धर्म प्रवर्त्तन के लिये आँशिक समयदान

January 1974

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स्वल्प-कालीन व्रत धारण आज हमें एक अनोखी बात मालूम पड़ती है, पर वस्तुतः इसमें अनोखापन कुछ भी नहीं है। इन दिनों वैसा प्रचलन न रहने से ही ऐसा प्रतीत होता है कि यह कोई नई बात है। प्राचीन काल में साधु-संस्था की सहायक दूसरी पंक्ति खड़ी करने के लिए यह प्रयोग बराबर होता रहा है।

गुरुकुलों में पढ़ने के लिए विद्यार्थी भेजे जाते थे। उन्हें जीवन के पूर्वार्द्ध के प्रथम चरण में ही साधु-जीवन की उपयोगिता,आवश्यकता एवं महत्ता का अनुभव करा दिया जाता था। विद्यार्थी को गुरुकुल में प्रवेश करते ही साधु परिवेश में प्रवेश करना पड़ता था। शोभा सौंदर्य के सभी विलासी उपकरण उतार दिये जाते थे। सिर के बालों का मुण्डन करा के ही आश्रम में प्रवेश मिलता था। लकड़ी की खड़ाऊँ, हाथ में दण्ड, कमर में कसा हुआ लँगोट, छाता आदि सुविधा उपकरणों का त्याग, काजल लगाने जैसे सौंदर्य उपादानों का त्याग, भूमि-शयन, पीतवस्त्र धारण—यह सभी चिन्ह साधु के हैं। गुरुकुल व्यवस्था चलाने के लिए गौएँ चराकर, कृषि उद्यान में जुटे रहकर—कठोर श्रम शीलता को अभ्यास में उतारते थे। तप, तितीक्षा के हैं। भूतकालीन गुरुकुलों के छात्र एक प्रकार से तपस्वी ही होते थे। सेवा या प्रचार कार्य तो सेवा या प्रचार कार्य तो अल्पवयस्कता के कारण नहीं कर पाते थे, पर ऋषियों के साथ−साथ यज्ञादि आयोजनों में जाकर सहायक भी रहते थे और सीखते भी थे।

घर परिवार वाले इस तपश्चर्या पूर्ण प्रशिक्षण से प्रसन्न होते थे। वे जानते थे कि इस प्रकार की जीवनचर्या में थोड़ी शारीरिक कठिनाई तो रहती है, पर उनके बालकों के व्यक्तित्व के समग्र विकास का लाभ इतना बड़ा है, जिसको देखते हुए इस प्रकार का कष्ट सहन करना बहुमूल्य सम्पदा का मूल्य चुका कर खरीदने जैसा आवश्यक भी है। इसलिए किसी अभिभावक को इसमें संकोच नहीं होता था, वरन् खुशी−खुशी अपनी प्राण−प्रिय सन्तान को दस वर्ष की आयु में ही गुरुकुलों में प्रवेश करा देते थे।

अध्ययन अवधि पूरी करके छात्र—साधू−बाबाजी नहीं बन जाते थे, वरन् अपने घर−परिवार में वापिस लौटते थे और गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते थे। सामान्य नागरिक का जीवन जीते थे। जन−साधारण जैसी वेषभूषा धारण करते थे और लोक−प्रचलित पद्धति के अनुरूप आचार−व्यवहार करते थे। विवाह होता था और सन्तानोत्पादन का क्रम भी चलता था। आजीविका उपार्जन के कार्यों को भी सँभालते थे। इस प्रकार लम्बी अवधि तक यह बदला हुआ जीवन−क्रम अपनाया जाता रहता था। गुरुकुलों में रहकर जिस प्रक्रिया को अपनाना पड़ा था, उससे यह गृहस्थ की रीति−नीति सर्वथा भिन्न ही थी।

