वानप्रस्थों का तात्कालिक कार्यक्रम शिविर संचालन

January 1974

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युग-निर्माण संगठन का विकास विस्तार अपने ढंग की अनोखी घटना है। विश्वास किया जा सकता है कि उसकी तूफानी गति अगले दिनों और भी तीव्र होनी है। अब उसे नियन्त्रित और सुव्यवस्थित करने का कार्य हाथ में लिया जाना चाहिए। अब तक वह बरसात में उगने वाली हरियाली की तरह अनायास और अप्रत्याशित रूप से उगा और बढ़ा है। अब उसे चतुर मालियों की कैंची, दराँती, खुरपी, कुदाली को आवश्यकता पड़ रही है। बाढ़ बनाने, खाद देने जैसे कितने ही कार्य करने को पड़े हैं, ताकि इस उगी हुई हरितिमा के बहुमूल्य पेड़–पौधों को अधिक सुन्दर, समुन्नत और फल-फूलों से लदा हुआ देखा जा सकें।

आवश्यकता यह अनुभव की गई है कि प्रत्येक शाखा संगठन के सक्रिय सदस्यों को—कर्मठ-कार्यकर्त्ताओं को क्रमबद्ध रूप से प्रशिक्षित किया जाय। मिशन के आधार, वर्तमान चरण एवं भावी क्रिया–कलाप का सांगोपांग परिचय कराया जाय। यों उन्होंने जाना-पढ़ा तो बहुत कुछ है, पर वह क्रमबद्ध रूप से नहीं हुआ है। यह उचित ही है कि मिशन का प्रत्येक सदस्य अपनी योजना एवं क्रिया-पद्धति से भली-भाँति अवगत हो। उसे आत्म–निर्माण के लिए समाज–निर्माण के लिए क्या करना है? कैसे करना है? इसकी विधि–व्यवस्था की उसे समुचित जानकारी होनी ही चाहिए। अस्तु निश्चय यह किया गया है कि इस वर्ष जितनी शाखाओं में सम्भव हो सके, कार्य कर्ताओं के शिक्षण–शिविर लगाये जायँ। प्रशिक्षित वानप्रस्थों को प्रधान रूप से इस वर्ष इसी कार्यक्रम का संचालन करना होगा। उसके लिए दो-दो वानप्रस्थों के जोड़े बनाकर भेजे जायेंगे, ताकि परस्पर सहयोग से मिल–जुलकर अधिक कार्य कर सकना सम्भव हो सके।

शिविर कहाँ किये जायेंगे, किस तारीख से किये जायेंगे? इसकी पूछताछ एवं जाँच-पड़ताल चल रही है। आशा है, वे बड़ी संख्या में होंगे और जनवरी से जून तक की प्रथम छमाही में प्रशिक्षित किये गये वानप्रस्थ उसी में खप जायेंगे। शिविर पन्द्रह–पन्द्रह दिन के होंगे। इसमें आरम्भ के तीन दिन व्यवस्था जुटाने और अन्त के दो दिन बिखरे हुए सारे कार्य को व्यवस्थित रूप से समाप्त करने के लिए निर्धारित है। बीच के दर दिन शिक्षण–व्यवस्था चलेगी। यों वे आरम्भ और अन्त के पाँच दिन भी शिक्षण के ही हैं, क्योंकि उस शाखा के कार्यकर्ता भी तो भविष्य में अन्यत्र जाकर इसी प्रकार से व्यवस्था का आरम्भ और अन्त कराया करेंगे।

बीच के दस दिनों में प्रातः 5 से 9 बजे तक चार घण्टे कार्यकर्त्ताओं का प्रशिक्षण चलेगा। इसकी रूपरेखा ‘पाक्षिक युग-निर्माण योजना’ के अक्टूबर, नवम्बर, दिसम्बर के छै अंकों में विस्तार पूर्वक छाप दी गई है। आत्म–निर्माण और समाज-निर्माण की जो प्रक्रिया वानप्रस्थों को लम्बी अवधि में हरिद्वार रखकर सिखाई गई है, उसका सार–तत्व चार घण्टा प्रतिदिन के हिसाब से इन दस दिनों में स्थानीय कार्यकर्त्ताओं के गले उतारने का प्रयत्न वानप्रस्थ लोग करते रहेंगे।

