वसन्त पर्व की पुण्य वेला में हमारा अगला कदम

January 1974

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‘बसन्त −पर्व’ अब ‘अखण्ड−ज्योति परिवार’ के प्रत्येक सदस्य के लिए प्रकाश−पर्व—प्रेरणा−पर्व बन गया है। कोई समय था—जब उस मिशन के संचालक का—उसकी चहुंमुखी जन−कल्याणकारी प्रवृत्तियों का ‘जन्म−दिन’ माना जाता था और इसी दृष्टि से उसे मनाया जाता था, पर अब बात उतनी सीमित नहीं रही। अब उसे इस परिवार का प्रत्येक घटक अपने भावनात्मक उत्कर्ष का ‘अभिनव−पर्व’ मानता और मनाता है। इसी 28 जनवरी को ‘वसंतपंचमी’ है, निस्सन्देह उस दिन ‘अखण्ड−ज्योति परिवार’ का प्रत्येक सदस्य उसी हर्षोल्लास के साथ ‘नूतन−प्रेरणाऐं’ ग्रहण करेगा—जिस प्रकार किसी अत्यन्त भावोद्दीपन अवसर पर की जा सकती है। उसका बाह्य−स्वरूप पूरे उत्साह के साथ मनाने की तैयारियाँ पिछले महीने से ही चल रही है। उत्सव−आयोजन छोटे या बड़े रूप से प्रायः उन सभी स्थानों पर मनाये जाने हैं—जहाँ ‘अखण्ड−ज्योति परिवार’ के थोड़े या बहुत सदस्य मौजूद हैं।’

भगवती सरस्वती का ‘जन्म−दिन’ उल्लास और उत्साह के साथ धरती पर अवतरण का दिन ऋतुराज (बसन्त) का शुभारम्भ यों बहुत पहले से भी माघ सुदी पञ्चमी ‘बसन्त−पञ्चमी’ की पुण्य−बेला में मनाया जाया करता था। पर जब से ‘अखण्ड−ज्योति परिवार’ की ‘युग−निर्माण योजना’ का विकास विस्तार हुआ है, तब से यह माना जाने लगा है कि युगान्तरकारी दिव्य−प्रेरणाऐं इसी दिन इस धरती पर बरसती हैं। इस मान्यता के पीछे वे कारण भी हैं— जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। परिवार के कुलपति का आत्म−बोध, ‘अखण्ड−ज्योति’ पत्रिका का आरम्भ, आर्षसाहित्य के सरल प्रस्तुतीकरण का श्रीगणेश, ‘युग−निर्माण’ आन्दोलन का सूत्र−संचालन, सृजन−सेना का संगठन, गायत्री तपोभूमि का निर्माण, ‘शान्ति कुञ्ज’ की स्थापना, विविध भाषाओं में ‘विचार−क्रान्ति’ साहित्य का सृजन—अभियान को विश्व−व्यापी बनाने का दुस्साहस, प्रत्यावर्तन सत्रों की शृंखला आदि−आदि ऐसी अनेकों प्रवृत्तियां हैं—जिन्हें आरम्भ और अग्रसर करने का श्रेय ‘अखण्ड−ज्योति परिवार’ को प्राप्त है। इन सभी का शुभारम्भ ‘बसन्त पञ्चमी’ की पुण्य−बेला में होता रहा है। अस्तु विश्व का नव−निर्माण, युग−परिवर्तन, भावनात्मक पुनरुत्थान आदि इस युग की महानतम क्रान्तिकारी प्रवृत्तियों के साथ सहज ही यह शुभ−दिन जुड़ गया है। इस दिन से आरम्भ किया हर कार्य सफल ही होता चला गया है। इसका मूल कारण तो दैवी−विधान के साथ साथ अपने कदमों का उठना ही समझना चाहिए। हमारी नावें हवा के रुख को पहचान कर चल रही हैं, इसलिए उनमें तेजी आनी स्वाभाविक है। जनमानस की पुकार और युग की गुहार को सुनकर दौड़ पड़ने वाला यह अभियान सहज ही जनसहयोग और लोक−श्रद्धा का भाजन बनता चला गया है। इतनी गहराई तक न पहुँचने वाले लोग प्रस्तुत सफलताओं को बसंत−पर्व के शुभमुहूर्त में किये गये आरंभ की देन मानते हैं, जो हो बसन्त पर्व व अखण्ड−ज्योति परिवार का परिष्कृत उल्लास अब पर्यायवाची शब्द बन गये हैं। अस्तु बिना किसी बाहरी दबाव के अपने परिवार का हर व्यक्ति इस पर्व के आने पर अपने भीतर ऐसी हलचल अनुभव करता है कि उस आन्तरिक अभिव्यक्ति को किसी उत्सव−आयोजन का रूप दिये बिना उससे रहा ही नहीं जाता।

गत वर्षों की भाँति इस वर्ष भी 28 जनवरी को ‘बसन्त−पर्व’ मनाने की तैयारी—जिस उत्साह के साथ चल रही है, उसकी पूर्व−सूचनाऐं बताती हैं कि इस बार पिछले सभी कीर्तिमान तोड़े जा रहे हैं। जहाँ दो−पाँच भी परिजन हैं, वहाँ सामूहिक आयोजन—यज्ञ, हवन, दीपदान, प्रभातफेरी, प्रवचन, गीत−वाद्य, श्रद्धांजलि आदि की सार्वजनिक तैयारियाँ चल रही है। जहाँ एकाध ही सदस्य हैं, वहाँ उनने अपने घर पर ही पारिवारिक—हवन, दीपदान एवं परिवार−पड़ौस के लोगों को इकट्ठा करके मिशन का परिचय देने वाली विज्ञप्तियों का वितरण एवं नव−प्रकाशित पोस्टरों का चिपकाया जाना अभी से आरम्भ हो गया है। पाक्षिक युग−निर्माण योजना में ऐसे सभी समाचार प्रकाशित होते हैं। उन्हें देखने पर यह सहज ही जाना जा सकेगा कि परिवार के सदस्यों का उत्साह इस वर्ष गगनचुम्बी हिलोरें ले रहा है और अगले दिनों कुछ कर गुजरने के लिए मचल रहा है।

‘बसन्त−पर्व’ मनाने की अपनी पिछली परम्परा यह रही है कि माघ सुदी पञ्चमी (बसन्त पंचमी) से लेकर फाल्गुन सुदी पूर्णिमा (होली) तक पूरे चालीस दिन प्रचारात्मक, संगठनात्मक, रचनात्मक एवं संघर्षात्मक क्रियाकलापों को अग्रगामी बनाने में सभी लोग ज्ञान−यज्ञ का धर्मानुष्ठान पर्व माना जाता है और उस प्रकाश को अधिकाधिक व्यापक बनाने के लिए हर सम्भव उपाय किया जाता है। अखण्ड−ज्योति पत्रिका के पुराने सदस्य थे, इस वर्ष कितने बढ़े? इस आधार पर अक्सर कारगुजारी आँकी जाती है। मिशन के प्रति श्रद्धाञ्जलि अर्पित करने का यह प्रकाश विस्तार वस्तुतः बहुत ही उपयुक्त एवं सराहनीय प्रकार है।

हर वर्ष मिशन एक अभिनव संकल्प लेता रहा है और उसे पूरा करने के लिए सदस्यगण अपना ध्यान केन्द्रित करते रहे हैं। गतवर्ष प्रत्यावर्तन सत्रों का विशेष कार्यक्रम चला है। उसका एक वर्ष आशातीत सत्परिणामों के साथ पूरा हो रहा है। अगले वर्ष वानप्रस्थ प्रशिक्षण की अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रक्रिया आरम्भ होने जा रही है। इसकी विशेष प्रतिक्रिया समस्त सक्रिय शाखाओं में पन्द्रह−दिवसीय शिक्षण शिविरों के रूप में सामने आने वाली है।

20 जनवरी से वरिष्ठ वानप्रस्थों का छै महीने वाला शिक्षण−सत्र आरम्भ होगा। तीन महीने शिक्षार्थी ‘शान्ति−कुञ्ज’ रहकर सैद्धान्तिक−शिक्षा प्राप्त करेंगे और तीन महीने उन्हें कार्य−क्षेत्र में जाकर व्यावहारिक शिक्षण प्राप्त करते हुए अनुभव की वृद्धि करनी होगी। इसके उपरान्त 25 अप्रैल से क्लिष्ट वानप्रस्थों का दो महीने वाला शिक्षण−सत्र आरम्भ हो जायगा। इसमें भी वही क्रम है,एक महीना सैद्धान्तिक−शिक्षण ‘शान्ति−कुञ्ज’ में —एक महीने व्यावहारिक−शिक्षण ‘कार्य−क्षेत्र’ में।

