तप साधना का लक्ष्य और प्रयोजन

August 1974

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सोने को अग्नि में डालकर उसमें घुसी हुई मिलाकर एवं कुरूपता को दूर किया जाता है। इस अग्नि संस्कार से ही उसकी आभा निखरती है—प्रामाणिकता सिद्ध होती है और बाजार में उचित कीमत उठती है। यदि तपाने के झंझट से बचा जाय तो सोने और पीतल में कोई अन्तर ही सिद्ध न किया जा सकेगा।

मनुष्य की महान् विभूतियों को प्रकट एवं प्रखर बनाने के लिए यह आवश्यक है कि वह तप, साधना के अग्नि संस्कार को सहन एवं स्वीकार करे। तप का अर्थ है—सदुद्देश्य के लिए उस हद तक बढ़ चलना जिसमें भौतिक कष्टों की हँसते-खेलते उपेक्षा की जा सके। इस तथ्य को जीवन प्रक्रिया में उतारने के लिए कुछ प्रयाग अभ्यास भी करने पड़ते हैं। बलिष्ठ बनने के लिए व्यायामशाला में जाने और कई तरह की कसरतें करनी पड़ती हैं। आत्मबल सम्पन्न तपस्वी जीवन की भूमिका में विकसित होने के लिए कई तरह के ऐसे कर्मकाण्ड अपनाने पड़ते हैं जो अभीष्ट प्रयोजनों की पूर्ति में सहायक सिद्ध हो सकें। इन्हीं व्यायाम साधनाओं को तपश्चर्या का बहिरंग कलेवर कह सकते हैं।

व्रत, उपवास, शीतजल स्नान, धूप आतप सहना, धूनी तपना, नंगे पाँव चलना, देर तक खड़े रहना, कठोर आसन लगाकर बैठना, कम सोना, सवारी का उपयोग न करके पैदल चलना, स्वल्प वस्त्र धारण, केश न कटाना, मौन रहना, भूमि शयन, नमक, शक्कर आदि के स्वादों का त्याग ब्रह्मचर्य जैसे क्रिया-कलापों को तप साधना में गिना जाता है। जो इन उपचारों का क्रियान्वित करते है वे तपस्वी कहलाते हैं। तप का महात्म्य अध्यात्म शास्त्रों में भरा पड़ा है। तप के प्रताप से देव शक्तियों के द्रवित होने और अभीष्ट वरदान प्रदान करने के कितने ही पौराणिक उपाख्यान, पढ़ने और सुनने के मिलते। तपस्वी का सम्मान करने के लिए हमारी सहज श्रद्धा उमड़ती है। जबकि दूसरे लोग सुख-सुविधाओं का तनिक भी त्याग नहीं कर सकते तब तपस्वी इन कष्ट साध्य क्रिया-कलापों को खुशी-खुशी अपना लेता है उसमें उसकी संकल्प शक्ति की प्रखरता स्पष्ट है। दूसरे लोगों की तुलना में वह स्वतंत्र निर्णय करने और जन सामान्य के प्रचलित ढर्रे का व्यक्ति क्रम करने में समर्थ है यह विशेषता तो स्पष्ट ही सिद्ध होती हैं। इस साहसिकता के सामने यदि मानवी श्रद्धा नत-मस्तक होती है तो उसे सर्वथा उचित ही कहा जायगा।

