एकाकी प्रयासों से भी बहुत कुछ हो सकता है

January 1974

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शिविर−शृंखला और तीर्थयात्रा संचालन के दो कार्य आवश्यक तो है, पर इनके लिए दूसरे अन्य साथियों का सहयोग आवश्यक है। वानप्रस्थ एकाँकी अपने बल−बूते इन्हें नहीं चला सकते। योजना से परिचित लोग जहाँ हों—जिनमें इस प्रकार की सेवा−भावना तथा विचारणा पहले से ही विद्यमान हो, उनका सहयोग मिलने पर उपरोक्त दोनों कार्यों का आधार बन सकता है। किसी ऐसे क्षेत्र में जाना पड़े, जहाँ मिशन का पहले से ही प्रवेश न हो पाया हो वहाँ इन कार्यों को करना अपरिचित वानप्रस्थ के लिए कठिन होगा।

आवश्यक नहीं कि सवा सहयोगी और पूर्व परिचित मिलते ही रहें, फिर जहाँ पहले से ही हलचलें मौजूद हैं, वहीं स्वयं भी जाकर फिट हो जाना किसी प्रतिभाशाली धर्म प्रचारक के लिए कोई बड़े गौरव की बात नहीं है। बने−बनाये—सजे−सजाये स्टेज पर बैठना और माइक पकड़ कर लम्बी−चौड़ी बातें हाँकने लगना आज एक सामान्य व्यसन हो गया है। ऐसी सस्ती नेतागिरी के लिए हर गली−मुहल्ले में प्यासे फिरने वाले महत्वाकाँक्षी लोग मिल जायेंगे। इसी धन्धे को अपने लोग भी अपना बैठें तो फिर प्रतिभा की परख कहाँ होगी? वस्तुतः श्रेय वक्ताओं का नहीं, आयोजकों और व्यवस्था करने वालों का होता है। पसीना तो उन्हें ही बहाना पड़ता है−वजन तो उन्हीं पर पड़ता है—सूझ बूझ और दौड़धूप उन्हीं की रहती है। लगातार समय देकर—साथी, सहयोगी समेट कर—साधन जुटा कर जिसने व्यवस्था बनाई है—सराहना उसी की की जानी चाहिए। कर्मठता तो उसी की ही फलवती हुई।

वानप्रस्थों को बकवासी वक्त मात्र बनने के लिए—इतना त्याग करने और साहस जुटाने के लिए बाध्य नहीं किया गया है। यह काम करने के लिए तो खुशामद से— प्रशंसा प्रतिष्ठा का प्रलोभन देकर अथवा मेहनताना देकर किसी से भी, कहीं भी कराया जा सकता है। यह सस्ता सौदा है। इसके लिए न तो हमें इतना आग्रह, अनुरोध करने की आवश्यकता थी और ने किसी की सामान्य क्रमव्यवस्था उजाड़ने का परामर्श देने की। जिस प्रयोजन के लिए लगनशील और भावनाशील लोगों को आमन्त्रित किया गया है, वह यह है कि अपने प्रकाश को लेकर व अँधेरे में प्रवेश करें और वहाँ उजाला करके दिखायें। इसी स्तर की प्रतिभा का परिचय देने के लिए तो उन्हें विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है—ऐसा ही आत्म−बल उत्पन्न करने के लिए उनसे तप−साधना करायी जाती है।

सदा ऐसे ही अवसर न रहें, जब पूर्व विनिर्मित शाखा−संगठनों में जाकर वहाँ इंस्पेक्टर, अफसर की तरह आदेश परामर्श देने भर की ड्यूटी पूरी करके वापिस चले आवें वस्तुतः शाखाओं में भी उन्हें स्वयं आगे बढ़ाकर हर काम स्वयं करने और स्थानीय कार्यकर्त्ताओं में उस तरह की प्रवृत्ति, हिम्मत एवं क्षमता उत्पन्न करने के लिए भेजा जायगा। जो कमियाँ उनमें रही हैं, उन्हें वे अपनी प्रतिभा से पूरा करें। इसलिए प्रस्तुत शाखा−संगठनों में भी उन्हें आयोजकों का आयोजक ही तो बनाकर भेजा जा रहा है अन्यान्य क्षेत्रों में भी सदा उन्हें यही करते रहना होगा।

