स्याम देश जिससे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं

January 1974

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प्राचीन समय में भारत इतना ही छोटा न था, जितना कि अब है। उसका विस्तार प्रायः सम्पूर्ण विश्व में था। शासन−तन्त्रों की स्थापना में भारत ने सदा स्थानीय लोगों को ही प्रशिक्षित किया है और राज−काज चलाने की जिम्मेदारी उन्हीं के कन्धों पर डाली है। राम ने सोने की लंका जीती, पर वहाँ से एक लोहे की कील भी अयोध्या नहीं लाये। जिस पुष्पक−विमान पर बैठ कर आये थे, वह भी उन्होंने वापिस कर दिया। राज्य विभीषण को सौंपा गया। यही नीति अन्यत्र भी रही। थोड़े दिनों प्रशिक्षण के लिए कहीं ठहरना पड़ा तो, यह बात दूसरी है। अन्यथा चक्रवर्ती शासन पद्धति के अंतर्गत न्याय−नीति पर चलने के लिये बाध्य करने लायक शक्ति हाथ में रखना वे पर्याप्त मानते थे। असली भारत विस्तार तो साँस्कृतिक एवं धार्मिक प्रक्रिया के साथ जुड़ा था। भारत का वास्तविक सीमांकन इस धर्म नेतृत्व के आधार पर ही किया जाता रहा है। इस दृष्टि से वह बौद्धकाल तक सम्पूर्ण एशिया में छाया रहा। इससे पूर्व तो उसकी परिधि समस्त भूमण्डल के सुदूर प्रदेशों तक को छूती रही है।

एक हजार वर्ष पहले के निकटवर्ती भूतकाल में भारत का वर्चस्व मध्य एशिया और सुदूर पूर्व के द्वीप समूहों तक फैला हुआ था। इन पंक्ति यों में चर्चा उन द्वीपों की हो रही है, जिन्हें आज हिन्द−चीन के नाम से पुकारते हैं। भारत की सीमा से लगा हुआ बर्मा देश है। उससे आगे श्याम मिला हुआ है। अब सन् 1948 से उसका नाम बदलकर ‘थाईलैण्ड’ रख दिया गया है।

थाईलैण्ड संसार का एक मात्र ऐसा देश हैं, जहाँ बौद्धधर्म—राजधर्म भी है। अन्य देशों ने तो भारत की परम्परागत संस्कृति इन थोड़े ही दिनों में गँवा दी, पर यह अकेला देश ऐसा है, जिसमें वर्तमान भारत की परिधि से आगे जाकर यह देखा जा सकता है कि प्राचीनकाल में भारत की रीति−नीति का क्या स्वरूप था? वहाँ जो देखने को इन दिनों भी मिलता है, उससे यह पता लगाया जा सकता है कि भारत किन मान्यताओं और आदर्शों के कारण उन्नति के उच्च स्तर पर पहुँचा था और शान्ति का सन्देश सुदूर क्षेत्रों तक पहुँचाने में किन परम्पराओं के कारण सफल हुआ? आज कई बातों में थाईलैण्ड हमें ऐसी शिक्षाएँ और प्रेरणाएं दे सकता है, जिन्हें अपना कर हम प्रस्तुत दुर्गति के गर्त से उबर सकते हैं।

उस देश में पहले हिन्दू−धर्म प्रचलित था, पीछे बौद्धधर्म पहुँचा, बौद्धधर्म का प्रवेश सन् 422 में हुआ। इससे पूर्व वहाँ ब्राह्मण−धर्म प्रचलित था। दोनों धर्मों का वहाँ सुन्दर समन्वय हुआ है। दार्शनिक भिन्नता को वहाँ पूरी सहिष्णुता के साथ सहन किया गया है। इतना ही नहीं, उनका परस्पर समन्वय भी भली प्रकार हुआ है। साम्प्रदायिक मतभेद के कारण जहाँ अन्यत्र के लोग विग्रह और विद्वेष खड़ा करते हैं, वहाँ इस तरह की कभी कोई बात हुई ही नहीं। बौद्धधर्म और हिन्दू−धर्म सहोदर भाई की तरह परस्पर प्रेमपूर्वक रहते रहे हैं।

