जीवितों की तरह जीना हो तो संघर्ष-रत रहें

August 1974

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संघर्ष अरुचिकर भले ही लगे पर है आवश्यक से भी आगे बढ़कर अनिवार्य। जड़ता को चेतना में परिणत करने की प्रक्रिया संघर्ष के साथ ही आरम्भ होती हैं।

प्राणियों की माता के गर्भ में भ्रूण की कलल के रूप में स्थापना लिए रति-क्रिया के साथ आरंभ होती है वह प्रत्यक्ष ही संघर्ष है। संघर्ष असुविधाजनक भले ही हो पर है आनन्ददायक इस तथ्य को मैथुन कर्म के साथ जुड़ा हुआ देखा जा सकता है। शिशु जन्म के समय भी यही प्रक्रिया कार्यान्वित होती है। बालक उदरकारा तोड़कर जब उन्मुक्त वातावरण में विचरण करने के लिए आतुर होता है तो उसका संकल्प एवं प्रयास प्रसव पीड़ा के रूप में दृष्टिगोचर होता है। माता को भी उस संघर्ष प्रकरण में योगदान देना पड़ता है—कष्ट उठाना पड़ता है। इसके कटु प्रसंग की उपेक्षा करने की बात सोची जाय तो प्रजनन सम्भव ही न हो सकेगा।

शरीर के भीतर चल रही समस्त क्रियाएँ लगभग उसी स्तर की हैं जैसी कि रई से दही विलोकर उसमें से मक्खन निकालने की मंथन प्रक्रिया होती हैं। श्वास का आवागमन, माँस पेशियों का आकुंचन-प्रकुँचन, रक्त भिषरण प्रभृत अनेकों शरीरगत क्रिया-कलाप ही जीवनीशक्ति उत्पन्न करते हैं और उसी बिजली से हमारी शारीरिक एवं मानसिक गतिविधियों का सञ्चालन होता हैं। जिस क्षण यह मंथन संघर्ष रुकेगा उसी क्षण मृत्यु सामने जायगा। निष्क्रियता और मृत्यु एक ही तथ्य के दो नाम हैं।

समुद्र में ज्वार-भाटे आते हैं और लहरें उठती हैं इसीसे सागर क्षेत्र में शुद्धता और संजीवता रहती है यदि जल पूर्णतया स्थिर हो जाय तो उसका विषाक्त होना निश्चित है। जोहड़ और तालाबों का पानी इसीसे सड़ता हैं कि उनकी गतिशीलता रुक जाती हैं। छोटे-छोटे झरने अपनी शुद्धता बनाये रहते हैं, इसका कारण उनका प्रवाह हैं। भूमि के साथ-वायु के प्रवाह के साथ टकराती हुई जलधारा बहती है, यह टकराव ही उसकी शुद्धता को अक्षुण्ण रखता है। टकराव से मुँह मोड़ने की भीरु ता आते ही शक्ति और प्रगति के द्वार बन्द हो जाते हैं।

हवा में उपयोगी तत्व इसलिए विद्यमान हैं कि वह चलती हैं। बंद तहखानों और पुराने कुंओं में वही हवा प्राणघातक-विषाक्त ता से भर जाती है। इसका एकमात्र कारण गतिशीलता में अवरोध उत्पन्न होना है। जिन्हें आरामतलबी भाती है, जो निष्क्रियता को शान्ति अथवा चैन का नाम देते हैं, वे जानते नहीं कि संघर्ष में रहने वाली कठिनाई की तुलना में यह गतिहीनता और भी अधिक महंगी पड़ेगी। उसमें शारीरिक और मानसिक रुग्णता की इतनी बड़ी विभीषिका छिपी पड़ी हैं जिसका एक अंश भी व्यस्त सक्रियता में नहीं होता। देखा गया है कि कर्मठता से मुँह मोड़ते ही अधेड़ आयु के व्यक्ति तेजी से वृद्धता के गर्त में गिरते हैं और जल्दी ही मौत के मुँह में चले जाते हैं इसकी अपेक्षा यदि वे अन्त तक सक्रिय बने रहते तो निश्चय ही अधिक स्वस्थ रहते और अधिक दिन जीते।

भौतिक विज्ञान ने माना है कि परमाणुओं की द्रुतगामी हलचलें ही पदार्थों को उपजाती, बढ़ाती और बदलती हैं। संसार में अनेकानेक हलचलों की जन्मदात्री आणविक द्रुतगामिता ही है यदि सृष्टि के परमाणु निष्क्रिय हो जाय तो फिर सर्वत्र भयानक नीरवता और स्तब्धता के अतिरिक्त कहीं कुछ दृष्टिगोचर न होगा। भयंकर शून्यता ही सर्वत्र बिखरी पड़ी होगी। किसी पदार्थ अथवा प्राणी का अस्तित्व शेष न रहेगा। परमाणुओं का व्यस्त हलचलों की संघर्षशीलता में संलग्न रहने का प्रतिफल ही हम अपने संसार के सुरम्य अस्तित्व के रूप में पाते हैं। झंझट से बचने और चैन की वंशी बजाने की बात यदि प्रकृति के तत्व सोचने लगें तो समझना चाहिए महाप्रलय की घड़ी आ पहुँची।

