इस युग में साधु-संस्था का प्रतिनिधित्व उन वानप्रस्थों को करना है, जिनमें मात्र भावना ही नहीं, लगन, योग्यता और पुरुषार्थ–परायणता की भी कमी न हो। जो पहले अपने गुण, कर्म, स्वभाव का—चरित्र एवं व्यक्तित्व का निर्माण करे और साथ ही लोक-मंगल की क्रिया-प्रक्रिया में उसी तत्परता के साथ प्राप्त करने के लिए जी-जान एक करते हैं। यदि ऐसे नर–रत्नों का उत्पादन अभिवर्धन संभव हो सका तो आशा की जा सकेगी कि जन-मानस का भावनात्मक नव-निर्माण सम्भव हो सकेगा और उस आधार पर संकट-ग्रस्त मानवता की अनेकानेक सम्पदाओं से उबारा जा सकेगा। यदि निष्ठावान् लोक-सेवी पैदा न हो सके तो पतन के तूफानी प्रवाह की अन्य किसी उपाय से रोका न जा सकेगा। तब शिक्षा और सम्पदा बढ़ाने के लिए किये जाने वाले विविध–विधि प्रयास बाल-क्रीड़ा की तरह चलते तो रहेंगे, पर उनसे बनेगा कुछ नहीं। कीचड़ भरा दलदल यथा-स्थान रहे तो एक–एक मक्खी-मच्छर को गिनते मारते रहने से उनके भिनभिनाने को कैसे रोका जा सकेगा।
हम ऐसे युग-नायक बनाने और बढ़ाने में लगे हैं, जो अपने अनुकरणीय आदर्श से अन्य अनेकों को श्रेष्ठता के सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे सकें। उज्ज्वल भविष्य की आशा का केन्द्र जन मानस का भावनात्मक परिष्कार ही है। इस तक तालीर से ही वे सब ताले खुल जायेंगे, जिन्होंने सुख–शान्ति तक पहुँचने के समस्त द्वारों को अवरुद्ध कर रखा है। लोगों को दिग्–भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। छुटपुट सुधार-कार्यों से लम्बी–चौड़ी आशाएँ नहीं बाँधनी चाहिए। शक्तियों को इधर-उधर नहीं बखेरना चाहिए। समस्त इच्छा-शक्ति और साधन शक्ति को इकट्ठा करके जन-मानस में भावनात्मक उत्साह भरना चाहिए—आदर्श–निष्ठों में आस्था उत्पन्न करनी चाहिए। इतना सम्भव हो सका तो लोक-शक्ति की चण्डी जिधर भी बढ़ेगी, उधर ही घमासान उत्पन्न कर देगी।
जन-शक्ति की क्षमता अपार है। उसकी एक हुंकार से न जाने क्या से क्या हो सकता है? जनता ने मत-पेटी में पर्ची डालने जैसा थोड़ा-सा रुख पलटा तो काँग्रेस सरकार सत्तारूढ़ हो गई और वह सत्ताईस वर्ष से सिंहासन पर विराजमान है। जनता ने भवें तरेरीं तो दो सौ वर्षों से जड़ जमाकर बैठे हुए अंग्रेज थर–थर काँपने लगे और उन्हें सिर पर पैर रखकर भागते ही बना। जनता अपना नगण्य सा आजीविका अंश लेकर खर्चीली शासन सत्ता का भार हँसते–खेलते वहन कर लेती है। अरबों-खरबों रुपया हर साल खर्च कर डालते वाला—लगभग एक करोड़ लोगों का भार निर्वाह लादे हुए खड़ा धर्म–तन्त्र जनश्रद्धा की एक किरण पाकर फल–फूल रहा है। जनता की एक दुर्बलता का तनिक-सा सहारा पाकर कामुकता की दुष्प्रवृत्ति ने, संगीत साहित्य ने कला के स्त्रोतों पर सहज अधिकार कर लिया है। जन-समाज के छोटे-से छिद्रों में प्रवेश मिल जाने से अपराधी दुष्प्रवृत्तियों की अपनी जड़े जमाने का अवसर मिल गया है। जनता की धारा बाढ़ का रूप धारण करके उच्छृंखल प्रवाह में बहने लगे तो देखते देखते सारी समृद्धि डूबती बहती और नष्ट होती दिखाई देगी। इस धारा को नियन्त्रित और व्यवस्थित दिशा मिल जाय तो आज के सूखे मरुस्थल कल हरे–भरे उद्यानों से विकसित होंगे और सोना उगलेंगे।
जन-शक्ति से बढ़कर और कोई सामर्थ्य इस संसार में है नहीं। मनुष्य अपने आप में एक छोटा परमेश्वर है फिर यदि उसे संघबद्ध होने का अवसर मिल जाय—उत्कृष्टता की दिशा में वह चल पड़े तो फिर कोई ऐसी सम्पदा नहीं, जो उसके चरणों में लोटती दिखाई न पड़े। मनुष्य दीनदरिद्र नहीं है—उसे कृमि-कीटकों के स्तर पर रखकर छुट-पुट उपहारों के माध्यम से दया प्रदर्शित करने की उतनी आवश्यकता नहीं, जितनी उसका उद्बोधन करके अपने पैरों पर खड़ा कर देने की। चन्दा इकट्ठा करके अन्न, जल, औषधि आदि जुटा देने की चेष्टा करने वाले अपनी दया मया का परिचय तो दे सकते है, पर यह भूल जाते हैं कि समर्थ मानव यदि अपनी शक्ति से परिचित हो जाय—उसका सदुपयोग करना सीख ले तो शरीर से अन्धा, अपंग रहने पर भी वह अपनी नाव पर बिठाकर निज का ही नहीं, अन्य अनेकों का उद्धार कर सकता है।
जनता का प्रत्येक घटक अपने में असीम सम्भावनाएँ छिपाये बैठा है। हर व्यक्ति में रावण, कुम्भकरण, हिरण्यकश्यप सहस्रबाहु, सिकन्दर, चंगेजखां, नादिरशाह, नेपोलियन, हिटलर जैसी बामपक्षी असुरता छिपी पड़ी है। दक्षिण-पक्षी देव–सत्ताएँ और भी बढ़ी–चढ़ी हैं राम, कृष्ण, हनुमान, परशुराम, अर्जुन, शंकराचार्य, बुद्ध, प्रताप, शिवा जी, विवेकानंद, दयानन्द, गाँधी कहीं से भी फूट पड़ सकते हैं। वैज्ञानिक, दार्शनिक, तत्वदर्शी, तपस्वी, कलाकार, मनीषी, युगान्तरकारी, क्रान्तिकारी, मनस्वी, दूरदर्शी, सृजेता, विजेता जनता की खदान में से ही निकलते हैं। संसार में जो कुछ अद्भुत, आकर्षक, सुन्दर, सुखद दीखता है, वह सब मनुष्य की सूझ बूझ का-उसके श्रम-सीकरों का उद्भव है। अन्यथा यह धरती अपने जन्म-काल में वैसी ही कुरूप वैसी ही नीरव और वैसी ही अस्त-व्यस्त थी, जैसी आज चन्द्रमा सहित अन्यान्य ग्रह–नक्षत्रों की स्थिति है। कुरूपता को—सौंदर्य में —अभाव को भाव में—नीरवता को उल्लास में—अन्धकार को प्रकाश में परिणत करने की परिपूर्ण क्षमता मानव-प्राणी में विद्यमान है और मनुष्यों के समूह का नाम है जनता, जनता की सत्ता और महत्ता की परिकल्पना कर सकना उसके मूल सृजेता के लिए भी कठिन है।
जन-भावना उभार कर यदि हम दस पैसा प्रतिदिन नव-निर्माण प्रयोजनों के लिये प्राप्त करने की नगण्य-सी सफलता प्राप्त करे लें तो 50 करोड़ भारतीय हर रोज 5 करोड़ रुपया जमा कर सकते हैं। वर्ष में 1800 करोड़। इतनी बड़ी धन-राशि से बड़ी से बड़ी योजनाएँ पूरी होती रह सकती हैं। एक घण्टा श्रम हर वयस्क व्यक्ति से प्राप्त कर लें तो 20 करोड़ वयस्कों के उस श्रमदान से 8 घण्टा पूरे समय श्रम करने वाले ढाई करोड़ श्रमिकों जितना काम कराया जा सकना सम्भव हो सकता है। यह जन शक्ति, श्रम–शक्ति इतनी बड़ी है कि हर दिन हजारों की संख्या में कुएँ, तालाब, बाँध बनकर एक वर्ष के भीतर सिंचाई की समस्या हल की जा सकती है और इस शस्य–श्यामला भूमि के पुत्र विदेशों के आगे अन्न के लिए हाथ पसारने के स्थान पर संसार के भुखमरी-ग्रस्त समस्या मनुष्यों के लिए अनाज निर्यात कर सकते हैं। हर शिक्षित व्यक्ति वर्ष में एक निरक्षर को साक्षर बनाने की प्रतीक्षा कर ले तो पाँच वर्ष के भीतर अपने देश के 80 प्रतिशत अशिक्षित पूरी तरह साक्षर हो सकते हैं।
जिस भ्रष्टाचार को-अपराधी दुष्प्रवृत्तियों को पुलिस और अदालतें रोक नहीं पा रही हैं, यदि जागृत जनता इन गुण्डा-तत्वों के विरुद्ध भवें तरेर दे तो इन मुट्ठी भर अनाचारियों का जीवित रहना कठिन हो जायगा। अनात्मीय तत्वों की असामाजिक गति–विधियों के विरुद्ध रोष, आक्रोश जगाया नहीं गया है। जिस दिन जन-शक्ति की चण्डी जगेगी, उस दिन अभाव, अशक्ति और अज्ञान क दुर्दान्त असुरों का अस्तित्व इस धरती पर बना रहना सम्भव न होगा। इस सबकी दुर्गति महिषासुर, मधुकैटभ और शुंभ–निशुंभ जैसी होगी। संघ–शक्ति का ही दूसरा नाम चण्डी है। पौराणिक कथा–प्रसंग के अनुसार देवताओं की सम्मिलित शक्ति इकट्ठी करके ही तो भगवती दुर्गा को सृजा था। देवताओं को विजेता और असुरों को पराजित करने के लिए उसी प्रयोग की पुनरावृत्ति अब फिर की जाय, इसके लिए आज का ही उपयुक्त समय है।
साधु-संस्था को पुनर्जीवित इसी निमित्त किया जा रहा है। वानप्रस्थ को नव–जीवन देने का अभियान इसी निमित्त चलाया जा रहा है कि जन–शक्ति को जागृत एवं संगठित करने के लिए लोक-मानस में परिष्कार परक उत्साह उत्पन्न किया जाय, इसके लिए धर्म-मंच को ही माध्यम बनाया जा सकता है। अन्तःकरण को उभारने और मोड़ने–मरोड़ने की विद्या को ही तो माध्यम कहते हैं। उत्कृष्टता और आदर्शवादिता पर चलने की आस्था का नाम ही तो धर्म-प्रेरणा है। व्यक्ति में जो कुछ महान् है—श्रेष्ठ है—उसे छूने उभारने के लिए अध्यात्म-धर्म को माध्यम बनाये बिना गाड़ी एक कदम आगे नहीं बढ़ सकती राजनीति, अर्थशास्त्र आदि के सहारे लोगों में बौद्धिक हलचलें और क्रिया-परक, हरकतें पैदा की जा सकती हैं, पर अन्तरात्मा के मर्मस्थल में प्रसुप्त पड़ा देवत्व तो धर्मचेतना का स्पर्श कराये बिना और किसी प्रकार जमेगा ही नहीं।
कहाँ, किसे, कब, कैसे, क्या करना पड़ेगा? इसकी कोई चिरस्थायी ‘लक्ष्मण–रेखा’ नहीं खींची जा सकती। व्यक्ति की योग्यता, अभिरुचि—समय की माँग-साधनों की सुविधा को देखते हुए कार्यक्रमों का निर्धारण और परिवर्तन होता रहेगा। बदलती हुई परिस्थितियों में बदले हुए कदम उठाने के लिए हमें अपना मस्तिष्क खुला रखना होगा। लक्ष्य की पूर्ति के लिए कार्यक्रम बनते हैं। कार्यक्रमों के साथ लक्ष्य जोड़ा नहीं जा सकता। इन बातों पर ध्यान रखने पर सदा-सर्वदा के लिए तो कोई कार्य-पद्धति नहीं बन सकती, पर वर्तमान स्थिति में—भारत की सीसा में क्या और कैसे होना चाहिए? इसका स्वरूप निर्धारण कर लिया गया है। अन्य देशों के लिए वहाँ की स्थिति और आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए भिन्न कार्यक्रम बनाने होंगे, किसी बात को हिन्दू–धर्मानुयायियों से अमुक प्रमाण उदाहरण देकर कहना पड़ता है तो मुसलमान को समझाने के लिए उस परम्परा के अनुरूप तक एवं तथ्य संग्रह करने पड़ेंगे। कर्मकाण्डों और विधि-विधानों के सम्बन्ध में भी यही बात है। क्षेत्र एवं वर्ग की भूतकालीन परम्पराओं के साथ भावनात्मक नव-निर्माण के लक्ष्य को जोड़ने से जो क्रिया-पद्धति विकसित होती होगी, उसे बिना किसी दुराग्रह के अपना लिया जायगा। हम सत्य और तथ्य के पुजारी है। हमें न्याय और विवेक का समर्थन करना है।
साधारणतया वानप्रस्थों का कार्यक्रम बौद्धिक-क्रान्ति की—नैतिक क्रान्ति की—सामाजिक-क्रान्ति की तैयारी में संलग्न होगा। दूसरे लोग राजनैतिक-क्रान्ति की—आर्थिक-क्रान्ति की बात सोचते है, उसके लिए प्रयत्नशील हैं। उस क्षेत्र में पर्याप्त व्यक्ति मौजूद हैं और अपने ढंग से काम कर रहें हैं। हमारे सामने वह अछूता विस्तृत कार्यक्षेत्र खाली पड़ा है, जिसके बिना अन्य सब भौतिक योजनाएँ अपंग और असफल ही बनी रहेंगी। हमें किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं करनी। अनीति और अविवेक के अतिरिक्त और किस से हमारी कोई लड़ाई नहीं। सभी के सत्प्रयत्नों में सहयोग दें और सभी वर्ग के विचारशीलों की सद्भावना सहकारिता का आह्वान करेंगे। न अपना छोटा दृष्टिकोण है, और न संकीर्णता की परिधि में बँधी हुई अपनी कार्य पद्धति है। विशाल से विशाल काम की बात ही हमने सोची है और उसी को वानप्रस्थ-संस्था सोचती अपनाती रहेगी।
नव-निर्माण के अंतर्गत व्यक्ति-निर्माण—परिवार-निर्माण एवं समाज-निर्माण के त्रिविधि कार्यक्रम आते है। स्वस्थ-शरीर, स्वस्थ-मन और सभ्य-समाज की अभिनव रचना करना अपने कर्तव्य का प्रधान अंग है। इसके लिए प्रचारात्मक-रचनात्मक एवं संघर्षात्मक गति-विधियां अपनाई जायेंगी। प्रथम चरण में प्रचार-तन्त्र तो तीव्र किया जायगा—ज्ञान-यज्ञ का आलोक फैलाया जायगा—विचार-क्रान्ति का बीज बोया जायगा। इसके लिए छोटे-बड़े सम्मेलनों—गोष्ठियों एवं चर्चा-प्रयोजनों की रूप रेखा रहेगी। धार्मिक-आयोजनों के माध्यम से लोक -श्रद्धा को जागृत करके उसे रचनात्मक दिशा देने का उपक्रम किया जाता रहेगा। लेखनी से—छपे साहित्य के माध्यम से भी जन–जागृति की प्रत्येक सम्भावना को क्रियान्वित किया जायगा। लेखनी, वाणी, कला और धर्मानुष्ठान इन चारों ही प्रयोजनों में से जहाँ जिस प्रकार उपयोग सम्भव होगा, वहाँ उसकी पृष्ठभूमि बनाई जायगी। संगीत और अभिनय का नया क्षेत्र निकट भविष्य में ही खुल जायगा। क्योंकि भावनात्मक स्पर्श में अन्य माध्यमों की अपेक्षा कला–तंत्र का उपयोग अधिक आकर्षक भी रहता है और प्रभावशाली भी।
व्यक्ति की अपनी–अपनी योग्यता होती है और अपनी अभिरुचि। वानप्रस्थों में से किसे कहाँ, किस प्रयोजन के लिए फिट किया जा सकता है? इसका निर्णय उसकी क्षमता एवं विशेषता का विश्लेषण करने के उपरान्त की किया जा सकता है। पर मोटी रूपरेखा यह है कि दो–दो प्रशिक्षित वानप्रस्थों की टोलियाँ बनाकर उन्हें विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न कार्यक्रमों को अग्रगामी बनाने के लिए जन–संपर्क स्थापित करने के निमित्त युग–निर्माण शाखा–संगठनों में भेज दिया जायगा और वे वहाँ अपनी प्रतिभा का विकास विस्तार करने का अवसर प्राप्त करेंगे।