बौद्धधर्म के आगमन से पूर्व वहाँ हिन्दू−धर्मानुयायी राजा राज करते थे। राजा धर्माशोक ने भव्य विष्णु−मंदिर बनवाया था। उसके बाद भी अनेक हिन्दू−राजा देवी−देवताओं के मन्दिर बनाते रहे, जिनका अस्तित्व अभी भी जीवन्त इमारतों तथा भग्नावशेषों के रूप में विद्यमान है। फ्रोके के शिव−मंदिर की अभी भी ब्राह्मण−पुजारी पूजा करते हैं। बौद्ध वर्चस्व होने पर भी अभी वहाँ ब्राह्मणों की मान्यता उसी प्रकार है। ब्राह्मण को वहाँ ‘ब्रह्म’ कहते थे, पीछे उसी का अपभ्रंस होकर ‘फ्रंम’ बन गया। फ्रंम नाम से वहाँ ब्राह्मण वर्ग का परिचय मिलता है। ‘देव−नगर’ उनकी एक पूरी बस्ती ही बसी है। बौद्ध−परिवारों में धार्मिक कर्मकाण्ड कराने यह फ्रंम लोग ही जाते हैं।

हिन्दू−त्यौहार और बौद्ध−त्यौहार दोनों सर्वसाधारण के लिए समान रूप से हर्षोत्सव का विषय रहते हैं। मकर−संक्रान्ति, बैसाखी, होली, दिवाली भारत की तरह ही मनाये जाते हैं। होली पर पानी उलीचने का—एक दूसरे को भिगोने का उन्माद भारत से घट कर नहीं, वरन् बढ़−चढ़कर ही देखा जा सकता है। स्थानीय नदियों में गंगा माता की भावना करके वहाँ के निवासी नदी−प्रवाह में दीपक तथा पुष्पों के दाने बहाते हैं। यहाँ के राजा वर्ष में एक बार राजा जनक की तरह हल चलाते हैं और धार्मिक उत्सव में साधारण नागरिक की तरह सम्मिलित होते हैं। मुहूर्त और ज्योतिष का प्रचलन वहाँ भी है। राजकीय समारोहों का पूजा−विधान अभी भी वहाँ ब्राह्मण−वंशी राज−गुरु ही मन्त्रोच्चारण के साथ कराता है।

बेकौक के एक प्राचीन मन्दिर में ब्रह्म, विष्णु, महेश, गणेश, दुर्गा आदि देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित हैं। खण्डहरों में उपलब्ध कितनी ही देव−प्रतिमाएं अब वहाँ के राष्ट्रीय−संग्रहालय में सुरक्षित है। ब्रह्म की वहाँ भारत की तरह उपेक्षा नहीं है, वरन् घरों में ब्रह्माजी प्रतिष्ठापित रहते हैं। बेकौक के प्रधान होटल ‘इरावन’ के द्वार पर ब्रह्माजी की भव्य प्रतिमा स्थापित है। इसी प्रकार विष्णु भगवान की मूर्तियाँ भी जन−जीवन में आदर पाती हैं। छठी शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी तक की अवधि में वहाँ हिन्दू−देवता आदर पूर्वक पूजे जाते रहे हैं। खुदाई में प्राप्त उस समय की उन सभी देवी−देवता की मूर्तियाँ मिली हैं, जो भारत में प्रमुखता प्राप्त करते हैं। बेंकौक में ऊँची टीकरी पर बने एक बौद्ध−मन्दिर में शिवलिंग एवं नंदी की भी स्थापना है और पूजा−अर्चा होती है।

बुद्ध के बाद उस देश के उपासकों में राम का नम्बर आता है। बौद्ध−शिक्षाओं की तरह ही वहाँ रामायण कथा भी लोक−प्रिय है। लवपुरी में हनुमान की मूर्तियों की भरमार है।

फाईसुवन की खुदाई में भगवान राम की मूर्ति मिली है। बस की टिकटों तक पर राम के चित्र छपे रहते हैं। बेकौक के राष्ट्रीय−संग्रहालय के बाहर धनुषधारी राम की एक विशाल मूर्ति खड़ी हुई है और राष्ट्रीय-नृत्य-गृह के बाहर वैसी ही विशाल-काय गणेश-प्रतिमा स्थापित है। कुछ सरकारी विभागों का राज्य−चिन्ह ‘गणेश’ है। कला−विभाग के द्वार पर ‘विश्वकर्मा’ की मूर्ति स्थापित है।

