प्राणशक्ति का अपव्यय−मूर्खतापूर्ण अनाचरण

August 1974

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अपनी प्राण−शक्ति को यदि हम मितव्ययता पूर्वक खर्च करें तो जीवन को लम्बा और निरोग बनाने में उसका उपयोग कर सकते हैं और इस बचत से कुछ महत्वपूर्ण उपार्जन कर सकते हैं।

प्राण−शक्ति का सबसे अधिक अपव्यय अनावश्यक भोजन भार वहन करने से होता है। शरीर रक्षा के लिए सरल और स्वल्प भोजन की आवश्यकता होती है किन्तु हम दुष्पाच्य रूप में अधिक मात्रा में उसे ग्रहण करते हैं। सोचते हैं कीमती, स्वादिष्ट और अधिक भोजन करने से बलिष्ठ बनेंगे पर होता ठीक उलटा है। गरिष्ठ और प्रचुर भोजन जितनी शक्ति उत्पन्न करता है उससे कहीं अधिक अपने पचाने में खर्च करा लेता है अस्तु हम प्रतिदिन घाटे में रहते हैं और अन्ततः दिवालिया बनकर असमय में ही जीवनलीला समाप्त कर देते हैं।

प्राण कहाँ से आता है? उसके उपलब्धि स्रोत कहाँ हैं? यह तलाश करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि यह बहुमूल्य सम्पदा हमें शुद्ध वायु,निर्मल जल, सात्विक आहार, सूर्य संपर्क, गहरी नींद संतुष्ट मनःस्थिति से प्राप्त होती है। इन शक्ति स्रोतों की जितनी उपेक्षा करेंगे, उनसे जितने दूर रहेंगे उसने ही क्षीण होते चले जायेंगे? कमाई कम और खर्च अधिक करने पर कोई व्यवसाय ठीक तरह नहीं चलता फिर जीवन व्यवसाय ही कैसे चलेगा?

हर काम की सीमा है। मर्यादा में रहकर ही स्थिरता प्राप्त हो सकती है। सामर्थ्य से अधिक काम करना—साधनों से असंबद्ध महत्वाकाँक्षाऐं गढ़ना— भोगासिक्त में निमग्न होकर इन्द्रियों से अधिक काम लेना, दिनचर्या की नियमितता का ध्यान न रखना आदि बातें देखने सुनने में कोई बहुत बड़ी गलतियाँ नहीं मालूम पड़ती, पर वे छोटी होने पर भी चिनगारी की तरह हमारे हँसते−खेलते जीवनोद्यान में आग लगा देने के लिए पर्याप्त है। नैतिक और सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाला अपनी प्रामाणिकता खो बैठता है और जनसहयोग से वञ्चित होता चला जाता है। व्यक्ति गत जीवनचर्या में मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाला उस बहुमूल्य सम्पदा को खोता चला जाता है जिसके आधार पर सर्वतोमुखी प्रगति की सम्भावनाओं की पृष्ठभूमि बनती है।

विषपान से आत्म−हत्या करने वाले की रक्षा कौन कब तक करेगा? जिनने नशे पीकर अपने पैरों कुल्हाड़ी मारने पर कमर ली है उनकी प्राण−शक्ति कब तक स्थिर रहेगी। उत्तेजक मसाले भी एक प्रकार के विष ही हैं। वासनात्मक उत्तेजनाओं से मन को निरन्तर उद्विग्न करते रहने से हम अपनी ही सुसंचित जीवन सम्पदा का क्षरण करते चले जाते हैं और अपने ही पापों का फल भोगने के लिए रुग्णता, अशक्त ता एवं अकाल मृत्यु के नरक में जा मिलते हैं।

दार्शनिक कन्फ्यूशियस ठीक ही कहते थे—जो मितव्ययता के नियम को भंग करेगा वह अन्त में दुसह दुख सहता हुआ मरेगा। उनकी यह उक्ति प्राण−शक्ति के अपव्यय के सम्बन्ध में सोलहों आने सच उतरती है। हम अपनी ही जीवन सामर्थ्य से खिलवाड़ करते हैं— उसे अनावश्यक रूप से बर्बाद करते हैं ऐसी दशा में पग−पग पर ठोकर खाने और अशान्त असफल रहने का दुष्परिणाम भोगें तो आश्चर्य ही क्या है?


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