वन्य प्राणियों का दुःखद महाविनाश

August 1974

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पशुओं की रक्षा, प्राणि जगत के सन्तुलन को स्थिर रखने के लिए आवश्यक है। सिंह,व्याघ्र आदि हिंस्र जन्तुओं की असन्तुलित अभिवृद्धि को प्रकृति, प्रकोप के माध्यम से स्वयं ही नियन्त्रित करती रहती है। यदि मनुष्य उनके विनाश पर उतर पड़े तो फिर न केवल यह धरती का आँगन इन चलते−फिरते खिलौने से रहित होकर सौंदर्य हीन हो जायगा, वरन् प्राणि जन्य सन्तुलन बिगड़ जाने से अन्य अनेक प्रकार के संकट आ खड़े होंगे। पशुओं के खुरों से, पंजों से वन्य प्रदेशों की जमीन की खुदाई, गढ़ाई, कुटाई होती रहती है फलस्वरूप उसमें वनस्पति उगाने की क्षमता बनी रहती है। पोली जमीन उनकी भागदौड़ से कड़ी होती है और आँधी में उड़ने से—वर्षा में बहने से बच जाती है और खार−खड्डे नहीं बनते। वन्य पशुओं का मलमूत्र उस क्षेत्र की जमीन में उपयोगी खाद देता रहता है और वहाँ की उर्वरता बनी रहती है।

वन्य पशुओं की रक्षा के लिए चिरकाल से प्रयत्न होते रहे हैं। सहज ही माँस और चर्म प्राप्त करने के लोभ में मुफ्तखोर शिकारी पशु−वध का क्रूर व्यसन अपनाने को सहज ही प्रोत्साहित हो जाते हैं। बराबरी की बुद्धि और बल वाले के साथ तो युद्ध करना महँगा पड़ता है अल्प बुद्धि और वन्य पशु−पक्षियों को तीर, बन्दूक जैसे अस्त्रों के सहारे लुक−छिपकर प्रहार करने और उन्हें मार गिराने में लगता है—हृदय हीन मनुष्य अपनी बहादुरी का भी अनुभव करता है और उस कायरतापूर्ण हत्या पर गर्व भी करता है। इन्हीं दुष्प्रवृत्तियों ने शिकार का शौक बढ़ाया और उसकी चपेट में पशु−पक्षियों का इतना अधिक नृशंस संहार आरम्भ हो गया कि धरती पर से इन निरीह प्राणियों का अस्तित्व समाप्त हो जाने की ही आशंका उत्पन्न हो गई।

अफ्रीका को बसाते समय यूरोपियनों ने जिस प्रकार उस क्षेत्र के प्राणियों का संहार किया उसकी कथा यदि सामने लाई जाय तो उस महाविनाश के दृश्य हृदय हीनों के भी कलेजे कँपा सकते हैं। शिकारियों के लिए उन दिनों अफ्रीका स्वर्ग था। उनकी गोलियाँ निरन्तर आग बरसतीं और एक−एक शिकारी गिरोह दिन भर में हजारों पशुओं को धराशायी कर देता। सिंह, व्याघ्र, चीते, गेंडे, हाथी, जिराफ आदि के चमड़े से सारा योरोप ढक गया; धातुओं और वस्त्रों के स्थान पर इस सस्ते और सुन्दर चमड़े की हर चीज बनने लगी और लगने लगा कि अब योरोप के नर−नारी चर्माच्छादन से ही ढक जायेंगे। वन्य पशुओं के रक्त माँस में उन दिनों अफ्रीकी जंगलों का दृश्य बूचड़खाने जैसा बना दिया गया था। यह तो एक काल और स्थान की बात हुई। साधारणतया सस्ती वीरता और मुफ्त का माल पाने के लोभ ने धूर्त मनुष्य को शिकार का शौकीन बनाया और उस आधार पर वन्य पशुओं का भयावह विनाश होता रहा।

इस विभीषिका को रोकने के लिए समय−समय पर विचारशील समाज नायकों ने प्रतिबंधात्मक प्रयत्न किये हैं। बौद्ध और जैन धर्मों ने अध्यात्म और नीति की पृष्ठभूमि में अहिंसा का प्रचार किया और मनुष्यों की ही तरह पशु-पक्षियों के साथ भी करुणा प्रदर्शित करने की प्रेरणा दी। सम्राट् अशोक ने इस संदर्भ में कुछ कड़े प्रतिबन्ध लगाये थे उनका उल्लेख उपलब्ध शिलालेखों में मिलता है।

इंग्लैंड के शासक तृतीय हेनरी ने सन् 1217 में वन्य पशुओं के रक्षा सम्बन्धी कानून बनाये थे। फ्राँस ने भी सन् 1844 में ऐसा ही कानून बनाया। चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने पक्षियों को अन्धाधुन्ध मारने का निषेध किया था।

