हम पतन के गर्त में कैसे गिरे?

January 1974

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भारत समाज−संगठनों में साधु−संस्था का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रहा है। उसके सदस्यों को, ब्राह्मणों और सन्तों को—’भूसुर’ कहा गया है। उन्हें धरती के देवता मानकर पूजा है,पद पर आसीन किया गया है। उनके चरण−स्पर्श करके लोग अपने को पवित्र हुआ मानते थे। उनके भोजन−वस्त्र की व्यवस्था करने का जिन्हें अवसर मिलता था, वे अपने को धन्य मानते थे। हर्ष−शोक के विशेष अवसर जब भी आते थे, तब अपना चित्त हलका करने के लिए ब्रह्म−भोज करते थे, दान−दक्षिणा देते थे। पुण्य−फल के यह दो अमोघ मार्ग थे।

इसका कारण यह नहीं था कि साधु संस्था के सदस्य अपंग, असहाय, दरिद्र अथवा दीन−हीन होने के कारण उनकी दया के पात्र एवं सहायता के इच्छुक हैं, वरन् यह था कि जहाँ भी ब्राह्मण एकत्रित होंगे—वहाँ अमृतोपम सद्ज्ञान की वर्षा होगी और हर्ष−शोक को नियन्त्रित करने वाला विवेकपूर्ण वातावरण बनेगा। ब्राह्मण−साधु के हाथ में जरूर दी जाती थी, पर उसमें से निर्वाह मात्र पर व्यय होने वाला अत्यन्त स्वल्प अंश ही उनके काम आता था। वस्तुतः वह धर्मकृत्यों के लिए विशुद्ध अमानत होती थी, जिसे परमार्थ प्रयोजनों में खर्च किया जाना ही निश्चित था।

साधु−ब्राह्मण की समय−समय पर दान−दक्षिणा देते रहना, वस्तुतः लोक−मंगल के अनेक प्रयोजनों की पूर्ति करना ही था। इसमें साधु के प्रति सन्देह रहित प्रगाढ़ विश्वास का भाव भी भरा था। साथ ही साधु भी उस विश्वास में कहीं कोई सन्देह आघात उत्पन्न न होने पावे, ऐसा उत्तरदायित्व निबाहने के लिए बाध्य था। जाँच−पड़ताल रहने पर चतुरता से कुछ बचा−चुरा लेना भी बुरा है, पर जहाँ विश्वास पर ही सब कुछ छोड़ दिया गया हो, वहाँ जिम्मेदारी सहस्र गुनी बढ़ जाती है। प्राचीनकाल का साधु कभी इस कसौटी पर खोटा सिद्ध नहीं हुआ। पितृगृह का—दक्षिण धन का—न्यूनतम निर्वाह से अधिक अपने लिए खर्च करना शास्त्र−परम्परा के अनुसार महापातक माना जाता रहा है। इस समय में दक्षिण का व्यक्ति गत स्वार्थ से खर्च करने वाला कोई महापातकी कहीं ढूँढ़े भी नहीं मिलता था।

ब्रह्म−भोज और दान−दक्षिणा का क्रम आज भी चलता है, पर दाता और ग्रहीता दानों ने ही इस पुण्य−परम्परा के परम प्रयोजन को एक प्रकार से विस्मरण ही कर दिया है। जिसके निमित्त इन पवित्र प्रचलनों का आविर्भाव हुआ था। अब ब्राह्मण वर्ग नहीं बचा, केवल वंश मात्र बन गया है। अब साधु भी नहीं बचा, केवल वंश मात्र चल रहा है। ऐसे साधु−ब्राह्मण अब उंगलियों पर गिनने लायक ही मिलेंगे—जिन्हें प्राचीनकाल की साधु−संस्था की सदस्यता का खरा अधिकारी माना जा सके। यह हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। ब्राह्मण की तुलना मस्तक से, मुख से की गई है। मस्तिष्क विकृत हो जाय, मुँह अपना कर्म त्याग दे तो फिर न शरीर का कोई ठिकाना रहेगा, न मन की सत्ता बचेगी, मूर्धा की विकृति को प्राणों का सर्वनाश ही समझा जाना चाहिए। आज ठीक यही हुआ है। साधु संस्था के नष्ट होने से देश की वह आधार−शिला ही ढह गई, जिसके ऊपर उच्चस्तरीय प्रगति का आलोक जगमगाता था और जिसके प्रकाश से समस्त विश्व प्रकाशवान हो रहा था।