दो वानप्रस्थों का जोड़ा रहना तो अच्छा है। उसमें कई प्रकार की सुविधा रहती है। आवश्यक नहीं कि निर्धारित दो व्यक्ति भिन्नता और योग्यता सम्वर्धन का कई−कई साथियों को लाभ मिलता रहे। इन जोड़ों के सामने स्वतन्त्र रूप से अजनबी क्षेत्रों में जाने और वह जन−संपर्क स्थापित करने एवं मिशन की जड़ें जमाने का कार्य भी करना होगा। प्रचार−कार्य के कितने ही ऐसे माध्यम हैं, जो नये स्थानों में पहुँचने पर भी समुचित आकर्षण उत्पन्न कर सकते हैं और जन−संपर्क का पालन प्रशस्त कर सकते हैं।

स्लाइड−प्रोजेक्टर इसी प्रकार का माध्यम है। इस रात्रि के समय बड़े साइज के रंगीन चित्र पर्दे पर दिख जाते है। दो−दो मिनट हर चित्र की व्याख्या करते चलें तो डेढ़ घण्टे का प्रवचन 40−55 स्लाइडें बदलते रहने से पूरा हो जाता है। व्याख्या तीन मिनट की करदी जाय तो उतने ही चित्रों का प्रदर्शन करते हुए दो घण्टे तक प्रवचन चल सकता है। यह सिनेमा तो नहीं है और न उसके साथ इसकी तुलना की जा सकती है, पर इतना जरूर है कि व्याख्या और प्रवचन के साथ इन चित्रों की संगति ठीक बैठ जाती है और भाषण अधिक आकर्षक एवं रोचक बन जाता है। स्त्री−बच्चे, शिक्षित−अशिक्षित इन चित्रों के माध्यम से प्रतिपादित विषय को अच्छी तरह हृदयंगम कर लेते हैं। जहाँ बिजली नहीं है, वहाँ इसमें फिट की हुई गैस बत्ती से उतना ही प्रकाश उत्पन्न किया जा सकता है। बैटरी में, बदलने और चार्ज करने का झंझट था, इसलिये ‘युग−निर्माण योजना’ ने अपने ढंग की ऐसी मशीनें बनाई हैं, जो गैस के पैट्रोमैक्स की तरह जलती हैं। मिट्टी का तेल तो हर जगह मिल जाता है। इसकी 120 स्लाइडों का पूरा सैट है, इसमें तीन दिन प्रवचन चल सकते हैं और मिशन की प्रायः सारी सारभूत रूपरेखा उतने से ही समझाई जा सकती है। दो वानप्रस्थ एक मशीन लेकर निकल पड़ें। सवेरे स्वयं शंख−घड़ियाल बजाते हुए गाँव के गली−मुहल्लों में रात को अमुक स्थान पर इस प्रदर्शन प्रवचन का एलान करदें। रात को, नियत स्थान पर स्वयमेव सारे गाँव की भीड़ इकट्ठी हुई मिलेगी। अपरिचित स्थानों में भी यह प्रयोग सफलता पूर्वक चलता रह सकता है। इस माध्यम से स्थापित हुआ जन संपर्क मिशन की जड़ जमाने और परिचय−क्षेत्र बढ़ाने में अच्छी तरह काम आ सकता है।

दूसरा ऐसा ही माध्यम है ‘सत्यनारायण व्रत−कथा’। ‘युग−निर्माण योजना’ ने पुरानी कथा का कथा−प्रसंग तो ज्यों का त्यों रहने दिया है, पर उसके मध्यवर्ती सम्वादों के श्लोक बदल दिये हैं। इस प्रकार वह कथा ऐसी बन गई है कि मिशन की पूरी विचारधारा इस कथानक को सुनाने के साथ पूरी तरह मिलाकर कही जा सकती है। बीच−बीच में संस्मरणों, उद्धरणों, तथ्यों, घटना−क्रमों, दृष्टान्तों एवं उप−कथाओं का सम्मिश्रण करते चलने से वह इतनी रोचक एवं हृदयग्राही हो जाती है कि स्वल्पशिक्षित अथवा व्यस्त भी पूरे मनोयोग से उसे सुनते हैं। पुरानी कथा घिसी−पिटी, सैकड़ों बार की सुनी हुई, हर बार दुहराई जाती है। उसमें सामान्यतया कुछ आकर्षण नहीं होता। सुनने का पुण्य−फल मिलने की बात सोचकर ही लोग किसी प्रकार ऊँघते−अलसाते उसे सुन लेते हैं। प्रेरणा की दृष्टि से उसमें अक्सर छूँछ ही हाथ लगती है। पर इस संशोधित, परिवर्तित कथा में सब कुछ प्रेरक, महत्वपूर्ण एवं आकर्षक है। उसके कहने की कितनी ही शैलियाँ शिक्षा−अवधि में वानप्रस्थों को सिखा दी जाती हैं। अशिक्षितों, स्त्री, बच्चों से लेकर विद्वान् मनीषी एवं तार्किक−नास्तिकों के सामने विभिन्न शैलियों से इस कथा को इस प्रकार कहा जा सकता है कि वे इस प्रतिपादन को मन्त्र−मुग्ध होकर सुनते रहें। साथ ही वे प्रेरणा लेकर विदा हों, जिन्हें यह मिशन लोक−मानस में हृदयंगम कराने के लिए प्रयत्नशील है।