अमेरिका में वन जीवों की सुरक्षा के लिए 40 संरक्षित अभय उद्यान हैं। दक्षिण अफ्रीका में आठ हजार वर्ग मील का क्रूनार राष्ट्रीय क्षेत्र इसी प्रकार का संरक्षित प्रदेश है। कांगो से ऐसा संरक्षित प्रदेश 50 हजार वर्ग मील का है। केनिया—अफ्रीका का नेशनलपार्क प्रसिद्ध है। उस क्षेत्र में दुर्लभ पशु-पक्षियों का उन्मुक्त विचरण देखने के लिए संसार भर के यात्री वहाँ पहुँचते हैं। कनाडा, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया में भी ऐसे ही शिकार प्रतिबन्धित वन प्रदेश है। स्वीडन एक छोटा सा देश है पर वहाँ भी 14 राष्ट्रीय उद्यान पशु बिहार के लिए बने हुए हैं। स्विट्जरलैंड, इटली, स्पेन, फिनलैंड, आस्ट्रिया, पोलैंड, चेकोस्लाविया आदि देशों ने भी इसी प्रकार वन्य पशुओं को संरक्षण प्रदान किया है। शहरी चिड़ियाघरों में थोड़े से पशु-पक्षी देखने से भी बच्चों का मनोरंजन होता है पर सुविस्तृत वनों में हाथी, सिंह, चिंपेंजी, गैंडा, कंगारू जेबरा, जिराफ आदि कि उन्मुक्त जीवनचर्या देखकर जा आनन्द आता है वह अनोखा ही है। उसके लिए हजारों की संख्या में दर्शक उन संरक्षित वन प्रदेशों में पहुंचते हैं और उस यातायात से सरकारों को, व्यवसायियों तथा श्रमिकों को अच्छा लाभ होता है।

वन्य पशु-पक्षी मनुष्य के शत्रु नहीं मित्र हैं। उनके द्वारा होने वाले उपकारों की यादें गहराई से छानबीन की जाय तो प्रतीत होगा कि वे पालतू पशुओं से कम उपयोगी नहीं हैं। यदि उनके वध करने पर हम उतर आयें तो फिर ऐसी क्षति का सामना करना पड़ेगा जो वन्य पशुओं के माँस चर्म से होने वाले लाभ की तुलना में अत्यधिक महंगी पड़ेंगी।

जब फीजी द्वीप बसाया गया तो वहाँ चूहे और कौओं के अभाव से खेतों में होने वाले कीड़े फसल को बुरी तरह बर्बाद करने लगे। रासायनिक घोल छिड़कने जैसे उपचारों से जब कोई काम चलता न दीखा तो भारत से चूहे और कौए पकड़ कर वहाँ ले जाये गये और बसाये गये जब कहीं जाकर कीड़ों का उपद्रव काबू में आया।

शिकार का व्यसन अपनाकर लोग अपनी कुशलता अथवा बहादुरी का प्रमाण देना चाहतें हैं पर वे नहीं जानते कि इस क्रूर कर्म के द्वारा वे न केवल अपनी आन्तरिक निष्ठुरता ही बढ़ा रहे हैं वरन् इस सुन्दर संसार को कुरूप बनाने का भी अपराध कर रहे हैं। शिकार का वर्तमान क्रम जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब पशु-पक्षियों का इस संसार से अस्तित्व ही मिट जायगा।

बवरशेर अब भारत में सिर्फ गुजरात के गीर वन में ही एक बहुत छोटी संख्या में ही सीमित रह गये हैं। चीतों की कई जातियाँ नष्ट हो गईं गेंडे सिर्फ आसाम में ही पाये जाते हैं और उनकी संख्या 5,00 से अधिक नहीं हैं। सिक्किम का बारहसिंगा लुप्त हो गया। मारखोर, काले हिरन, थारबकरी, गवाज जैसे वन्य पशुओं की नसल भी अब समाप्त होने ही जा रही है। फरिस्टर चैम्पियन ने भविष्य वाणी की थी कि भारत में वन्य जीवों का भविष्य अन्धकारमय है उनकी आशंका सही सिद्ध होती दीख रही है। इस संकट का सामना करने और वनजीवों की रक्षा का आन्दोलन करने के लिए भारत में—नीलगिरी गेम एसोसियेशन इण्डियन बोर्ड आफ बाइन्ड लाइफ—वाइल्ड लाइफ सोसाइटी और बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी ने कुछ प्रयत्न भी किया पर उनके कागजी प्रयास कुछ अधिक कारगर न हो सके। शिकारियों की प्रकट और अप्रकट गतिविधियाँ तेजी से दुर्लभ वन्य जीवों का विनाश करने में लगी हुई हैं।

