आत्म साक्षात्कार और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग

August 1974

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

यह संसार ईश्वर निर्मित है। वही इसका अधिपति है। सभी पदार्थ, सभी प्राणधारी उस आधार पर विनिर्मित हुए हैं कि उससे इस सृष्टि की शोभा-सुषमा बढ़े और अचेतन को अधिक चेतन बनने का—अविकसित को अधिक विकसित होने का अवसर मिले। प्रिय और उपयुक्त लगने वाले पदार्थ एक प्राणी इसलिए हैं कि विश्व की, सुख-शान्ति को समुन्नत होने में सहायता मिल। अप्रिय, अनुपयुक्त, अवांछनीय एवं अवरोधात्मक तत्व इसलिए हैं कि उनसे बचने बचाने के संदर्भ में कुशलता, सजगता एवं समर्थता बढ़ाने के अवसर मिलते रहें। नीति संवर्धन आत्मिक प्रगति के लिए जितना आवश्यक है उतना ही आवश्यक अनीति उन्मूलन भी है। उस उभय-पक्षीय क्रिया-प्रक्रिया को अपनाकर ही सृष्टि सौंदर्य से लेकर प्रगति प्रयोजन के विविध क्रिया-कलाप सम्पन्न होते हैं। यदि संसार में केवल एक उपयुक्त पक्ष ही रचा गया होता तो यहाँ किसी के करने सोचने के लिए कुछ बचता ही नहीं सब कुछ नीरस हो जाता और सर्वत्र निष्क्रियता दृष्टिगोचर होती। सृष्टि में सत्-असत् का निर्माण सर्वथा उपयुक्त ही किया गया है भले ही वह हमें प्रिय-अप्रिय-सुखद-दुखद के रूप में उपयुक्त, अनुपयुक्त स्तर का भला बुरा ही क्यों न प्रतीत होता हो। भले में जहाँ सुख, सन्तोष की अनुभूति मिलती है, वहाँ बुरे और दुखद से जूझते हुए अपनी प्रतिभा का सजग एवं सदाशयता को प्रखर बनाने का समुचित अवसर मिलता है। सुख ईश्वर की दया है और दुख उसकी कृपा। यह दोनों ही वरदान मनुष्य के लिए प्रकारान्तर से उपयुक्त ही नहीं आवश्यक भी हैं।

ब्रह्मविद्या आत्मा की—परमात्मा की—जीवन की समस्त समस्याओं को हल करने का उपयुक्त उपाय एवं चिन्तन पथ-प्रशस्त करती है। यह कल्प-वृक्ष जिसे प्राप्त हो गया वह उपयुक्त और अनुपयुक्त परिस्थितियों से समान रूप से लाभान्वित हो सकता है और हरी भली-बुरी परिस्थिति में खट्टे-मीठे आनन्द का अनुभव करता रह सकता है। बिना अन्तः विक्षोभ का सामना किये मात्र अपनी आन्तरिक विभूतियों के आधार पर किस तरह सुखी, संतुष्ट रहा जा सकता है, इस कला का नाम ब्रह्मविद्या है। वस्तुओं पर—

व्यक्तियों पर सुखोपलब्धि की मान्यता मृग-तृष्णा के समान कभी पूरी न हो सकने वाली भ्रान्ति है, इसलिए उसे माया कहते हैं। अन्धकार और प्रकाश की तरह ब्रह्मविद्या और माया का विरोध है। जहाँ एक होगी वहाँ दूसरी रह ही न सकेगी।

ब्रह्मविद्या मानवी अपूर्णता को पूर्णता में विकसित करने की हर्ष-विषाद के आवेशों को शान्त सन्तुलन में बदलने वाली—परावलंबन को स्वावलंबन में परिवर्तित करने वाली इस जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसलिए तत्वदर्शियों ने ब्रह्मविद्या की महत्ता पग-पग पर दर्शायी है और ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए परिपूर्ण प्रोत्साहन दिया है। स्वर्ग और मुक्ति इसी ब्रह्मविद्या के दो मधुर फल बताये हैं। उसी को अमृत और पारस भी कहा गया है।

अमृत इसलिए कि इस ज्ञान को प्राप्त करने वाले अपने आपको अविनाशी आत्मा अनुभव करता है, शरीर के मरण को दुखद नहीं मानता, साथ ही ऐसी योजनाएँ बनाता है जो अनेक जन्मों में पूरी होने पर भी अधीरता या निराशा उत्पन्न न करें। ब्रह्मज्ञान को पारस इसलिए कहा गया है कि लोहे जैसी घटिया परिस्थितियाँ और ओछे व्यक्तित्व भी उस दृष्टिकोण के प्रभाव से स्वर्ण जैसे सुन्दर एवं बहुमूल्य बन जाते हैं। मानव जीवन में सन्निहित अगणित विभूतियों से लाभ उठा सकने योग्य कुशलता एवं दूरदर्शिता ब्रह्मविद्या द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। साथ ही उस लक्ष्य की पूर्ति भी इसी तत्व-दर्शन के सहारे हो सकती है जिसके लिए कि यह सुरदुर्लभ नर शरीर उपलब्ध हुआ है।