जीवनोपयोगी विविध वस्तुओं की उपलब्धि में संघर्ष शीलता ही प्रधान कारण है। धरती का पेट चीर कर अन्न और फल उगाये जाते हैं। उर्वर भूमि भी कब किसी का घर धान्य−धान्य से धरती है। शिल्पी, श्रमिक और कलाकारों को कठोर श्रम−साधना करनी पड़ती है। इसके बिना उनको उपयोगी उत्पादन सम्भव ही न होगा। मशीनों के घूमते हुए चक्के ही कारखाने चलाते हैं और आवश्यक वस्तुएँ विनिर्मित होती हैं।

इस संसार में आक्रमणकारी सत्ताओं का अस्तित्व इसलिए है कि जागरूकता और समर्थक तत्वों को हटा और मिटा दिया जाय। प्रकृति का अशक्त ता सहन नहीं। निष्क्रियता की कुरूपता उसे फूटी आँखों नहीं सुहाती। राजकीय कानून में सामाजिकता की मर्यादा उल्लंघन करने वाले क्रिया−कलाप को दण्डनीय अपराध माना गया है। प्रकृति के कानून इससे सूक्ष्म हैं उनमें आलसी और प्रमादी भी अपराधी हैं। अकर्मण्य, निष्क्रिय, हरामखोर और डरपोक व्यक्ति भी प्रकृति को असह्य हैं। वह उन्हें उसी तरह उखाड़ फेंकती है जिस प्रकार माली और किसान की कुदाली अनावश्यक खर पतवार का उन्मूलन करने में निरन्तर निरत रहती है। यह अप्रिय लगने वाला प्रसंग यदि न चले कि किसान के लिए फसल का लाभ लेना और माली का फल उत्पन्न करना सम्भव ही न हो सकेगा। बलिष्ठता का सौंदर्य बनाये रहने के लिए दुर्बलता की कुरूपता हटाने की प्रक्रिया चाहे निष्ठुर क्रूर−कर्म जैसी ही क्यों न लगे प्रकृति के कानून में उसका समावेश पूरी तरह हो रहा है। यहाँ संघर्ष रत शक्ति उपासक तत्वों को ही हँसते−हँसाते निर्वाह करने की छूत है। रुदन की औषधि तो विनाश की शीशी में ही भर दी गई है।

मक्खी, मच्छर, खटमल, पिस्सू जैसे नगण्य सत्ता वाले हेय प्राणी उनके जीवन को चुनौती देते हैं जिन्हें गन्दगी से लड़कर स्वच्छता उत्पन्न करने वाले संघर्ष में रुचि नहीं। हवा में उड़ने वाले क्षय आदि के विषाणु केवल उन फेफड़ों में अड्डा जमाते हैं जिन्होंने श्वास प्रक्रिया का समुचित उपयोग न करके दुर्बलता ओढ़ रखी है। हवा में इतनी के विघातक तत्व उड़ते हैं कि देखते−देखते किसी को भी मृत्यु मुख में धकेल सकते हैं। उनसे हमारी रक्षा उतनी ही मात्रा में— उतनी ही देर तक होती है जितनी कि प्रतिरोधक समर्थता अपने भीतर रहेगी। इसमें न्यूनता आते ही विषाणुओं का आक्रमण दुर्बल स्थिति के अनुपात से होता हुआ चला जायगा। निष्क्रियता का नाम ही दुर्बलता है और दुर्बलता का प्रधान कार्य आक्रमणकारी तत्वों को आमन्त्रित करके अपने काया−कल्प का साधन जुटाना ही होता है। दुर्बलता को स्वयं अपना जीवन भारी पड़ता है उसे आत्म−हत्या करके अपनी वर्तमान असन्तुष्ट स्थिति से पिण्ड छुड़ाने और नई सशक्त स्थिति प्राप्त करने की आतुरता रहती है।

संसार में अवाँछनीय और असामाजिक तत्वों की कमी नहीं। चोर, डाकू, छली, प्रपंची, दुष्ट, दुराचारी हर जगह विद्यमान हैं। पर वे हर किसी पर आक्रमण नहीं करते— हर कोई उनका शिकार नहीं बनता। जिसे वे असावधानी, दुर्बल, अस्त−व्यस्त, असुरक्षित पाते हैं उसी पर हमला करते हैं। सक्रियता और जागरूकता से उलझने में उन्हें भी डर लगता है और झंझट का सामना करने से कतरा कर वे भी वहाँ घात लगाते हैं जहाँ दाल गलती है। अवाँछनीय तत्वों से निपटने के लिए संघर्षशील मनोवृत्ति और प्रतिरोधात्मक सामर्थ्य का अभिवर्धन आवश्यक है। शक्ति का सञ्चय होता रहे— सामर्थ्य का प्रदर्शन बन पड़े तो वह अवसर ही न आवेगा जिसमें संघर्ष करने की आवश्यकता पड़े। आक्रमणकारी तत्वों से सुरक्षा की गारन्टी इसी रूप में हो सकती है कि हमारी जागरूकता और समर्थता इस स्तर तक बढ़ी रहे कि हमला करने से पहले किसी को हजार बार विचार करना पड़े।