सायंकाल 7 से 10 तक जनता का प्रशिक्षण चलेगा। दस दिन तक सभा आयोजन चलता रहेगा। अब तक जन-साधारण को ‘युग-निर्माण योजना’ की अस्त-व्यस्त जानकारी ही प्राप्त हुई है। क्रमबद्ध रूप से अभियान की सांगोपांग रूपरेखा—विचारधारा एवं क्रिया योजना का उसे समझने-समझाने का सुयोग ही नहीं मिला। इस सम्मेलन में उस आवश्यकता की पूर्ति की जायगी व्याख्यानों की एक सुनियोजित विधि–व्यवस्था बना दी गई है। वक्ता उसी मर्यादा में पूर्व तैयारी करके पहुँचेंगे और निर्धारित विषद का ही प्रतिपादन करेंगे। इस प्रकार वह भी जनता का एक व्यवस्थित प्रशिक्षण-शिविर ही बन जायगा। संगीत साथ में रहेगा। दो व्याख्यान और डडडड संगीत हर दिन होंगे। आरम्भ, मध्य और अन्त में पन्द्रह–पन्द्रह मिनट के तीन संगीत, एक-एक घण्टे के दो भाषण पन्द्रह मिनट अन्य औपचारिकताओं के लिए। इस प्रकार तीन घण्टे में सभा-कार्य पूरा हो जाया करेगा।

किस दिन किस विषय पर भाषण होने हैं और कौन गीत गाये जाने है इसकी रूपरेखा भी बना दी गई है। स्थानीय कार्यकर्ता यह प्रयास करेंगे कि उस क्षेत्र के प्रतिभाशाली वक्ताओं और कुशल गायकों से संपर्क बनाकर अभी से उन्हें सम्मेलनों में अपने भाषण एवं गायन प्रस्तुत करने के लिए आमन्त्रित करेंगे। जो तैयार होंगे, उन्हें भाषण के विषय तथा गायन के गीत बहुत समय पर्व दे दिये जायेंगे, ताकि उन्हें आवश्यक तैयारी के लिए समय मिल जाय। इस प्रकार उस क्षेत्र के वक्ताओं एवं गायकों को भी अपने मिशन की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिल जायगा। भविष्य में शाखाएँ जब पर्वोत्सव अथवा दूसरे आयोजन समय–समय पर किया करेंगी तो इन गायकों और वक्ताओं से ही काम चल जाया करेगा। शैली विदित हो जाने से वे बताये हुए विषयों को तैयार कर लिया करेंगे। इस प्रकार बाहर से विद्वान, वक्ता एवं गायक बुलाने की खर्चीली प्रक्रिया अपनाने की आवश्यकता न पड़ा करेगी। बहुत हुआ तो एक स्थान के वक्ता, गायक दूसरी शाखा को—दूसरी के तीसरी को भेजकर नवीनता उत्पन्न कर ली जाया करेगी। इस प्रकार वक्त और गायकों की इन दिनों जो कमी पड़ती है, उसका हल निकल आयेगा।

इस सम्मेलन-आयोजन में कविता-गायनों की भी व्यवस्था रखी जाया करेगी। कवि–सम्मेलन बुलाया जाना तो कठिन है, पर कविता–पाठ का सम्मेलन मधुर कण्ठ वाले छात्रों और छात्राओं से भी चल सकता है। इसमें मनोरंजन भी है— प्रेरणा भी और छात्रों को मंच पर आने एवं विचार व्यक्त कर सकने का अभ्यास भी। किस दिन किन कविताओं को गाया जाय? इसका मार्ग–दर्शन उन्हें पहले से ही करा दिया जायगा, ताकि तैयारी के लिए उन्हें भी समय मिल जाय।

