हमारी सबसे प्रमुख और सबसे प्रधान आवश्यकता

January 1974

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मनुष्य जिस धातु से, जिस कारीगरी से बनाया गया हैं, उसकी तुलना में दूसरा कुछ इस संसार में है नहीं। उसके अन्दर एक से एक अद्भुत और एक से एक अनुपम क्षमतायें सँजोकर रखी गई हैं। यदि कोई उन्हें जागृत कर सके और उपयोगी प्रयोजनों में क्रमबद्ध रूप से नियोजित कर सके तो समझना चाहिए कि अप्रत्याशित चमत्कारों जैसी उपलब्धियाँ, सफलताऐं शृंखलाबद्ध रूप से सामने आकर खड़ी होती चली जायेंगी। महामानवों में इतनी सृजनात्मक शक्ति होती है, जिस पर हजारों महादानवों की ध्वंसात्मक शक्ति को निछावर करके फेंका जा सके। अपने सृजेता के अनुरूप मनुष्य सचमुच अनुपम है—अद्भुत है।

इस तथ्य को पुरातन−काल के तत्वदर्शी मनीषियों ने समझा था। इसलिए उनने अपना मान सब ओर से हटा कर इस एक केन्द्र−बिन्दु पर एकाग्र किया कि मनुष्य की गुह्य−शक्तियों के प्रकटीकरण के वैज्ञानिक प्रयोगों में संलग्न रहा जाय। उन क्षमताओं को ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए हर सम्भव प्रयत्न किया जाय, बाल−क्रीड़ा में उन महान विभूतियों के नष्ट−भ्रष्ट होने की अपेक्षा उन्हें रचनात्मक प्रयोजनों में नियोजित किया जाय, ऋषि−जीवन का महान प्रयोजन यही था। इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अपने को तपाया, सधाया और ऐसा उपकरण बनाया, जिसके द्वारा सामान्य स्थिति के जन−समूह को अभीष्ट दिशा में सरलतापूर्वक मोड़ा जा सके।

यही है संक्षेप में—ऋषि−जीवन का भेद भरा रहस्य। यह इतना उपयोगी और महत्वपूर्ण था कि उन्होंने कष्टों और अभावों की, असुविधाओं की चिन्ता किये बिना आत्म−निर्माण के लिए आवश्यक तितीक्षाऐं और तपश्चर्याऐं अपनाई। साथ ही अपनी कार्य−पद्धति में एक ही तथ्य जोड़ा कि मनुष्यों का भावना−स्तर विकसित और परिष्कृत करने में अनवरत रूप से संलग्न रहा जाय। साधु−संस्था के सदस्य यही करते थे। उनके उपासनात्मक, साँस्कृतिक, शैक्षणिक, कर्मकाण्डात्मक विविध−विधि प्रयोग इस एक उद्देश्य के लिए ही होते थे कि मानवी−चेतना की पशु−प्रवृत्तियों से अस्त−व्यस्त होने से बचा कर उन्हें महान् प्रयोजनों में नियोजित किया जाय।

इसे गर्व और हर्ष के साथ स्वीकार किया जाना चाहिए कि ऋषि−जीवन से सम्बन्धित उपयुक्त प्रयोजन पूरी तरह सफल हुआ था। अध्यात्म और धर्म के कलेवर ने इस लक्ष्य को पूरा करने में अपनी सफल भूमिका निबाही थी। उन दिनों हर मनुष्य में एक उमंग उठती कि −”वह आदर्शों से भरापूरा अनुकरणीय जीवन जियें और दूसरों के अनुगमन के लिए श्रेयानुवर्ती पद−चिन्ह छोड़ें। उसे संकीर्ण−स्वार्थ परायण—पेट और प्रजनन भर के लिए जीवित रहने वाले नर−पशु न समझा जाय। उसकी गणना जन−कल्याण के लिए महत्वपूर्ण त्याग, बलिदान कर सकने वाली साहसी शूरवीरों में गिना और सराहा जाय। मरण के उपरान्त भी उसका यश−शरीर जीवित रहे। शरीर से कष्ट−ग्रस्त भले ही रहना पड़े, पर अन्तरात्मा के सन्तोष उल्लास में कमी न पड़ने पावे”।

