सज्जनता के साथ समर्थता भी जुड़ी रहे

August 1974

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यह सही है कि सज्जनता मानव−जीवन की अमूल्य निधि है। सज्जनता का प्रतिफल सुगन्धित पुष्पों से सुमधुर फलों से लदे पेड़−पौधों के रूप में सामने आता है। व्यक्तित्व को श्रेष्ठ और महान् बनाने का अवसर सज्जनता ही प्रदान करती है। सद्गुणों और सत्कर्मों की परम्परा का विकास सज्जनता के क्षेत्र में ही होता है।

किन्तु साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि एकांगी सज्जनता अपर्याप्त और अपूर्ण है। उसके साथ यह व्यवस्था रहनी चाहिए कि दुष्ट दुर्जनता के प्रकोप से सज्जनता के उद्यान को बचाया जा सके। खेत में फसल उगाने वाले किसान और फलों का उद्यान पर भी उतना ही ध्यान देते हैं जितना कि पौधे की सिंचाई पर।

यदि बाड़ न लगाई जाय तो जंगली जानवरों के झुण्ड उस हरियाली पर ललचाते हुए हमला बोल देंगे और एक ही रात में उस सारे प्रयत्न को मटियामेट कर देंगे जो लगातार बहुत समय तक मनोयोग पूर्वक श्रम करके उत्साह वर्धक फसल के रूप में सामने खड़ा था। यह सोचना बेकार है कि हम सज्जन हैं तो सारी दुनिया सज्जन ही रहेगी। इस संसार में भले और बुरे तत्व अनादि काल से हैं और दोनों में संघर्ष क्रम भी पुरातन है। इसलिए दुष्टता द्वारा सज्जनता पर आक्रमण होने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। असुरों द्वारा देवों पर अकारण आक्रमण करते रहने के घटना क्रम से पुराणों, इतिहासों के पन्ने रँगे पड़े हैं। अब भी वही क्रम चल रहा है और आगे भी चलेगा।

किसान और माली की समझदारी से हर सज्जनता प्रेमी को बहुत कुछ सीखना चाहिए। जानवर आक्रमण करेंगे ही—फसल चौपट होगी ही—यह सोचकर कोई किसान न तो फसल बोना बन्द करता है और न कोई माली पौधे लगाने से हाथ खींचता है। यह आवश्यक है, क्योंकि संपन्न श्रीवृद्धि के लिए उस उत्पादन उपार्जन के बिना काम चल ही नहीं सकता। जानवर अपनी आदत छोड़ देंगे, फसल पर हमला न करेंगे यह आशा करना व्यर्थ है। कृषि और उद्यान के आरोपण का क्रम भी समाप्त नहीं किया जा सकता। बीच का मार्ग एक ही है कि भेड़ पर मजबूत और कँटीली बाड़ लगाकर सुरक्षा को तोड़कर भीतर न घुस सके यदि घुसने का दुस्साहस भी करे तो बाड़ में लगे हुए काँटे उन्हें लोहू−लुहान करते हुए पीछे लौटने के लिए बाध्य करदें।

भलमनसाहत की अपनी उपयोगिता और महत्ता है। उदर सहयोग का अपना स्थान है किन्तु यह भूल नहीं जाना चाहिए कि वह इतना भावुक और इतना मृदुल नहीं होना चाहिए कि आक्रमणकारी उसका अनुचित लाभ उठाने के लिए लालायित रहने लगे और निर्बाध रीति से उल्लू सीधा हो जाने की बात सोचने लगे। सज्जनता के साथ समर्थता जुड़ी होनी चाहिए।

सज्जन का जागरूक एवं साहस भी आवश्यक है। कहाँ उदारता का व्यवहार होना चाहिए और कहाँ कठोरता का—किस पर विश्वास किया जाना चाहिए—किस पर अविश्वास। इस अन्तर को समझे बिना यदि हर किसी के साथ—हर समय उदारता ही बरती जायगी तो उसे अपूर्ण, अधूरी, अविकसित, असमर्थ एवं एकाँगी सज्जनता ही कहा जायगा। इससे घाटे में भी रहना पड़ सकता है और मूर्ख भी बनना पड़ सकता है।

