यह विडम्बना न सुधरेगी न बदलेगी

January 1974

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विधि की विचित्र विडम्बना ही है कि अपने देश में इस समय एक करोड़ के लगभग साधु संस्था के सदस्य होने पर भी उसमें साधु कहे जा सकने वाले नगण्य ही उपलब्ध हैं। शेष तो पूरा नकली माल ही भरा पड़ा है। पिछली जन गणना के अनुसार भारत में लगभग 80 लाख भिक्षा जीवी हैं। इनमें से 14 लाख ऐसे हैं जो शारीरिक असमर्थता के कारण भिक्षा वृत्ति करते हैं। शेष 56 लाख ऐसे हैं जो साधु महात्मा का वेष धारण करके अपनी आजीविका चलाते हैं। इसके अतिरिक्त पण्डित पुरोहितों का वर्ग अलग है। वे दान दक्षिणा का लाभ तो लेते हैं पर भिक्षा−वृत्ति उनकी आजीविका नहीं लिखी गई है। क्योंकि वे साथ में अन्य व्यवसाय भी करते हैं। दान दक्षिणा अतिरिक्त आय का सहायक धंधा जिनका है ऐसे व्यक्तियों की संख्या साधु−महात्माओं से कम नहीं वरन् अधिक ही हो सकती है। बराबर मान लें तो 56+56 लाख मिलकर वह संख्या एक करोड़ बारह लाख बनती है। भारत की आबादी इन दिनों पचास करोड़ है। अनुपात से हर पैंतालीस भारतीयों के पीछे एक साधु−सन्त आता है। यह लोग प्रायः हिन्दू ही हैं। हिन्दुओं की संख्या अपने देश में लगभग 35 करोड़ है। इन पर हिसाब फैलाया जाय तो हर तीस हिन्दू पीछे एक सन्त का अनुपात आता है।

इतनी संख्या में यदि सचमुच साधुसंस्था के सच्चे सदस्य रहे होते तो भारत अत्यधिक सौभाग्य शाली देश होता। ईसाई धर्मानुयायियों के पास लगभग एक लाख पादरी हैं वे संसार भर में फैले हुए हैं ओर जिस तत्परता से अपने धर्म की सेवा कर रहें हैं उसका परिणाम आश्चर्यजनक हुआ है। इन दिनों संसार की आबादी 400 करोड़ है। इनमें से ईसाई धर्मानुयायी 125 करोड़ के करीब है। अर्थात् संसार की समस्त जन संख्या में एक तिहाई के लगभग ईसाई हैं। इस आश्चर्यजनक सफलता में पादरी वर्ग की लगन और तत्परता को असाधारण श्रेय दिया जा सकता है। यों दूसरे लोग भी इनके पीछे हैं। साधन अन्य लोग ही जुटाते हैं पर अगले मोर्चे पर तो उन्हें ही लड़ना पड़ता है। पादरी लोग जिस लगन से अपने प्रयास में जुटे हुए हैं उसे देखते हुए उनके यह हौंसले निरर्थक नहीं हैं कि अगले 25 वर्षों में संसार की आधी आबादी ईसाई धर्मानुयायी होगी। लगन बड़ी चीज है। मनुष्य की संकल्प शक्ति और क्रिया शक्ति का यदि एकाग्र समन्वय हो जाय तो उसका चमत्कारी प्रतिफल होना स्वाभाविक ही है।

भारत की साधु संस्था में किसी समय ऐसी ही प्रखरता थी। तब उसने एशिया का कोना−कोना प्रभावित किया था। बौद्धधर्म के प्रचारक सुदूर पूर्व और मध्य एशिया के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में दौड़ पड़े थे। कठिनतम मार्ग उन्होंने पार किये थे। सामान्य सी नौकाओं के सहारे छै-छै महीने में पार हो सकने वाली समुद्र यात्राएँ उनने की थी। हिमाच्छादित दुलँध्य पर्वत श्रृंखलाएं लाँघी थी। अजनबी देशों में जाकर वहाँ की भाषा सीखी थी। अनभ्यस्त जलवायु में अपने को ढाला था। सघन वन्य प्रदेशों में होकर जाने वाले मार्गों में हिंस्र पशुओं, और उफनते नदी नालों से टक्कर ली थी। सम्पत्ति और सिक्का न होने से भिक्षा को निवहि आधार बनाया था, और भी न जाने क्या-क्या सहा था। इन प्रचार यात्राओं पर निकलने वालों में से आधे तो मार्ग की कठिनाइयों वे जूझते हुए ही शहीद हो जाते थे। जो बचते थे वे वापिस लौट सकना असंभव मानते थे। और शेष जीवन की आहुति मानव परिवार की सेवा साधना के यज्ञ में प्रसन्नतापूर्वक लगाते थे। यह थी जीवट जिसने किसी समय सम्पूर्ण एशिया को हिन्दू धर्म एवं बौद्ध धर्म के झंडे के नीचे दीक्षित किया था। इतना ही नहीं उनने पृथ्वी के अन्य महाद्वीपों में भी पदार्पण किया था। और सच्चे अर्थों में जगद्गुरु का उत्तरदायित्व निवाहा था।

