स्वार्थ और परमार्थ की समन्वित साधना

January 1974

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

समय का माँग को पूरा करने के लिए अखण्ड−ज्योति परिवार के प्रबुद्ध सदस्यों को आगे आना चाहिए और इस संकट काल में अपने पवित्र कर्तव्यों को पूरा करने के लिए साहस भरे कदम आगे बढ़ाने चाहिए। धर्म और अध्यात्म के सहारे ही भावनात्मक नव−निर्माण की समस्या का समाधान होगा और उसी के बलबूते बहुमुखी विपत्तियों के घटाटोप का निवारण होगा। जन−मानस का स्तर ऊँचा उठाने के लिए वाणी और लेखनी का प्रायः प्रयोग किया जाता है। शास्त्रों की स्थिति में प्रकाश उत्पन्न करने के लिए होता रहा है पर यह भी एक तथ्य ही है कि उन माध्यमों को बहुमूल्य सुतीक्ष्ण अस्त्र भर माना जा सकता है जिन्हें चलाने के लिए क्रिय−कुशल और समर्थ साहसी योद्धा चाहिए। मात्र−शस्त्र संचय से ही तो बात नहीं बनती। चलाने वाले प्रशिक्षित शूरवीर भी तो चाहिए। वानप्रस्थ परम्परा को पुनर्जीवित इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए किया जा रहा है।

अपना कार्यक्षेत्र अब भारत तक—हिन्दू धर्म तक सीमित नहीं है। वरन् संसार के समस्त धर्मो और समस्त देशों तक अभियान को अग्रसर होना है। भगवान् बुद्ध के तप−त्यागों ने और अशोक, कनिष्क, हर्षवर्धन के अनुदान ने किसी समय विश्व में धर्म−चक्र प्रवर्तन का तो प्रयास किया था—सर्वथा रहित होने पर भी हमें वही प्रयास करना है—उसी मार्ग पर चलना है। मानवी गरिमा को हम गिरने न देंगे। ग्वाल−बालों की तरह लाठी का सहारा देकर गोवर्धन पर्वत उठाने में योगदान देंगे और कुपित इन्द्र का मनोरथ पूरा न होने देंगे। साधनहीन रीछ−बानर जब अपनी नन्हीं−सी जाने लेकर दुर्दान्त लंकाधिपति के सामने तन कर खड़े हो गये थे तो हमी दन अग्नि परीक्षा के दिनों में लोभ−मोह के पाश में बँधे हुए सड़ी−गली जिन्दगी के लिए ललचाते हुए क्यों मरते खपते रहेंगे। आदर्शों की दिशा में बहुत कुछ कर सकना व्यस्त और सन्त्रस्त लोगों के लिए भी सम्भव हो सकता है। जो भावना नर−कीटकों की महामानवों में बदलती है, उसका प्रकाश बहुत समय से अपने अन्तःकरणों में टिमटिमा रहा है अब उसके प्रकट होने का समय आया तो पीछे कौन हटेगा? अग्रगामी जत्थे अगले ही दिनों सामने प्रस्तुत खड़े दिखाई देंगे, ऐसा विश्वास किया जा सकता है।

जिन परिवारों में ऐसे अग्रगामी लोग कुछ कदम बढ़ाने का साहस कर रहें हों उन्हें अपने को सब प्रकार सौभाग्यशाली मानना चाहिए। इसमें किसी को—किसी भी प्रकार की अपनी हानि नहीं सोचनी है। घाटा पड़ेगा तो केवल कायरता और संकीर्णता की ही कुछ घटोत्तरी होगी बाकी तो सब तो सब कुछ बढ़ने ही बढ़ने वाला है।

काँग्रेस आन्दोलन में जिन्होंने कदम बढ़ाये या तो प्रतिष्ठा, पद पेन्शन पाते रहेंगे। दोनों ही दशाओं में दूसरे सामान्य लोगों की तुलना में ऊँचे ही रहे, उन्हें आत्म सन्तोष और आत्म−गौरव का लाभ तो निश्चित रूप से मिला ही। इनके साहस ने भारत माता को पराधीनता के पाश से छुड़ाया। जन−साधारण के मन में चिर काल तक उनके प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा बनी रहेगी। कीट−पतंगों की तरह सड़ते कटते रहने की अपेक्षा क्या यह सत्साहस भरी उपलब्धि कुछ कम महत्व की है। क्या स्वार्थों को सुरक्षित बनाकर बैठे रहने वाले चतुर लोगों की तुलना में कुछ घाटे में रहे? इन साहसी लोगों ने क्या खोया? और इन कृपणों ने क्या पाया? इसका यदि विचार पूर्ण लेखा−जोखा लिया तो प्रतीत होगा कि जो अपने को चतुर समझते रह वस्तुतः वे ही वज्र मूर्ख थे।

