तेज, आदि में भून डालने पर तो उनका रहा-सहा कचूमर भी निकल जाता है और वे शाक-भाजियाँ की कोयला भर बनकर शेष रह जाती हैं। स्वाद का उद्देश्य भले ही पूरा हो जाय, पर वह प्रयोजन तो कोसों पीछे रह जायगा, जिसमें स्वास्थ्य संवर्धन के लिए शाक-भाजियों की आवश्यकता का प्रतिपादन किया गया है।

बर्तनों में सबसे हानिकारक और कुरूप है कढ़ाई। उसका पैंदा ही सदा काला नहीं रहता, हर खाद्य-पदार्थ का प्राकृतिक सौंदर्य नष्ट करके उसे भी वह काला कलूटा, कलुषित और कुपाच्य बना देती है। तलने और भूनने के बराबर खाद्य-पदार्थों के साथ दूसरा अत्याचार नहीं है। पूड़ी पकवान, मिठाई तथा तले-भुने शाक, पकौड़े, नमकीन आदि भी उसी में पकते हैं। यह सारी चीजें सर्वथा हानिकारक ही है, पर उनसे धन तथा समय की बर्बादी, पेट की तबाही और स्वास्थ्य की गड़बड़ी जैसी अनेकों हानियाँ उत्पन्न होती हैं। इन हानियों के साधन जुटाना ही जिसका एकमात्र काम है, उस कढ़ाई को कलमुँही कहें तो उचित है। उसे देश निकाला न दिया जा सके तो कम से कम चौके से बाहर तो रखना ही चाहिए।

फसल पर कच्चे अन्न मिलते हैं, वे सूखे और पिसे अनाज की तुलना में कहीं अधिक पोषक होते हैं। मक्का, उबार, बाजरा, गेहूँ, मटर आदि को थोड़ा-सा भून लेने पर वे और भी अधिक स्वादिष्ट हो जाते हैं, वैसे उन्हें कच्चा भी खाया जा सकता है। सूखे अन्न को भी पानी में भिगोकर अंकुरित किया जा सकता है। और उन्हें कच्चा अथवा उबाल कर खाया जा सकता है। रोटी की अपेक्षा तो कम पीसा, कम जलाया-तपाया दलिया भी अधिक लाभदायक होता है।

सूखे बीजों में जीवन तत्व बहुत स्वल्प मात्रा में होता है। उन्हें अंकुरित कर लेने पर पोषक तत्व कई गुने बढ़ जाते हैं। उनमें ऐसे रासायनिक परिवर्तन हो जाते हैं। जिससे पाचन अधिक सरल हो जाय। अंकुरित बीजों के अणु अमिनोएसिड के रूप में बदल जाते हैं और उनकी पौष्टिकता तथा पाचन क्षमता में आशाजनक वृद्धि हो जाती है। अंकुरित बीज फल, सब्जी और माँसाहार की आवश्यकता पूरी कर सकते हैं। गेहूँ, जौ, चना, सोयाबीन, मूँग, मसूर, मटर, मूँगफली जैसे बीजों को अंकुरित करके खाया जाय तो वे साधारण आटे या दाल के रूप में खाने की अपेक्षा कहीं अधिक गुणकारक सिद्ध होंगे।

कूड़ा-करकट बीने हुए, अनाज को स्वच्छ जल में धोकर किसी काँच या चीनी के बर्तन में रखकर उस पर इतना पानी डालें जिसमें कि वह डूब जाय। इसे 24 घण्टे पानी में डूबा रहने दें। इसके बाद पानी निकाल कर उसे किसी मोटे कपड़े में लपेट कर लटका दें। 24 घंटे इसी तरह टँगी रहने दें। बीच-बीच में पोटली पर पानी के छींटे देते रहें ताकि कपड़ा सूखने न पावे। अनाज अंकुरित हो जायगा। स्थान एवं ऋतु के अनुरूप अंकुरित होने में थोड़ा न्यूनाधिक समय भी लग सकता है।

बिना पकाये अन्नों के प्रयोग में गेहूँ की घास बना कर खाने की एक नई कड़ी और जुड़ी है और उस विधि को प्रयोगकर्ताओं एवं उपभोग कर्त्ताओं द्वारा अतीव उपयोगी बताया गया हैं।