प्रशिक्षित वानप्रस्थ इस वर्ष समर्थ शाखाओं में जाकर पन्द्रह−दिवसीय शिक्षण−शिविर चलायेंगे। किस शाखा को किन तिथियों में शिविर चलाने हैं? इसके लिए अभी से पत्र−व्यवहार चल रहा है और समय निर्धारित किया जा रहा है। शिविरों में स्थानीय कार्य−कर्ताओं के नव−निर्माण सम्बन्धी आवश्यक प्रशिक्षण प्रातः 5 से 9 बजे तक दिया जाया करेगा। सायंकाल 7 से 10 तीन घण्टे जनता को सभा सम्मेलनों के रूप में नव−जागरण का सन्देश सुनाया जाता रहेगा। शिविरों की पूरी रूपरेखा 5—20 अक्टूबर, 5—20 नवम्बर और 5—20 दिसम्बर के पाक्षिक युग−निर्माण के छै अंकों में विस्तार पूर्वक बताई जा चुकी है। आशा की जा रही है कि मई, जून,जुलाई के तीन महीनों में कम से कम 300 शिक्षण−शिविर सम्पन्न होंगे। जिनमें लगभग 15 हजार कार्यकर्ता प्रशिक्षित किये जा सकेंगे और 3 लाख जनता को नव−युग का सन्देश सुनाया जा सकेगा। यह तो प्रथम छमाही की बात हुई। वर्ष की दूसरी छमाही संभवतः इससे भी बढ़ी−चढ़ी होगी। आरम्भ में जो अड़चनें रहती है, वे अनुभव के बाद अगली बार दूर हो जाती हैं। वानप्रस्थ प्रशिक्षण और उसके परिणाम स्वरूप प्रस्तुत होने वाली पन्द्रह−दिवसीय शिक्षण−शिविर योजना की श्रृंखला अगले दिनों कितने क्रान्तिकारी परिणाम उत्पन्न करेगी? इसे कुछ ही समय में सामने प्रस्तुत देखा जा सकेगा। इस वर्ष का यह बसन्त−पर्व का अभिनव संकल्प है, इसे पूरा करने के लिए अपने−अपने ढंग से सभी को सहयोग देना चाहिए।

‘अखण्ड−ज्योति परिवार’ का हर सदस्य अब नव−निर्माण की सृजन−सेना का सैनिक है। वह समय बहुत पीछे रह गया, जब उसके पाठक, मात्र ज्ञान−वृद्धि अथवा समय क्षेप के लिए पत्रिका मँगाया और पढ़ा करते थे। तब इतने भर से ही बात पूरी हो जाती थी। लेखन और प्रकाशन का कार्य केन्द्र से होता था, पाठक उसे रुचि पूर्वक पढ़कर सन्तुष्ट हो जाते थे। बहुत हुआ तो किसी मित्र परिचित से पत्रिका प्रशंसात्मक चर्चा कर दी और बहुत आगे बढ़े तो एक−दो नये ग्राहक बना दिये। अपनी पसन्दगी और प्रशंसा का पत्र सम्पादक को लिख दिया। यह बहुत पुरानी बातें हैं। अब कदाचित ही कोई परिजन इस स्तर का रह गया हो। लगातार पत्रिका के पृष्ठों के साथ लिपटी रहने वाली प्रेरणाओं ने पाठकों को कुछ बनाया है और कुछ ढाला है। अब के अपने सुविकसित अन्तःकरण को मात्र पाठक रहकर सन्तुष्ट नहीं कर सकते। उन्हें कुछ कर गुजरने की तड़पन निरन्तर विवश और बाध्य करती रहती है। उनके लिए निष्क्रिय रह सकना, चुप बैठ रहना एक प्रकार से अशक्य ही है। अखण्ड−ज्योति परिवार का कोई परिजन—इस युग के महानतम अभियान ‘नव−निर्माण’ का मूक दर्शक नहीं रह सकता। उसे कुछ न कुछ तो सक्रियता बरतनी ही पड़ेगी, कुछ कदम तो आगे बढ़ना ही होगा। कुछ तो सहयोग उसका रहेगा ही। यदि इतनी तड़पन भी उत्पन्न न हो सके तो सही कहना चाहिए कि अखण्ड−ज्योति अपने आप ही जलती−भुनती रहीं, उसने और किसी दीपक को अपनी लौ से लौ मिलाकर प्रकाशवान् नहीं किया। प्रसन्नता की बात हैं कि ऐसा लाँछन न अखण्ड−ज्योति पर लगता है और न उसके पाठकों पर।