यह परिवर्तन यह बताता है कि साधु−संस्था में प्रवेश करके फिर गृहस्थ−जीवन में वापिस लौटा जा सकता है। उत्तरार्द्ध में—पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त होने पर अनवरत साधु−जीवन बिताया जा सकता है, पर जब तक वैसी स्थिति नहीं है, तब तक यह अनिवार्य नहीं कि या तो सदा सर्वदा के लिए परमार्थ क्षेत्र में प्रवेश करें या फिर उससे सर्वथा दूर रहें। अतिवाद के इन दोनों सिरों से पीछे हटकर मध्यवर्ती मार्ग अपनाया जा सकता है। बौद्धधर्म में तो मज्झम मग्ग की—मध्यम मार्ग की उपयोगिता पर ही अधिक बल दिया गया है। क्योंकि वह सरल भी है और सर्वोपयोगी भी।

गृहस्थ−जीवन में प्रवेश करने के उपरान्त भी बीच−बीच में साधु−प्रयोजनों का अभ्यास बनाये रहने के लिए उस क्षेत्र की आवश्यकताओं को पूरा करने में योगदान देने के लिए लोग थोड़े−थोड़े समय के लिए परमार्थ−परायण जीवनचर्या अपनाते थे। इसे तीर्थयात्रा कहा जाता था। उस समय की तीर्थयात्रा आज से सर्वथा भिन्न थी। आज तो लोग अमुक देवालय का दर्शन करने या नदी−सरोवर में नहाने को ही तीर्थयात्रा मान बैठे हैं और उतने भर को ही पुण्यफल का आधार मानने लगे हैं। पुराने जमाने में तीर्थयात्रा इतनी सस्ती न थी। उन दिनों पुण्यफल की गरिमा का सही रूप से मूल्यांकन किया जाता था और उसका समुचित मूल्य चुकाया जाता था। उन दिनों कोई आज जैसी विडम्बना रचता तो, देखने वाले हँसते−हँसते लोट−पोट हो जाते। रेल−मोटर से दौड़ते सीधे किसी मन्दिर में जा पहुँचना, दर्शन करना, दक्षिणा फेंकना, जलाशय में डुबकी लगाना और झट वापिस लौट पड़ना। थोड़ा−सा समय, थोड़ा−सा पैसा खर्च करना— इतने से ही तीर्थयात्रा हो गई। पर्यटन का मनोरञ्जन तो हो ही गया, सो नफे में। पुराने लोग समझदार थे, उन्हें इतनी सस्ती विडम्बनाओं में भला कैसे समाधान मिलता? इन दिनों कोई ऐसी बालक्रीड़ा रच रहा होता तो उसे उपहास और भर्त्सना के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं मिलता। पर आज तो हर चीज नकली चल पड़ी है। नकली तीर्थयात्रा करके नकली पुण्य−फल से ही लोग सन्तोष कर लेते हैं। नकली दूध, नकली घी, नकली रेशम, नकली स्वर्ण, नकली रत्न, नकली दाँत, नकली आँख आदि हर क्षेत्र में नकलीपन का बोलबाला है तो तीर्थयात्रा और पुण्य−फल भी नकली ही क्यों न हों?

बात आज की नहीं हो रही है। चर्चा विवेक को प्रधानता देकर चलने वाले पुराने समय की जा रही है। उन दिनों तीर्थयात्रा धर्म−प्रचार के लिए, सेवा−प्रयोजनों के लिए, लोक−कल्याण के लिए होती थी। तीर्थयात्रा जत्थे बनाकर पैदल चलते थे। थोड़ी−थोड़ी दूर प्रतिदिन चलते थे, रात को किसी गाँव में पड़ाव डालते थे और वहाँ की स्थिति के अनुरूप स्थानीय लोगों से विचार विनियम करते थे। परामर्श देते थे, प्रवचन करते थे, भावनात्मक वातावरण बनाते थे और श्रम सहयोग की जरूरत पड़ती थी तो कुछ समय वहाँ रुक कर उसमें भी जुटते थे। यही क्रम चलता रहता था और वे जत्थे सैकड़ों ग्राम−नगरों में प्रेरणा भरने प्रकाश उत्पन्न करने का प्रयोजन पूरा करते हुए धीरे−धीरे घर वापिस लौटते थे। कहाँ तक जाना, किस मार्ग से जाना, कहाँ होकर लौटना—यह सब योजनाबद्ध रूप से पहले ही अपनी सुविधा और सामर्थ्य के अनुरूप निश्चय कर लिया जाता था। वस्तुतः वे धर्म−चक्र प्रवर्तन के लिए किये गये प्रवास−प्रयाण ही होते थे। उनका उद्देश्य परिव्राजकों की आवश्यकता को आँशिक और सामयिक रूप से पूरा करना होता था।

