घायल भीष्म पितामह शरशय्या पर पड़े थे और उत्तरायण सूर्य की प्रतीक्षा में मृत्यु के दिन गिन रहे थे।
समय काटने के लिए उन्होंने धर्मचर्चा को माध्यम बनाया। वे जो कहेंगे सो सारगर्भित ही होगा यह सोचकर कौरवों और पाण्डवों के परिवार के बचे हुए लोग उपदेश सुनने के लिए नित्य ही एकत्रित होते।
उस दिन पितामह न्याय, औचित्य और कर्त्तव्य की शिक्षा दे रहे थे। कथन महत्व का था। पर द्रौपदी उसे सुनकर हँसने लगी।
प्रवचन रोककर पितामह ने हँसने वालों की ओर निहारा। मुँह से हाथ ढके द्रौपदी ही मुस्करा रही थी। कारण समझते देर न लगी। भीष्म ने स्तब्धता भंग करते हुए कहा—निस्सन्देह, यह शिक्षा देने का उपयुक्त समय तभी था जब कौरवों द्वारा भरी सभा में तेरे वस्त्र खींचे जा रहे थे। किन्तु वैसा न कर सका। क्योंकि उन दिनों कौरवों का पाप-अन्न खाकर निर्वाह करता था और मेरी बुद्धि उन्हीं के हाथों बिक गई थी। अब वह अशुद्ध रक्त घावों में होकर बह गया तो शुद्ध शरीर में रह रहे शुद्ध मन द्वारा यह शुद्ध प्रवचन भी दिये जा रहे हैं।
अन्न के मन और कर्म पर पड़ने वाले प्रभाव को लोगों ने समझा। भीष्म की उस विवशता को समझते हुए द्रौपदी भी चुप हो गई और प्रवचन का प्रवाह आगे चलने लगा।