कनिष्ठ वानप्रस्थों की स्वल्पकालीन शिक्षा−दीक्षा

January 1974

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क्लिष्ट वानप्रस्थों के लिए दो महीने का प्रारम्भिक प्रशिक्षण आवश्यक है। इसकी समुचित व्यवस्था करली गई हैं। शान्ति−कुञ्ज सप्त−हरिद्वार में एक महीने का सैद्धान्तिक एवं बौद्धिक प्रशिक्षण चलेगा। क्या करना होगा? कैसे करना होगा? इन प्रश्नों का प्रत्येक पहलू समझाया जायगा। जन−संपर्क के लिए वाणी का मुखर होना आवश्यक है।

कई व्यक्तियों के मस्तिष्क में विचारों की पूँजी विपुल मात्रा में होती हे, किन्तु उसे वाणी से प्रकट करने का जब अवसर आता है तो लड़खड़ा जाते हैं। झेंप चढ़ आती है, गला सुख जाता हे और जो कहना चाहते थे, वह कह नहीं पाते। जन−समूह को देखकर संकोच में मन गढ़ जाता है और जो विचार कहने की इच्छा से मञ्च पर आये थे, वे न जाने कहाँ गायब हो जाते हैं। निदान टूटे−फूटे दो−चार शब्द कहकर उपहास कराते हुए चुप बैठना पड़ता है। यह कठिनाई ऐसी है, जिसे हल करना प्रत्येक जन−संपर्क में आने वालों के लिए नितान्त आवश्यक है। वाणी की तलवार पर धार ने चढ़ी होगी तो विचार–संघर्ष के मैदान में लड़ा किस तरह जायगा?

जन−संपर्क में आने वाले का व्यक्तित्व अधिक आकर्षक और प्रभावोत्पादक होना चाहिए, अन्यथा कोई उससे प्रभावित ही न होगा। प्रभावशाली बनने के लिए कपड़ेलत्ते काम नहीं देते। सजधज को आकर्षक बनाने की बात बिलकुल बचकानी है। बनावटी भाव–भंगिमा दिखाने और हाथ मटकाने से प्रभाव डालने की बात सोचना निरर्थक है। उत्तेजित और आवेशग्रस्त होकर भी दूसरों के मन पर कोई अच्छी छाप नहीं छोड़ी जा सकती। जितने भी उथले, ऊपरी और बनावटी तरीके इस प्रयोजन के लिए काम में लाये जाते हैं, वे सभी असफल सिद्ध होते हैं। इतना ही नहीं, वे उस बनावट के प्रति उल्टे घृणा करने लगते हैं और आदमी को ओछा एवं ढोंगी गिनने लगते हैं। वास्तविक प्रभाव तो उन सद्गुणों का होता है, जो मनुष्य के व्यक्तित्व का अविच्छिन्न अंग बनते रहते हैं और शरीर की सामान्य चेष्टाओं से ही आन्तरिक वस्तुस्थिति प्रकट करते रहते हैं। ऐसे परिष्कृत व्यक्तित्व सादगी भरे सामान्य वेष में भी बड़े सुन्दर और आकर्षक लगते हैं। दूसरों के मन पर अपनी गहरी छाप छोड़ते है।

दो महीने की प्रशिक्षण अवधि में दूसरों पर प्रभाव डालने वाले दोनों ही आवश्यक प्रयोजनों का रहस्य एवं मर्म सिखाया जाता है ओर निरन्तर अभ्यास कराया जाता है। वक्तृत्व−कला का अभ्यस्त होना जन−संपर्क का कार्यक्षेत्र चुनने वाले के लिए आवश्यक है। इसी प्रकार यह भी जरूरी है कि उसका व्यक्तित्व आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक हो। लोग उसे ओछा, बचकाना, मूर्ख अथवा असंस्कृत अव्यवस्थित न समझें। आन्तरिक विशेषतायें रहते हुए भी कितने ही व्यक्ति ऐसी छोटी−छोटी कुसंस्कारी आदतों के अभ्यस्त हो जाते हैं, जो होती तो बहुत ही छोटी है, पर उनका देखने वालों पर, संपर्क में आने वालों पर बुरा प्रभाव पड़ता हैं और उस तनिक से कारण पर लोग बहकने लगते हैं, अपनी बुरी राय बनाने लगते हैं। आत्मनिरीक्षण के लिए सूक्ष्म दृष्टि नहीं होती—दूसरा कोई बताने ओर सुझाने का काम करता नहीं, क्योंकि इसमें बुरा मान जाने की आशंका रहती है। इसलिए व्यक्तित्व की बहिरंग प्रक्रिया अस्त−व्यस्त पड़ी रहती है और उस छोटी−सी कमी को दूर न कर पाने के कारण जन−संपर्क में आने वाला कार्यकर्ता बहुत घाटे में रहता है, जो करना चाहता है, वह कर पाता। अस्तु दो महीने के प्रशिक्षण में वक्तृत्व−कला के साथ−साथ आकर्षक व्यक्तित्व का निमार्ण भी आरंभिक एवं आवश्यक प्रशिक्षण में सम्मिलित किये गये हैं।