तीर्थयात्रा में परिक्रमा−क्रम जुड़ा होता था। जिस मार्ग से जाना होता था, उसी से वापिस नहीं लौटते थे, वरन् परिक्रमा क्रम अपनाते थे। उत्तरा−खण्ड की यात्रा, ब्रज−यात्रा, नर्मदा−परिक्रमा आदि अनेकानेक तीर्थयात्रा उपक्रम ठीक इसी आधार पर बने हुए थे। चारों−धाम— भारत के चारों कोनों पर इसी दृष्टि से बनाये गये थे कि भारत−माता का सम्पूर्ण रूप देखने का उन यात्रियों को सौभाग्य मिले।

तीर्थ−यात्रियों के जत्थे किन्हीं सुयोग्य मनीषियों के नेतृत्व में चलते थे। वे रात्रि को तो ठहरने वाले गाँव की जनता का उद्बोधन करते थे, वहाँ यात्री दल का प्रशिक्षण करते थे। इस प्रकार दुहरा प्रयोजन पूरा होता चलता था। एक ओर वे यात्री लोग अध्यात्म दर्शन, उत्कृष्ट जीवन एवं लोक−मंगल के विभिन्न पक्षों पर अपनी ज्ञान−वृद्धि करते थे, दृष्टिकोण परिष्कृत करते थे। वहाँ दूसरा लाभ यह भी होता था कि जन−सेवा का व्यावहारिक स्वरूप अपने अनुभव, अभ्यास में ला सकें। जन–संपर्क में जो झिझक रहती है, उसे दूर करके हर मनुष्य को अपना आत्मीय समझने की व्यावहारिकता को स्वभाव का अंग बना सकें। तीर्थ−यात्रा के जत्थे अपने निजी प्रशिक्षण का परिपूर्ण लाभ लेते थे, साथ ही जन−सेवा का सुअवसर भी प्राप्त करते थे। दोनों का समन्वय निश्चय ही उन दिनों पुण्य फलदायक रहता होगा। यात्रा अवधि में ब्रह्मचर्य, भूमि−शयन, क्षोभ−विक्षोभों से बचाव, आहार−बिहार का संयम, श्रम−साधना, तितीक्षा−नियमित उपासना आदि की तपश्चर्या तो अनिवार्य रूप से करनी पड़ती थी। इस प्रकार वह अवधि इन यात्रियों के लिए साधु−संस्था के सदस्यों को मिलने वाला प्रत्येक सुअवसर प्रदान करती रहती थी।

इस वर्ष युग−निर्माण शाखाओं में पन्द्रह−पन्द्रह दिन के शिक्षण−शिविर चलाने की सुविस्तृत योजना बनाई गई है। उनमें प्रातः 5 से 9 बजे तक सक्रिय सदस्यों एवं लोक सेवा के सामयिक क्रियाकलापों की विधि−व्यवस्था चलाई जाया करेगी। सायंकाल जनता की विचार−क्रान्ति के हर पहलू से परिचित कराने वाली व्याख्यान शृंखला का, प्रेरक गायनों का लाभ दिया जाया करेगा। इन शिविरों में कार्यकर्त्ताओं का और जनता का समानान्तर प्रशिक्षण चला करेगा। आशा की जा रही है कि नव−निर्माण अभियान में इस शिविर−शृंखला के कारण असाधारण गतिशीलता उत्पन्न होगी।