इन आध्यात्मिक महत्वाकाँक्षाओं की उमंगें जन−मानस में उठाने के लिए, उन्हें प्रबल और परिपुष्ट करने के लिए साधु−संस्था निरन्तर प्रयत्नशील रहती थीं। यही एक तो उसका लक्ष्य था। धर्म और अध्यात्म का विशालकाय कलेवर इसी निमित्त तो गढ़ा गया था। ब्रह्म−विद्या, तत्व−दर्शन, आत्म−ज्ञान, ईश्वर−मिलन, स्वर्ग−मुक्ति, लक्ष्य प्राप्ति आदि के सहारे बहुत कुछ सोचने−समझने और करने−कराने के लिए प्रस्तुत किया गया है। उस सबका एक मात्र प्रयोजन इतना ही है कि मानवी−चेतना की निकृष्ट पशुता से परिष्कृत करके देवत्व की उत्कृष्टता तक ऊँचा उठाकर ले जाया जाय। जो इस दिशा में जितना बढ़ सके—वह उतना ही बड़ा धर्म−परायण, उतना ही महान ईश्वर भक्त कहा जाता था। ऋषियों ने अपना जीवन इसी महिमामयी मानवता को सुविकसित करने के लिए अपने को समर्पित किया था। वे धन्य हुए और उनके प्रयासों से समस्त मानवता धन्य हुई। विश्व−वसुधा ने इन ऋषि−प्रयासों से हर दृष्टि से कृतकृत्य बनाया। ऋषि−जीवन के इन अनुदानों के पीछे भारत की सारी प्राचीन प्रगति झाँकती मिलेगी।

इतिहास के पृष्ठों को जब हम उलट−पलट कर देखते हैं तो एक ही तथ्य उभर कर सामने आता है कि प्राचीन भारत में साधनों का भले ही अभाव रहा हो, पर कुछ ऊंचा कर गुजरने का दुस्साहस आँधी−तूफान की तरह उफनता रहता था। जिस तरह आज वासना और तृष्णा का मानवी मन पर आधिपत्य है, उसी प्रकार—वरन् उससे भी प्रबल वेग के साथ हर विचारशील मनुष्य पर यह आवेश छाया रहता था कि वह अनुकरणीय आदर्शवादिता के लिए तप, त्याग भरा दुस्साहस प्रकट कर सकने वाले शूरवीरों में गिना जाय। महामानवों की पंक्ति में उसे स्थान मिले, आत्मा और परमात्मा के दरबार में वह ऊँचा मस्तक लेकर प्रवेश पा सके। यह उच्चस्तरीय महत्वाकांक्षायें इतनी प्रबल होती थीं कि विलासिता, तृष्णा और अहमन्यता जैसी हेय ऐषणाओं को सिर उठाने का अवसर ही नहीं मिल पाता था। पशु−प्रवृत्तियों की दिशा में जिसका मन ललचाता—उन्हें उस समय के प्रखर वातावरण में हर दिशा से भर्त्सना ही बरसती दिखाई पड़ती। आत्मा कचोटती सो अलग। ऐसा वातावरण बौद्धिक−प्रवाह उत्पन्न करने का श्रेय उस समय की सजग साधु−संस्था को ही दिया जा सकता है। वे इसी के लिए निरन्तर ताना−बाना बुनते थे। उनके विविध क्रियाकलाप इसी एक लक्ष्य की दिशा में मानवी अन्तःकरण को घसीट ले जाने के लिए होते थे। जहाँ इतनी सघन एकनिष्ठ तपः पूत सतत−साधना जुड़ी हुई हो, वहाँ अभीष्ट सफलता मिलनी ही थी, मिली भी। भारत—आदर्शवादी महामानवों का देश था। उत्कृष्ट व्यक्तित्वों का अस्तित्व चमत्कारी होता है। उसकी उपस्थिति पग−पग पर स्वर्गीय परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है। भूतकाल में भारत ने अपने देश में और संसार भर में जो भूमिका निबाही उसका आधार उन दिनों के सुविकसित लोक−मानस को बिना संकोच के माना जा सकता है।