तपश्चर्या का बहिरंग ढाँचा किस उद्देश्य के लिए तत्व-दर्शियों ने किस प्रयोजन की पूर्ति के लिए बनाया, इस तथ्य पर गहराई के साथ विचार करने की आवश्यकता है। यदि यह सब निरुद्देश्य रहा होता तो उसे मात्र उत्पीड़न ही कहा जाता दूसरों की हत्या करने की तरह आत्म-हत्या भी अपराध है ठीक इसी तरह दूसरों को उत्पीड़न देने की तरह अपने आपका सताना भी आत्म-उत्पीड़न कहा जायगा और उसकी निन्दा की जायगी। ऐसा हुआ भी। पारसी धर्म में उपवास को निन्दनीय ठहराया गया है क्योंकि इससे आत्म-कष्ट होता है। ऐलोपैथी चिकित्सा पद्धति भी रोगी को उपवास कराने के पक्ष में नहीं है। फ्राइड प्रभृति मनोविज्ञानी ब्रह्मचर्य को आत्म प्रताड़ना कहते है और उसकी ढेरों हानियाँ गिनाते हैं। सर्दी-गर्मी का दबाव, अंगों की तोड़-मरोड़, असुविधापूर्ण रहन सहन अपनाकर जीवन शक्ति का अपव्यय जैसे अनेकानेक तर्क इस पक्ष में पड़ते हैं कि तप साधना की कष्ट साधना हानिकारक है। बुद्ध चरित्र में आता है कि तथागत जब कठोर उपवासों द्वारा डडडड को अत्यन्त दुर्बल बना चुके तो एक देव कन्या ने प्रकट होकर उन्हें मध्यम मार्ग पर जाने और इस दुराग्रही कष्ट प्रयोग को छोड़ देने के लिए सहमत किया। उसने सितार का उदाहरण देकर यह भी कहा था कि तारों को अधिक खींचने से वे टूट जाते हैं और वीणा की उपयोगिता नष्ट हो जाती है। शरीर को सताने का भी यही परिणाम होता है। इस तथ्य पूर्ण परामर्श को भगवान बुद्ध ने अंगीकार किया था और वे मध्यम मार्ग स्वयं अपनाकर दूसरों को भी “मज्झम मग्ग“ (मध्यम मार्ग) पर चलने का उपदेश करने लगे थे।

शरीर को बलिष्ठ बनाना एक लक्ष्य है, उसकी प्राप्ति के लिए व्यायामों में अमुक प्रकार के अमुक सीमा तक किये जाने चाहिए। इसकी उपयोगिता से कोई इनकार नहीं कर सकता, पर यदि अत्युत्साह के आवेश में अमुक व्यायामों को ही चमत्कारी मान बैठा जाय और सब छोड़कर उन्हीं को पकड़ बैठा जाय तो इससे लक्ष्य की प्राप्ति में सहायता मिलने के स्थान पर उलटी बाधा पड़ेगी। व्यायाम के साथ साथ उपयुक्त आहार-बिहार रहन-सहन, दिनचर्या भी आवश्यक है। इन सब बातों की उपेक्षा करके अकेले व्यायाम पर चिपट पड़ना असन्तुलित प्रयास ही कहा जायगा। बलिष्ठता प्राप्ति के लिए व्यायाम प्रक्रिया का उपयोग एक बात है और अमुक व्यायाम को सर्व सिद्ध दाता मानकर उसी पर लट्टू हो जाना बिलकुल दूसरी बात। तप, साधना में अक्सर ऐसी ही भूल की जाती है। यह भुला दिया जाता है कि इन प्रयोजनों का आविष्कार आविर्भाव किस निमित्त किया गया है और उसका कितना उपयोग—किस दृष्टिकोण से करने पर कितना लाभ हो सकता है? यह समस्त पृष्ठभूमि ध्यान में रखते हुए ही यदि तप साधना का अवलम्बन किया जाय तो ही वे लाभ मिल सकेंगे जिनका वर्णन तप विज्ञान के महात्म्य प्रकरण में बताया गया है।

तप साधन के समस्त व्यायाम उपचार इसलिए बनाये गये हैं कि आदर्शवादी जीवन प्रक्रिया अपनाने में स्वभावतः कितनी ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उन्हें हँसते-खेलते, सहन करते रह सकना अपने स्वभाव का अंग बन जाय। उस तरह की कष्ट साध्य जीवन प्रणाली अभ्यास में उतर कर सहज स्वाभाविक बन जाय। स्पष्ट है कि न्यायोपार्जित आजीविका सीमित ही रहेगी। फिर उदार व्यक्ति की अन्तरात्मा भी तो निष्ठुर पाषाण जैसी न रहेगी उसे सत्प्रयोजनों के लिए अपनी आजीविका का एक अंश अनिवार्य रूप से खर्च करते रहना पड़ेगा। सीमित आजीविका और परमार्थ प्रयोजनों का अतिरिक्त भार इन दो कारणों से आदर्शवादी को प्रायः दूसरों की तुलना में आर्थिक तंगी में ही रहना पड़ता है। विलासी रीति-नीति बहुत ही खर्चीली होती है। उसकी पूर्ति के लिए अनीति उपार्जन एवं सत्प्रयोजनों की ओर से निष्ठुर कृपणता ही अपनानी पड़ती है। इसके बिना विलास के लिए—संग्रह के लिए प्रचुर पूँजी जुटेगी ही नहीं। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए आदर्शवादी को आरम्भ से ही मितव्ययी रीति-नीति अपनानी पड़ती है, उसे विदित रहना है कि ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का प्रथम अध्यात्म सिद्धान्त उसी आधार पर बना है कि जो उच्च विचारों की आदर्शवादिता अपनाना चाहता हो उसे प्रथम साधना मितव्ययता की—सादगी की—गरीबी की करनी चाहिए। इस अभ्यास से ही उसकी परिस्थितियाँ ऐसी रह सकेंगे जिनमें अध्यात्मवादी जीवन पद्धति का निर्वाह सम्भव हो सके।

