सद्भावनाओं का सत्प्रवृत्तियों में नियोजन

January 1974

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

शस्त्र जिसके भी हाथ में पड़ जाता है, उसी की विजय का साधन बनता है। सम्पदा और प्रतिभा ऐसी वस्तु है, जिनका उपयोग जहाँ भी किया जायगा, वहीं प्रगति का चमत्कार दिखाई पड़ेगा। इसलिये दूरदर्शियों का दृष्टिकोण यह रहा है कि सम्पदा और प्रतिभा को—ऋद्धि−सिद्धि को असुरता के हाथों नहीं जाने देना चाहिए। चली जाँय तो उनसे छीनकर उसे देवताओं के संरक्षण में ही सौंपना चाहिए।

वानप्रस्थ स्वयं तो कार्य करेंगे ही। शाखा−संगठनों ने उत्साह और पुरुषार्थ तो भरेंगे ही। जिन सत्प्रवृत्तियों का संचालन एवं अभिवर्धन सम्भव होगा, वह तो करेंगे ही। प्रवचन और उद्बोधन के जितने उपाय हो सकते है, उतने तो प्रयुक्त करेंगे ही, पर इतनी बड़ी दुनिया की—इतनी सुविस्तृत मानव−जाति की अनेकानेक बहुमुखी समस्याओं का निराकरण यह छोटी सृजन−सेना ही तो नहीं कर सकती। इस महान प्रयोजन के लिये प्रचुर साधनों और असंख्य प्रखर व्यक्तित्वों के नियोजन की आवश्यकता पड़ेगी। वानप्रस्थों की सेना अपने जन−संपर्क काल में उसे जुटाने का भी निरन्तर और अनवरत प्रयास करेगी।

ज्ञान−यज्ञ से प्रभावित लोगों की सिर हिलाकर सहमति प्रकट कर देने या विचारों की सराहना कर देने मात्र से छुटकारा नहीं मिल जायगा। वरन् इस बात के लिये प्रेरित किया जायगा कि यदि उन्हें नव−निर्माण की विचारधारा पसन्द आई है तो इस दिशा में चलने के लिये भी कुछ कदम उठायें। केवल मौखिक−सहानुभूति से ही तो कुछ बनने वाला नहीं है। प्रयोजन तो क्रिया से सिद्ध होता है। उत्कृष्ट विचारणा का संयोग जब तक आदर्श−कर्तृत्वों के साथ न हो, तब तक उसे नपुंसक और निरर्थक ही कहा जाता रहेगा। ऐसा अनुत्पादक समर्थन यदि हम संग्रह भी करते रहे तो उससे कुछ बात बनेगी नहीं। ज्ञान−यज्ञ की सार्थकता इस बात में है कि वह प्रखर कर्मठता को जन्म दे सकें।

जिस प्रकार ‘अखण्ड ज्योति’ द्वारा चिर−काल से दिया जाने वाला उद्बोधन अब परिजनों को कर्मठता की राह पर घसीट कर ले आया है और उन्हें सृजन−सेना के सैनिकों की पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया है उसी प्रकार अपना उद्बोधन, ज्ञान−यज्ञ, प्रखरता सक्रियता उत्पन्न करने वाला होना चाहिए। वानप्रस्थों की अंतर्दृष्टि इस केन्द्र पर निरन्तर केन्द्रित रहेगी और कार्य−क्षेत्र में जन−संपर्क में− जहाँ भी गहरी सहानुभूति दिखाई देगी, वहाँ उसे रचनात्मक सक्रियता की दिशा में धकेलने का प्रयत्न किया जायगा।

लोगों के पास साधनों की कमी नहीं—पैसा इन दिनों फैला−फैला फिर रहा है—शिक्षा बहुत बढ़ गई—चतुरता और कुशलता में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है। कमी एक ही है कि यह सम्पत्ति और बुद्धि की दोनों विभूतियाँ असुरता के हाथों पड़ गई। उनका उपयोग वासना, तृष्णा और अहंकारिता की पूर्ति के लिये हो रहा है। संग्रह की—अभिवर्धन की—अन्धी दौड़ लग रही है। इसका सदुपयोग क्या हो सकता है, यह किसी के ध्यान में नहीं।

लोगों को कहा जायगा कि सम्पत्ति का संग्रह ही बुद्धिमानी नहीं है—प्रतिभा का होना ही सराहनीय नहीं है, मूल बात यह है कि इन उपलब्धियों को किसने—किस प्रयोजन के लिये खर्च किया? इसी स्थान पर बुद्धिमान लोग मूर्ख बनते हैं जिससे विकास हो सकता था, उसे विनाश में प्रयुक्त करते हैं। हम उपार्जन, अभिवर्धन की विधि न बता सकें तो हर्ज नहीं, उसे दूसरे असंख्यों लोग बता रहे हैं और बहुत कुछ उसके लिये बना भी रहे हैं। हमें सदुपयोग की आवश्यकता समझने की दिशा में उद्बोधन करना है और जहाँ सम्भव हो सके, वहाँ उसके लिये साहस भी जुटाना है।

लोगों के पास फालतू समय की कमी नहीं, वह उसे ऐसे ही गपशप और आलस्य−प्रमाद में गुजारता है। इस समय का एक छोटा−सा अंश भी श्रमदान के माध्यम से लोक−मंगल के लिये जुटाया जा सके तो थोड़े−से व्यक्ति भी मिलकर कई उपयोगी सत्प्रवृत्तियाँ आरम्भ कर सकते हैं और उस प्रवाह में देखा−देखी अन्य लोग भी बहने लगते हैं। दुष्कर्मों की तरह सत्कर्मों की भी बेल फैलती है। दुष्टता में—कुकर्मों में साथ देने वाले यदि उपजाये और बढ़ायें जा सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि लगनशीलता अपने प्रभाव से सद्भावनाओं को आकर्षित न करे और सज्जनता को प्रोत्साहित करके उसे सत्प्रवृत्तियों में न जुटा सके।

मिल−जुलकर किये जा सकने वाले अनेकों कार्य सामने पड़े हैं। श्रद्धा, श्रम और सहयोग न जुट पाने से अनेकों योजनाएँ मृत प्रायः पड़ी हैं। गाँव−गाँव रात्रि−पाठशालाएँ, प्रौढ़−पाठशालाएँ, व्यायामशालाएँ, उद्योगशालाएँ, शाक−वाटिकाएँ, पुस्तकालय, सत्संग−गृह आदि स्थापित करने और चलाने की आवश्यकता है। जिनमें श्रद्धा जगे, उन्हें तत्काल ऐसे किसी काम में लगाने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, अन्यथा वह आदर्शवादी उत्साह कुछ ही समय में पानी के बबूले की तरह टूट−फूट कर हवा में विलीन हो जायगा।

लोग कितने ही उद्योग−धन्धे खोलते और चलाते हैं। दृष्टिकोण अधिकाधिक पैसा कमाना रहता है, भले ही उससे जन−समाज का भविष्य अन्धकारमय बनता हो। उदाहरण के लिये नशीली चीजों का उत्पादन आज आकाश चूम रहा है। सिगरेट उद्योग में लाखों मनुष्य और अरबों रुपया लग रहा है। यदि इस पूँजी और श्रम−शक्ति को जन−कल्याणकारी व्यवसायों में लगाया जा सके तो देश की अत्यन्त महत्वपूर्ण जीवन−मरण की आवश्यकताएँ पूरी हो सकती हैं। जैसे यदि इसी धन और श्रम को पशु−पालन अथवा निवास−गृह बनाने में—पानी और बिजली उत्पन्न करने में लगा दिया जाय तो लोगों की सुविधा और समृद्धि में आशातीत वृद्धि हो सकती है।

जिन्हें व्यवसाय में रुचि है। जो भूखे−नंगे नहीं मर रहे हैं। जो थोड़ा कम लाभ प्राप्त करने पर भी चैन से रह सकते हैं, उन्हें कहा जाय कि वे किसी प्रकार धन कमाने के लिये पागल न बनें। व्यवसाय ही करना हो तो ऐसे काम करें, जिनसे जन−हित का अभिवर्धन होता हो। यदि यह बात लोगों के गले उतारी जा सके—पूँजी को सृजनात्मक व्यवसायों में लगाने के लिये आमन्त्रित किया जा सके तो इतने मात्र परिवर्तन से भी देश का कायाकल्प हो सकता है।