कोई समय था, जब ‘अखण्ड−ज्योति’ के लेखों में से कौन पसन्द आया—कौन नहीं? इस पर चर्चा और मुक्त चीनी होती रहती थी। अब स्थिति बदल गई। पत्रिका न रहकर, वह परामर्श−दात्री बनी। अब वह उससे भी आगे है और लाखों मस्तिष्कों का सूत्र संचालन, लाखों हृदयों का स्पन्दन प्रस्तुत करती है। उससे जीवन की दिशा निर्धारण में प्रकाश ग्रहण किया जाता है। उसके परामर्श को परिजनों ने अपने चिन्तन और कर्तृत्व में भावना पूर्वक स्थान देना आरम्भ कर दिया है। यही कारण है कि पत्रिका के लेख और पाठकों की रुचि वाली बात अब योजनों पीछे रह गई। उसके स्थान पर सूर्य और उसकी किरणों जैसा—पुष्प और उसकी पंखुड़ियों जैसा—काया और अस्थि−माँस जैसा अविछिन्न रिश्ता विकसित हो गया है। भौतिक−दृष्टि से पुस्तकों के अपने−अपने परिवार हैं—उनके अपने−अपने स्त्री−बच्चे, भाई−बहिन, माँ−बाप आदि हैं, पर जहाँ तक भावना−क्षेत्र का सम्बन्ध है—’अखण्ड−ज्योति परिवार’ के सदस्य अपने मिशन के साथ सघनतम आत्मीयता विनिर्मित करते चले जा रहे हैं। इसका सत्परिणाम हर दृष्टि से श्रेयस्कर हो रहा है। परिजनों के व्यक्तित्व उभरे हैं— मिशन के संकल्प सफल हुए हैं और लोक−मंगल के ऐसे सरंजाम जुटे हैं, जिन्हें देखते हुए कोई भी यह कह सकता है कि मानव−जाति को अन्धकारमय भविष्य के गर्त में गिरने से बचा लिया जायगा। सतयुग की सम्भावना अब कोरी कल्पना नहीं समझी जाती, वरन् नव−निर्माण के बहुमुखी प्रयास जिस तेजी से अग्रगामी हो रहे हैं, उन्हें देखते हुए यह माना जा रहा है कि धरती पर स्वर्ग का अवतरण और मनुष्य में देवत्व का उदय अगले दिनों एक मूर्तिमान तथ्य बनकर सामने प्रस्तुत होगा।

हर ‘बसन्त−पर्व पर उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना वट−वृक्ष की तरह अधिकाधिक सुविस्तृत और परिपुष्ट होती चली जा रही है। पीछे की तरफ मुड़कर देखते हैं तो लगता है—अन्धेरी रात में कँटीली झाड़ियों से भरी डरावनी रात पार करली गई,अब प्रभात के आलोक में लम्बी मञ्जिल पार कर सकना उतना कष्टकर परिस्थितियों में प्रतीत होता था। लक्ष्य अभी भी बहुत दूर है, पर उसके प्राप्त होने का सुनिश्चित विश्वास इसलिए प्रबल होता जाता है कि ‘अखण्ड−ज्योति’ और उसके परिजन घनिष्टतम आत्मीयता के सुदृढ़ सूत्रों में आबद्ध होते चले जा रहे हैं।

‘बसन्त−पर्व’ आ पहुँचा। इस अवसर पर सदा की भाँति हम सब मिलकर एक बड़ा कदम उठावेंगे। इस वर्ष का कदम होगा—”वानप्रस्थ परम्परा का पुनर्जागरण और उसकी महान् प्रतिक्रिया का सूत्र−संचालन।”


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