थाईलैण्ड की आबादी प्रायः डेढ़ करोड़ है। उसमें 25 हजार भारतीय मूल के लोग बसते हैं। जो ईसा की प्रथम शताब्दी में भारत से वहाँ जाकर बसे लोगों की वे सन्तानें हैं। उन्होंने थाई−जनता के साथ अपने को पूरी तरह घुला−मिला लिया है। इसका क्षेत्रफल 1 लाख, 98 हजार वर्गमील है। इसकी सीमाएँ वर्मा, कम्बोडिया, लाओस और मलेशिया को छूती है।

थाई−भाषा में 40 प्रतिशत से अधिक शब्द ‘संस्कृत’ के हैं। इसके अतिरिक्त पाली एवं प्राकृत के शब्द भी बहुत हैं। वर्णमाला देवनागरी से मिलती−जुलती है। स्वर और व्यञ्जनों का क्रम भी लगभग वैसा ही है। भारत की धार्मिक विधि−व्यवस्थाओं—पौराणिक −कथाओं—तथा बुद्धचर्या का उल्लेख करने वाला साहित्य ही प्राचीन काल में वहाँ लिखा जाता रहा है। जो भी पुराने हस्त−लिखित ग्रन्थ वहाँ मिलते हैं, उनमें यही विषय है, या कुछ ग्रन्थ अन्य विषयों के भी मिले हैं। थाईलैण्ड के सिनेमा−घरों में भारत की धार्मिक−फिल्में सफलता पूर्वक चलती हैं।

रामायण कथा की नृत्य− नाटिकाऐं उस देश में प्रत्येक पर्वोत्सव पर होती रहती हैं। उसमें राज−परिवार के तथा उच्च स्तर के लोग अभिनय करते हैं। जनता उनमें बहुत रस लेती है। राम−चरित्र वहाँ बच्चे−बच्चे को याद हैं, वहां वह बहुत ही लोक−प्रिय भी है।

थाईलैण्ड के प्राचीन साहित्य में भारतीय कथा−पुराणों का छाया अनुवाद ही भरा पड़ा है। अधिकाँश प्राचीन ग्रन्थ बुद्ध−उपदेश, आचार−विधान एवं जातक−कथाओं से सम्बन्धित मिलते हैं।

राजवंशीय−इतिहास एवं धर्म−प्रचारकों के क्रियाकलाप का प्राचीन विवरण प्राप्त करने से सही पता चलता है कि भारतीय मूल के निवासी समय−समय पर वहाँ पहुँचते रहे हैं और उस देश की प्रगति एवं समृद्धि का आधार बनाते रहे हैं। उस देश के मूल नागरिकों को उन्होंने अपने से पृथक नहीं रखा। उनके साथ धुलने तथा उन्हें अपने में घुलाने का ऐसा प्रयत्न करते हैं कि अब थाई−जाति का वंश−रक्त की दृष्टि से पृथककरण करना सम्भव नहीं रहा।

राजधानी बेंकोक को मंदिरों का नगर कहा जा सकता है। यहाँ तीन सौ बड़े बौद्ध−मन्दिर हैं। इनमें भिक्षु रहते हैं और धर्म−शिक्षा के उपयोगी संस्थानों का संचालन करते हैं। फ्राकियों−मन्दिर में नीलम−रत्न की बनी बहुमूल्य प्रतिमा है और दीवारों पर रामायण−कथानक के भित्तिचित्र बने हैं। दर्शनीय स्थानों में अयोध्या, लवपुरी, विष्णु−लोक, समुद्रप्रकरण, प्रथम नगर विशेष रूप से आकर्षक हैं। सेनान नदी के बीचों–बीच टह्वापू पर बना बौद्ध−मंदिर निर्माणकर्ताओं की जीवट का परिचय देता है। इसके अतिरिक्त हिन्दू−देवी−देवताओं की मूर्तियों वाले मन्दिरों तथा बौद्ध–बिहारों का अस्तित्व हर छोटे−बड़े स्थान में पाया जा सकता है।

मगध के चन्द्रगुप्त नामे बौद्ध−भिक्षु ने इस देश को बौद्ध−वृक्ष, गृद्धबूट पर्वत आदि के उपलब्ध अवशेषों से उस देश में बौद्धधर्म की प्राचीनता सहज ही प्रमाणित होती है। मुँहुसीतेप में संस्कृत भाषा के प्राचीन शिलालेख मिले हैं। मापमारबम के उपलब्ध शिला−लेख भी उस देश पर भारतीय संस्कृति का वर्चस्व प्रमाणित करते हैं।

बौद्ध और हिन्दू−धर्म परस्पर इतनी घनिष्टता के साथ थाईलैण्ड में धुल गये हैं कि उनकी पृथकता कठिनाई से ही पहचानी जा सकती है। समन्वय, समझदारी एवं सहिष्णुता की यहाँ जैसी रीति−नीति अन्यत्र भी अपनाई गई होती तो साम्प्रदायिक विद्वेष का कहीं कोई दृश्य दिखाई न पड़ता और धर्म−तत्व के प्रति सहज ही सबकी श्रद्धा जमी रहती।

थाईलैण्ड के बौद्ध−मन्दिरों में नारायण, विनायक, शिव,ऋषि आदि की प्रतिमाएँ भी हैं और उन्हें क्या बौद्ध, क्या हिन्दू समान श्रद्धा के साथ पूजते हैं। यहाँ की जनता सरल और धार्मिक वृत्ति की हैं। प्रत्येक कार्यालय, आवास स्थान और विद्यालय में यहाँ एक छोटा मन्दिर बना होगा, जिसे चाओवी कहते हैं। यहाँ नमन करने के उपरान्त ही अपना काम आरम्भ करते हैं। राजधानी बेंकोक में शाही नौसेना के इन्टर नेशनल होटल ‘इरावन’ के प्रवेश द्वार पर चतुर्मुखी ब्रह्मा की भव्य मूर्ति स्थापित ही नहीं पूजित भी हैं।

नखोन पथोम नगर के राजोद्यान में 12 फुट ऊँचे चबूतरे पर विनायक गणेश की विशाल−काय और अत्यन्त भव्य प्रतिमा स्थापित है। यहाँ कोई पुजारी तो नहीं रहता, पर प्रातःकाल वहाँ जो पुष्प बिखरे मिलते हैं, उनसे यह सहज ही जाना जा सकता है कि वहाँ के लोग भाव पूर्वक उन प्रतिमाओं को श्रद्धा पूर्वक नमन−पूजन करते हैं।

थाईलैण्ड का राजवंश अपने को राम का वंशज मानता था और उसे वहाँ ‘रामधिपति’ कहकर पुकारा जाता था। सन् 1350 में वहाँ का शासक ‘राम’ नाम से विख्यात था। उसने अयोध्या नामक नगर की स्थापना की। वहाँ के राज−मन्दिर की दीवारों पर रामायण की कथाएँ खुदी हुई हैं। उत्तरी थाईलैण्ड में लवकुशपुरी नामक नगर अभी भी विद्यमान हैं।

थाईलैण्ड के उच्च न्यायालय के सामने गंगाधर महादेव की ओर आकाशवाणी केन्द्र के मुख्य द्वार पर वीणा–पाणि सरस्वती की विशाल−काय प्रतिमा स्थापित है।

राजकीय− संग्रहालय के द्वार पर धनुर्धारी राम की विशाल प्रतिमा खड़ी हैं। इस देश के संग्रहालयों में शेषशायी विष्णु, वरुण, शिवलिंग, ऋषि प्रतिमाएँ कितने ही आकार−प्रकार की विद्यमान हैं।

बैसाखी पूर्णिमा को यहाँ बुद्ध−जयन्ती के उपलक्ष्य में दिवाली मनाई जाती है। मृत−पूर्वजों की आत्मा को शान्ति देने के लिए यहाँ श्राद्ध भी इसी दिन किये जाते हैं। मृतकों के नाम पर भिक्षुओं को भोजन कराया जाता है। संक्रान्ति−पर्व, वर्षा−व्रत, चन्द्र−ग्रहण आदि अवसरों पर पर्वोत्सव मनाये जाते हैं। राजा को वर्ष में एक दिन स्वयं हल चलाकर अपने को सामान्य कृषक−वर्ग की श्रेणी का सिद्ध करना पड़ता है।

बच्चों का मुण्डन−संस्कार स्याम में भी भारत की ही तरह होता है। इसे ‘चूड़ा कृन्तन मंगल’ कहते हैं। इसके अतिरिक्त नामकरण, कर्गवेध, विवाह, अंत्येष्टि आदि संस्कारों में भी भारतीयता का प्रत्यक्ष अनुकरण देखा जा सकता है। यहाँ मुर्दे जलाये जाते है।

उसे देश में हिन्दू−धर्म और बौद्ध−धर्म जिस सुन्दर ढंग से मिले हैं, यदि वह प्रक्रिया अन्यत्र भी अपनाई जा सके तो साँस्कृतिक दृष्टि से आज का भारतीय दर्शन विश्व का सबसे बड़ा, सबसे प्रमुख, सबसे अधिक प्रचलित दर्शन कहलाने का अधिकारी बन सकता है। समस्त संसार में हिन्दू प्रायः 40 करोड़ हैं। चीन में कम्युनिस्टशासन के बाद क्या हुआ? यह नहीं कहा जा सकता, अन्यथा उसमें पूर्व समय पूर्व समय में चीन समेत संसार के समस्त देशों में 85 करोड़ के करीब बौद्ध थे। दोनों मिलकर 125 करोड़ होते हैं। इसे संसार की एक तिहाई आबादी कहा जा सकता हैं। चीन में धर्म−नाश के बाद भी उस देश में—तिब्बत में— तथा अन्यत्र जो बौद्ध बचे होंगे, उनकी संख्या हिन्दुओं के बराबर अर्थात् 40 करोड़ तो मानी ही जा सकती हैं। दोनों वस्तुतः एक ही वृक्ष की दो शाखाऐं हैं। बौद्धधर्म हिन्दू−धर्म का ही एक विशिष्ट रूप हैं। दोनों की साँस्कृतिक एवं दार्शनिक एकता अत्यन्त स्पष्ट हैं। यदि उन्हें परस्पर अधिक घनिष्टता के साथ मिलाया जा सके तो भारत का धार्मिक वर्चस्व फिर मूर्धन्य स्तर पर पहुँच सकता हैं। थाईलैण्ड की प्रस्तुत स्थिति पर विचार करने से हम सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं।

सम्प्रदायों के बीच विग्रह और विद्वेष उत्पन्न करने की अपेक्षा उनका समन्वय करने में ही लाभ है। यह तथ्य भी हम थाईलैंड में चल रहे प्रयोगों को देखकर सीख सकते हैं। श्रेष्ठता जहाँ भी मिले, ग्रहण करली जाय और जो असामयिक है—आज की स्थिति में अनुपयुक्त है, उसके लिए दुराग्रह न किया जाय तो धर्मो का समन्वय एक सुन्दर गुलदस्ते की तरह संसार की शोभा और शालीनता बढ़ाने में सहायक ही सिद्ध हो सकता है।

इन दिनों थाईलैण्ड में बौद्ध−धर्मानुयायी ही राजा है और उसी धर्म को मानने वाली अधिकाँश प्रजा। इस छोटे−से देश में पिछली जन−गणना के अनुसार एक लाख, तीस हजार भिक्षु थे और 16503 मठ, मन्दिर एवं बौद्ध−बिहार। इतने छोटे देश में इतने अधिक देव−स्थानों और साधुओं का होना आश्चर्यजनक है। यह संख्या तो भारत की स्थिति से भी आगे बढ़ी−चढ़ी है। इससे यह आशंका होती है कि उस देश की जनता को भी हमारी ही तरह निठल्लों को खिलाने का भार वहन करना पड़ता होगा और आर्थिक दृष्टि से उस देश पर भारी दबाव पड़ता होगा।

पर वहाँ की वस्तु स्थिति सर्वथा भिन्न है। वहाँ समय गत भिक्षु−दीक्षा लेने की प्रथा है। थोड़े समय के लिए लोग भिक्षु बनते हैं और फिर अपने सामान्य साँसारिक जीवन में लौट जाते है। थाईलैण्ड के प्रत्येक बौद्ध धर्मानुयायी का विश्वास है कि “एक बार भिक्षु बने बिना उसका सद्गति नहीं हो सकती। उसके बिना उसकी धार्मिकता अधूरा ही रहेगी।” इस आस्था के कारण देर सबेर में हर सुयोग्य नागरिक एक बार कुछ समय के लिए साधु अवश्य बनता है। घर छोड़कर उतने समय बिहार में निवास करता है। साधना तथा अध्ययन में निरत रहता है और संघ द्वारा निर्धारित सेवा−कार्य में सच्चे मन से पूरा परिश्रम करता है। भिक्षु का मोटा अर्थ भिक्षुक या भिखारी जैसा लगता है, पर वास्तविकता ऐसी नहीं है। बौद्धधर्म में साधु को—धर्म−प्रचारक को—भिक्षु कहते हैं। अवसर पड़ने पर उसे भिक्षा द्वारा क्षुधा शांत करने में भी आपत्ति नहीं हो सकती, पर यह आवश्यक नहीं कि भिक्षु नामधारी को अनिवार्य रूप से भिक्षा ही माँगनी पड़े। भिक्षुक और भिक्षु दो शब्द अलग−अलग अर्थों में प्रयुक्त होते रहे हैं। भिक्षुक दीन−हीन, अपंग असहाय व्यक्ति को, उदर निमित्त याचना करने वाले को कहते हैं। जब कि भिक्षु विशुद्ध रूप से सन्त के अर्थ में प्रयुक्त होता हैं। थाईलैण्ड निवासी भिक्षुक नहीं, भिक्षु होते हैं। दूसरे अर्थों में उन्हें साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के चतुर्विध परमार्थ प्रयोजनों में निरत परमार्थ−परायण व्यक्ति कहना चाहिए। ऐसे लोग जितने अधिक किसी देश में होंगे, वह उतना ही अधिक फूलेगा फलेगा।

थाईलैंड में धर्म−आस्था अन्य देशों की तरह डगमगाई नहीं है। वहाँ के नागरिकों को अभी भी प्राचीन काल के धर्मनिष्ठ और कर्त्तव्य−परायण लोगों की तरह जीवन−यापन करते हुए देखा जा सकता है, इसका श्रेय वहाँ की समर्थ साधु−संस्था को ही दिया जा सकता है। मन्दिर वहाँ पूजा स्थल तो हैं, पर उनका उपयोग मात्र उतने ही सीमित प्रयोजन के लिए नहीं होता। प्रत्येक बिहार में वहाँ एक साधन सम्पन्न विद्यालय भी होता है, जिसमें न केवल छात्र छात्राओं को सामान्य शिक्षा दी जाती है, वरन् उच्चस्तरीय धर्म−शिक्षा की व्यवस्था भी रहती है। प्रत्येक बिहार में एक अच्छा पुस्तकालय होता है, जिसमें धार्मिक जीवन जी सकने की प्रेरणा देने वाली चुनी हुई पुस्तकें पर्याप्त संख्या में रखी जाती हैं।

स्कूलों में शिक्षा का कार्य बुद्ध−प्रार्थना के साथ आरंभ होता है। गुरु−पूर्णिमा कास उत्सव शिक्षा−संस्थाएँ मनाती हैं, जिनमें छात्रों द्वारा अध्यापकों को श्रद्धासिक्त पुष्पाँजलि भेंट की जाती है। प्राथमिक−शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय की उच्च शिक्षा तक का माध्यम वहाँ थाई−भाषा ही हैं। विदेशी−भाषाओं को वहाँ शिक्षा−माध्यम में स्थान नहीं दिया गया हैं। बी.ए. उपाधि को वहाँ ‘पण्डित’ और एम.ए. उपाधि को वहाँ ‘महापण्डित’ शब्द के साथ सम्बोधित करते हैं।

जनता अपनी धर्म−श्रद्धा की अभिव्यक्ति एक बार अनिवार्य रूप से भिक्षु−दीक्षा लेकर व्यक्त करती हैं। बुद्धसंघ उस श्रद्धा का सदुपयोग करता है—अवस्थित, नियन्त्रित एवं परिष्कृत करता है। साथ ही ऐसी योजनाएँ बनाकर तैयार रखता है, जिसके अनुसार उस धर्म प्रेरणा को उपयोगी कार्यों में संलग्न किया जा सके। अनेकों सृजनात्मक योजनाएँ तैयार रहती हैं, उन्हें पूरा करने के लिए बिहार में प्रवृष्ट भिक्षुओं को लगा दिया जाता है। उनके श्रम, ज्ञान एवं मनोयोग का समन्वित उपयोग मिलने से अनेकों उपयोगी योजनाएँ बिना किसी अतिरिक्त खर्च के सहज ही चलती है। सुयोग्य व्यक्ति बिना किसी पारिश्रमिक के यदि रचनात्मक कार्यों में लगेंगे तो उस देश में बहुमुखी प्रगति की बाढ़ आवेगी ही। इस दिशा में थाईलैण्ड की बुद्ध−संस्था बहुत सजग है, वह किसी भी भिक्षु को उच्छृंखल अनियन्त्रित नहीं होने देती। हर किसी को पूर्ण अनुशासन में रहना पड़ता है। यदि भारत की तरह वहाँ के भिक्षु स्वेच्छाचारी बन जायें और अनियन्त्रित साँड़ की तरह बिचरें तो इस छोटे−से की इतनी बड़ी भिक्षुसंस्था देखते−देखते टिड्डी दल की तरह सारी समृद्धि को चट करके रखदे, पर वहाँ की दूरदर्शी धर्म−संस्थाएँ वैसा होने नहीं देतीं। अनुशासन और धर्म−परायणता को वहाँ परस्पर पूर्णतया समन्वित बनाने का सफल प्रयोग किया गया है।

इस दिशा में राजकीय सहयोग भी पूरा है। राज्यकोष से मठों को मुक्त−हस्त से सहायता दी जाती है, साथ ही उनकी गति−विधियों पर नियन्त्रण भी रखा जाता है। धर्मसंघ में शासन के प्रतिनिधि भी सम्मिलित रहते हैं। वे धर्म−प्रसंग में तो हस्तक्षेप नहीं करते, पर यह अवश्य ध्यान रखते है कि जनता के दिये हुए तथा शासन से मिले धन का उपयोगी प्रयोजनों में ही खर्च होता है या नहीं। कहीं अपव्यय तो नहीं होता।

थाईलैण्ड कृषि−प्रधान देश है। वहाँ 84 प्रतिशत लोग खेती करते हैं। पर वे अत्यन्त कर्मठ पुरुषार्थी, शान्ति−प्रिय और धर्म−परायण लोग हैं। परस्पर मिल−जुलकर रहना और हँसी−खुशी की जिन्दगी जीना उन्होंने धर्म संस्था से सीखा हैं। भिक्षु−सेना ने उन्हें अनेकानेक सद्गुण सिखाये हैं और परिष्कृत स्तर का जीवन किस तरह जिया जा सकता है, यह बताया है। इस प्रशिक्षण से न केवल उनकी विचार पद्धति ऊँची उठी है, वरन् भौतिक समृद्धि भी बढ़ी है। यह आश्चर्यजनक प्रसंग है कि एशिया के किसी भी देश की अपेक्षा थाईलैण्ड निवासियों की औसत आमदनी कहीं अधिक है। वे सुसम्पन्न हैं। उस देश की विदेशी−मुद्रा बहुत मजबूत है। स्वर्ण−कोष की दृष्टि से थाईलैण्ड की साख और धाक संसार के आर्थिक क्षेत्र में मानी जाती है।

धर्म−समन्वय, रक्त−समन्वय की उस देश की अपनी विशेषता है। इसके अतिरिक्त सीमित समय के लिए साधुदीक्षा लेने वाली पद्धति ओर भी अधिक उपयोगी सिद्ध हुई है। इन सब बातों ने उस छोटे−से देश को अपने ढंग की अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रगति करने का अवसर दिया है।

हमारे लिए थाईलैण्ड एक प्रेरणा−स्त्रोत बनकर सामने खड़ा है। भूतकाल में हमने उसे सिखाया, उठाया होगा, पर आज तो वह हमें भी बहुत कुछ सिखाने की स्थिति में सामने खड़ा है।


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