हम सज्जन बनें। शालीनता सीखें। सद्व्यवहार को स्वभाव का एक अंग बनायें जहाँ आवश्यकता हो सेवा और उदारता का भी परिचय दें। उदारता, आत्मीयता बरतना और दूसरों का विश्वास करना भी बुरा नहीं है। पर यह सब एकाँगी नहीं होना चाहिए। हमें पैनी दृष्टि से यह भी देखना चाहिए कि कहीं हमारी सज्जनता को आक्रमणकारियों द्वारा कमजोर तो नहीं मान लिया गया है और वे इसी आधार पर लूट−खसोट के लिए प्रोत्साहित तो नहीं हो रहे हैं। सज्जनता के साथ शारीरिक बल, मनोबल, संगठन बल के वे सभी आधार जुड़े रहने चाहिए जो दुर्जनों को सज्जन बनने के लिए विवश कर सकें।

माँसाहार मनुष्य की आत्मिक और शारीरिक दोनों ही प्रकृतियों के विपरीत है। मानवी अन्तरात्मा दयालुतत्वों से बनी हुई है किसी कष्ट पीड़ित को देखकर उसमें सहज करुणा उत्पन्न होती है। दूसरों के दुख में दुखी और दूसरों के सुख में सुखी होने की उसकी आन्तरिक विशेषता है। इसे वह हटा−मिटा नहीं सकता।

प्राणियों का प्राणहरण करके अपने लिए भोजन जुटाने में उसकी आत्म−सत्ता व्यथित एवं उद्विग्न ही हो सकती है। स्वाद, बल आदि का कोई भी बहाना क्यों न बनाया जाय आत्मग्लानि और आत्मप्रताड़ना को शान्त नहीं किया जा सकता है। जबकि माँस से स भी अधिक बलवर्धक और स्वाद परक पदार्थ संसार में प्रचुर परिमाण में एवं सस्ते मूल्य में उपलब्ध हैं तब माँस की ओर लपकना केवल आसुरी वृत्ति को तुष्ट करना ही एकमात्र कारण हो सकता है। ऐसे लोगों की अन्तःचेतना सदा अपने को अपराधी ही अनुभव करती रहेगी। पुण्य−पाप की मान्यता मात्र धार्मिक सिद्धान्तों के आधार पर ही नहीं मनःशास्त्र के आधार पर भी खरी सिद्ध होती है। आत्म−हनन करने वाले अनेक अप्रत्यक्ष आधारों पर आधि−व्याधियों से ग्रसित होते रहते हैं और अपने कुकर्मों का समुचित दण्ड भोगते रहते हैं।

भौतिक दृष्टि से — शरीर रचना के साथ आहार की संगति बिठाने वाली प्रकृति व्यवस्था की दृष्टि से भी मांसाहार मनुष्य प्राणी के लिए किसी भी प्रकार उपयुक्त नहीं बैठता। मनुष्य की शरीर रचना शाकाहारी प्राणियों जैसी है माँसाहारियों जैसी नहीं।

माँस पौष्टिक और मनुष्य के लिए उपयोगी खाद्य−पदार्थ इस मूढ़ मान्यता को अब वैज्ञानिक शोधें निरन्तर झुठला रही हैं और बता रही हैं कि वह अखाद्य है, अभक्ष्य है। इसे खाकर लोग स्वास्थ्य बढ़ाते नहीं गँवाते हैं।

अमेरिका के आहार शास्त्री एल. एच. एन्डरसन ने अपने भोजन विज्ञान सम्बन्धी ग्रन्थ में लिखा है—”हम सभ्यताभिमानियों के हाथ, मूक और उपयोगी पशुओं के रक्त से रंगे है। हमारे माथे पर उनके खून का कलंक है। हमारा पेट एक घिनौना कब्रिस्तान है। शरीर की दुर्गन्ध हमारे मुख से निकल रही है। क्या यही मानवोचित आहार है। आहार के नाम पर परमात्मा की हँसती−खेलती कृतियों को चीत्कार भरे क्रन्दन में धकेल देना यह भूख बुझाना नहीं, राक्षसी वितृष्णा का परिपोषण करना है।

मनुष्य की प्रकृति शाकाहारी है या माँसाहारी इसका पता लगाना हो तो उसकी शरीर रचना पर ध्यान देना होगा। शाकाहारी प्राणियों की आँतें लम्बी होती हैं और माँसाहारियों की अपेक्षाकृत छोटी। मनुष्य की आँतें बन्दर जैसे शाकाहारियों के स्तर की होती हैं। शाकाहारियों की आँतें उनके शरीर की लम्बाई में 22 प्रतिशत होती हैं और माँसाहारियों की 5 प्रतिशत। अन्नाहार करते मनुष्य की आँतें घास खाने वालों की तुलना में कुछ छोटी अवश्य हो गई हैं फिर भी 12 प्रतिशत से कम नहीं होतीं। ऐसी दशा में उसे माँसाहारी वर्ग में नहीं गिना जा सकता।

माँसाहारियों के दाँत लम्बे नुकीले और कुछ पीछे की ओर मुड़े होते हैं ताकि वे शिकार को पकड़ने और मारने में सफल हो सकें। उनके जबड़े ऊपर नीचे उठ बैठ सकते हैं इधर−उधर घूम नहीं सकते। उनकी लार में स्टार्च पचाने के लिए आवश्यक एनजीम और टियालिन बहुत कम होते हैं। इसमें स्थान पर उनकी पाचन ग्रन्थियों में हाइड्रोक्लोरिक एसिड मिला रहता है इसके कारण शिकार की हड्डियां भी माँस की तरह ही लचीली बन जाती हैं शिकारियों की दाढ़ें अधिक होती हैं ताकि वे वनस्पति आहार को चबा सकें। इन कसौटियों पर कसने में मनुष्य विशुद्ध शाकाहारी सिद्ध होता है उसकी शरीर रचना में प्रकृति ने एक भी विशेषता वैसी पैदा नहीं की है जो माँसाहारियों में पाई जाती है।

माँसाहारी प्राणियों के बच्चे आँख मूंदे पैदा होते हैं। शाकाहारियों की आँखें खुली होती हैं।

माँसाहारियों के शरीर से पसीना नहीं निकलता उनकी जीभ तथा पैरों के तलवों से पसीना आता है।

मांसाहारी जीभ से चाट−चाटकर पानी पीते हैं और शाकाहारी घूँट−घूँटकर पीते हैं। उनकी आंखें इस तरह बनी होती हैं कि अन्धेरे में भली प्रकार देख सकें। शाकाहारी जैसा दिन में देख पाते हैं वैसा उनकी आंखें अंधेरे में चमकती हैं, शाकाहारियों की नहीं।

शाकाहार और माँसाहार का तुलनात्मक अध्ययन करने में अपने जीवन का बहुत बड़ा भाग लगा देने वाले योरोपीय शोधकर्ताओं में डा. होग, प्रो.वेल्ब, एफ. ई. निकलस, एरनाल्ड इहरिट, के नाम प्रख्यात हैं। उनने अपने निष्कर्षों में एक स्वर से स्वीकार किया है कि माँसाहार की पुष्टाई और उपयोगिता के बारे में जो अन्ध−विश्वास फैला हुआ है वह निरर्थक है। शाकाहार की तुलना में वह कहीं अधिक दुष्पाच्य है साथ ही उससे जो कुछ शरीर को प्राप्त होता है वह स्तर की दृष्टि से बहुत ही घटिया होता है और विजातीय द्रव्य में परिणत होकर नाना प्रकार के अस्वास्थ्य कर उपद्रव खड़े करता है।

माँसाहार के पक्ष में यह दलील दी जाती है कि उसमें प्रोटीन और चिकनाई अधिक रहने से वह शरीर के लिए अधिक पोषक सिद्ध होता है यह दोनों तत्व ऐसे हैं जो कतिपय शाकाहारी खाद्य पदार्थों में माँस से भी कहीं अधिक मात्रा में रहते हैं। वनस्पति वर्ग अपने एनीयोएसिडो के सहारे ही तो प्राणियों को प्रोटीन प्रदान करता है। वही अनुदान वह सीधा मनुष्यों को भी देता है। माँस खाकर जिन तत्वों को प्राप्त करने की बात कही जाती है वे सभी वनस्पति वर्ग से उसी प्रकार प्राप्त किये जा सकते हैं जिस प्रकार माँस के लिए मारे गये पशुओं से प्राप्त किया था।

सीधी प्रोटीन या सीधी चर्बी खाकर हम उन्हें पचा नहीं सकते हैं। उपयुक्त पाचन के लिए दो बातों की आवश्यकता है, एक तो यह कि वे आहार के साथ उचित अनुपात में घुले मिले हो दूसरे यह कि उनके साथ खनिज, विटामिन, कार्बोहाइड्रेट आदि आवश्यक रसायनों का समुचित सम्मिश्रण हो। इस स्थिति के खाद्य−पदार्थ ही पेट के पाचक रसों के साथ मिलकर पचने योग्य बनते हैं। सीधी चिकनाई लाने लगें तो अपच हो जायगा इसी प्रकार अनुपात से अधिक मात्रा में खाई गई प्रोटीन भी दुष्पाच्य होगी और उसका अनावश्यक भार पेट पर पड़ेगा। माँस में प्रोटीन और वसा की मात्रा अधिक तो अवश्य होगी है पर उनका सन्तुलन मनुष्य के पेट के उपयुक्त न होने से वह लाभ नहीं मिलता जो माँसाहारी प्राणी उन्हें ठीक प्रकार पचा कर प्राप्त कर सकते हैं।

माँस एसिड वर्ग का आहार है। उससे शरीर में खटाई बढ़ती है। शाकाहारी खाद्य अलक्लाइन वर्ग में आता है। मनुष्य शरीर में क्षार वर्ग अधिक होना चाहिए न कि खटाई वर्ग। एसिड बढ़ने से पेट में सड़न पैदा होती है और उससे कितने ही प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं।

अपनी मौत मरे हुए प्राणियों का माँस अखाद्य समझा जाता है क्योंकि उसमें सड़न उत्पन्न हो जाती है। पर यह सड़न तो वध करने के उपरान्त काटे हुए माँस में भी उत्पन्न हो जाती है। तत्काल काटे हुए माँस में सड़न न होने की बात भी कही जा सकती है पर जिसे काटे हुए कई घण्टे या कई प्रहार हो गये उसकी स्थिति और अपनी मौत मरे माँस की स्थिति में कोई खास फर्क नहीं होता। सड़न के सारे चिह्न कसाई की दुकान में टाँगे माँस में भी आसानी से देखे जा सकते हैं।

बाहर से स्वस्थ दीखने वाले मनुष्यों के शरीर में कितने ही प्रकार के रोग कीटाणु पाये जाते हैं। बाहर से मोटा दीखने वाले पशु के शरीर की आन्तरिक स्थिति सर्वथा निरोग होगी, यह नहीं कहा जा सकता। यदि उसमें कोई रोग थे तो निश्चय ही वे माँस खाने वालों के शरीर में प्रवेश करेंगे और उसे बीमारियों से ग्रसित बना देंगे।

प्राणियों के शरीर में मलविसर्जन की क्रिया निरन्तर होती रहती है। साँस, पसीना तथा इन्द्रिय छिद्रों से निकलने वाले मल शरीर की विषाक्त ता को बाहर करते रहते हैं। मोटे तौर से 60 प्रतिशत उपयोगी अंश और 40 प्रतिशत बाहर फेंकने योग्य विकृत पदार्थों की मात्रा शरीर में भरी रहती है। काटे जाते समय जितना विषाक्त अंश भरा ही रहता है जिसे काटने के बाद बाहर निकलने का अवसर नहीं मिलता। अस्तु माँस में 40 प्रतिशत विषाक्त एवं मल वर्ग का पदार्थ भी विभिन्न नस−नाड़ियों में भरा रहता है। खाने वालों की जहाँ 60 प्रतिशत पोषक पदार्थ मिल सकते हैं वहाँ मात्रा से भी सीमित लाभ ही मिलता है किन्तु विषैली वस्तुओं की तनिक सी मात्रा भी शरीर में पहुँच कर भयंकर उत्पन्न कर देती है।

आहार विद्या विशेषज्ञ डा. एम. बी. गंडी का कथन है माँस में रहने वाली चर्बी ऐसे तत्वों से भरी होती है, जो मनुष्य शरीर में प्रवेश करने के बाद कितने ही प्रकार की विकृतियाँ खड़ी करते हैं। डाक्टर वाल्डेन ने योरोप में बहुप्रचलित शूकर माँस के विरुद्ध चेतावनी दी है और कहा है−उसमें रहने वाले ‘ट्रिकीनोसिस कृमि’ पकाने के बाद भी जीवित रहते हैं और खाने वाले के शरीर में प्रवेश करके स्नायविक बीमारियाँ पैदा करते हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय शाकाहार संघ के उपाध्यक्ष डाक्टर वुडलेण्ड ने एक योजना बनाई थी कि स्वास्थ्य प्रदर्शिनियों का संसार भर में आयोजन किया जाय और उनके दरवाजे पर हाथी खड़ा करके दर्शकों को यह बताया जाय कि यह संसार का सबसे बलिष्ठ प्राणी विशुद्ध शाकाहारी होता है।

जर्मनी के रेगन्सवर्ग और आग्सवर्ग स्थानों पर स्वास्थ्य विशेषताओं के दो बार हुए सम्मेलनों में उपयुक्त आहार विषयक चर्चा में इसी बात पर जोर दिया गया कि जिन्हें शारीरिक श्रम कम करना पड़ता है ऐसे बुद्धिजीवियों को चिकनाई कम मात्रा में ही सेवन करनी चाहिए।

माँस के बारे में सम्मेलनों का बहुमत इसी पक्ष में था कि उसमें पाया जाने वाला ‘कोलोस्टरेन पदार्थ रक्त में चिकनाई ही नहीं कैल्शियम की भी अनावश्यक मात्रा बढ़ा देता है। जो सन्तुलित स्वास्थ्य की दृष्टि से अहितकर है।

एलेजिन विश्व−विद्यालय बवेरिया के प्रो. हीनिंग और प्रो.स्कोइन का कथन है कि—माँस की तुलना में सोयाबीन गेहूँ, काजू आदि से प्राप्त की गई चिकनाई कहीं अधिक सुपाच्य एवं निर्दोष होती है।

सर्वविदित है कि प्राणियों के शरीर में निरन्तर विष उत्पन्न होते हैं और वे साँस, श्वेद मल−मूत्र एवं अन्याय छिद्रों द्वारा बाहर निकलते रहते हैं। निकलने का अर्थ यह नहीं कि वे पूर्णतया बाहर निकल जाते हैं। जितना अंश निकलता है उससे कई गुना भीतर भरा रहता है जो नये उत्पन्न होने वाले मल द्वारा धकेले जाने पर समयानुसार बाहर निकलता है। आँतों में विशेषता बड़ी आँत में जो मल रहता है उसमें सड़न की काफी अम्लता रहती है। वहीं प्रायः अनेक प्रकार के विषाणु पलते रहते हैं। मूत्राशय का भी यही हाल है। मल−मूत्र स्वयं गन्दे और विषैले रहते हैं जहाँ वे भरे रहते हैं वे स्थान भी मलगृह,मूत्रगृह की तरह ही गंदगी और विषाक्त ता से भरे रहते हैं। उनका प्रभाव शरीर के अन्य अंगों पर भी पड़ता ही है। इन सब कारणों से शरीर के भीतर उत्पन्न और सञ्चित मलों का एक बड़ा भण्डार भरा रहता है। उनकी छाया माँस पर रहती ही है।

माँस निर्दोष या निर्विष खाद्य−पदार्थ नहीं है, पर सर्वविदित हैं। मनुष्यों की तरह पशुओं के शरीर में भी रोग कीटाणु भरे रहते हैं और उनका निवास माँस में अधिक स्थायित्व के साथ रहता है। इसके खाने−वाले उससे बिना प्रभावित हुए नहीं रह सकते। पशु−वध के उपरान्त तो मृत शरीर में यह सड़न और भी तीव्रता के साथ बढ़ती है। कुछ घण्टे पश्चात् ही उसमें सड़न के लक्षण प्रकट होने लगते हैं जो धीरे−धीरे बढ़ते हुए उसे पूर्णतया अखाद्य बना देते हैं। तत्काल का काटा हुआ माँस ही जब विष भंडार होता है तो वह जितनी देर रखे हुए हो जायगी उतना ही वह और भी अधिक विषैला होता चला जायगा।

डा. रोगर ने माँसाहार और शाकाहार की प्रतिक्रियाओं पर अनेक प्रयोग किये हैं। उन्होंने कुछ चूहों को अनाज पर और कुछ को माँस पर रखा। माँसाहारी सूजा हुआ पाया गया जबकि अन्नाहारी चूहे पूर्ण स्वस्थ थे।

माँस में प्रोटीन तो है, पर सोयाबीन के बराबर नहीं। उसमें कैल्शियम और लोहे की मात्रा भी बहुत स्वल्प है। लोहे का अधिक भाग रक्त में रहता है जो काटने के साथ ही बहकर निकल जाता है। कैल्शियम हड्डियों में रहता है जो खाई नहीं जाती। माँस में उतना ही लोहा है जितना उतने वजन के पालक में। खजूर,अञ्जीर,चोकर, किशमिश आदि में तो माँस से भी कहीं अधिक लोहा है। कैल्शियम अधिक से अधिक इतना होता है जितना मैदे की रोटी में।

कभी−कभी लोग अर्थशास्त्र की दुहाई देते हुए यह कहते हैं कि खाद्य समस्या हल करने के लिए—अन्न की बचत करने के लिए माँसाहार की उपयोगिता है। यह दलील भी नितान्त लचर है। माँस खाने के लिए जो पशु पाले जाते हैं वे उतनी जमीन की उपज उदरस्थ कर देते हैं जितनी से माँस की तुलना में कहीं अधिक अनाज उत्पन्न किया जा सकता है। प्रो. रिचार्ड बी. ग्रेक ने विस्तृत सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष निकाला है कि शाकाहारी व्यक्ति के लिए डेढ़ एकड़ जमीन से गुजारे के लायक खाद्य सामग्री प्राप्त हो जाती है, जबकि माँसाहारी के लिए ढाई एकड़ प्रति व्यक्ति चाहिए। कारण यह है कि पशु मनुष्य की तुलना में प्रायः बीस गुना भोजन करते हैं। वे अपने जीवन काल में जितना चारा खाते हैं उसका दो हजार वाँ भाग ही खाने योग्य माँस दे पाते हैं। काटने पर भी उनका 65 प्रतिशत भाग तो चमड़ी, हड्डी, सींग, खुर, आँतें, रक्त, मल आदि भाग अखाद्य रहता है। खाने योग्य माँस तो प्रति पशु बीस किलो के लगभग ही पड़ता है। इस प्रकार माँस की दृष्टि से पाले गये अधिक भूमि की उपज खाते हैं और स्वल्प मात्रा में खाद्य उत्पन्न करते है। अतएव वे खाद्य समस्या को सुलझाते नहीं वरन् उलझाते हैं।

अण्डे के बहुत गुण गान किये जाते हैं पर यह स्पष्ट है कि उसका सफेदी वाला भाग जो 60 से 70 फीसदी तक होता है वह आमाशय और आँतों में पहुँचकर सड़न उत्पन्न करता है। आमाशय के रस स्राव को कुण्ठित करता है और पेप्सिन के प्रतिकूल, प्रतिक्रिया होती है उतना ही दूध,हरी सरसों की पत्ती, सन्तरा, सहजन, गाजर, शलजम, पालक में भी आसानी से ही पाया जा सकता है। उनके द्वारा इन वस्तुओं को प्राप्त करना अपेक्षाकृत सुपाच्य ही रहता है।

माँसाहार की प्रकृति को ‘गुनाह बेलज्जत’ उक्ति के साथ जोड़ा जा सकता है। उससे आत्मिक, शारीरिक आर्थिक हर प्रकार की हानि ही हानि है। स्वाद तो सिर्फ मसालों का होता है। माँस का मूल स्वरूप तो इतना अधिक कुरुचि पूर्ण, दुर्गन्ध युक्त तथा बुरे स्वाद का होता है कि उसे खाना तो दूर देखना तक मनुष्य की आंखें पसन्द नहीं करती। हर दृष्टि से अनुपयोगी पदार्थ को अपनी प्रकृति में सम्मिलित करके न जाने हम क्या लाभ देखते और सोचते हैं।


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