अकालमृत्यु और रुग्णता का कारण भ्रष्ट चिन्तन

August 1974

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स्वस्थ शरीर और दीर्घजीवन का सम्बन्ध साधारणतया खान-पान, व्यायाम आदि से माना जाता है, पर वस्तुतः समग्र आरोग्य मनुष्य की मनःस्थिति पर आधारित है।

जो मन से स्वस्थ है वह शरीर से भी स्वस्थ रह सकता है। यदि मनःक्षेत्र में उद्वेग और आवेश भरे हुए हैं तो रोग अकारण ही उत्पन्न होते रहेंगे और उनका निवारण पौष्टिक आहार एवं चिकित्सा उपचार से भी सम्भव न हो सकेगा।

यदि मन स्वस्थ हो तो बाह्य कारणों से उत्पन्न हुई रुग्णता अधिक समय न ठहर सकेगी उसका निराकरण जल्दी ही हो जायगा, शरीर संरचना में वे रोगों का समाधान स्वयमेव होता रहे।

मन में भरी दुर्भावनाएँ एवं दुष्प्रवृत्तियाँ मात्र मस्तिष्क तक सीमित नहीं रहतीं उनकी प्रतिक्रिया ज्ञान तंतुओं के माध्यम हैं। इस अंतर्ग्रही विष को शरीर संरचना भी दूर नहीं कर सकती। सम्वेदनाएँ तो प्रकृति को ढालती हैं, मनोविकार धीरे-धीरे शरीर के समस्त अंगों को अपने दुष्प्रभाव से प्रभावित करते चले जाते हैं और उनका परिणाम शारीरिक रोगों के रूप में सामने आता है। निरोग और दीर्घजीवी बनने के लिए मनःक्षेत्र को पवित्र और प्रगतिशील बनाने की अपरिहार्य आवश्यकता है।

योगवाशिष्ठ में महर्षि वशिष्ठ और काकभुसुण्डि जी के सम्वाद का एक रोचक कथा प्रसंग आता है। वशिष्ठ जी पूछते हैं—हे काकभुसुण्डि आप इतने काल तक दीर्घजीवी और युवा किस कारण रहे हैं।

इसके उत्तर में काकभुसुण्डि कहते हैं—’मैं सदा आत्म-भाव में तन्मय रहता हूँ। मनोरथों में शक्ति नष्ट नहीं करता। चिन्ता और विषाद में नहीं फँसता। भविष्य के लिए आशंकाएँ नहीं करता। मन को आवेशग्रस्त नहीं होने देता। सबको समान मानता हूँ। मोह और प्रमाद से दूर रहता हूँ। बीती दुर्घटनाओं से दुखित नहीं रहता। दूसरों के सुख दुख में ही सुखी-दुखी होता हूँ। प्राणिमात्र के प्रति सुहृद सहायक रहता हूँ। विपत्ति में न धैर्य खोता हूँ और न सम्पत्ति से उन्मत्त बनता हूँ। यह मेरे दीर्घजीवन तथा अक्षययौवन का कारण है।

अकाल मृत्यु और रुग्णता का आधार शास्त्रकारों ने मानसिक असंतुलन को ही बताया है और कहा है जिसे दीर्घजीवन एवं समग्र आरोग्य अपेक्षित हो उन्हें अपने चिन्तन और चरित्र को परिष्कृत बनाने का पूरा-पूरा प्रयास करना चाहिए। इस संदर्भ में कुछ अभिवचन इस प्रकार हैं—

न देवानामति व्रतं शंतात्मा च न जीवित। —ऋग्वेद

देवताओं के नियमों का उल्लंघन करके कोई दीर्घजीवी नहीं हो सकता।

इह लोके विशुद्धा च कीर्तिरायुर्विवर्द्धिनी। —महाभारत

शुद्ध कीर्ति प्राप्त करने के साथ-साथ आयु भी बढ़ती हैं।

मृत्यो न किमच्छक्यं स्त्वमेको मारयितुँ बलात्। मारणीयस्य कर्माणि तर्त्कतुणीति नेतरत्॥

हे मृत्यु तू स्वयं अपनी शक्ति से किसी भी मनुष्य को नहीं मार सकती। लोग किसी दूसरे कारण से नहीं, अपने ही कर्मों से मरते हैं।

आचाराल्लभते ह्यायुराचारा दीप्सिता प्रजाः

आचाराद्धन मक्षप्य माचारो हन्त्य लक्षणम। —मनुस्मृति

आचार से दीर्घ आयु सुसन्तति और लक्ष्मी प्राप्ति होती हैं। आचार से अशुभ अनिष्ट दूर होते हैं।


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