गेंडे की हर चीज उपयोगी होती है और महंगी बिकती है। एक ओंस सींग का मूल्य लगभग एक हजार रुपये होता है। एक चिड़ियाघर ने भारतीय गेंडा दंपत्ति का मूत्र बेचकर 700 पौंड (लगभग चौदह हजार रुपये) कमाये थे। गेंडे के चमड़े की ढाल, तीर, तलवार की लड़ाई के दिनों में सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण साधन थी। हकीम लोग गेंडे के सींग की भस्म को नपुँसकता के लिए प्रयोग करते रहे हैं।

गेंडा प्रायः 50 वर्ष जीता है। गर्भ में वह 19 महीने रहता है। पन्द्रह वर्ष की आयु में वह जवान हो जाता है। हर गेंडा अपनी अलग दुनिया बसाकर रहता है। 100 एकड़ की जमीन में सन्तोषपूर्वक गुजर कर लेता है,पर इतने में किसी दूसरे का प्रवेश पसन्द नहीं करता। मार्च का महीना उसे गृहस्थी बसाने की आवश्यकता अनुभव कराता है पर मतलब निकल जाने के बाद उन्हें तलाक देकर एकाकी रहना ही अधिक सुविधाजनक प्रतीत होता है।

पक्षियों की लुप्त जातियों में कोटुक्क, मोरर्निगद्रव, ट्रम्परस्वन, हूपिंकक्रेन, एक्सिमो करलू, आइवरी वर्ड, वुडपिकर, वेहाऊ पेटरेल, फ्लोमिंगो को भी शुमार किया जाता है। कभी वें धरती के विभिन्न भागों में बहुलता के साथ पाये जाते थे पर अब उनके दर्शन कभी−कभी ही होते हैं।

न्यू फाउंडलैंड तथा आइसलैंड क्षेत्र का निवासी पक्षी ‘ग्रेट आक’ अपने सुहावने परों के लिए प्रख्यात था। शिकारियों ने उसका वंश ही नष्ट कर दिया।

हंस से बड़ा किन्तु उसी जाति का पक्षी ‘डोडो मारीसस टापू में रहता था पर अब तीन सौ वर्षों से उसकी जाति ही समाप्त हो गई।

न्यूजीलैंड में शुतुरमुर्ग की जाति का एक और पक्षी था मोआ। यह 12 फुट ऊँचा था पर उड़ नहीं सकता था। अब संसार से सदा के लिए विदा हो गया। इसी प्रकार कत्थई रंग की चितलीदार मैना ‘सडल वैक’ भी अब न्यूजीलैंड से समाप्त हो गई।

नेपाल की करनाली घाटी में पाँच हजार फुट ऊँचाई पर पाया जाने वाला पक्षी स्पाइनी वैवलर अब कहीं देखने को नहीं मिलता।

डेढ़ सौ वर्ष पूर्व पैसेजर पिजन नीले रंग का कबूतर चिड़ियों की तरह झुण्ड बनाकर आसमान में उड़ता था। उनकी इतनी बहुलता थी कि सूरज बादलों की तरह ढक जाता था, पर अब वे सुन्दर पक्षी एक प्रकार से लुप्त हो गये। उस जाति का पक्षी सन् 1914 में अन्तिम बार देखा गया था।

जलकुक्कुट की जाति का शुतुरमुर्ग की तरह उड़ने में असमर्थ एक पक्षी ‘नोट तिनस’ अब से पचास वर्ष पूर्व न्यूजीलैंड में बहुलता के साथ पाया जाता था, पर अब वह लुप्त नहीं देखा गया।

भेड़−बकरियों के बच्चे और छोटे खरगोशों तक को चोंच में पकड़ कर उड़ जाने वाला बड़ा गिद्ध ‘काण्डर’ कभी कैलीफोर्निया के जंगलों में बड़ी संख्या में पाया जाता था। पर अब 1949 के बाद उसके दर्शन दुर्लभ हो गये हैं और उसे लुप्त मान लिया गया है।

ह्वेल मछली का शिकार जिस तेजी से हो रहा है उसे देखते हुए हर्मन मेलविन ने ‘मोवीडिका’ में लिखा है—पिछले तीस वर्षों के अन्दर समस्त संसार में नीज ह्वेल की आबादी एक लाख से घटकर अब मात्र एक हजार रह गई है। उनके प्रजनन के मुकाबले शिकार कहीं अधिक तेजी से हो रहा है ऐसी दशा में संसार से उसके अस्तित्व का अन्त होता ही दीखता है।

पालतू पशु−पक्षियों को तो माँस के लिए काटा मारा ही जा रहा था थोड़े वन्य पशु−पक्षी बचे थे लगता है अब उनकी भी खैर नहीं। यह स्थिति कितनी दुखद सिद्ध होगी इसे आज भले ही न समझा जा सके पर भावी पीढ़ियाँ तब उस क्षति के कारण होने वाले दुख का अनुभव करेंगी सौर उस महाविनाश को धिक्कारेंगी, जिसे हम इन दिनों उत्साह पूर्वक चला रहे हैं।


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