उत्साही अध्यापक और छात्र–संगठन एकांकी नाटकों का अभ्यास भी कर सकते हैं। उन्हें नाटक दे दिये जाया करेंगे—तैयारी वे करेंगे। समय पर प्रदर्शन करने पहुँच जायेंगे। इस प्रकार बीस मिनट या आधा घण्टे का नाटक भी मजे में हो सकता है। किसी दिन संगत, किसी दिन कविता-सम्मेलन, किसी दिन एकांकी नाटक रहने से विविधता रहेगी और आकर्षण भी। प्रवचनों के दो घण्टे तो सुरक्षित ही रहेंगे। एक घण्टा जो कला–तन्त्र के लिए रखा गया है, उसी में स्थिति के अनुरूप यह तीनों कार्य फिट कर लिये जाया करेंगे। इसमें सम्मेलनों में कला–तन्त्र का समावेश भी कविता-सम्मेलन, संगीत एवं एकांकी नाटकों के माध्यम से होता रहेगा। लोक–शिक्षण की यह भी एक दिशा है—जिसके लिए प्रस्तुत कर्ताओं की सर्वत्र आवश्यकता पड़ेगी। शिविरों के साथ चलने वाला जन–शिक्षण सम्मेलन न केवल जनता को मिशन की रूपरेखा से परिचित करायेगा, वरन् मञ्च को सँभालने वाले वक्ता,गायक एवं कलाकार को भी प्रशिक्षित करेगा।

शाखा-संगठन के स्थानीय कार्यकर्त्ताओं को विचार–क्रान्ति का प्रयोजन पूरा करने के लिए अपने क्षेत्र का ऐसे अनेक छोटे-बड़े आयोजन करने होंगे। अस्तु यह जनसम्मेलन भी उनका ज्ञान एवं अनुभव परिपक्व करेगा। जनसम्मेलनों की क्या और कैसे व्यवस्था करनी पड़ती है—क्या साधन जुटाने पड़ते हैं—जनता अधिक संस्था में उपस्थित हो, इसके लिए क्या करना होता है? भीड़ की व्यवस्था और नियन्त्रण करने के लिए क्या किया जाना चाहिए? आदि बातों की समुचित जानकारी होने से सम्मेलनों का क्रम ठीक तरह चलाया जा सकता है। एक बार उस रूपरेखा को उपयुक्त मार्ग-दर्शन में सँभाल लेने से भविष्य में स्थानीय कार्यकर्ता की इस योग्य हो जायेंगे कि वे अन्यत्र जाकर स्वयं ही संचालन व्यवस्था संभाल सकें।

युग-निर्माण सम्मेलनों से साथ-साथ गायत्री-यज्ञ आयोजनों को जुड़ा रखने की अपनी कार्य-पद्धति भारतीय जन-मानस के अनुरूप बहुत ही उपयुक्त सिद्ध हुई है। उस आधार पर जन-मानस की धर्म-श्रद्धा आश्चर्य रूप से जगाई जा सकती है। यज्ञ में भाग लेने वालों को अपने वर्तमान दुर्गुणों में से एक छोड़ना पड़ता है। इस यज्ञ-दक्षिण की अनिवार्यता को जोड़ देने से अपने यज्ञ-आयोजन चरित्र-निर्माण का—व्यक्तित्व-निर्माण का प्रयोजन पूरा करने में अत्याधिक सहायक होते हैं। यज्ञ−भगवान् के सम्मुख ली हुई प्रतिज्ञाओं को लोग निष्ठापूर्वक निवाहते भी हैं।

धर्मोत्साह का अभिवर्धन—मिल–जुलकर काम करने का अभ्यास—सत्कर्म–परायणता का अभ्यास—प्राचीन परम्पराओं का परिचय आदि कितने ही ऐसे आधार हैं, जिनसे मिशन के उद्देश्यों की पूर्ति में भारी सहायता मिलती है। धर्म–शास्त्रों में वर्णित लाभ इसके अतिरिक्त हैं। अपने यज्ञ–आयोजनों का विरोध कोई सुधारवादी अर्थशास्त्री भी नहीं कर सकता। क्योंकि अपने यज्ञों में आहुतियाँ केवल सुगन्धित वनस्पतियों की दी जाती हैं। अन्न का एक दाना भी नहीं होमा जाता। घी का उपयोग प्रतीक रूप से ही अत्यंत स्वल्पमात्रा में किया जाता है। जब तो उसमें भी कमी करदी गई है। आरम्भ की सात और अन्त की तीन, कुल मिलाकर दस आहुतियों में घी होमने से प्रचलन में अब घी नष्ट करने का आक्षेप भी चला गया। उपयोगी खाद्य–पदार्थों को नष्ट करने के आक्षेप से अपना मिशन सर्वथा मुक्त है। यज्ञ में जितना स्वल्प व्यय और जितना अधिक आकर्षण होता है, उस देखते हुए यह कहा जा सकता है कि सर्वतोमुखी सृजन के लिए आवश्यक धर्मोत्साह उत्पन्न करने की दृष्टि से गायत्री–यज्ञ आयोजनों का प्रचलन करके युग−निर्माण योजना ने भारतीय जनता के लिए एक उपयोगी विधान प्रस्तुत किया।