उदाहरण के लिये लोक−मानस को प्रभावित करने वाले उद्योगों को ही ले लें। सत्साहित्य प्रकाशन आज की अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता है पतन के गर्त में धकेलने वाली पुस्तकें और पत्रिकाएँ आँधी तूफान की तरह छप और खप रही हैं। इनकी प्रतिद्वन्द्वता में सत्साहित्य−निर्माण का काम इतना बड़ा पड़ा है कि उसने अरबों रुपयों और लाखों मनुष्यों को श्रम खपाया जा सकता है। देश में 14 मान्यता प्राप्त भाषाएँ है, उनमें प्रेरक साहित्य नहीं के बराबर है। उसे हजार गुनी गति से बढ़ाया जाय तो भी युग की आवश्यकता को देखते हुए कम ही पड़ेगा। यही बात चित्रों के बारे में भी है। चित्रों में आकर्षण होता है और प्रभाव भी। वे घरों की शोभा बढ़ाने वाले उपकरणों में एक आवश्यकता बन गये हैं। आज तीन चौथाई चित्र कामुकता की पशु−प्रवृत्ति भड़का कर लोगों के पल्ले विष−बीज बाँधने के लिये छापे जाते हैं। प्रकाशक और विक्रेता जल्दी ही मालामाल तो अवश्य हो जाते है, पर यह नहीं सोचते कि इस कसाई की कमाई से उन्होंने कितनों का शारीरिक, मानसिक और नैतिक स्वास्थ्य चौपट करके रख दिया। चित्र प्रकाशन में यदि पूँजी और सूझ−बूझ लगे तो कोई कारण नहीं की सुरुचि संवर्धन की सामग्री को बाजार में स्थान न मिले—लोग उसे न खरीदे। इस स्तर की वस्तुएँ होंगी तो वे बिकेंगी भी और उनसे असुरता की बाढ़ को रोकने वाली प्रतिद्वन्द्वता को भी कुछ करने का अवसर मिलेगा। आज तो मैदान खाली पड़ा है। असुरता का ही पूर्ण साम्राज्य छाया हुआ है—उसी की ‘मोनोपौली’ है।

फिल्म−उद्योग भी उसी स्तर का है। भारत से कुल मिलाकर जितने अखबार पढ़ने वालों की संख्या है, उससे अधिक सिनेमा देखने वालों की है। सारे अखबार मिलकर जैसा कुछ वातावरण बना सकते हैं, उतना अकेला सिनेमा बना सकता है। फिल्म−उद्योग में खरबों रुपयों की पूँजी लगी है, लाखों लोग काम करते हैं। महत्वपूर्ण प्रतिभाएँ उससे जुड़ी हुई हैं, पर उसकी दिशा जिस ओर है वह सबके सामने है। जन−मानस को विकृत करने में उसने जितना विष घोला है, उतना शायद ही अन्य किसी उद्योग ने घोला हो। दोष उद्योग का नहीं, वह तो शस्त्र मात्र है। प्रयोक्ता जिसके लिये उसका उपयोग करेंगे, प्रगति उसी दिशा में होगी। यदि यह उद्योग आदर्शों के अभिवर्धन के लिए— सत्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देने के लिए—रचनात्मक मार्ग−दर्शन के लिए प्रयुक्त हुआ होता तो आज हमारे समाज की स्थिति जो है, उससे सर्वथा भिन्न रही होती। नव भारत हमारे देश में सृजनात्मक प्रवृत्तियाँ उफन रही होतीं—तब हमारे मन−मस्तिष्क सज्जनता और शालीनता से ओत−प्रोत हो रहे होते−तब हमारी महत्वाकांक्षायें किसी अन्य दिशा में ही अग्रगामी हो रही होती।