आत्म−बल का अभिवर्धन मनुष्य की आस्थाओं से सम्बन्धित हैं। उच्चस्तरीय आस्थाओं को अन्तःकरण में प्रतिष्ठापित ओर परिपक्व करने के आधार पर मनुष्य का ब्रह्मतेज निखरता है। और उसके प्रभाव से सिंह, व्याघ्र जैसे हिंस्र पशु ओर दुष्ट−दुरात्मा प्रकृति के असुर सी हतप्रभ होते हैं। यथार्थ और गहन प्रभाव अन्तः करण से ही प्रादुर्भूत होता है। यही मानव−जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि, विभूति और सम्पदा है। इसे प्राप्त करने के लिए तप करना पड़ता है। इसी का नाम योगाभ्यास है। अमुक विधि−विधानों एवं कर्मकाण्डों की सहायता से आस्तिकता एवं ब्रह्म–चेतना के विकास की साधना कराई जाती है। यह साधना कम भी क्लिष्ट वानप्रस्थों की शिक्षा पद्धति में सम्मिलित रखा गया है। उनकी स्थिति एवं प्रकृति के अनुरूप साधना कराई जाती है ओर स्पष्ट रूप से समझा दिया जाता है कि इन विधि−विधानों और कर्मकाण्डों को ही जादू की छड़ी न मान बैठें, वरन् यह समझे कि जिस प्रकार सीढ़ी के सहारे ऊपर जीने पर चढ़ा जा सकता है, उसी प्रकार अन्तःकरण में सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन का प्रयास कराया जा रहा है। यदि आन्तरिक मलीनताओं के उन्मूलन का प्रबल प्रयत्न न किया गया, भावना−क्षेत्र में उत्कृष्ट देव−तत्वों को आरोपण न किया तो मात्र विधिविधान करते रहने से बात बनेगी नहीं। तप साधना एवं योगाभ्यास के कर्मकाण्ड शरीर एवं मन से किये वैचारिक दुस्साहस अपनाया जाय। इस समन्वयात्मक पद्धति से की गई संरचनाएं सदा सफल होती रही हैं। उनसे साधकों का आत्मबल निश्चित रूप से बढ़ता है और उस उपलब्धि का मूल्य बड़ी सम्पदा से अधिक होता है।

इस दो महीने की अवधि में आत्म−शोधन, ईश्वर, सान्निध्य—देवत्व का अवतरण कराने वाली साधन−प्रक्रिया हर शिक्षार्थी की उसके स्तर के अनुरूप कराई जाती है और आशा की जाती है कि इस मार्ग पर चलते हुए साधना आत्मा को परमात्मा स्तर तक—नर को नारायण बनाने तक—पहुँचाने के जीवन−लक्ष्य तक क्रमिक रूप से बढ़ता जायगा और अन्तर पूर्णता का— जीवन−मुक्ति का परम पद प्राप्त करेगा। कहना न होगा कि इस दिशा में जो जितना आगे बढ़ सकेगा, वही साधु संस्था की सदस्यता कास प्रयोजन उतनी ही मात्रा में सम्पन्न कर सकेगा। वानप्रस्थ में प्रवेश किस लक्ष्य को लेकर किया जा रहा है—उसकी पूर्ति के लिए प्रचण्ड आत्मबल ही वास्तविक पूँजी है। प्रशिक्षण−काल में इस संदर्भ में प्रत्येक पक्ष से शिक्षार्थी को अवगत कराया जाता है और साधना प्रयोजन में निरन्तर प्रकाश एवं सहयोग दिया जाता है।