तपश्चर्या के बहिरंग उपचारों में से अधिकाँश ऐसे कष्ट सामने आते हैं उनका पूर्वाभ्यास करके मनोभूमि एवं शरीर स्थिति को अनुकूल बना लिया जाय। जिसे अभावग्रस्त स्थिति अखरेगी नहीं बही प्रसन्नता पूर्वक सादगी भरी शालीनता के साथ जीवनयापन कर सकेगा। ऐसी स्थिति में उसे बिना अनीति उपार्जन की अपेक्षा किये—सत्कर्मों के लिए आवश्यक खर्च में बिना कृपणता बरते, बड़ी सरलता और प्रसन्नता के साथ अपना ढर्रा चलाते रह सकना सम्भव हो जायगा। तपश्चर्या के अभ्यास इस प्रमुख प्रयोजन को भली प्रकार पूरा करा सकने की सफलता प्रदान करते हैं।

व्रत, उपवास में नमक शक्कर जैसी स्वादिष्टता को छोड़ने का—प्रयोजन यह है कि स्वल्प, सस्ता एवं सादा भोजन भी यदि मिलता रहे तो वह गरीबी की स्थिति अखरे नहीं। न्यायोपार्जित आजीविका में से सत्प्रयोजनों का अंश दान निकाल कर जो बच जाय, उस रूखे-सूखे को अमृत मानकर गुजर कर ली जाय। ऐसी सादगी का अभ्यस्त व्यक्ति अर्थ प्रलोभन के लिए दुष्कर्म करने से सहज ही बच जाता है और सन्मार्ग पर चल सकने योग्य मनोभूमि को अक्षुण्ण रख सकता है। गरीबी में जो कठिनाई आती है उसमें आहार सम्बन्धी सादगी, सस्तापन एवं स्वल्प मात्रा को गिना जा सकता है। व्रत, उपवास इसी अभ्यास के लिए है। नमक, शक्कर जैसे स्वादों को छोड़कर रूखे-सूखे पर गुजर करने का अभ्यास करना आदर्शवादी मोर्चे की प्रथम लड़ाई में सफलता पूर्वक लड़ सकने की क्षमता प्रदान करता है।

आदर्शवादी को इन्द्रिय लिप्सा का नियन्त्रण करना पड़ता है। उनके उभार मनुष्य का मस्तिष्क उद्विग्न करते हैं और उन वासनाओं की पूर्ति के लिए चिन्तन, समय, श्रम, मनोयोग, कौशल एवं धन का बहुत बड़ा अंश नष्ट करना पड़ता है। ब्रह्मचर्य की बात इसी दृष्टि से है। कामुकता की प्रेरणा से पत्नी ढूँढ़ना—पत्नी के बच्चे होना-बच्चों के उत्तरदायित्व का गरदन तोड़ कर रख देने वाला भार पड़ना, कितना जटिल और कितना कठिन होता है इसे प्रत्येक भुक्त भोगी भली प्रकार जानता है। राई रत्ती जितनी वासना का विस्तार इतना अधिक होता चला जाता है कि मनुष्य अपनी शत प्रतिशत शक्ति को उसी जंजाल में झोंक देने के उपरान्त भी सन्तोषजनक स्थिति की परिवार व्यवस्था नहीं जुटा पाता और बेतरह रोता-कलपता संसार से विदा होता है। यदि कामुकता पर नियन्त्रण रखा जा सके तो जीवन की समस्त सम्पदा को कोल्हू में पेल कर उसका एक-एक बूँद तेल जो गृहस्थ में जलाना पड़ता है उसकी बचत सहज ही हो जाय और उस बचत से आत्म-कल्याण एवं विश्व-कल्याण का उद्देश्य सहज ही पूरा किया जा सके।