ब्रह्मविद्या की महिमा बताते हुए शास्त्र कहता है—

परा यया तदक्ष रमाधिगम्यते। —मुण्डक 1।1।5

जिस ज्ञान के द्वारा परमात्मा को तात्विक रूप से जाना जाता है, उसे पराविद्या कहते है।

यह ब्रह्मविद्या परिष्कृत चिन्तन पर—सद्ज्ञान पर आधारित है। इसके लिए उच्चचरित्र निष्ठा वाले सत्कर्म परायण, तत्वदर्शी गुरुजनों के पास जाना चाहिए और चिन्तन, समय, तप एवं सत्कर्मों के सहारे उसे न केवल मस्तिष्क में वरन् जीवन के समय क्रिया-कलाप में समाविष्ट करना चाहिए। जो ज्ञान व्यावहारिक जीवन का अंश बन सके वस्तुतः वहीं सच्चा ज्ञान है। कहा गया है—

तस्यै तपो दमः कर्मेति प्रतिष्ठा वेदाः सर्वांगानि सत्य मायतनम्।—केन 4।8

उस ब्रह्मविद्या के तीन आधार हैं—(1) तप, (2) संयम (3) सत्कर्म। वेद उस ब्रह्मविद्या के अंग हैं। सत्य को प्राप्त करना उसका उद्देश्य।

आत्मविद्यातपोमूलं तद्ब्रह्मोपनिषत्परम्। —नारद परिव्रजकोपनिषद् 9।13

यह ब्रह्मविज्ञान (1) आत्मज्ञान और (2) तपश्चर्या पर आधारित है।

साँसारिक ज्ञान—आजीविका उपार्जन एवं आहार विहार जैसे भौतिक प्रयोजनों की ही एक सीमा तक पूर्ति कर सकता है। व्यक्तित्व की उत्कृष्टता, जो कि उच्चस्तरीय सफलताओं की आधार शिला है—तात्विक दृष्टि मिलने से ही प्राप्त होती है। साँसारिक ज्ञान चाहे कितना ही बढ़ा-चढ़ा क्यों न हो शान्ति और प्रगति का चिरस्थायी पथ प्रशस्त नहीं कर सकता। इसके लिए ब्रह्मज्ञान का—आत्मज्ञान का—ही आश्रय लेना पड़ता है।

आत्मा को अपने आपको—अपने स्वरूप, हित बौद्धिक लक्ष्य को समझने की—हृदयंगम करने की बौद्धिक प्रक्रिया का नाम ज्ञान’ है। इसी ज्ञान को प्राप्त करना जीवन को सार्थक बनाने वाला परम पुरुषार्थ है। अस्तु ज्ञान का महत्व और महात्म्य बताते हैं। आत्मा की प्राप्ति ही परमात्मा की प्राप्ति है। आत्मबोध और ईश्वर दर्शन में मात्र शब्दों का ही अन्तर है। आत्मा का उच्चस्तर की परमात्मा है। अपने आपको देव चिन्तन और देव कर्म में नियोजित कर देना ही ईश्वर भक्ति —योगसाधना एवं तपश्चर्या है। सारा साधना विज्ञान और तत्व-दर्शन इसी धुरी के इर्द-गिर्द घूमता है। इस संदर्भ में आप्त वचन इस प्रकार हैं—

प्रतिबेधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते। आत्मना विन्दते वीर्य विद्यना विन्दतेऽमृतम्। —क न 2।4

आत्मा से परमात्मा को जाना जाता है ज्ञान के द्वारा ही अमृतत्व प्राप्त होता है। दिव्य ज्ञान को ही अमृत के रूप में जाना जाता है।

सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा, सम्यक् ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्।

तप, सत्य, ज्ञान और संयम से आत्मा की प्राप्ति होती हैं।

एतद्वै सत्येन दानेन तपसाऽनाशकेन ब्रह्मचर्येण निर्वेदनेनानाशकेन षडंगेनैव साधयेदेतत्त्रय वीक्षेत दमं दानं दयामिति न तस्य प्राण उत्क्रामन्त्यैव समवलीयन्ते ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्यतिय एवं वेद। —सुवालोपनिषत 3।3

उस परब्रह्म को सत्य, तप, त्याग, उपवास, ब्रह्मचर्य और वैराग्य इन छै साधनों से जानना चाहिए। दम, दान और दया इन तीन कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए। इस मार्ग को अपनाने वाला आत्मा-तत्व में लीन हो जाता है वह पथ-भ्रष्ट नहीं होता।

सत्येन लभ्यस्तपसाह्येष आत्मा सम्यक् ज्ञानेन ब्रह्मचर्य्येण नित्यम्। अन्तःशरीरे ज्योतिर्म्मयो हि शुदघो यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः॥ (3 मुण्ड के 1।5)