कहने को अपने देश में आज भी जन−गणना के आधार पर 56 लाख साधु−संन्यासी और करोड़ों की संख्या में ब्राह्मण वंशज है। उन्हें ब्रह्म−भोज के निमन्त्रण भी मिलते हैं और दान−दक्षिणा का लाभ भी मिलता है। समाज में दूसरों की अपेक्षा उनका उच्च स्थान है। उच्च आसन उन्हें मिलता है और वन्दन−अभिवादन से सम्मानित किया जाता है। यह एक पक्षीय परम्परा निर्वाह है। जनता अपनी परम्परा निवाहती चली आ रही है—यह उसकी सज्जनता है, पर कुछ कर्तव्य दूसरे पक्ष का भी रह जाता है। प्रतिदिन तो उसे भी देना चाहिए। लोक−मंगल के लिए समर्पित−जीवन जीना, अपने प्रत्येक क्रियाकलाप को अनुकरणीय आदर्शों से ओत−प्रोत करना, संकटों से उबारने के लिए प्रबल प्रयासों से आगे आकर जन−नेतृत्व करना, साधु−संस्था के दोनों सदस्यों का सनातन कर्तव्य है। इसकी उपेक्षा करते रहा जाय और महान् पूर्वजों को उनकी विशेषताओं के कारण मिलने वाले सम्मान तथा धन−लाभ से लाभान्वित होते रहा जाय तो वह हर दृष्टि से अनीति मूलक होगा। विशेषतया उस वर्ग के लिए—जिससे कि मनुष्य−जाति ऊँची आशाऐं करती रही है, अपना मार्ग−दर्शक और भाग्य−विधाता मानकर उनकी चरण−रज मस्तक पर चढ़ाती रही है। ऐसा वर्ग भी यदि अपना उत्तरदायित्व भुला दे और गये−गुजरे लोगों की तरह ‘येन−केन प्रकारेण’ धन और सम्मान उपलब्ध करता रहे तो इसे अपने महान् राष्ट्र का, अपने महान् धर्म−दर्शन का दुखद पराभव ही कहा जायगा। इस पराभव का दण्ड ही हमें ‘सर्वतोमुखी’ पतन के रूप में भुगतना पड़ रहा है। चिर−काल से विश्व का भावनात्मक नेतृत्व भारत ही करता रहा है। अपनी असफलताओं ने समस्त विश्व को प्रभावित किया और अवसाद के गर्त में धकेला है।

समुन्नत भारत की मान्यता रही है कि ब्राह्मण को बलवान बनाया जाय तो समस्त राष्ट्र बलवान बनेगा और समस्त विश्व ऊँचा उठेगा। इसलिए उस वर्ग को प्रखर एवं समर्थ बनाये रखने के लिए सब कुछ करने का ध्यान रखा है। कारण वश अपराध बन जाने पर भी ब्राह्मण को क्षमा करने की परम्परा रही है, ब्रह्म−हत्या को बड़ा पाप माना जाता रहा है। कारण कि अमुक स्थिति में अपराध बन जाने पर भी वह ग्रहण उतर ही जायगा और अन्ततः उसके सुसंस्कार जन−समाज को अनेकानेक प्रकार से कल्याणकारी अनुदान देते रह सकेंगे। ब्राह्मण के प्रति साधु के प्रति—जो असाधारण सम्मान का भाव अपने देश में पाया जाता है, वह प्राचीनकाल में उस वर्ग के द्वारा किये जाने वाले तप, त्याग के अनुरूप ही था। जिस लक्ष्य के लिए साधु−संस्था के इन दोनों सदस्यों ने अपना समग्र बलिदान प्रस्तुत किया था, उसे देखते हुए जो लोक−श्रद्धा उसे मिली थी—वह सर्वथा उपयुक्त ही थी।

आज साधु−संस्था की, ब्राह्मण−सन्त की—दुर्गति क्यों हुई? इतना सुदृढ़ दुर्ग किस कारण विस्मार हो गया? इस पर सूक्ष्मदर्शी चिन्तन करने पर यह तथ्य सामने आता है कि उच्चतम मनःस्थिति के लोग साधु−संस्था में प्रवेश करते थे और अपनी अभिनव भावनाओं से उसकी उत्कृष्टता सुरक्षित बनाये रहते थे, वह आयात क्रम टूटा तो उस खण्डहर में उल्लू और चमगादड़ बसने लग गये।