आज के जमाने में जनसंख्या की वृद्धि विश्व की सबसे भयंकर विभीषिका है। अणुयुद्ध से समस्त मानव समाज के नष्ट होने की तरह ही जनसंख्या वृद्धि के कारण इस धरती पर से मनुष्य का अस्तित्व समाप्त हो जाने का खतरा सामने है। वर्तमान गति से संतानोत्पादन जारी रहा तो अगले कुछ ही वर्षों में समस्त वायुमण्डल विषाक्त हो जायगा। अन्न के बिना लोग तड़प-तड़प कमर भूखों मरेंगे और चलने-फिरने तक को जगह न बचेगी। तब लोग मक्खी, मच्छरों की तरह जन्मते-मरते और मनुष्य स्तर को समाप्त करते दिखाई देंगे। इन आज की परिस्थितियों में सन्तान के सीमा बन्धन युग की अनिवार्य आवश्यकता है। उसकी पूर्ति के लिए ब्रह्मचर्य ही सर्वोत्तम उपाय है।

शक्तियों को सदुद्देश्य में लगाने के लिए—जनसंख्या संकट से लड़ने के लिए—ब्रह्मचर्य को मूर्धन्य स्थान प्राप्त है। इनसे न केवल शारीरिक, मानसिक समर्थता का लाभ है वरन् उपरोक्त दो लाभ ऐसे ही हैं जिन्हें आत्मिक प्रगति एवं सामाजिक स्थिरता की दृष्टि से सर्वोच्च स्थान दिया जा सकता है। कामुकता पर नियन्त्रण करने को ब्रह्मचर्य प्रवृत्ति को इसलिए सम्मानास्पद स्थान प्राप्त है। अनुष्ठानों क समय अथवा ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ संन्यास की अवधि में ब्रह्मचर्य को आवश्यक माना गया हैं। विधुरों और विधवाओं के लिए भी इसे उपयोगी माना गया है। पतिव्रत, पत्नीव्रत आदि के बन्धन इसी दृष्टि से हैं। गृहस्थ से भी अधिकाधिक संयम बरतने का निर्देश इन्हीं कारणों से है। ब्रह्मचर्य की तप साधना अकारण नहीं है। उनके पीछे जिस उद्देश्य की पूर्ति का समावेश है उसे ध्यान में रखकर चला जाय तो अमुक समय तक ब्रह्मचर्य पालन की लकीर पीटने को ही पर्याप्त न माना जायगा वरन् इस दृष्टिकोण के अनुसार अपना और अपने प्रभाव क्षेत्र का अमुक स्तर बनाने का प्रयत्न किया जायगा।

वाणी का मौन तथा सीमित एवं उपयोगी शब्दों का उच्चारण प्रतिबन्ध मन्त्र जप यह दोनों ही प्रयोजन वाणी पर नियन्त्रण करने की दृष्टि से हैं। आवेशग्रस्त, कटु, दुर्वचन न बोलें—छल, व्यंग, तिरस्कार एवं गिराने वाले शब्दों का उच्चारण न करें। उच्चारण का प्रत्येक शब्द श्रेयस्कर सदुद्देश्य के लिए बोला जाय, उसमें स्नेह, सौजन्य का समुचित समावेश होगा।

जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए जहाँ एक पक्ष 6 व्यक्ति गत जीवन को श्रेष्ठ, संयमी, सदाचारी बनाने का है वहाँ दूसरा पक्ष यह भी है कि अपनी विभूतियों का अधिकाधिक समर्पण लोक-मंगल के लिए किया जाय। मात्र संयमी सदाचारी तो पेड़ पत्थर भी होते हैं। वे किसी का कुछ बिगाड़ते नहीं और न अनैतिक आचरण करते हैं। मनुष्य की मर्यादा की रक्षा इसी में हैं कि वह पशु और पिशाच जैसे अवाँछनीय आचरण न करे।

मनुष्य जीवन इसलिए मिलता है कि इस सृष्टि को सुरम्य समुन्नत बनाने के लिए अधिकाधिक तत्परता का परिचय दिया जाय। अपनी सम्पदाओं और विभूतियों को इसी दिशा में अधिकाधिक मात्रा में नियोजित किया जाय। स्वार्थ की पशु प्रवृत्ति से ऊँचा उठकर परमार्थ की पुण्य प्रवृत्ति में संलग्न होना ही मानव जीवन की सार्थकता का दूसरा पक्ष है। इस दिशा में जो जितना चल सका समझना चाहिए कि उसने मनुष्य जन्म के लक्ष्य को समझा और उसे पूरा करने की दूरदर्शिता का परिचय दिया। इस आदर्शवादी रीति-नीति को अपनाने के लिए जिस साहसिकता का परिचय देना पड़ता है वह है—दुनियादारी से भिन्न प्रकार की रीति-नीति अपनाने में भय या संकोच का अनुभव न करना। अंधी भेड़ों की तरह एक के पीछे एक खड्डे में गिरते-मरते जाने का क्रिया-कलाप अपनाने से इनकार करना और इसके बदले व्यंग उपहास सहने के लिए समुद्यत रहना।