साधु−संस्था का बहिरंग प्रयोजन लोक−निर्माण का प्रतीत होता है, पर वस्तुतः वह आत्म−निर्माण का ही प्रतिफल है। अपना निर्माण करने वाला ही दूसरों का निर्माण कर सकता है। वाणी और लेखनी द्वारा प्रचार−कार्य का—बौद्धिक उत्साह कास प्रयोजन पूरा हो सकता है, पर यदि दूसरों को कुछ बनाना बदलना हो तो इसके लिए अपने को ही ‘साँचे के रूप में विनिर्मित करना होगा। जनता को मिट्टी कहा जा सकता है और लोक−नेता को साँचा साँचे में ढालकर मिट्टी से खिलौने बनाये जाते हैं। साँचे जैसी आकृति बनी होगी, खिलौने भी उसी आकृति के बन चले जायेंगे। लोक−निर्माण के क्रियाकलापों को ‘सूखी मिट्टी की जाली बनाना और उसे साँचे के साथ चिपकाना भर कह सकते हैं। असल तत्व तो साँचा हैं,लोक नेता व आन्तरिक व्यक्तित्व हैं। इसे लाख प्रयत्न करने पर कोई देर तक छिपा नहीं सकता, एक अन्तरात्मा दूसरी आत्मा की वस्तुस्थिति को सहज ही जान लेती है। डडडड और बनावट के पर्दों में वस्तुस्थिति देर तक न छिपी रहती। लोक−निर्माण में सफलता केवल उत्कृष्ट सम्पन्न महान् व्यक्तित्वों को मिली है। धूर्तता भरी प्रकार की उछल−कूद तो फुलझड़ी का कौतूहल भरा खेल डड बनकर विस्मृति के गर्त में चली जाती है। इस तथ्य हर शिक्षार्थी गहराई के साथ समझ ले, इसका परिडड प्रयत्न किया जायगा।

वानप्रस्थ शिक्षा की अवधि में निरन्तर यह प्रचार किया जाता रहेगा कि शिक्षार्थी आत्म−चिन्तन—असुधार—आत्म−निर्माण और आत्म−विकास का चतुर्थ क्रियाकलाप अपनायें और आत्मोत्कर्ष की ऊँची सीढ़ी चढ़ने के लिए प्रबल प्रयत्न करता रहे। गुण, कर्म, स्वभाव में ऐसे परिवर्तन करें, जिनसे मानवी महानता गौरव होती हो। व्यावहारिक जीवन में आध्यात्मिक आदर्श किस प्रकार—किस क्रम से समाविष्ट किया जा सकता वस्तुतः इसी का नाम विद्या अथवा आत्म−साधन इस संदर्भ में शिक्षा और साधना के उभय−पक्षीय उच्च शिक्षार्थी के सामने प्रस्तुत रहेंगे तो यह आशा की जा सकती है वह अपना व्यक्तित्व इस स्तर तक परिष्कृत करलें कि उसे साँचे की संज्ञा दी जा सके और उसके संपर्क में आने वाले खिलौने सुन्दर एवं सराहनीय बनेंगे, ऐसी आशा की जा सके।

(1)वक्तृत्व−कला (2) बहिरंग व्यक्तित्व का निर्माण, (3) अन्तरंग ब्रह्म−तेज के विकास के शिक्षण−क्रम की ऊपर की पंक्ति यों में चर्चा हो चुकी, अब इस प्रशिक्षण के दो आधार और रह जाते हैं (4)व्यक्ति और समाज के सम्मुख उपस्थित वर्तमान समस्याओं का स्वरूप और उनके लिए विभिन्न स्तरों पर किये जा रहे सुधार प्रयासों का पर्यवेक्षण तथा (5) युग−निर्माण योजना के अंतर्गत धर्ममञ्च के माध्यम से किये जाने वाले कार्य की सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक जानकारी। इन पाँच आधारों के भेद उपभेद ही शिक्षार्थियों को सिखाये जाते रहेंगे। सिखाने का उपक्रम बताने−सुनाने तक सीमित न रहेगा। सुन लेने तथा नोट करने से भी काम न चलेगा। प्रयोगों को व्यवहार में लाने का समुचित अभ्यास भी कराया जाता रहेगा। व्यवहार और सिद्धान्त मिलकर ही तो शिक्षा−क्रम पूरा हो सकता है।