आज जिस प्रकार मनुष्य दूसरों का शोषक बना हुआ है, ठीक उससे उलटे स्तर की प्रवृत्तियाँ भूतकाल में थीं। लोग पाकर नहीं, देकर प्रसन्नता अनुभव करते थे। आज विलासी और संग्रही भगवान समझे जाते थे, पर आज तो इन्हीं अहंकारियों को चापलूस घेरे रहते हैं। समाज का ऋण चुकाने के लिए जो परमार्थ प्रयोजनों में, अपनी क्षमतायें अर्पित करने में—जिसका साहस न पड़ा, उसे कृपण और कंगाल की भर्त्सना मिली। आज तो अपराधी, धूर्त और दुष्ट भी अपने कुकर्मों पर गर्वोक्तियां करते पाये जाते है। उस समय उन्हें कोढ़ी और कलंकी की तरह समाज में बहिष्कृत कर दिया जाता था। राज्य−दण्ड पाने से पूर्व ही समाज−दण्ड के वज्र−प्रहार से उनकी कमर टूट जाती थी। ऐसा था—उस समय का वातावरण, जिसे साधु−संस्था ने, सन्त और ब्राह्मणों ने अनवरत श्रम−साधना के साथ विनिर्मित किया था।

इतिहास बताता है कि उस समय के जन−साधारण ने लोभ और मोह से जीवन−मुक्ति प्राप्त कर ली थी। मुट्ठी भर अनाज पेट भरने के लिए कहीं भी किसी को भी मिल जाता है। इसके अतिरिक्त जिन्हें महान कार्यों की ही चिंता रहे वे एक से एक बढ़े−चढ़े सत्कार्य सम्पन्न करते रहेंगे और उनका लाभ समस्त समाज को मिलता रहेगा। ऐसे लोगों के लिए समस्त विश्व अपना घर था, समस्त मानव−जाति अपना परिवार। अस्तु वे देश−विदेश का अन्तर किये बिना जहाँ भी आवश्यकता, उपयोगिता अनुभव करते थे, वहीं चल पड़ते थे। संसार के कोने−कोने में वे इन्हीं प्रेरणाओं से प्रेरित होकर पहुँचे थे और अपनी−अपनी क्षमताओं के अनुरूप पिछड़े क्षेत्रों को लाभ पहुँचाये थे। कही जाकर शासन−तन्त्र बनाना और चलाना सिखाया तो कहीं कृषि, व्यवसाय, शिल्प, विज्ञान के आधार खड़े किये। कहीं वे धर्म−प्रचारक बनकर पहुँचे, कहीं रुग्णता से जूझने के लिए करुणा ने उन्हें चिकित्सक का कार्य करने के लिए भेजा। अनीति से लड़ने में भी वे पीछे नहीं रहे। जहाँ अनाचार ने आतंक उत्पन्न कर रखा था, वहाँ प्राणों को हथेली पर रखकर उससे जूझे और तब तक लड़े, जब तक कि न्याय की स्थापना न हो गई। यही हैं, पुरातन भारत द्वारा विनिर्मित विश्व−इतिहास का ढाँचा।

घर−परिवार में स्नेह−सौजन्य की धाराऐं बहती थीं। पतिव्रत और पत्नीव्रत के आदर्श दो शरीर एक प्राण का जीवन्त प्रमाण प्रस्तुत करते थे। दाम्पत्य मर्यादा से बाहर ही हर नारी—बहिन, पुत्री और माता थी, इस क्षेत्र में नारी ने अपना स्तर और भी अधिक ऊँचा उठाकर रखा था। भाई−भाई के बीच, बहिन−भाई के बीच, पिता−पुत्र के बीच, माता और सन्तान के बीच जो स्नेह−सौजन्य बिखरा पड़ता था, उसने घास−फूंस के घरों को ऐसा हर्षोल्लास युक्त बना दिया था—जिस पर स्वर्ग की सुषमा को निछावर किया जा सके।

वैयक्तिक क जीवन में सादगी सदाचार, स्नेह, संयम, विनय, सौजन्य, माधुर्य, सहकार एवं औदार्य की छटा देखते ही बनती थी। पवित्रता का बाहर और भीतर पूरा साम्राज्य था। छल, प्रपंच से कोसों दूर सरलता एक दूसरे का मन मोहती थी। लोग थोड़े से भी बहुत सन्तुष्ट थे। विनोदी और जागरूक प्रवृत्ति ने हर व्यक्तित्व में आकर्षण भर दिया था। सत्य और शिव की उपासना में निरत हर किसी का सौंदर्य देखते ही बनता था। जहाँ कषाय और कल्मष नहीं, वहाँ कुरूपता कैसे पैर जमा सकेगी? जिधर भी दृष्टि पड़े, उधर ही बसन्ती सौंदर्य बिखर पड़े, ऐसा था−उन दिनों का वातावरण।