उन्हीं पुरानी परिस्थितियों की पुनरावृत्ति आज फिर सामने आ खड़ी हुई है। उन दिनों राजनैतिक स्वाधीनता का प्रश्न था आज हमें बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक स्वाधीनता के तीन मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा इसलिए तीन गुने साहस एवं त्याग की जरूरत पड़ेगी। गान्धीजी 79 सत्याग्रही सैनिक की सेना साबरमती आश्रम से धरसाना से नमक बनाने चले थे। आरम्भ छोटा था पर उसका अन्त भारत की मिली स्वाधीनता के रूप में सामने आया। अखण्ड−ज्योति परिवार की सत्याग्रही सेना आगे चलेगी तो पीछे अगणित कदम उठते हुए दिखाई देंगे और उस अभियान का अन्त धरती पर स्वर्ग के अवतरण एवं मनुष्य से देवत्व के उदय के रूप में ही सामने आवेगा। इस श्रेय को हमें शिरोधार्य करना ही चाहिए। समय के उत्तरदायित्वों का हमें स्वागत करना ही चाहिए। मोह ग्रस्त अर्जुन की तरह हमें अनार्य जुष्ट और अस्वर्ग व्यामोह से ऊपर उठना ही चाहिए।

विशुद्ध भौतिक दृष्टि से भी विचार करें तो भी यह कोई घाटे का सौदा नहीं। आदर्शवादिता के मार्ग पर चलने वाले किसी भी व्यक्ति ने कभी कुछ खोया नहीं है। भूतकाल में ऐसे भी कठिन प्रसंग आते थे, जब लोग अपने प्राणों तक की बाजी लगाते थे और उसमें भी अक्षय स्वर्ग और अक्षय कीर्ति का लाभ ढूंढ़ निकालते थे, पर अब तो ऐसी कोई बात नहीं है। कहीं लड़ने मरने या जान−जोखिम पड़ने की कोई योजना नहीं है। मात्र आदर्श जीवन जीने और लोक−मंगल के लिए कुछ समय देते रहने भर की तनिक−सी बात है। इसमें घर परिवार वालों को कुछ असुविधा और धन उपार्जन में थोड़ी बाधा उत्पन्न होती दिखाई दे सकती है, पर यदि दूर दृष्टि से सोचा जाय तो ये दोनों आशंकाएँ सर्वथा निर्मूल दिखाई पड़ेगी।

आदर्श जीवन जीने की संजीवनी−विद्या का प्रशिक्षण एवं अभ्यास वानप्रस्थ जीवन का प्रथम सोपान है, जो उसे अपनायेगा उसका स्वयं का जीवन संयमी और व्यवस्थिति बनेगा। ऐसी दशा में उसका आरोग्य भी बढ़ना है और दीर्घ जीवन का पक्ष प्रशस्त भी होना है। आहार−बिहार की अस्त−व्यस्तता से ही तो लोग बीमार पड़ते और असमय मरते है। संयमी जीवन अक्षय स्वास्थ्य का बीमा है। प्रकृति का अनुसरण करके सृष्टि के अन्य प्राणी आयु पूरी होने पर मरते तो हैं पर बीमार नहीं पड़ते। यदि आरोग्य रक्षा का पथ प्रशस्त होता है तो आये दिन कष्ट भुगतने, घर वालों को परेशान करने, दवा−दारु में पैसा नष्ट होने जैसी अनेक कठिनाइयों का समाधान मिल सकता है। इस प्रकार वानप्रस्थ अवधि में लगा हुआ समय प्रकारान्तर से घाट का नहीं नफे का ही तो काम हुआ।

चिन्तन में निकृष्टता का समावेश रहने से ही लोग व्यसनी और अपव्ययी बनते हैं। दुष्प्रवृत्तियाँ बुरी आदतें, पैसा भी करती है और समय भी। उत्कृष्ट चिन्तन को कूट कूट कर मनःक्षेत्र में भरने वाली वानप्रस्थ शिक्षा उन सब भ्रष्ट अस्त−व्यस्तताओं की जड़ काट देती है। सुधरी हुई प्रकृति का मनुष्य अपने लिए और समस्त परिवार के लिए अपेक्षाकृत अधिक उपयोगी सिद्ध होता है यह स्पष्ट है। प्राचीनकाल में छोटे−छोटे अबोध बच्चों को गुरुकुलों में ऋषियों के पास प्रसन्नता पूर्वक माता−पिता भेजते रहते थे उन्हें इस बात की आशंका नहीं होती थी कि बाबाजी के साथ रह कर हमारा बालक भी गृहस्थ लोग आत्मज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने सन्तों के पास रहते थे पर किसी को यह भय नहीं होता था जायगा पर आज की स्थिति विचित्र है। किसी सद्गृहस्थ को यह मंजूर नहीं कि उसके बच्चे या बात शीशे की तरह स्पष्ट है कि इन भ्रान्त विचारों में उलझे हुए सनकी लोगों के पास बैठने वाला भाग्यवाद, अकर्मण्यता, अनुत्तरदायित्व, नशेबाजी जैसी बुरी बातें ही छूत की बीमारी की तरह लेकर आवेगा। जहाँ जो चीज होगी वहाँ से वही तो मिलेगी। बाबाजी के पास बैठने वाला उसी स्तर का बनेगा। यह सोच कर हर सद्गृहस्थ यह पसन्द करता है कि बाबाजी से उसका परिवार दूर रहे। अन्यथा अपना आदमी बेकार हो जायेगा।

यह आशंका 99 प्रतिशत सही है पर शत प्रतिशत नहीं। युग−निर्माण योजना, प्राचीन ऋषि परम्पराओं का प्रतिनिधित्व करती है उसके संपर्क में आकर बाल, वृद्ध, तरुण, अधेड़, नर−नारी किसी का भी अहित नहीं हो सकता। किसी को अवाँछनीय दिशा नहीं कमल सकती।

जब उसका संचालक बाबाजी नहीं बना—एक सद्गृहस्थ के रूप में आजीवन अपनी स्थिति बनाये रहा तो उसके संपर्क में आकर कोई बाबाजी बन जायेगी ऐसी आशंका नहीं की जानी चाहिए। वस्तुतः इस संपर्क में हर किसी के व्यक्तित्व का निखार ही हुआ है। और उस निखार से उसके घर परिवार को हर प्रकार से लाभ ही पहुँचा है। गुण,कर्म, स्वभाव का परिष्कृत होना ऐसा लाभ है जिसके साथ आध्यात्मिक ही नहीं भौतिक लाभ भी जुड़े हुए है। इन लोगों में पारिवारिक हर्षोल्लास, प्रेम, सौजन्य से लेकर आर्थिक सुसन्तुलन तक की वे सभी उत्साहवर्धक उपलब्धियाँ सम्मिलित तक की वक सभी उत्साहवर्धक उपलब्धियां सम्मिलित है जो किसी सद्गृहस्थ को सुखी−समुन्नत बना सकती है। वानप्रस्थ प्रशिक्षण इस प्रकार के अगणित लाभों से ओत−प्रोत है। उसमें जाने से रोकना अपने ही पैरों कुल्हाड़ी मारने, अपने ही लाभ को आप अवरुद्ध करने के समान अबुद्धिमत्तापूर्ण और अदूरदर्शितापूर्ण ही सिद्ध होगा।

आर्थिक दृष्टि से हर मितव्ययी, अधिक परिश्रमी, अधिक सतर्क व्यक्ति, सदा लाभ में रहता है। उसके प्रति सद्भाव और श्रद्धा रखने वालों की संख्या बढ़ती है, फलतः उनके माध्यम से आर्थिक प्रगति के अनेक द्वार खुलते हैं। आजकल वकील और डाक्टर दौड़−दौड़ कर सार्वजनिक संस्थाओं में इस लिए भी प्रवेश करते है कि उनका जन−संपर्क बढ़े, उन्हें आदर्शवादी समझा जाय, फलतः संबंधित लोग उनके व्यवसाय से भी सम्बन्ध रखें। सचमुच होता भी यही है। अपने मतलब से मतलब रखने वाले नीरस लोग न तो लोकप्रिय हो पाते है और न उनका व्यवसाय चमकता है। नौकरी पेशा लोगों के मालिक लोग भी यह पसन्द करते हैं कि उसके अधीनस्थ लोकप्रिय रहें और उनकी कठिनाइयों के समाधान एवं संवर्धन में योगदान करें। लेबर यूनियनों के पदाधिकारियों से उनके बड़े अफसर अच्छे सम्बन्ध बनाये रखने में ही लाभ सोचते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि लोकसेवा के मार्ग में कुछ कदम बढ़ाना यदि आर्थिक दृष्टि से भी देखा जाय तो कुछ घाटे का काम नहीं है। कई लोकसेवी आर्थिक हानियाँ उठाते रहते हैं, इसमें उनकी सेवा साधना कारण नहीं होती वरन् अस्त व्यस्तता और गैर जिम्मेदारी ही प्रधान रूप से उस प्रकार की अड़चने खड़ी करती हैं। सतर्क मनुष्य पूरी सावधानी से अपना कारोबार चलाते है और पूरी तत्परता से लोक−सेवा करते हे। दोनों पक्षों में से भी कोई हानि नहीं होने देते। असावधानी से होने वाली हानि को लोग लोक−सेवा के सिर मढ़ते रहते हैं। इस भूल के कारण ही यह भ्रम फैला है कि सेवा क्षेत्र में उतरेगा वह अपनी अर्थ व्यवस्था चौपट करेगा। वस्तुतः ऐसी बात है नहीं।

सारा वजन अपने ही कन्धों पर लादे फिरने की अपेक्षा है कि घर के दूसरे लोगों को भी पारिवारिक एवं व्यावसायिक अनुभव प्राप्त करने एवं उत्तरदायित्व सम्भालने का अवसर दिया जाय। इसमें उनकी सूझ−बूझ एवं प्रतिभा में निखार आता है। इस लाभ को आरम्भिक भूल के कारण होने वाली थोड़ी हानि के रूप में चुकाना पड़े तो भी उठाना चाहिए। ईश्वर न करें कदाचित असाध्य रुग्णता आ घेरे अथवा साँस पूरी हो जाये तो पीछे वाली की अपंग असहाय की स्थिति में रहना पड़े इसके लिए प्रत्येक विचारशील को सचेष्ट रहना चाहिए। मार्ग दर्शन अपना रखा जाय सो ठीक है पर काम अपने उत्तराधिकारियों को भी करने देना चाहिए। उन्हें साहसी, सतर्क, जिम्मेदार एवं सूझ−बूझ वाला बनाने की दृष्टि से भी यह उचित है कि कुछ समय उन्हें कुछ करने और संभालने का अवसर मिलता रहे। यह प्रशिक्षण पीछे वालों के हित में ही पड़ता है। जो पूरा बोझ अपने ही कन्धों पर लादे रहते है वे पीछे वालों को अपंग अनुभवहीन बना कर उनके साथ अन्याय ही करते है। किलिस्ट वानप्रस्थ−प्रशिक्षण में जाने वाले लोग अपने परिवार का भी हित साधन ही करते है। जिस कार्य में अपना—अपने समाज का हित है उसमें भला परिवार का हित जुड़ा हुआ क्यों न होगा।

वानप्रस्थ शिक्षा, व्यक्तित्व के विकास का अभ्यास निकटवर्ती वातावरण में रहकर करने का प्रयोग सिखाती है। स्त्री, बच्चे, माता−पिता, बहिन−भाई के साथ आवश्यक कर्तव्यों का पूरी तरह पालन करने के लिए उसमें बहुत कुछ सिखाया जाता है। बच्चों को अनाथ छोड़कर भाग देने की नहीं वरन् उन्हें अधिक सुसंस्कृत, समुन्नत बनाने के लिए गहरे स्नेह में−उन्हें ढालने के लिए अथक प्रयत्न करने की बात को लोक−सेवा का आवश्यक अंग कहा जाता है और उसके लिए उपयुक्त मार्ग बनाया जाता है। ऐसी दशा में यही आशा की जानी चाहिए कि प्रशिक्षित वानप्रस्थ अपने स्त्री−बच्चों के लिए, परिवार के अन्य सदस्यों के लिए पहले की अपेक्षा कहीं अधिक तत्परता के साथ पालन करेंगे। इस प्रशिक्षण में किसी परिवार को घाटे की अथवा अहित की आशंका नहीं करनी चाहिए। भौतिक एवं सांसारिक दृष्टि से भी नफे में ही रहना है।

इन तथ्यों को यदि हम लोग अपने परिवार के सदस्यों को शान्तचित्त और सही रूप से समझा सकें तो यह कठिनाई उपस्थित न होगी कि घर के लोग अपना अहित सोचें और संकट की आशंका करें। उनकी चिन्ता का मूल कारण साधु−बाबाओं की वर्तमान स्थिति ही है। उनका सन्देह−निस्सन्देह चिन्ता और आशंका का विषय है पर नव−निर्माण अभियान की वानप्रस्थ योजना में कोई ऐसा तत्व नहीं है, जो किसी परिवार की सुव्यवस्था में किसी भी प्रकार से बाधक बनता हो। सच तो यह है कि उसके कारण प्रगति और सुख−शान्ति की अनेक सम्भावनाओं का पथ प्रशस्त होता है।

पत्नियाँ यह आशंका कर सकती हैं कि उनके पति सदा ब्रह्मचर्य से रहने लगेंगे और पारिवारिक आकर्षण घट जायेगा। यहाँ यह बात भी स्पष्ट करने जैसी है कि ब्रह्मचर्य की शर्त वानप्रस्थ अवधि के सेवाकाल तक ही सीमित रखी गई है। सदा के लिए वैसा प्रतिबन्ध नहीं है। हाँ—सन्तानोत्पादन में विवेक रखने की बात पर बल अवश्य दिया जाता है और यह बहुरंगी एवं समाज सेवी दोनों के लिए ही आज की स्थिति में समान रूप से समझदारी की बात है।

हर सद्भावना सम्पन्न परिवार को अपना गौरव इसमें समझना चाहिए कि उसका एक सदस्य नव−निर्माण प्रयोजन में संलग्न रह कर उस कुल का गौरव बढ़ता रहे। पिछली चीन और पाकिस्तान की लड़ाई के समय अनेक परिवारों ने अपना एक सदस्य युद्ध सैनिक के रूप में प्रदान करने का संकल्प लिया था। गान्धी और बुद्ध को भी अनेक परिवारों से एक−एक सदस्य मिला था। ऐसा उस कुटुम्ब ने पारस्परिक विचार विनियम से ही स्वेच्छापूर्वक निर्णय किया था। प्राचीन समय में, युद्ध काल में माताएँ अपने पुत्रों को और पत्नियाँ−पतियों को, बहिन भाइयों को देश−रक्षा के लिये तिलक लगा कर आरती उतार कर विदा करती थीं? उस आदर्शवादिता का यदि हमारे परिवारों से सर्वथा लोप हो गया तो समझना चाहिए कि वहाँ पारिवारिक स्नेह सद्भाव के बीज भी नष्ट हों जायेंगे। आदर्शवाद की अवहेलना करने के बाद निकृष्ट स्तर की स्वार्थपरता ही शेष रह जाती है, यदि इसी को छाती से चिपका कर रखा गया तो हमारे घरों में विग्रह और विद्वेष के नरक के अतिरिक्त और कुछ शेष न रहेगा। आज घर परिवारों में जो विषाक्त मनो−मालिन्य दीख रहा है उसका कारण उसमें आरम्भ से ही पनपने वाली आदर्शों की उपेक्षा ही तो रही है। इसका निराकरण किये बिना हमारे परिवार नर−रत्नों की खान न बन सकेंगे। वानप्रस्थ परम्परा की आदर्शवादिता का आरम्भ करके वस्तुतः हम अपने समस्त परिवार को ऐसी प्रेरणा देते हैं जिसे अपना कर सारा कुटुम्ब, स्नेह−सौजन्य के सूत्र में बँधा रह सकता है और एक दूसरे के लिए बहुत कुछ कर गुजरने के अरमानों से भरा रह सकता है। वस्तुतः परिवारों की सच्ची सुख समृद्धि ऐसी ही आदर्शवादिता प्रतिष्ठापना के द्वारा सम्भव हो सकती है। वानप्रस्थ में प्रवेश करके कोई अपने घर परिवार के लिए किसी प्रकार का घाटा या संकट उत्पन्न नहीं करता वरन् उसकी सर्वतोमुखी प्रगति का बीजारोपण ही करता है। इस तथ्य को जितनी अच्छी तरह, जितनी गहराई से, जितनी जल्दी, समझ लिया उतना ही उत्तम है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118