अमेरिका की एक महिला डाक्टर एन. विरामोर ने अंग्रेजी भाषा में एक 30) मूल्य का ग्रन्थ प्रकाशित किया है-’हृीट ग्रोस मेनुअल”। इस पुस्तक में उनके उन अनुभवों और प्रयोगों का उल्लेख है, उन्हें गेहूँ की घास का सेवन कराकर अनेक रोगियों को चँगा करने का विस्तृत विवरण लिपिबद्ध किया है। वे गेहूँ की घास के रस को हरा रक्त कहती हैं और बताती हैं कि यह रस मनुष्य के रक्त से 40 फीसदी मेल खाता है। वे कहती हैं कि इसके सेवन से रोग निरोधक शक्ति आश्चर्यजनक रीति से बढ़ती है और पोषण के लिए उपयुक्त इतने बहुमूल्य तत्व उपलब्ध होते हैं, जितने अच्छी से अच्छी खुराक से भी प्राप्त नहीं होते। इसे किसी भी रोग में दवा के रूप में दिया जा सकता है और कोई भी इसे श्रेष्ठतम पोषक आहार के रूप में सेवन कर सकता है।

इस हरित रक्त को बनाने की विधि बहुत सरल है। 10-12 टूटे-फूटे टोकरे या लकड़ी की रद्दी पेटियाँ ले लीजिए, उन में खाद मिली मिट्टी भर दीजिए। इनमें बारी-बारी गेहूँ के अच्छे बीज बोइये। इन्हें छाया में रखिए और पानी देते रहिए। तीन-चार दिन में वे उग आवेंगे, और आठ -दस दिन में एक बालिश्त (7-8 इंच) ऊँचे हो जायेंगे। इनमें से पहले दिन बोये हुए गेहूँ के 30-40 पेड़ उखाड़ लीजिए। जड़ें काटकर हटा दीजिए। अंकुरों को धोकर थोड़े पानी के साथ सिल पर पीसकर कपड़े में छान लीजिए। बस हो गया “हरित रक्त” तैयार इसका एक गिलास नित्य पिया जाय।

दूसरे दिन, दूसरे दिन के बोये अंकुर लिये जायं। जिस टोकरे में से उखाड़ लिए गये हैं, उनमें फिर बो दिया जाय ताकि कम बराबर बना रहे। एक और से समाप्त होते जाएँ तो दूसरी और से वे बोये और उगाये जाते रहें। इस प्रकार सिलसिला टूटने न पायेगा और सदा ही यह गेहूँ की घास मिलती रहेगी। यह ध्यान रखने की बात है कि अंकुर उखड़ने के बाद यथासम्भव जल्दी ही उन्हें, पीसने, रस निकालने और पीने का कार्य पूरा कर लिया जाय। रस को दूर तक नहीं रखा जा सकता। एक घंटे में ही वह गुणहीन होने लगता है और तीन-चार घंटे रखा रहने पर तो वह बिल्कुल बेकार हो जाता है। हाँ पौधों को उखाड़ कर आवश्यकतानुसार 4-6 घंटे रखा भी जा सकता है। वैसे उनका भी ताजा सेवन ही अधिक लाभदायक है।

उपरोक्त महिला डाक्टर ने रोगी और नीरोग सभी पर इस गेहूँ घास रस के चमत्कारी सत्परिणामों का वर्णन किया हैं और कहा है कि वह रस दवा और टानिक दोनों का ही काम करता है।

एक और प्रयोग भी उनने लिखा है-जो गेहूँ घास रस की बराबर तो नहीं फिर भी बहुत कुछ लाभदायक है। यह विधि यह है कि आधा कप धुले बिने गेहूँ किसी काँच या चीनी के बर्तन में डालिये और उन पर दो कप पानी डालकर ढक दीजिए। 12 घण्टे बाद गेहूँ को मसल कर अलग कर दीजिए और पानी को छानकर पीजिए। यह पानी भी बहुत गुणकारी है। भीगे हुए गेहूँ दलिया आदि में काम लिये जा सकते हैं या उबाल कर-अंकुरित कर काम में लाये जा सकते हैं।

साराँश यह है कि खाद्य पदार्थों को यथासम्भव उनके प्राकृतिक रूप में लिया जाय। कम से कम भूना पकाया जाय और उनके उपयोगी अंश को नष्ट न होने दिया जाय। इतनी मामूली-सी सावधानी बरती जा सकें तो अपना गरीबी जैसा उपलब्ध आहार भी अपनी पोषक विशेषताओं को बनाये रह सकता है और उससे भी स्वास्थ्य रक्षा का प्रयोजन पूरा होता रह सकता है।


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