यह परमात्मा सत्य, तपस्या, सम्यक् ज्ञान और ब्रह्मचर्य द्वारा सर्वदा लब्ध होता हैं। शरीर के भीतर ज्योतिर्मय, शुद्ध परमात्मा विराजमान है जिसे निर्दोष यति लोग दर्शन करते हैं।

यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेनै तमेव विदित्वा मुनिर्भवति। —वृहदा. 4 अ. 4. ब्रा. 22

यज्ञ, दान, विषयवासना, त्याग रूप, तपस्या द्वारा इसी (परमात्मा) को जानकर (मनुष्य) मुनि होता है।

जिसे ईश्वर की अनुभूति होती हैं, वह उस परब्रह्म की सद्गुण, सत्कर्म, सद्विचार एवं सत् स्वभाव रूपी किरणों को, विभूतियों को अपने में धारण करता चला जाता है और ब्रह्म जानने वाला ब्रह्मवत् बन जाता है। उसे मायाबद्ध भव कीटकों की तरह ‘निकृष्ट जीवन जीने स्तर की उठाती है जैसी कि प्रभु के अनुग्रह प्राप्त सच्ची ईश्वर भक्त में उठनी चाहिए।

सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। —तैत्तरीयोपनिषद् 2 वल्ली 1

ब्रह्म सत्यस्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है और अनन्त स्वरूप है।

विज्ञानात्मा सह देवैश्च सर्वेः प्राणा भूतानि संप्रतिष्ठन्ति यत्र। तदक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य प सर्वज्ञः सर्वमेवाविवेशेति॥

हे सोम्य! जो मनुष्य उस अविनाशी परमेश्वर को जान लेता है वह सर्वज्ञ होता है, परमेश्वर में लीन हो जाता है। उसी परमेश्वर में सर्व प्राण, पञ्चभूत सभी इन्द्रियाँ और विज्ञानात्मा आश्रित हैं।

ब्रह्मविदाप्नोति परम्। —तैत्तिरियोपनिषदि 2 वल्ली 1

ब्रह्म का पहिचानने वाला परम पद प्राप्त होता है।

ओजोऽसि, सहोऽसि, बलयसिं, भ्राजोऽसि, देवानाँ धामनामाऽसि, विश्वयसि, विश्वायुः सर्वयसि, सर्वायुरभि भूः।—कत्व

आप ही ओज रूप, क्षमाशील, बलवती, तेजस्विनी, दिव्य-ज्योति, विश्वरूपा, प्राणियों की प्राण और व्याप्त जीवन हैं।

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति नचेदिहा वेदीन्महती बिनाष्टि। भतेषृ भूतेषु विचिन्त्य धीराः प्रेत्यास्मा- ल्लोका दमृता भवन्ति॥ —तलवकारोपनिषदि 13

इस लोक में यदि ब्रह्म को जाने तो संगति है और यदि यहाँ न जाने तो महाविनाश है। धीर लोग प्रत्येक वस्तु में उसे विशेष रूप से चिन्ता करके इस लोक से जाकर अमृत होते हैं।

स्वर्ग मोक्ष, ब्रह्मलोक आदि का शास्त्रों में वर्णन है वे कोई स्थान, स्वरूप या क्रिया-कलाप नहीं है। अज्ञान का समाधान होने पर जो शुद्ध दृष्टि और निर्मल विवेक उदय होता है, उसी को स्वर्ग, मुक्ति आदि नामों से पुकारते हैं।

लोग ईश्वर का अस्तित्व मस्तिष्क मात्र से स्वीकार करते है—हृदय से नहीं। जानते भर हैं—मानते नहीं। यदि ईश्वर का अस्तित्व सच्चे मन से हृदयंगम किया जाय और आत्मा का कल्याण परमात्मा के सामीप्य अनुग्रह में माना जाय तो फिर मनुष्य न तो कुमार्गगामी हो सकता है और न काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मत्सर के पाश में बँधा हुआ वासना-तृष्णा की कीचड़ में फंस स सकता हैं। जिसे आत्म-कल्याण की, ईश्वरीय अनुग्रह की आकाँक्षा है उसके लिए उत्कृष्ट स्तर का जीवनयापन करना ही एकमात्र मार्ग रह जाता है। ऐसे ही सद्भावना एवं सत्प्रवृत्तियों में निरत ईश्वर भक्त, परमात्मा की प्राप्ति का आनन्द लेते और जीवन लक्ष्य प्राप्त करते हैं।

ऐसे ईश्वर भक्तों की भक्ति ईश्वर को करनी पड़ती है। ऐसे सच्चे भक्त जहाँ उस परमेश्वर को बुलाते हैं वहाँ वह निश्चित रूप से दौड़ा आता है। ऋग्वेद इस तथ्य को साक्षी देते हुए कहता हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles