और ब्रह्मवर्चस् कभी महत्व समझें

August 1974

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प्रकृति के अन्तराल में छिपी विद्युत शक्ति का परिचय शडडडड पूर्व लगा लिया गया है डडडड अब उसका उपयोग मनुष्य जीवन की घनिष्ट सहडडडड के रूप में किया जा रहा हैं कभी अग्नि की—पशु शक्ति की क्षमता को हस्तगत करके मनुष्य को बड़ा सन्तोष हुआ था, सचमुच उसकी प्रगति में इन दोनों ने बड़ा योगदान दिया। इन शताब्दियों में बिजली की शक्ति ने संसार के भौतिक विकास में असाधारण सहायता की है। भाप, तेल, गैस की सहायता से शक्ति प्राप्त करने की बात अब पिछले जमाने की बात हो गई। अगले दिनों अणु शक्ति और लेसर किरणों के प्रयोग को प्रधानता मिलने वाली है।

इन समस्त शक्ति स्रोतों से भी अद्भुत एक और शक्ति है जिसको और न जाने क्यों हमारा ध्यान गया ही नहीं। वह हैं—मानवी विद्युत। यह अधिक गहराई के साथ समझा जाना चाहिए कि प्राणियों के शरीरों में पाई जाने वाली विद्युत शक्ति ही उनके शरीर संस्थान को अधिक समर्थ एवं सुविकसित बना सकती है। कहना व होगा कि सुविकसित व्यक्तित्व संसार की समस्त शक्ति सम्पदाओं से हमारे लिए बढ़-चढ़कर उपयोगी सिद्ध हो सकता है। भौतिक जगत में अग्नि, भाप, गैस, तेल, बिजली, अणु विस्फोट, लेसर आदि का जो महत्व है उससे कहीं अधिक उपयोगिता सजीव प्राणियों के लिए उस बिजली की है जो उनका शरीर में पाई जाती है। मनुष्य में भी इस विद्युत शक्ति का अजस्र भण्डार भरा पड़ा है।

शरीर की संचार प्रणाली का मूल आधार क्या है? इसका डडडड माति सूक्ष्म कारण ढूँढ़ने पर वे शरीर डडडड डडडड निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पेशिया में काम करने वाले स्थिति तक ऊर्जा ‘पोटेन्शियल’ काडडडड था उसके साथ डडडड रहने वाले आवेश—इन्टेन्सिटी-कडडडड जीवन संचार में बहुत बड़ा हाथ है। इन विद्युत धाराओं का वर्गीकरण तथा नामकरण—सीफेलीट्र डडडड इजेमिल न्यूरैलाजिया की व्याख्या-चर्चा के साथ प्रस्तुत किया जाता है। ताप विद्युतीय संयोजन—थर्मोलैरिक कपलिंग—के शोधकर्ता अब इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मानव शरीर का सारा क्रिया कलाप इसी विद्युतीय संचार के माध्यम से गतिशील रहता है।

पृथ्वी के इर्द-गिर्द एक चुम्बकीय वातावरण फैला हुआ है। अकेला गुरुत्वाकर्षण कार्य ही नहीं उससे और भी कितने ही प्रयोजन पूरे होते हैं। यह चुम्बकत्व आखिर आता कहाँ से है-उसका उद्गम स्नोत कहाँ है? यह पता लगाने वाले इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि यह कोई बाहरी अनुदान नहीं वरन पृथ्वी के गहन अन्तराल से निकलने वाला शक्ति प्रवाह हैं।

लोहे की सुई यदि धागे में बाँधकर अधर लटकाई जाय तो उसका एक सिरा उत्तर की ओर दूसरा दक्षिण की ओर होगा। दिशा निर्देशक यन्त्र (कम्पास इसी आधार पर बनते हैं डडडड ही जीव-जन्तु अपने महत्वपूर्ण कार्य इसी चुम्बकीय प्रवाह के आधार पर पूरे करते रहते है। कितने ही पक्षी ऋतु परिवर्तन के लिए डडडड बन कर सहस्रों मील लम्बी उड़ाने मरते हैं। वे धरती के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जा पहुँचते है। इनकी उड़ाने प्राय रात में होती हैं। उस समय प्रकाश जैसी कोई इस प्रकार की सुविधा भी उन्हें नहीं मिलती जिसमें वे यात्रा लक्ष्य की दिशा जान सके। यह कार्य उनकी अन्तःचेतना पृथ्वी के इर्द-गिर्द फैले हुए चुम्बकीय घेरे में चल रही हलचलों के आधार पर ही पूरा करती हैं। इस धारा के सहारे वे इस तरह ही पूरा करती हैं। इस धारा के सहारे वे इस तरह उड़ते है मानो किसी सुनिश्चित सड़क पर बन रहे है।

टरमाइट कीड़ा अपने घरों का निर्माण तथा उनका प्रवेश द्वारा सदा निर्धारित दिशा में ही बनते है। इसके पीछे ही उनकी आन्तरिक सम्वेदना द्वारा पृथ्वी के चुम्बकीय प्रवाह को पहचानने की सफलता ही काम करणी है।

जैवसैलो का सूत्र विभाजन कार्य उसके मध्य बिन्दु में चलता है उसमें यही दिशा ज्ञान काम करता हैं। क्रोमो जोम की गति ‘सैल’ के मध्यवर्ती ध्रुव की दिशा की ओर रहती है। उसे दिशा ज्ञान कैसे रहता है? इस प्रश्न का उत्तर भी यही रहता है कि पृथ्वी के चुम्बकीय प्रवाह को हमारे जीव सैल की आन्तरिक सत्ता अनुभव कर सकती है और उसी आधार पर अपनी गतिविधि का निर्धारण कर सकती है।

चुम्बक और विद्युत यों प्रत्यक्षतः दो पृथक-पृथक सत्ताएँ है पर वे परस्पर अविछिन्न रूप से सम्बद्ध हैं और समयानुसार एक धारा का दूसरी में परिवर्तन होता रहता है। यदि किसी ‘सरकिट’ का चुम्बकीय क्षेत्र लगातार बदलते रहा जाय तो बिजली पैदा हो जायगी। इसी प्रकार लोहे के टुकड़े पर लपेटे हुए तार में से विद्युत धारा प्रवाहित की जाय तो वह चुम्बकीय शक्ति सम्पन्न बन जायगी।

मनुष्य शरीर में बिजली काम करती हैं यह सर्वविदित है। इलेक्ट्रो कार्डियोग्राफी तथा इलेक्ट्रोन इनसिफैलोग्राफी के द्वारा इस तथ्य को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। हमारी रक्त नलिकाओं में लौह युक्त ‘हिमोग्लोविन’ परस्पर चिपके रहते हैं, उसी प्रकार हमारी जीव सत्ता सभी जीव कोषों को परस्पर सम्बन्ध किये रहती है और उनकी संमिश्रित चेतना से वे समस्त क्रियाकलाप चलते हैं जिन्हें हम जीवन संचार व्यवस्था कहते हैं।

शरीर में चमक, स्फूर्ति, श्रम, रुचि, ताजगी, उमंग,उत्साह, शौर्य, साहस जैसी जो प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं उनके पीछे मानवी विद्युत की अभीष्ट मात्रा का होना ही आँका जा सकता है। मनस्वी, तेजस्वी, ओजस्वी, तपस्वी जैसे शब्दों से ऐसे ही लोगों को सम्बोधित किया जाता है। ऐतिहासिक व्यक्तियों की पंक्ति में ऐसे ही लोग खड़े होते हैं। भौतिक उपलब्धियां उन्हीं को पल्ले पड़ती हैं। यहाँ तक कि आतंकवादी खलनायक भी इसी शक्ति के सहारे अपने भयानक दुष्कर्मों में सफलता प्राप्त करते हैं। ऐतिहासिक महामानवों में से प्रत्येक को इसी अन्तः शक्ति का सहारा मिलता है और वे महान् कार्यों में साहसपूर्वक आगे बढ़ते चले जाते हैं।

मानवी शरीर के शोध इतिहास में ऐसी अनेक घटनाओं का उल्लेख है जिनसे यह सिद्ध होता है कि किन्हीं-किन्हीं शरीरों में इतनी अधिक बिजली होती है कि उसे दूसरे लोग भी आसानी से अनुभव कर सके। यों हमारा नाड़ी संस्थान पूर्णतया विद्युतधारा से ही सञ्चालित होता है। मस्तिष्क को जादुई बिजलीघर कह सकते हैं, जहाँ से शरीर के समस्त अंग-प्रत्यंगों की गतिविधियों का नियन्त्रण एवं सञ्चालन होता है। पर वह बिजली ‘जीव विद्युत’ वर्ग की होती है और इस तरह अनुभव में नहीं आती जैसी कि बत्ती जलाने या मशीनें चलाने वाली बिजली। शरीर में काम करने वाली गर्मी से विभिन्न अवयवों की सक्रियता रहती है और वे अपना-अपना काम करते हैं। यह कायिक ऊष्मा वस्तुतः एक विशेष प्रकार की बिजली ही है। इसे मानवी विद्युत कह सकते हैं। इतने पर भी वह यान्त्रिक बिजली से भिन्न ही मानी जायगी। वह अपना प्रभाव शरीर सञ्चालन तक ही सीमित रखती है। इससे बाहर उसका प्रभाव अनुभव नहीं किया जाता, किन्तु कुछ अपवाद ऐसे भी देखने में मिले हैं जिनमें शरीरगत ऊष्मा ने याँत्रिक बिजली की भूमिका निबाही है और उस व्यक्ति को एक चलता-फिरता बिजलीघर सिद्ध किया है।

मानवी शरीर की विलक्षणताओं की चर्चा करते हुए उन प्रामाणिक घटनाओं का उल्लेख अवसर किया जाता रहता है जिनकी यथार्थता सुविज्ञ लोगों ने पूरी जाँच पड़ताल के बाद घोषित की हैं। मनुष्य शरीर में भी याँत्रिक बिजली की आश्चर्यजनक मात्रा हो सकती है, इसके कितने ही उदाहरण सर्वविदित हैं। कोलोंराडी प्रान्त के लेडीवली नगर में के . डबल्यू. पी. जोन्स नाम का एक ऐसा व्यक्ति हुआ है जो जमीन पर चलकर यह बता देता था कि जिस भूमि पर वह चल रहा है उसके बीच किस धातु की—कितनी गहरी तथा कितनी बड़ी खदान है। उसे जमीन में दबी भिन्न धातुओं का प्रभाव अपने शरीर पर विभिन्न प्रकार के स्पन्दनों से होता था। अनुभव ने उसे यह सिखा दिया था कि किस धातु का स्पन्दन कैसा होता है। अपनी इस विशेषता का उसने भरपूर लाभ उठाया। कइयों को खदानें बता कर उनसे हिस्सा लिया और कुछ खदानें उसने अपने धन से खरीदीं और चलाई। अमेरिका का यह बहुत धन-सम्पन्न व्यक्ति इसी अपनी विशेषता के कारण बना था।

आयरलैंड के प्रो. वैरेट इस बात के लिए प्रख्यात थे कि वे भूमिगत जलस्रोतों तथा धातु खदानों का पता अपनी अन्तःचेतना से देखकर बता देते थे। इस विशिष्टता से उन्होंने अपने देशवासियों को बहुत लाभ पहुँचाया था। आस्ट्रेलिया का एक किसान भी पिछली शताब्दी में इस विद्या के लिए प्रसिद्धि पा चुका है, वह दो शंकु वाली टहनी हाथ में लेकर खेतों में घूमता फिरता था और जहाँ उसे जलस्रोत दिखाई पड़ता था वहाँ रुक जाता था। उस स्थान पर खोदे गये कुओं में प्रायः पानी निकल ही आता था। भारत के राजस्थान प्रान्त में एक पानी वाले महाराज जिन्हें माधवनन्द जी कहते थे अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर कितने ही सफल कुएँ बनवा चुके थे।

भूमिगत अदृश्य वस्तुओं को देख सकने की विद्या को रेब्डोमेन्सी कहते है। इस विज्ञान की परिधि में जमीन में दबे खनिज रसायन, जल, तेल आदि सभी वस्तुओं को जाना जा सकता है। किन्तु यदि केवल जल तलाश तक ही वह सीमित हो तो उसे ‘वाटर डाउनिग कहेंगे।

आयरलैंड के विकलो पहाड़ी क्षेत्र में दूर-दूर तक कहीं पथरीली थी। प्रो. वेनेट ने खदान विशेषज्ञों के सामने अपना प्रयोग किया वे कई घण्टे उस क्षेत्र में घूसे अन्ततः वे एक स्थान पर रुके और कहा—केवल 14 फुट गहराई पर यहाँ एक अच्छा जलस्रोत हैं। खुदाई आरम्भ हुई और पूर्व कथन बिलकुल सच निकला। 15 फुट जमीन खोदने पर पानी की एक जोरदार धारा वहाँ से उबल पड़ी।

मनुष्येत्तर अन्य प्राणियों में भी यह विद्युत शक्ति पाई जाती है, उनके शरीर में, मस्तिष्क में ऐसे विशिष्ट अवयव पाये जाते हैं जिनमें शरीरगत विद्युत अपना काम करती है और वे आश्चर्यजनक जीवन पद्धति अपनाये रहते हैं। वैज्ञानिकों ने इसी अद्भुत संरचना को देख-परखकर उसकी नकल के सहारे कुछ ऐसे आविष्कार किये है जो अपनी उपयोगिता के लिए प्रख्यात हैं।

मधुमक्खियों की नेत्र रचना देखकर विज्ञानवेत्ता पोलारायड ओरिसन्टेशन इंडिकेटर नामक यन्त्र बनाने में समर्थ हुए हैं। यह ध्रुव प्रदेश में दिशा ज्ञान का सही माध्यम है। उस क्षेत्र में साधारण कुतुबनुमा अपनी उत्तर, दक्षिण दिशा बताने वाली विशेषता खो बैठते हैं तब इसी यन्त्र के सहारे उस क्षेत्र के यात्री अपना काम चलाते है।

समुद्री तूफान आने से बहुत पहले ही समुद्री बतके आकाश में उड़ जाती हैं और तूफान क परिधि के क्षेत्र से बाहर निकल जाती हैं। डालफिन मछलियाँ चट्टानों में जा छिपती हैं, तारा मछली गहरी डुबकी लगा लेती हैं और ह्वेल उस दिशा में भाग जाती हैं, जिसमें तूफान न पहुँचे। यह पूर्व ज्ञान इन जल-जन्तुओं का जितना सही होता है उतना ऋतु विशेषज्ञों के बहुमूल्य उपकरणों को भी नहीं होता। मास्को विश्व-विद्यालय ने इन्हीं जल जन्तुओं के अत्यन्त सूक्ष्म सूचना ग्राहक कानों की नकल पर ऐसे यन्त्र बनाये हैं जो अन्तरिक्ष में होने वाली अविज्ञात हलचलों की पूर्व सूचना संग्रह कर सकें। ऐसा अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि प्रवाहों को सुन समझ लेने से ही सम्भव होता है।

जीव-जंतुओं की विशिष्ट क्षमताओं का आधार उनकी ऐसी संरचना में सन्निहित है जो मनुष्यों के हिस्से में नहीं आई है। अब विज्ञान मनुष्येत्तर विभिन्न प्राणियों की शारीरिक एवं मानसिक संरचना में जुड़ी हुई अद्भुत विशेषताओं को खोजने में संलग्न है। इसका एक स्वतन्त्र शास्त्र ही बन गया है जिसका नाम है—’वायोनिक्स’। इसे स्पेशल पर्पस मैकेनिज्म-विशेषोद्देश्य व्यवस्थाएँ भी कहा जाता है।

किसी अँधेरे कमरे में बहुत पतले ढेरों तार बँधे हों उसमें चमगादड़ छोड़ दी जायें तो वह बिना तारों से टकराये रात भर उड़ती रहेंगी। ऐसी इसलिए होता है कि उसके शरीर से निकलने वाले कम्पन तारों से टकरा कर जो ध्वनि उत्पन्न करते हैं उन्हें उसके संवेदनशील कान सुन लेते है और यह बता देते हैं कि तार कहाँ बिखरे पड़े हैं। बिना आँखों के ही उसे इस ध्वनि माध्यम से अपने क्षेत्र में बिखरी पड़ी वस्तुएँ दीखती रहती है।

मेढ़क केवल जिन्दा कीड़े खाता है। उसके सामने मरी और जिन्दी मक्खियों का ढेर लगा दिया जाय तो उनमें से वह चुन-चुनकर केवल जिन्दा मक्खियाँ ही खायेगा। इसका कारण मृतक या जीवित माँस का अन्तर नहीं वरन् यह है कि उसकी विचित्र नेत्र संरचना केवल हलचल करती वस्तुएँ ही देख पाती है स्थिर वस्तुएँ उसे दीखती ही नहीं। मेरी मक्खी को किसी तार से लटका कर हिलाया जाय तो वह उसे खाने के लिए सहज ही तैयार हो जायगा।

उल्लू की ध्वनि सम्वेदना उसके शिकार का आभास ही नहीं कराती ठीक दिशा दूरी और स्थिति भी बता देती हैं फलतः वह पत्तों के ढेर के नीचे हलचल करते चूहों पर जा टूटता है और एक ही झपट्टे में उसे ले उड़ता है।

गहरी डूबी हुई पनडुब्बियों में रेडियो संपर्क निरंतर कायम रखना कई बार बड़ा कठिन होता है क्योंकि प्रेषित रेडियो तरंगों का बहुत बड़ा भाग समुद्र का जल ही सोख लेता है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए मछली में सन्निहित उन विशेषताओं को तलाश किया जा रहा है, जिसके आधार पर वह जलराशि में होने वाली जीव जन्तुओं की छोटी-छोटी हलचलों को जान लेती हैं और आत्मरक्षा तथा भोजन व्यवस्था के प्रयोजन पूरे करती हैं।

रैटलसाँप तापमान के अत्यन्त न्यून अन्तर को जान लेता है। चूहे, चिड़िया आदि के रक्त का तापमान अत्यन्त नगण्य मात्रा में ही भिन्न होता है, पर यह साँप उस तापमान के अन्तर को जानकर अपना प्रिय आहार चुनता है। यह कार्य वह गन्ध के आधार पर नहीं अपने ताप मापक शरीरी अवयवों द्वारा पूरा करता है। वैज्ञानिकों ने इसी संरचना को ध्यान में रखते हुए इन्फ्रारेड किरणों का उपयोग करके तापमान के उतार चढ़ावों का सही मूल्यांकन कर सकने में सफलता प्राप्त की है।

पनडुब्बियों को पानी के भीतर देर तक ठहरने के लिए आक्सीजन की अधिक मात्रा अभीष्ट होती है और बनने वाली कार्बन-डाइ-आक्साइड को बाहर फेंकने की जरूरत पड़ती है। यह दोनों कार्य पानी के भीतर ही होते रहें तभी उसका अधिक समय समुद्र में रह सकना सम्भव हो सकता है। मछली पानी से ही आक्सीजन खींचती है और उसी में अपने शरीर की कार्बन गैस खपा देती है। यह पनडुब्बियों के लिए भी सम्भव हो सके इसका रास्ता मछलियों की संरचना का गहन अध्ययन करने के उपरान्त ही प्राप्त किया जा सकता है।

हवाई जहाजों की बनावट में पिछले चालीस वर्षों में अनेकों उपयोगी सुधार किये गये हैं। उसके लिए विभिन्न पक्षियों की संरचना और क्षमता का गहरा अध्ययन करने में विशेषज्ञों को संलग्न रहना पड़ा है। भुनगों की शरीर रचना के आधार पर वायुयानों में दूरदर्शन के लिए प्रयुक्त होने वाला एक विशेष यंत्र ‘ग्राउण्ड स्पीड मीटर’ बनाया गया है। भुनगों के आंखें नहीं होती वे अपना काम विशेष फोटो सेलों से चलाते हैं। वही प्रयोग इस यन्त्र में हुआ है अटलांटिक सागर के आर-पार रेडियो प्रसारणों को ठीक तरह पहुँचाने का रास्ता बतलाने में जिन कम्प्यूटरों का प्रयोग होता है वे कई बार असफल हो जाते हैं क्योंकि मौसम की प्रतिकूलता रेडियो तरंगों में व्यवधान उत्पन्न करती है, अस्तु ध्वनि प्रवाह के लिए नये रास्ते ढूँढ़ने पड़ते हैं। इस कार्य के लिए चींटी की मस्तिष्कीय संरचना अधिक उपयुक्त समझी गई है। वैज्ञानिकों का कहना है कि चींटी के मस्तिष्क की तुलना में हमारे वर्तमान कम्प्यूटर अनपढ़ बालकों की तरह पिछड़े हुए हैं।

मानवी विद्युत को अध्यात्म विज्ञान में ओजस्, तेजस् एवं ब्रह्मवर्चस, कहा गया है। इसे विकसित करने की प्रक्रिया योग-साधना एवं तपश्चर्या के नाम से प्रसिद्ध है। ब्रह्मविद्या में इसी ‘चित् शक्ति ‘ के विकास पर जोर दिया गया है और कहा गया हैं कि मनुष्य शरीर में सन्निहित प्रकट और अप्रकट रहस्यमय शक्ति संस्थानों को जागृत करके मनुष्य देवस्तर की विशेषताओं से सम्पन्न हो सकता है। भौतिक जगत के विकास प्रयोजनों में बिजली का जो उपयोग है उससे कहीं अधिक उपयोगिता व्यक्तित्व के समग्र विकास में मानवी विद्युत की है। उसका स्वरूप, आधार और उपयोग जानने के लिए हमें विशेष उत्साहपूर्वक प्रयत्न करने चाहिए।


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