मानव−जाति के सम्मुख उपस्थित दुसह समस्याओं को समझाने से ही कोई लोक−सेवक अपने कार्य क्षेत्र की उलझनों का स्वरूप जान सकता है और उसका यथार्थ समाधान निश्चित कर सकता है। वानप्रस्थ−शिक्षा में इस प्रकार की गम्भीर विवेचनाओं का समुचित समावेश किया गया है। ताकि शिक्षार्थी सुलझा हुआ परिष्कृत दृष्टिकोण लेकर सेवा−क्षेत्र में प्रवेश कर सकें, एक स्पष्ट मिशन लेकर जन−संपर्क में आ सकें। प्रवचनों, प्रश्नोत्तरों, शंका−समाधानों के रूप में इस शिक्षा−प्रक्रिया का दैनिक−क्रम चलता रहेगा।

युग−निर्माण योजना की धर्म−मंच के माध्यम से लोक −शिक्षा की पद्धति सर्व विदित है। पर्व, संस्कार, जन्म−दिन, यज्ञ−आयोजन, कथा आदि माध्यमों से किस प्रकार लोकमानस परिष्कृत किया जा सकता है? इसकी विस्तृत जानकारी हम सब बहुत दिनों से प्राप्त करते रहे हैं। प्राचीनता में नवीनता के समावेश का यह अपना प्रयोग आश्चर्यजनक एवं आशातीत गति से सफल होता रहा है। भारतीय जनता 80 प्रतिशत निरक्षर है, 78 प्रतिशत लोग देहातों में रहते हैं। उनकी पूर्व−निर्मित मनोभूमि में धर्म−प्रसंगों के लिए ही थोड़ा स्थान है। राजनीति, अर्थशास्त्र, समाज−शास्त्र को आधार बनाकर अभी कुछ अधिक महत्वपूर्ण बातें सुनने समझने की उनकी स्थिति नहीं है। धर्म मञ्च को आधार मानकर जितनी आसानी से व्यक्ति एवं समाज को परिष्कृत बनाने की शिक्षा जिस सरलता और सफलता के साथ दी जा सकती है, उसकी तुलना में और कोई दूसरा प्रयोग हमारे देश में सफल नहीं हो सकता। इस तथ्य को हमें स्वीकार करना ही होगा और यदि विशाल भारत को सुन्दर देहातों के जन बहुमत तक पहुँचना है, तो धर्म−मंच को साथ लेकर चलना होगा। हम यही तो करने जा रहे हैं।

शिक्षा की आधी अवधि एक महीना’ शान्ति−कुँज में रह कर स्थानीय प्रशिक्षण के लिए निर्धारित है और आधा समय उन्हें शाखा संगठनों में जाकर प्राप्त शिक्षा को व्यवहार रूप में परिणत करने का अनुभव अभ्यास करने के लिए है। इसके लिए उनमें से दो−दो के जोड़े बनाकर शाखाओं में भेजा जायगा। वहाँ जाकर वे अपनी एक महीने की शिक्षा को कार्य रूप में परिणत करने का—लोक सेवा प्रयोजनों में संलग्न होने का अभ्यास और अपना अनुभव परिपक्व करेंगे।

यों इतने बड़े प्रयोजन के लिए दो वर्ष का प्रशिक्षण भी कम था। दो महीने तो बिलकुल ही कम हैं। पर ध्यान इस बात का भी रखना पड़ा है कि कनिष्ठ वानप्रस्थ अत्यंत व्यस्त और उत्तरदायित्वों से भरे वातावरण में से निकल कर आ रहें हैं। वे पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्त नहीं हैं। इसलिए उन्हें लम्बी अवधि तक रोका नहीं जा सकता। युद्धकाल में जब प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को अनिवार्य रूप से भर्ती किया जाता है, तो भी सामयिक ट्रेनिंग बहुत ही स्वल्प काल में होती है और उतने से ही उन नवागन्तुक सैनिकों को ‘कुछ’ करने योग्य बना दिया जाता है। आज वैसी ही संकट−काल की स्थिति है। इसमें स्वल्प कालीन प्रशिक्षण की वैसी ही उपयोगिता है, जैसी शान्तिकाल में सुविस्तृत धर्म−शिक्षा प्राप्त करने को किसी विश्वविद्यालय में रहकर गहन एवं दीर्घ−कालीन अध्ययन साधना करने की।


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