साहित्य प्रकाशन,चित्र प्रकाशन, फिल्म−निर्माण, रिकार्ड−निर्माण जैसे कुछ उद्योग ऐसे है, जिनमें तत्काल अधिकाधिक पूँजी लगानी चाहिए और देवत्व के पक्ष में लोक−मानस को मोड़ने का अभिनव प्रयत्न किया जाना चाहिए। यह कार्य वर्तमान उद्योगपति भी कर सकते हैं। उनका लालच यदि आगे न बढ़ने दे तो जन−स्तर पर भी पूँजी जुटाई जा सकती है। लिमिटेड कम्पनियाँ− सहकारी समितियाँ जैसे अर्थ−संस्थान खड़े हो सकते हैं। शेयरों और ऋणों के आधार पर पूँजी जमा करके इस प्रकार के उद्योगों के ढांचे खड़े किये जा सकते हैं। आज न तो पूँजी कम है—न प्रतिभाओं का अभाव है। कमी केवल आदर्शों की दिशा में चलने के साहस की है। बहुत जल्दी, बहुत अधिक मात्रा में धन कमाने के लालच पर यदि अंकुश रखा जा सके और सामान्य लाभ से सन्तोष हो सके तो आज मारी−मारी फिरने वाली लक्ष्य−विहीन और विनाश में प्रवृत्त औद्योगिक क्षमता उतना काम कर सकती है, धकेल देने वाली दुस्साहस पूर्ण योजना,पूरी तरह सफल होने पर भी नहीं कर सकती।

पूँजी और प्रतिभा की विभूतियों को लोक−महल के लिए मिली हुई ईश्वर−प्रदत्त अमानत मानने की मान्यताओं को जन−मानस में स्थान मिल सकें और इन उपलब्धियों के सदुपयोग की बात समझ में आने लगे तो नवनिर्माण का कठिन प्रतीत होनी वाला कार्य अति सरल तथ्य बनकर सामने खड़ा हो सकता है। ‘अखण्ड−ज्योति परिवार’ के सदस्यों ने इस दिशा में थोड़ा साहस दिखाया है तो ‘युग−निर्माण योजना’ की सृजन−सेवा में लाखों सक्रिय सदस्य, कर्मठ−कार्यकर्ता सम्मिलित है और अब व्रतधारी वानप्रस्थों का हलचल मचाने वाला वर्ग उभरता चला आ रहा है। थोड़ा−थोड़ा समय देने से ही यह सम्भव हुआ। दस−दस पैसा नित्य निकालने जैसी छोटी उदारता ने ज्ञानयज्ञ के प्रकाश विस्तार को गगन−चुम्बी बनाया है। यही उदार सेवा−भावना—यही परमार्थ−परायणता यदि अगले दिनों बढ़ती रही तो सार्वजनिक सेवा−क्षेत्र में आश्चर्यजनक और आशातीत कही जा सकने वाली क्रान्तिकारी योजनाएं सम्पन्न होती दिखाई देंगी। परमार्थ बुद्धि की दिशा मिल सके तो धर्म एवं पुण्य के नाम पर जितना कुछ हो रहा है, उतने से ही हम अपने देश का ही नहीं, समस्त विश्व का कायाकल्प कर सकते हैं।

इसी के समान्तर है, पूँजी और प्रतिभा का सदुद्देश्य के लिए व्यावसायिक उपयोग। जिसका थोड़ा−सा संकेत ऊपर की पंक्ति यों में किया गया है। पशु −पालन,कुटीर−उद्योगों का संवर्धन, शिक्षण−संस्थाओं का संचालन जैसे कार्य विशुद्ध, आर्थिक दृष्टिकोण से भी खड़े किये जा सकते है। पूँजी और श्रम लगाकर उचित लाभ लेने में कोई बुराई नहीं है। दान−पुण्य न,सही—सेवा और परोपकार न सही मनुष्य अपनी सद्भावना का परिचय इस प्रकार तो दे ही सकता है कि देश की महती आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनी आजीविका के ऐसे माध्यम चुनें, जिनसे मानवता को ऊँचा उठने और आगे बढ़ने में सहायता मिल सके। ऊपर चार विशिष्ट उद्योगों की ओर जो संकेत किया गया है, उन्हें तो विचार−क्रान्ति, नैतिकक्रान्ति और बौद्धिक−क्रान्ति की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण आधार माना जा सकता है। साहित्य−प्रकाशन, चित्र प्रकाशन, रिकार्ड−निर्माण एवं फिल्म−निर्माण के लिए यदि पूँजी और प्रतिभा जुट सके तो वह व्यावसायिक आधार भी नव−निर्माण की पृष्ठ−भूमि बनाने में अभिनव योगदान कर सकते हैं।

वानप्रस्थ कार्य−क्षेत्र में उतरेंगे, जन−संपर्क बढ़ावेंगे और उद्बोधन के अतिरिक्त इस उदय होता दिखाई दे, उसे अविलंब किसी सत्प्रवृत्ति में नियोजित कर दिया जाय।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118