‘भारतीय धर्म’ का दूसरा नाम—’वर्णाश्रम−धर्म’ है। भारतीय−जीवन, आदर्शों की सुदृढ़ शृंखलाओं से इंच−इंच बँधा हुआ है। ब्राह्मण जन−मानस को परिष्कृत बनाये रहने का उत्तरदायित्व सँभाले। क्षत्रिय अनाचार से निपटे, शक्ति की न्यूनता किसी दुर्बल को भी न खटकने दे। वैश्य−समाज के अभावों को दूर करे, उपार्जन और उत्पादन के स्रोत खोलें। शूद्र की आवश्यकता पूरी करे। पेट भरने, तन ढ़कने की न्यूनतम आवश्यकता हर किसी को पूरी करनी पड़ती है। परिवार का उचित पोषण भी अभीष्ट है। उतना समाज से लिया जा सकता है लेना चाहिए, दिया जा सकता है देना चाहिए। पर जीवन−लक्ष्य—ज्ञान, बल, धन एवं श्रम से संसार का भण्डार भरते हुए सर्वतोमुखी प्रगति में अपने आप को खपा देना—लोक−मंगल को लक्ष्य मानकर चलना—यही वर्णधर्म है। चारों वर्णों का सृजन इसीलिए हुआ। परम्परागत क्रम अपनाये रहने में कुशलता भी बढ़ती है और सुविधा भी रहती है। इसलिए वर्णधर्म प्रायः वंश−परम्परा से भी चलते रहते थे। पर वैसा कोई बन्धन नहीं था। वर्ण आवश्यकतानुसार बदले भी जा सकते थे। उनमें नीच−ऊँच का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। एक पिता के चार पुत्रों में कौन नीचा, कौन ऊँचा? एक ही रक्त के, एक ही जाति के प्राणी जन्म के आधार पर तो ऊँच−नीच हो भी नहीं सकते।

आश्रम धर्म का, प्रयोजन था आधा जीवन भौतिक प्रगति में और आधा जीवन पारमार्थिक प्रगति में नियोजित रखना। शरीर यात्रा के लिए, समृद्धि और साधना के लिए भौतिक प्रगति भी आवश्यक है। स्वास्थ्य, शिक्षा, सम्पत्ति, वंश−वृद्धि, परिवार−व्यवस्था, सुरक्षा आदि कार्यों के लिए जीवन का पूर्वार्ध उपयुक्त रहता है। इसलिए ब्रह्मचर्य और गृहस्थ के दो आश्रम इन प्रयोजनों को पूरा करने के लिए निर्धारित किये गये। जीवन का उत्तरार्द्ध परमार्थ प्रयोजनों के लिए है। वानप्रस्थ और संन्यास की संरचना इसी उद्देश्य के लिए की गई है। इन्हें दूसरे शब्दों में साधु−संस्था के दो भाग कह सकते हैं। वानप्रस्थ ब्राह्मण−धर्म है, क्योंकि उसमें किसी स्थान पर रहने, अध्ययन एवं तप करके आत्मबल बढ़ाने की, गुरुकुल आदि आश्रम चलाने की व्यवस्था है। संन्यासी परिव्राजक को कहते है। व्यापक क्षेत्र में भ्रमण करते हुए स्थान−स्थान की समस्याओं को समझना और वहीं मोर्चे पर पहुँच कर उनसे निपटना संन्यासी का कार्य है। ऐसे जीवन में परिवार लेकर नहीं चला जा सकता, अस्तु संन्यासी बिना पत्नी के रहते थे। जब कि वानप्रस्थ के एक स्थान पर रहने के कारण पत्नी को साथ रखने में सुविधा रहती थी। नारी तो नर की सदा सहायिका एवं पूरक ही रही है। उसे छोड़ना, परिवार से भागना वैराग्य नहीं है। ‘वैरागी’ शब्द तो राग रहित के लिए प्रयुक्त होता है। विरक्त —जिसकी लोभ−मोह में अनुरक्ति न हो। स्त्री−बच्चों को पाप−पिटारी कभी नहीं माना गया। किस स्थिति में पत्नी को साथ रखा जाय किस में नहीं? यह केवल सुविधा−असुविधा की दृष्टि से निर्णय किया जाता था। वानप्रस्थ और संन्यासी दोनों मिलकर ब्राह्मण और साधु की अनवरत आवश्यकता पूरी किया करते थे।