प्राचीन काल की तीर्थ−यात्राएँ ठीक यही प्रयोजन पूरा करती थीं, जो इस वर्ष शिविर शृंखला आन्दोलन के अंतर्गत हम लोग करने जा रहे हैं। उसमें विशेषता एक और भी थी कि निर्धारित प्रशिक्षण परिव्राजक−पद्धति से होता रहता था, अधिक स्थानों की अधिक जनता लाभ उठाती रहती थी। जब कि प्रस्तुत शिविरों में केवल एक ही स्थान के लोग उसे प्रेरणा ग्रहण कर सकेंगे। इन शिविरों में यात्रा मनोरञ्जन की विशेषता भी नहीं है। फिर शिक्षार्थी अपने घरों पर ही तो रहेंगे। जहाँ का वातावरण उन्हें प्रभावित करता रहेगा और उच्च प्रेरणाओं को सीमित रूप से ही हृदयंगम कर सकना उनके लिए सम्भव होगा। तीर्थयात्रा के सदस्यगण एक लक्ष्य, एक विचार−पद्धति, एक प्रक्रिया, एक वातावरण लेकर चलते हैं। झंझट जंजालों से उद्विग्न होने की परिस्थितियाँ नहीं रहतीं। अस्तु जो सुना, समझा, सीखा, किया गया है, उसका अधिक गहरा प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। इस प्रकार तीर्थ यात्रियों की प्रक्रिया अपनी शिविर−शृंखला की तुलना में हलकी नहीं, तगड़ी ही पड़ती थी। उनका प्रचलन खूब था। लोग उत्साह पूर्वक इन यात्राओं को निकलते थे और एक दूसरे को उसमें सम्मिलित होने के लिए प्रोत्साहन, आमन्त्रण देते थे।

प्राचीन काल की तीर्थयात्रा प्रक्रिया का गम्भीरता पूर्वक विवेचन विश्लेषण किया जाय तो भली प्रकार स्पष्ट हो जायगा कि वह वानप्रस्थ और संन्यास की सम्मिलित पद्धति थी। उससे साधु−संस्था का प्रयोजन भली प्रकार पूरा होता था।

उन दिनों सुयोग्य वानप्रस्थी और तेज−पुञ्ज संन्यासी होते तो थे, पर उनकी संख्या उतनी नहीं थी—जितनी कि आवश्यकता थी। उस कमी को पूरा करने के लिए तीर्थयात्रा की अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रक्रिया का आविर्भाव हुआ। उसमें थोड़−थोड़े समय के लिए सुयोग्य व्यक्ति घर से निकलते थे और आत्म−निर्माण लोक−मंगल की उभयपक्षीय आवश्यकताओं को आशाजनक मात्रा में पूरा करते थे। यह धर्म−चेतना के लिए आँशिक समय−दान ही तो हुआ। तीर्थयात्रा के लिए वयोवृद्ध एवं गृह−निवृत्त ही नहीं निकलते थे, वरन् उनमें किशोर, वयस्क, विवाहित, अविवाहित नर−नारी सभी वर्ग के, सभी आयु के लोग होते थे। समय निकालने से निकल भी आता है। इच्छा में तीव्रता होते व्यवस्था भी कुछ न कुछ बन ही जाती है। हारी−बीमारी आ जाय, तो भी मनुष्य को अवकाश लेना पड़ता है। तीर्थयात्रा को लोग धर्मधारणा का आवश्यक अंग मानते थे तो उसके साथ समय एवं धन भी किसी प्रकार जुट ही जाता था। परिवार के अन्य सदस्य थोड़े समय तक उसके उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर चलाते थे और इच्छुक को बिना किसी अड़चन के धर्म−प्रवास में सम्मिलित होने का अवसर मिल जाता था।

तीर्थयात्रा से लौटने के बाद लोग फिर सामान्य जीवनयापन करने लगते थे और पिछले उत्तरदायित्वों को पूर्ववत् संभाल लेते थे। कोई यह नहीं सोचता था कि एक बार तीर्थयात्रा पर निकले तो सदा−सर्वदा तीर्थयात्रा ही करती रहनी पड़ेगी। सामयिक स्वल्प−कालीन धर्म सेवा का प्रचलन अपने देश में सदा से रहा है। तीर्थयात्रा उसी का ज्वलन्त उदाहरण है। गुरुकुलों की शिक्षा−पद्धति वाली प्रक्रिया भी सामयिक साधु−जीवन की रीति−नीति ही है। स्पष्ट है कि साधु−संस्था में समय अवधि के लिए प्रवेश करना हमारी पुरातन परम्परा है। आज उसके पुनर्जागरण की अनिवार्य आवश्यकता अनुभव की जा रही है।


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