गायत्री सद्भावनाओं की देवी है ओर यज्ञ—सत्कर्मों का प्रेरक। भारतीय−संस्कृति की जननी—वेद–माता गायत्री कही जाती है और भारतीय–धर्म का स्त्रोत−त्याग, बलिदान एवं पवित्र जीवन का प्रतीक यज्ञ। उत्कृष्ट विचारणा की व्याख्या गायत्री के माध्यम से और आदर्श क्रिया−पद्धति की शिक्षा यज्ञ विवेचना के माध्यम से जितनी अच्छी तरह दी जा सकती, उतनी और किसी माध्यम से नहीं। गायत्री–उपासना के शास्त्रीय प्रतिफल और यज्ञानुष्ठान के धार्मिक लाभ के यदि छोड़ भी दें तो भी इन दोनों माध्यमों में इतनी अधिक प्रेरणाप्रद आधार भरे पड़े हैं कि उनके सहारे व्यक्ति और समाज को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने की प्रेरणा भली प्रकार दी जा सकती हे। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर पन्द्रह दिवसीय−शिविर में मध्य के चार दिन गायत्री यज्ञ आयोजन के लिए भी रखे गये हैं।

इस माध्यम से क्षेत्रीय आयोजनों की एक नई विधि व्यवस्था का कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण मिलता है। उसमें जन−मनोविज्ञान समझने की—लोगों से काम लेने की—उन्हें सँभालने की—भोजन−निवास की—सफाई की—सुरक्षा की—अनेकानेक समस्याओं को समझना−सँभालना पड़ता हैं। यह अपने आप में एक पृथक विधि−व्यवस्था है, जिसे जाने बिना यदि कोई उस तरह के काम में हाथ डाल बैठे तो सब कुछ गुड़–गोबर ही हो जायगा। सहभोज की एक उत्तम परिपाटी इन आयोजनों में ही उभरती है। कच्ची−पक्की रोटी का—एक का छुआ दूसरा न खाये, इस पाखण्ड का उन्मूलन इन यज्ञों में जिस सरलता से होता हैं, वह देखते ही बनता है। अपने आयोजनों में दाल–चावल जैसी कच्ची कहलाने वाली रसोई ही बनती है और बिना किसी भेद–भाव के मिल–जुलकर खाने, पकाने और परोसने से उस विभेदकारी पृथकतावाद का किला टूटता है, जिसने अपने देश को बेतरह विसंगठित और दुर्बल करके रख दिया है।

इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए उपरोक्त शिविर−शृंखला से चार दिन गायत्री–यज्ञ आयोजन के लिए भी रखे गये हैं। यज्ञ के निमित्त अक्सर लोग श्रद्धापूर्वक अर्थ–सहायता भी देते हैं। आयोजन के आवश्यक खर्चो में ही ज्ञान–यज्ञ कास पक्ष भी जोड़ कर रखा जाता है और प्रचूर साहित्य वितरित करने—प्रेरक पोस्टर चिपकाने—दीवारों पर आदर्श−वाक्य लिखने का खर्च भी सम्मिलित रखा जाता है। ताकि लोगों को प्रेरणाएँ प्राप्त करने का यह उपयोगी माध्यम भी कार्यान्वित होता रहे कुछ पैसा बच गया तो स्थानीय शाखाओं को उस अपने यहाँ ज्ञान–रथ, लाउडस्पीकर, स्लाइड—प्रोजेक्ट ( रंगीन चित्र प्रदर्शन−यन्त्र), टैप–रिकार्डर आदि उपयोगी प्रचूर साधन खरीद लेने की सुविधा बन जाती है और उस क्षेत्र में ज्ञान−यज्ञ का अधिक विस्तार करना सम्भव जाता है। ऐसे−ऐसे अनेकों लोक–मानस में उपयोगी प्रेरणा उत्पन्न करने वाले तथ्यों को ध्यान में रखते हुए डड दिवसीय शिविर आयोजनों की रूप–रेखा बनाई गई है प्रशिक्षित वानप्रस्थों को तात्कालिक कार्यक्रम वही डड जा रहा है।


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