आज का हमारा सोचने और देखने का तरीका अलग है। अपने ज्ञान−चक्षु बन्द है, केवल चमड़े की आँखें खुली हैं। उनसे मात्र भौतिक पदार्थ और साधन दीखते हैं। कल−कारखाने, रंग−मञ्च, भवन, वाहन आदि के साथ हम प्रगति को जोड़ते हैं। जिसके पास जितना अधिक विलासी संग्रह और उद्धत वैभव है, उसे उतना बड़ा सम्पन्न मानते हैं। प्रतिष्ठा कलावन्तों के अधिकार में चली गई है। मल्ल, नट, नर्तक, गायक, लेखक आदि के करतब देखकर लोग हर्षित होते हैं और वैसे बनना चाहते हैं। वैज्ञानिक, शिल्पी, डाक्टर, इञ्जीनियर आदि को समृद्ध उत्पादक कहा जाता है। तदनुरूप ही उनका महत्व माना जाता है, पुरस्कार दिया जाता है। लोक−नायक की परिभाषा में आज केवल राजनेता या विग्रह उत्पन्न करने वाले आते हैं। यह मूल्यांकन चर्म−चक्षुओं के आधार पर ही ठीक हो सकता है। यदि विवेक−दृष्टि से देखें तो यह सारी उपलब्धियाँ मिलकर भी मानव−कल्याण का उतना साधन नहीं जुटा सकतीं, जितना कि प्राचीनकाल की अकेली साधु−संस्था जन−मानस का स्तर ऊँचा उठाने के अकेले कार्य द्वारा सम्पन्न करती थी।

सुविधा साधन कितने ही क्यों न बढ़ जायँ, सम्पत्ति का उपार्जन कितना ही अधिक क्यों न बढ़ जाय, जब तक मानवी दृष्टिकोण का परिष्कार न होगा, तब तक न पतन रुकेगा और न सर्वनाशी संकट से छुटकारा मिलेगा। इन दिनों शिक्षा की, चिकित्सा की तथा सुविधा साधनों की दृष्टि से पूर्वजों से कहीं आगे हैं, पर इस एकाकी प्रगति से काम कुछ नहीं बना। उलटे स्वास्थ्य, सन्तुलन, चरित्र, सौजन्य आदि से महत्वपूर्ण था, उसे गँवाते ही चले जा रहे हैं। पारिवारिक स्नेह सद्भाव के बन्धन अब तक समाप्त ही होने जा रहे हैं। अर्थलिप्सा ने मनुष्य को शोषक भर बना छोड़ा है। छल ने सभ्यता का आवरण पहन लिया है। न किसी को किसी की ममता है, न किसी से स्नेह सहानुभूति। सब अपनी आपाधापी में उलझे हैं। व्यस्तता और व्यग्रता चरम सीमा पर पहुँचती जा रही है। मनुष्य अपने को सर्वथा एकाकी और असुरक्षित अनुभव करता है। इसे प्रेत−पिशाच का जीवन की कह सकते हैं। इन परिस्थितियों के रहते यदि तथाकथित प्रगति और सम्पत्ति की चकाचौंध सामने आयी भी तो उससे किसका क्या बनेगा? व्यक्तियों का सामूहिक असमंजस समाजगत विभीषिकाओं के रूप में किस प्रकार सामने आता है, इसे हम अगणित उलझनों में उलझे विश्व को दयनीय दुर्दशा के रूप में प्रत्यक्ष देख रहे हैं।

व्यक्ति और समाज को उबारने के लिए हमें फिर पीछे लौटना होगा। दृष्टिकोण के परिष्कार का, भावनात्मक पुनरुत्थान का, उत्कृष्टतावादी आदर्श−परायण कर्तृत्व को—फिर समझना होगा। इसके बिना प्रस्तुत सर्वग्राही संकटों से बच सकना सम्भव न हो सकेगा। स्पष्ट है कि भावनात्मक नव−निर्माण के लिए वाणी और लेखनी के साधन पर्याप्त न होंगे। उसे उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों से सुसम्पन्न साधु−संस्था का पुनर्जागरण ही सम्भव कर सकता है। इस युग की यही सबसे बड़ी और सबसे प्रमुख आवश्यकता है।


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