शिर के—दाढ़ी के बाल बढ़ाना-मुण्डन कराना-पंचकेश रखना—सामान्य वेषभूषा छोड़कर लँगोटी, तहमद आदि बाँधना जैसे जन-स्तर से भिन्न प्रकार की वेषभूषा धारण करना। पत्तल पर या हाथ पर खाना,कमण्डल से पानी पीना, धातु के बर्तनों का प्रयोग न करना—जैसे उपकरणों का विनियोग तप साधना के प्रकरण में इसीलिए सम्मिलित किया गया है कि समृद्ध एवं विलासी लोगों के अनुकरण के लिए मचलने वाली आन्तरिक दुर्बलता के पिण्ड छुड़ाया जा सके और जन प्रवाह से भिन्न स्तर का अपना स्वतन्त्र निर्णय स्वतन्त्र आचरण कार्यान्वित कर सकने का साहस प्रदर्शित किया जा सके, लोगों के व्यंग उपहास से अप्रभावित रह सकने का मनोबल विकसित किया जा सके। आदर्शवादी परम्परा अपनाने वाले में इस प्रकार का शौर्य, साहस होना अनिवार्य रूप से आवश्यक है।

सर्दी सहना, गर्मी सहना, भूमि पर सोना, उघाड़े बदन और नंगे पैरों रहना—कठोर आसन लगाकर बैठना, खड़े रहना जैसे कठोर कर्म इस मनःस्थिति को विकसित करते हैं कि कष्ट सहिष्णुता को परमार्थी जीवन की एक अनिवार्य साधन माना जाय। स्वार्थ का परमार्थ पर उत्सर्ग करने के लिए यही करना पड़ता है। त्याग, बलिदान का परिचय दिये बिना आत्मकल्याण की साधना में एक इंच भी प्रगति नहीं हो सकती। अपनी अमीरी और महत्वाकाँक्षाओं को जनकल्याण के लिए समर्पित किये बिना परमार्थ साधना सम्भव हो ही नहीं सकती। पहाड़ जैसे परिग्रह में से राई रत्ती दान पुण्य करते रहने का कृपण प्रदर्शन लोगों के बहकाने और आत्म प्रवंचना करने के लिए ही उपयुक्त हो सकता है। सच्चे आत्मवादी को तो त्याग, बलिदान के अंतिम चरण तक पहुँचना पड़ता है उसकी निष्ठा एवं श्रद्धा का परिचय तो अपनी सम्पदा का किस सीमा तक विसर्जन किया जा सका इसी कसौटी पर कसने के बाद प्राप्त होता है।

अनिवार्य निर्वाह के अतिरिक्त अपनी समस्त सुख-सुविधाओं को—सम्पत्तियों और विभूतियों को विश्वमानव को लिए समर्पित रहना है इसी का नाम प्रभु समर्पित जीवन है। इसी को शरणागति कहते हैं। ईश्वर भक्ति इससे कम साहस से हो ही नहीं सकती। इस मनःस्थिति को विकसित करने के लिए अनेकानेक तपश्चर्याओं के अभ्यास कराये जाते हैं। कहना न होगा कि तप साधना से निखरा हुआ व्यक्तित्व अपने आप में एक देवता होता है और उसके अपने ही चमत्कार वरदान इतने अधिक होते हैं कि तपस्वी को देवोपम सिद्ध पुरुष की संज्ञा दी जा सके।

तप साधना के इस उद्देश्य को समझा जा सके और इन बहिरंग क्रिया-कलापों को उसी दृष्टि से कार्यान्वित किया जा सके तो समझना चाहिए कि तपश्चर्या सार्थक हुई अन्यथा लकीर पीटने भर को निरुद्देश्य किया जा रहा हो तो उसे समझना चाहिए कि वह आत्म प्रताड़ना की निरर्थक कष्टकर विडम्बना भर है।


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