दूसरों को हानि पहुँचाने वाला स्वयं भी उस हानि से नहीं बचता (kahani)

August 1974

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पुराने जमाने में गाय और घोड़ा जंगल में एक साथ बड़े प्रेम से रहते थे। वहाँ घास की तो कमी न−थी। कभी−कभी दोनों साथ−साथ काफी दूर तक निकल जाते। घास चरते रहते और किसी वृक्ष की छाया में बैठकर अपने सुख−दुख की बातें भी कर लेते। उन दोनों के सम्बन्ध अधिक समय तक मधुर न रह सके, किसी छोटी बात को लेकर उनमें कहा सुनी हो गई।

घोड़ा सोचने लगा—’किसी भी तरह गाय को तंग करना चाहिए। उसे मजा चखाना चाहिए ताकि वह समझ सके कि घोड़ा कोई साधारण पशु नहीं है उससे बिगाड़ा कर जंगल में चैन से नहीं रहा जा सकता।’ वह सोचते−सोचते आदमी के पास गया और कहने लगा—’शायद आपको मालूम नहीं कि गाय के थनों अमृत के समान मीठा दूध भरा पड़ा है। यदि आप उसे पकड़ लेंगे तो दोनों समय आपको उसका दूध मिलता रहेगा। उस जैसा निरीह और सीधा पशु इस जंगल में तो मैंने कोई देखा नहीं।

‘बात तो तुम्हारी ठीक है। पर वह तो बहुत तेज दौड़ती है। उसके सींग भी होते हैं। मैं उसे किस प्रकार पकड़ूंगा।’

‘आदमी होकर भी जरा सी बात में घबड़ा गये। वह मुझसे तेज नहीं दौड़ सकती। आप मेरी पीठ पर बैठकर उसे पकड़ सकते हैं।’

आदमी को इसमें क्या घाटा था? इससे अच्छा परामर्शदाता और सहयोगी मिलना भी कठिन था। उसने घोड़े को लगाम लगाई। उस पर सवार हुआ और थोड़ी ही देर में गाय को पकड़ लिया। अब गाय और घोड़ा दोनों ही मनुष्य के दास बन चुके थे। दूसरों को हानि पहुँचाने वाला स्वयं भी उस हानि से बचकर कहाँ निकल पाता है?


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