अभी तो पार करने हैं अगम पथ इन पगों से ही। भला फिर क्यों अभी से हार बैठा बावला यह मन?
अभी तो हर कुटी में दीप जल पाया न पूजा का। न तुलसी उग पायी है अभी प्रत्येक आंगन में॥
कहाँ गूँजे अभी घर—वेद की पावन ऋचाओं से? कहाँ अनुमति हो पायी प्रभू की—मूर्ति−पाहन में?
अभी तो आस्था—निष्ठा, हमें हर−प्राण भरनी है। भला फिर क्यों अभी से हार बैठे चेतना के कण
न घर−घर में अभी हमने सरल सौहार्द्र भर पाया? मनो में प्यार की गंगोत्री लहरा न पाये है॥
कहाँ जन्मे किसी के घर−भरत या राम, या लक्ष्मण। कि हर घर को तपोवन की व्यवस्था दे न पाये हैं॥
अभी तो त्याग से हर उर्मिला की माँग भरनी है। भला फिर क्यों अभी से हार बैठे प्रेरणा के क्षण?
अभी हर कण्ठ को सन्देश देना है मधुरता क। अभी आँख को−गम देख नम होना सिखाना है॥
सभी बांहें कर प्रण−दीन−दलितों की सुरक्षा का। कि, है इनसानियत जिन्दा—जमाने को दिखाना है॥
अभी तो हो रही प्रारम्भ, जग−हित की कहानी यह। भला फिर क्यों अभी से लेखनी की रुक गयी धड़कन?
अभी तो हम नये युग के भवन की नींव भरते हैं। न जो बरसात में टपक, भवन ऐसा बनाना है॥
सभी इनसान जिसमें रह सके इनसान बन कर ही। नया संसार ऐसा प्यार का हमको बसाना है॥
नहीं यह कल्पना केवल— सच्चाइयां है—हकीकत है। भला फिर क्यों, हथौड़ी−छैनियों की रुक गयी झन−झन॥
न जब तक लक्ष्य हम पा ले थकान कैसी?घुटन कैसी? किनारे बैठना थककर निशानी कायरों की हैं॥
“जवानी वह−लगा दे आग पानी में जरूरत पर— बना दे रेत को तिलहन” जुबानी शायरों की है॥
अभी तो साथियों! नव सृष्टि का निर्माण करना है। भला फिर क्यों से हार बटा जागरण का प्रण?
—माया वर्मा
*समाप्त*