दो वानप्रस्थों का जोड़ा यदि ‘सत्यनारायण व्रत−कथा’ कहने का क्रम अपनाकर चल पड़े तो वह प्रचार−यात्रा अजनबी अपरिचित स्थानों में भी भली प्रकार चलती रह सकती है। जहाँ अधिक उत्सुकता पाई जाय, वहाँ एक दिन में एक अध्याय विस्तार पूर्वक कहे हुए उसे पाँच दिन तक बड़ी अच्छी तरह खींचा जा सकता है और वह भागवत−सप्ताहों से कहीं अधिक रोचक, आकर्षक एवं प्रेरक प्रसंग बन सकता है। उस पाँच दिन के आयोजन में सुनने वालों के गले वह सब कुछ उतारा जा सकता है, जिसके लिए अपना नव−निर्माण का अभियान चल रहा है।

कण्ठ में थोड़ी मधुरता हो और एक−दो सामान्य ताल वाद्य बजाना आता हो तो कीर्तनों की विधि−व्यवस्था भी भाव−भरा वातावरण यों उत्पन्न कर सकती है। गला बिलकुल ही बेसुरा हो, तब तो कठिन है, अन्यथा थोड़ा भी ताल−मेल बिठाया जा सके तो एक−तारा, खरताल, मजीरा, चिमटा, खञ्जरी जैसे सरल वाद्य−यन्त्रों के सहारे आसानी से सह−मान के रूप में ‘कीर्तन’ का आयोजन हो सकता है। साथ देने के लिए स्थानीय गाने−बजाने वालों का भी थोड़ा सहयोग मिल जाय, हारमोनियम, तबला आदि की व्यवस्था वे लोग बना दें तो बात और भी अच्छी तरह बन जायगी। वानप्रस्थ शिक्षा−काल में यह भी प्रयत्न किया जाता है कि कीर्तन की ध्वनियों पर गायन सिखाया जाय। गले को संघ ने का अभ्यास कराया जाय। थोड़े प्रयत्न से सीखे जा सकने वाले उपरोक्त वाद्यों का सामान्य अभ्यास कराया जाय। ऐसे गायन भी तैयार कराये गये हैं, जिनकी ध्वनि तथा शैली तो कीर्तन की हो, पर उनमें मिशन के सभी तत्वों का भली प्रकार समावेश रहे। बीच−बीच में थोड़ी व्याख्या करते चलने से बात और भी अच्छी तरह उभर आती है। सम्मिलित होने वाले भाव उल्लास का आनन्द लेते हुए, नव−निर्माण की वे प्रेरणाएँ भी उपलब्ध करते हैं, जो युग की उलझनों को सुलझाने की दृष्टि से अभीष्ट और आवश्यक हैं।

‘सत्यनारायण−कथा’ की तरह ‘रामायण−कथा’ के भी एक दिवसीय या अनेक दिवसीय कार्यक्रम रखे जा सकते हैं। गला यदि दोहा−चौपाई गाने में साथ देने लगे और उनकी एक−दो ध्वनियाँ सामान्य वाद्य−यन्त्रों पर फिट करली जायें तो यह थोड़ा−सा परिश्रम वानप्रस्थों को अच्छा रामायण कथा−वाचक बना सकता है। श्रद्धा ओर प्रेरणा की यह सम्मिलित प्रक्रिया अपने ढंग की और भी अनूठी रहती है।