यह उस जमाने की चर्चा हो रही है जब साधु संस्था जीवन्त स्थिति में थी। उन्हीं दिनों परिव्राजक घर-घर जाकर अलख जगाते थे। जन-जन को प्रेरणा देते थे। सत्संग के लिए कोई उनके पास आये इसकी प्रतीक्षा किये बिना वे स्वयं ही घर पर पहुँचते थे। कष्ट साध्य रोग से ग्रस्त व्यक्ति अस्पताल कहाँ पहुँच पाता है, डाक्टर को ही उसके द्वार तक चलकर पाना पड़ता है। खेत कब बादलों को तलाश करते फिरते हैं। बादल ही दौड़-दौड़ कर खेतों की प्यास बुझाने पहुँचते हैं। इस प्रयास का ही परिणाम था कि एक भी भारत वासी संतों की पकड़ से बाहर न था।

ब्राह्मण वर्ग पण्डित और पुरोहितों के रूप में अपने समीपवर्ती लोगों को यजमान बनाकर पकड़ बैठता था और साधु वर्ग परिव्राजक के रूप में जहाँ आवश्यकता समझता था वहाँ पहुँचता था जब तक अभीष्ट प्रयोजन पूरा न हो तब तक ठहरता था। दोनों ही वर्ग मिल जुलकर अनेकानेक सत्प्रवृत्तियों का संस्थापन विस्तार एवं पोषण करते थे। भावनात्मक परिष्कार एवं प्रगतिशील गीत-विधियों के संचालन में निरन्तर संलग्न साधु संस्था इस देश के नागरिकों को देवस्तर से नीचे नहीं गिरने देती थी। ऐसी दशा में स्वर्गोपम परिस्थितियों का निर्माण स्वाभाविक ही था। उसका लाभ दूर-दर तक के देशों को मिलना ही था। सो ही होता रहा। जीवन्त साधु संस्था के महान कर्तृत्व का इतिहास इतना उज्ज्वल है कि उसे शत-शत कण्ठों से युग-युगान्तर तक गाया सुनाया जा सकता है।

आज संख्या की दृष्टि से साधु संस्था प्राचीन काल की तुलना में अत्यधिक बढ़ी-चढ़ी है, पर वह भार भूत बन कर रह रही है। न उनके पास लक्ष्य है न त्याग,न जीवन न साहस। व्यक्तिवाद, पलायन वाद, भाग्यवाद ने उसे घेर लिया है। सुविधाजनक निर्वाह प्राप्त करने के अतिरिक्त लगता है और कोई उद्देश्य ही सामने नहीं रहा। साधु-सन्तों को परलोक में स्वर्ग और मुक्ति का सुख चाहिए। ही। देने के उनके पास कुछ नहीं है। करने को भी कुछ रहा नहीं। परम हंस वेदान्ती भजनानन्दी होकर भी भला सेवा कार्यों के झंझट में पड़ना पड़ा तो फिर गृहस्थ का परिश्रम शील जीवन ही किस लिए छोड़ा?

ब्राह्मण वर्ग को वंश के आधार पर ही जब अभिवादन सम्मान मिल गया तो उसे आदर्शवाद के झंझट में पड़ने से और क्या अतिरिक्त लाभ मिलेगा। दान दक्षिण का लाभ का अनायास ही मिल जाता है तो सेवा धर्म अपनाने से भी और अधिक क्या मिलना है? मन्त्रोच्चारण अथवा कर्मकाण्डों का विधि-विधान सीख लिया तो देवताओं से लाभ हानि कराने की ऐजेन्सी हाथ लग गई। लोगों पर दबदबा बनाये रखने के लिये यही हथकंड़ा क्या कम है। मुहूर्त, जन्म पत्र, ग्रह-दशा आदि नाम पर किसी को भी डराता रोका जा सकता है यह अधिकार भी क्या कम है। देवताओं के प्रतिनिधि—ईश्वर के निकट वर्ती पापों के दण्ड फल से छुटकारा दिलाना सस्ते में स्वर्ग का साधन बना देना जैसे सूत्र जब हाथ लग गये तो आज का ब्राह्मण उन झंझटों में क्यों पड़े जिनमें उसके पूर्वज पड़े और मरे खपे।

आज की साधु संस्था की गति विधियों का निरीक्षण करे और यह देखें कि उसका क्या अनुदान समाज को मिल रहा है तो भारी निराशा होती है। मन्त्र तन्त्र के जाल जंजाल—कथा पुराणों के विनोद प्रसंग—अन्ध-विश्वासी प्रचलनों का समर्थन खर्चीले कर्मकाण्डों में जन सम्पदा का अपव्यय जैसे निरर्थक क्रियाकलापों में स्वयं उलझे हुए और दूसरों को उलझाते हुए ही उन्हें पाया जायगा। यदि यह शक्ति उपयोगी कार्यों की ओर मुड़ गई होती तो भारत से साम लाख गाँवों में से प्रत्येक की पीछे आठ-आठ सन्त आते और वे देखते-देखते निरक्षरता, गन्दगी, व्यसन, सामाजिक कुरीतियाँ जैसी दुखदायी समस्याओं को सहज ही हल कर सकते थे। जन-सहयोग जुटाकर श्रमदान से एक से एक बढ़कर उपयोगी निर्माण कार्य खड़े कर सकते थे। एक-एक मुट्ठी अनाज संग्रह करके उन सृजनात्मक कार्यों को ही सहज सम्पन्न कर सकते थे, जिन्हें करने की बात सरकार के सामने अभी चिरकाल तक विचाराधीन ही बनी रहेगी।

एक छोटा-सा गाँव—दो सौ घरों का, उसमें दो सौ मुट्ठी अन्न धर्म-घटों में इकट्ठा कराया जाता रहे तो प्रतिदिन प्रायः 50 किलों अन्न जमा होता है। लगभग 50 प्रतिदिन की इस आमदनी का अर्थ हुआ महीने में 1500 इतने धन से उस गाँव के बालकों की, प्रौढ़ों की शिक्षा

समस्या हल हो सकती है। स्वच्छता का प्रबन्ध हो सकता है। एक परिवार पीछे एक आदमी एक घण्टा श्रमदान दिया करे तो दो सौ घरों से 200 घण्टे का श्रम मिला। अर्थात् आठ घण्टे श्रम करने वाले 25 श्रमिकों की व्यवस्था हो गई। इस समय में सफाई, मल−मूत्र, गृह,खाद के गड्ढे, सड़कों की चौड़ाई,तालाबों की सफाई, बाँधों का निर्माण आदि न जाने कितने उपयोगी कार्य हो सकते है। हर गाँव में आठ साधु डेरा डालकर पड़ जायें और उसमें हर घर से एक मुट्ठी अनाज एवं एक घण्टा श्रम प्राप्त करने का प्रयास करलें तो देखते−देखते गाँव का काया−कल्प हो सकता है।

यह तो एक छोटा उदाहरण हुआ। वस्तुतः 56 लाख साधु−संख्या और 56 लाख ब्राह्मण संख्या इतनी बड़ी जनशक्ति है कि उसके आधार पर ने केवल भारत का, वरन् समस्त संसार का पुनर्निर्माण सरल और सम्भव हो सकता है।

किन्तु ऐसा हो नहीं सकता। क्योंकि यह वर्ग जिस ढाँचे में ढल गया है, जिस वातावरण ने उन्हें जकड़ रखा है, वह सब बहुत ही सड़ा−गला है। उसमें विडम्बनाएँ पल सकती है, कोई बड़ा प्रयोजन पूर्ण नहीं हो सकता। अब यह वर्ग तप त्याग कर सकने की स्थिति में नहीं रहा,क्योंकि मध्यकाल के अज्ञानांधकार युग में साधु−संस्था का दर्शन ही आक्रमणकारियों ने विकृत कर दिया है, अब उसमें सुधार कदाचित ही हो सके।

कितना अच्छा होता कि वर्तमान साधु−संस्था ही सुधर या बदल सकी होती तो फिर नये सिरे से कुछ न करना पड़ता। इन लोगों के थोड़ा−सा बदल जाने से काम चल जाता है, पर वैसा अशक्य हैं, क्योंकि क्रियाऐं विचारणा कर निर्भर रहती हैं। आदर्शों की प्रबल प्रेरणा ही मनुष्य से तप−त्याग भरे कष्ट−साध्य कार्य करा लेती है, उसका अभाव हो तो क्रियाएँ सर्वथा निर्जीव रहेंगी और लकीर पीटने की तरह विवशता में अथवा प्रदर्शन के लिए कुछ चिन्ह−पूजा की जाती रहेगी। उससे कुछ काम बनेगा नहीं।

हमने व्यक्ति गत रूप से पूरे तीस वर्ष तक इस संदर्भ में पूरा−पूरा प्रयास किया है। लगभग हर जमात,सम्प्रदाय वालों से मिले हैं, यह अनुरोध किया है कि देश की प्रगति में किसी प्रकार योगदान दें। यही प्रार्थना पण्डित−पुरोहितों से भी करते रहे। वे क था−वार्ताओं में, पूजा उपचारों में कुछ तो ऐसा कहते ही रह सकते हैं, जो व्यक्ति एवं समाज को ऊँचा उठाने में, आगे बढ़ाने का राई−रत्ती सहायता कर सकें। पर उत्तर में यही प्रतिक्रिया प्राप्त हुई कि उन्हें इस संदर्भ में कोई दिलचस्पी नहीं हैं। स्वर्ग, मुक्ति की ठेकेदारी से एक कदम भी बढ़ने का उनका इरादा नहीं है। देवताओं को वश में करना उन्हें अभीष्ट है या फिर जनता को ऐसी पट्टी पढ़ाने में उनकी रुचि है, जिससे लोग उनका अधिक रौब मानें, अधिक धन और सम्मान प्रदान करें। लोक−मंगल को वे ‘माया में पड़ना’ कहते हैं। सेवा करना ‘शूद्रों का काम’ बताते हैं। जो दुखी हैं, उन्हें पाप−दण्ड भुगतने वाला सिद्ध करते है और कहते हैं—ईश्वर के विधान में बाधा डालकर सुधार सँभाल की बातें करने वाले भगवान के क्रोध के भाजन बनेंगे। जो हो रहा है—ईश्वर की मर्जी से होगा। सेवा सुधार की बात करना व्यर्थ है। जिनने इस प्रकार की मान्यताएँ बना रखी हों, उनसे यह आशा करना निरर्थक है कि मानवी प्रगति में किसी प्रकार का योगदान करने के लिए वे सहमत हो सकेंगे।

वस्तुतः दोष उनका भी नहीं है। वे एक भ्रान्त−दर्शन के शिकार हैं। मुसलमानी आक्रमण के समय एक ओर जहाँ मन्दिर−मठ गिरायें जा रहे थे, कत्लेआम हो रहें थे, वहाँ दूसरी ओर गहरी रिश्वतें देकर यह प्रयास भी किया जा रहा था कि कुछ धर्म−गुरुओं को अपने पक्ष में मिलाकर भारतीय दर्शन को भ्रष्ट किया जाय। जहाँ आत्म परिष्कार और लोग−मंगल के सारे तत्व उसमें से हटा दिये गये, और भाग्यवाद, पलायनवाद, पराधीनतावाद, व्यक्ति वाद का विष उसमें घुसा दिया गया, ताकि विचारशील व्यक्ति अपने स्वर्ग−मुक्ति के धंधे में फंस जायँ और जनता को अन्याय सहने के लिए भाग्यवाद, ईश्वर−इच्छा के नाम पर पददलित पड़ा रहने दिया जाय। उसी दार्शनिक भ्रष्टाचार की शिकार आज की साधु−संस्था है। उस विष से वह इस कदर मूर्छित हो गई है कि अब उसके उद्धार का कोई उपाय रहा नहीं दीखता।


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