सुरक्षा और प्रगति के लिए समर्थता का सञ्चय आवश्यक है। यह सशक्त ता संघर्ष रत होकर ही उपार्जित की जा सकती है। समुद्र युगों से शान्त पड़ा था। देवता और असुरों ने उसके मंथन का संकल्प किया और साधन जुटाये। इस दुस्साहस को देखकर भगवान् बहुत प्रसन्न हुए और वे सहायता देने के लिए स्वयं दौड़े आये। कूर्मावतार लेकर पीठ पर भारी पर्वत को धारण किया और उस प्रयोजन की पूर्ति को अपने परोक्ष सहयोग से असम्भव बनाया। समुद्र मंथन से 14 रत्न निकले और उन्हें पाकर मनुष्यों और देवताओं को धन्य बनने का अवसर मिला। यदि वह प्रबल प्रयास किया ही न गया होता तो समुद्र किसी को कोई उपहार देने वाला न था, यद्यपि वे सभी सम्पदाएँ उसके भीतर अनादि काल से दबी पड़ी थीं पर उनका लाभ मिलना तभी सम्भव हुआ जब प्रचण्ड प्रयास की संघर्ष चेष्टा उभर कर आगे आई।

यह संसार एक समुद्र है इसमें न जाने कितने रत्न भरे पड़े हैं, उन्हें प्राप्त करने की सुविधा हर किसी को उपलब्ध है। शर्त एक ही है कि लाभान्वित होने की आकांक्षा प्रबल प्रयत्नशीलता और अवरोधों के साथ धैर्यपूर्वक लड़ने की साहसिकता से युक्त हो। मात्र अभिलाषाएँ करते रहना निरर्थक हैं। स्वप्नदर्शी कल्पना लोक में विवरण करने वाले मनोरथ कितने ही करते रहें पर प्राप्त कुछ न कर सकेंगे। उपलब्धियाँ तो प्रचण्ड सक्रियता चाहती हैं और उसका उद्भव प्रखर मनोबल की पृष्ठभूमि पर ही होता है। अभावों की पूर्ति के लिए आवश्यक साधन जुटाना उनके लिए कठिन नहीं पड़ता। जो अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति के लिए कृत संकल्प हैं। उनकी सूझ−बूझ, ढूँढ़−खोज और भागदौड़ जब समग्र तत्परता के साथ सक्रिय होती है तो एक के बाद एक एक ऐसे आधार मिलते चले जाते हैं जिनके सहारे लक्ष्य की पूर्ति तक द्रुत अथवा मंदगति से आज नहीं तो कल पहुँच सकना सम्भव हो सके।

दूसरों से उदार व्यवहार की आशा करना व्यर्थ है। यह संसार बहुत चतुर है। सहायता उनकी करता है जिनसे प्रतिफल की आशा होती है। निस्वार्थ करुणा भी अभी जीवित तो है पर वह कभी−कभी बरसात की बिजली की तरह ही चमक उत्पन्न होने की प्रतीक्षा में आकाश की ओर ताकते रहना व्यर्थ है। हमें घर में ही आग जलाने के साधन जुटाने चाहिएँ। प्रयोजन उन्हीं से सिद्ध होगा। दूसरे लोग कृपा करके हमारी सहायता करें और संकट से उबारें यह सोचना व्यर्थ है। यहाँ अच्छी जमीन में ही किसान अपना बीज बोता है। अनुत्तीर्ण होते रहने वाले छात्र की उसकी निर्धनता पर द्रवित होकर छात्रवृत्ति कौन देता है। अशक्त रहकर तो हम देर तक दूसरों की थोड़ी सहानुभूति तक नहीं पा सकते।

हमें अपने भीतर तलाश करना चाहिए। वहाँ अगणित विशेषताओं के बीज मौजूद हैं। उन्हीं को ढूँढ़ने बढ़ाने और उपयोग में लाने के लिए तत्पर हो जाँय तो भूतकाल के दुर्भाग्य को भविष्य के सौभाग्य में आसानी के साथ बदला जा सकता है। यह सम्भव तभी होगा जब संघर्षशील मनोवृत्ति को विकासोन्मुख किया जाय। योगाभ्यासी, तपस्वी, साधनारत व्यक्ति अपने आपे से लड़ने को अपनी आन्तरिक अशक्त ता से जूझने की दिशा में ही तो अग्रसर होते हैं।

जिसने जो कुछ पाया है वह अपनी ही प्रबल सक्रियता का परिणाम रहा है। जो अवाँछनीय है— अपर्याप्त है−अनुपयुक्त है उससे हमें साहसिक शूरवीरता के साथ लड़ने के लिए तत्पर होना चाहिए। इस संघर्ष से ही हम अभीष्ट मनोरथों की पूर्ति कर सकेंगे। इस अप्रिय जीवित रहने के लिए संघर्ष रत होने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं।


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