भारतीय−जीवन का उत्तरार्द्ध परमार्थ प्रयोजनों के लिए नियम निर्धारित था। यदि स्वास्थ्य या परिस्थितियाँ इतना जीने की न हों तो सम्भावित आयु का उसी आधार पर विभाजन करते थे। बच्चे के उत्पादन तथा उनके स्वावलम्बन का आरम्भ से ही ऐसा ध्यान रखते थे कि उत्तरार्द्ध में प्रवेश करते समय कोई पारिवारिक जिम्मेदारियाँ शेष न रहें। बीस−पच्चीस वर्ष की आयु में एक−दो सन्तानें पैदा कर ली जायँ तो पचास की आयु होने तक वे समर्थ और स्वावलम्बी हो जाती थीं। कदाचित कोई छोटा रह गया तो बड़े भाई अपना नैतिक उत्तरदायित्व मानते थे कि छोटे भाई−बहिनों का पुत्रवत् लालन−पालन करें। इस प्रकार पारिवारिक उत्तरदायित्वों से यथा समय निपट लिया जाता था। पत्नी आमतौर से अपने बेटे−पोतों, पुत्र−वधुओं, दौहित्रों में प्रसन्नतापूर्ण जीवन−यापन करती थीं। जिन्हें पति की तरह सेवा−साधना में अपनी उपयोगिता दिखाई पड़ती थी, वे उनके साथ लोक−मंगल प्रयोजन पूरे करने के लिए भी निकल पड़ती थीं। आगे चलकर यही वानप्रस्थ संन्यासी के रूप में एक कदम और आगे बढ़ाते थे। यही थी—प्राचीनकाल की आश्रम−व्यवस्था।

आश्रम−धर्म के अनुसार समाज के सुयोग्य, सक्षम, भावनाशील परिपक्व बुद्धि के—वासना तृष्णा से विमुक्त व्यक्ति वानप्रस्थ अथवा संन्यास−आश्रम में प्रवेश करते हुए ब्राह्मणों एवं साधुवर्ग की आवश्यकता पूरी करते थे। हिमालय से गलकर बर्फ जिस तरह गंगा−यमुना के जल−प्रवाह को गतिशील बनाये रहती है। उसी प्रकार गृहस्थ में परिपक्व हुए दूरदर्शी लोग वानप्रस्थ और संन्यास वर्ग का सृजन करते थे और साधु−संस्था की उत्कृष्टता अक्षुण्ण बनी रहती थी।

लोभ−मोह के वशीभूत रहकर वासना और तृष्णा की गुलामी मरण काल तक स्वीकार करने की प्रवृत्ति जब पनपी तो लोगों ने साधु−संस्था में प्रवेश करना बन्द कर दिया। वानप्रस्थ की तपश्चर्या कौन करे? परिव्राजक के सम्मुख रहने वाली कठिनाई कौन सहे? विलासी प्रक्रिया कौन छोड़े। जब यह असमंजस सामने आये तो प्रबुद्ध और परिपक्व लोगों का साधु−संस्था में घोर अभाव हो गया। सम्मान और अर्थ−लाभ का वह स्थान रिक्त देखकर निहित स्वार्थों ने उस पर कब्जा कर लिया। ब्राह्मण वंश विशेष का पर्यायवाची बन गया और साधु की पहचान वेश विशेष के आधार पर की जाने लगी। ऐसी स्थिति में दुर्गति होनी अवश्यम्भावी थी, सो होकर रही।

जन−समाज ने गृहस्थ से आगे बढ़कर साधु−संस्था में प्रवेश करना छोड़ा। नामधारी ब्राह्मण संन्यासी उत्कृष्ट विशेषताओं के आधार पर जन−मानस का उत्कर्ष करने में असमर्थ हो गये। इस उभय−पक्षीय संकट ने भारतीय−समाज की उस महती परम्परा का सत्यानाश करके रख दिया, जिसके कारण हम किसी समय समस्त विश्व का सर्वतोमुखी मार्ग−दर्शन कर रहे थे।


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