इसके अतिरिक्त एक क्रम ऐसा भी है, जिसमें कुछ भी कहने−सुनने की आवश्यकता नहीं है। मेरु या कालोंच में थोड़ा गोंद मिलाकर उसकी लाल या काली स्याही बनाई जा सकती है। ब्रुश अथवा लकड़ी में कपड़ा लपेट कर बनाई हुई कलम से दीवारों पर आदर्श−वाक्य लिखते हुए नियत संख्या अथवा समय पूर न होने तक आगे बढ़ते हुए चला जा सकता है। यह कार्य भी किसी सभा−सम्मेलन से कम नहीं है। उस रास्ते निकलने वाले असंख्य लोग उन प्रेरक−वाक्यों को पढ़ते रहेंगे और मस्तिष्क में अभिनव स्पंदन उत्पन्न हुए अनुभव करते रह सकते हैं।

यह माध्यम ऐसे हैं, जिन्हें अपरिचित क्षेत्रों में आरम्भ किया जा सकता है, पर वह अपरिचित स्थिति दो−चार दिन में ही समाप्त हो जाती है और संपर्क में आने वाले—बात सुनने वाले—कार्य−पद्धति की जानकारी प्राप्त करने वाले व्यक्ति सामान्य परिचित ही नहीं बनते, वरन् घनिष्ठ एवं सहयोगी के रूप में परिणत होते हैं। पतनोन्मुख पशु प्रवृत्ति ही आकर्षक होती है। कामुकता जैसी कुत्साओं में ही लोग रस लेते हैं। यह मान्यता इतनी ही मात्रा में सही है कि उन्हें, लोक−रुचि के साथ मिलाकर प्रस्तुत किया जाता है। यदि सत्प्रवृत्तियों और सद्भावनाओं को भी उपयुक्त ढंग से जनता के सामने उपस्थित किया जाय तो प्रतीत होगा कि मनुष्य के भीतर रहने वाला देव−तत्व अभी पूर्णतया भरा नहीं है। उसे सींचा और उभारा जा सकता है। सत्प्रयोजनों की प्रेरणा देने वाले यदि लोक−मानस को समझते हों, उसे ठीक तरह स्पर्श करना जानते हों तो यह प्रत्यक्ष देखा जा सकेगा कि जनता ने सत्प्रवृत्तियों को अपनाने और उनमें सहयोग देने का द्वार बन्द नहीं किया है। इस दिशा में प्रयत्न करने वालों के समर्थन, प्रोत्साहन की भी कमी नहीं रहती। कमी केवल प्रस्तुत कर्ताओं के शिथिल मनोबल की रहती है। यदि प्रचारकों की निष्ठा और चेष्टा प्रखर हो तो कोई कारण नहीं कि जन−मानस का पतन से मोड़कर उत्थान की दिशा में नियोजित करने में सफलता प्राप्त न की जा सके। गान्धी और बुद्ध के प्रयोग हमारे सामने हैं। गुरु गोविन्दसिंह और समर्थ गुरु रामदास को निराश एवं असफल नहीं रहना पड़ा है। जनता का उन्हें समुचित सहयोग उपलब्ध हुआ था। हमारा उत्साह और अरमान यह उसी स्तर का हो तो अपने थोड़े−से वानप्रस्थ समस्त समाज को निश्चय ही उलट−पलट कर रख सकते हैं।

प्राचीन−काल में बौद्ध−प्रचारक पहन−श्रद्धा का सम्बल लेकर विश्व के कोने−कोने में धर्मचक्र−प्रवर्तन के लिए घर से निकले थे। अपने मिशन और संकल्प के लिये ही जीवित रहे। उसी के लिए प्रत्येक साँस का उपयोग करते रहे। कठिनाइयों को उन्होंने कठिनाई नहीं समझा पर्वतों को पैरों से कुचलते हुए—भूख, प्यास और शीत ग्रीष्म की परवाह न करते हुए—मौत से जूझते हुए वे शब्द बेधी बाण की तरह लक्ष्य की ओर चले थे और धरती पर रहने वाली उस समय की अधिकाँश जन−संख्या के उस महान् धर्म के झण्डे−तले लाने में समर्थ हुए हैं। हमारी लगन भी यदि उसी स्तर की हो तो वह सब कुछ सम्भव एवं सरल हो सकता है, जो आज कठिन तथा असम्भव कहा समझा जाता है।


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