प्रकृति, विकृति और संस्कृति

August 1974

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सन्त बिनोवा ने अपने एक प्रवचन में कहा—जीवन में तीन चीजें होती हैं—प्रकृति, विकृति और संस्कृति। भूख लगने पर खाना प्रकृति है, जरूरत से ज्यादा खा लेना विकृति है और भूख लगने पर भी सामने आये हुए भूखे अतिथि को अपना खाना खिला देना संस्कृति है। दूसरे की सन्तुष्टि के लिए अपने भोजन को स्वेच्छापूर्वक प्रसन्न मन से त्याग देना सर्वोत्तम व्रत है। अनाज खाना प्रकृति है। फलाहार करना संस्कृति है और फलों की शराब बनाकर पीना विकृति है। कई बार विकृति को संस्कृति मान लेने की भूल करते हैं। जरूरत न होने पर भी किसी को आग्रह करके ज्यादा खिलाने में संस्कृति नहीं, विकृति है। लोग उसे संस्कृति समझते हैं। जैसे-जैसे विज्ञान की तरक्की होगी, वैसे-वैसे विकृति क्षीण होगी संस्कृति बढ़ेगी।

मेरे पेट में लड्डू हजम करने की क्षमता नहीं है, फिर भी मित्र लोग अगर आग्रह से मुझे लड्डू खिलाते जाँय तो सभी दर्शक यह समझेंगे कि यह प्रेम का दर्शन है। लेकिन सच तो यह है कि वह प्रेम नहीं दुश्मनी है। देखने वाले नहीं समझ सकते कि लड्डू की मार कितनी भयंकर होती है। उससे कभी-कभी आप्रेशन या मृत्यु की भी नौबत आ सकती है। कल वैज्ञानिक साधनों द्वारा पेट का चित्र लिया जा सके और यह बताया जा सके कि लड्डू खिलाने का आग्रह नहीं रखेंगे।

लोग मुझे पड़ाव पर पहुँचने के बाद पूछते हैं कि यहाँ आपको किसी प्रकार की तकलीफ तो नहीं है। इस पर मैं कहता हूँ कि गाँवों में कुत्तों के भौंकने तथा शहरों में रेडियो के भौंकने से तकलीफ होती है। भगवान् ने शान्ति के लिए रात्रि का प्रगाढ़ अन्धकार पैदा किया है जिसका स्पर्श आँखों को होते ही आराम मालूम पड़ता है। लेकिन इन दिनों लोगों ने अन्धेरे को भी आग लगा दी है। शहर में जिधर देखो उधर आग लगी हुई दिखाई देती है। इसे मैं संस्कृति नहीं मानता। जहाँ प्रकाश की जरूरत हो वहाँ प्रकाश होना अच्छा है, लेकिन बिना ही जरूरत के प्रकाश बनाये रखना विकृति है।

विज्ञान की तरक्की का मतलब लोग समझते हैं कि सारे कच्चे मकान पक्के बन जायेंगे। एक मंजिलें मकान कई मंजिलें बन जायेंगे, लेकिन ऐसी बात नहीं है। विज्ञान बढ़ने से मनुष्य को हवा, सूरज की रोशनी आदि की महिमा मालूम पड़ेगी। फिर मनुष्य स्वयं आसमान के नीचे सोना चाहेगा, पैदल चलेगा, खेतों में काम करेगा तथा कुदरत के साथ संपर्क बढ़ाना अच्छा समझेगा।

इन दिनों सभ्यता के नाम पर सारे शरीर को कपड़े से ढक लेने का रिवाज हो गया है। इससे कहा जाता है कि कपड़े का स्टैन्डर्ड बढ़ गया है और हवा तथा सूरज की रोशनी का स्टैन्डर्ड घट गया है। अब सवाल यह है कि मनुष्य के लिए ज्यादा कपड़ा मुफीद है या हवा एवं सूरज की रोशनी? पक्के मकान चाहिए या हवादार मकान? हम कुदरत से दूर जा रहे है, इसलिए हमें वापस लौटना चाहिए।इन दिनों संदूक के जैसे पक्के मकान बनाये जा रहे हैं, वहाँ न खुली हवा मिलती है, न सूरज की रोशनी। मकान वालों को सूर्योदय का मान भी नहीं होता। इसीलिए वे अपने घरों में प्राकृतिक दृश्यों की तस्वीरें टाँगते हैं और रखते हैं टेबल पर फ्लावर प्लाट में कागज के फूल। कितनी कृत्रिमता है यह। इससे बेहतर तो यही था कि सभी लोग खुली हवा के बीच बगीचे में रहते।

खाना हजम करने के लिए उठक-बैठक आदि व्यायाम किये जाते हैं। व्यायाम के नाम पर आदमी पचास बार उठता है और बैठता है। किसान को तो यह सारा पागलपन ही मालूम होता होगा। इस प्रकार से उठने-बैठने के बजाय कुदाली लेकर खेतों में क्यों नहीं जाते? खेत में काम करने को मजदूरी मानते हैं, इसीलिए इन कृत्रिम उपायों का इस्तेमाल किया जाता है और इन्हें ही फिर संस्कृति, कलचर तहजीब, सभ्यता आदि का नाम दिया जाता है।

आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज से शिक्षा पाकर आने वाले लोग ज्यादा तनख्वाह माँगते हैं, यह एकदम अवैज्ञानिक बात है। ज्यादा तनख्वाह तो उन्हें मिलनी चाहिए जो कम पढ़े-लिखे या अशिक्षित हैं शिक्षित लोगों के पास बुद्धि है। खाने, पीने, पहनने ओढ़ने और साधारण व्यवहार करने का जीवन दर्शन है। वे बीमारी से बचना और बीमारी आ जाने पर कैसे क्या करना यह सब जानते हैं। इसलिये वास्तव में उनका खर्च कम है। लेकिन अशिक्षितों को जीवन का रहन-सहन मालूम नहीं हैं। उन्हें बीमारी आदि अवसरों पर ज्यादा खर्च करना पड़ता है। वे हर तरह से मजबूर हैं। उनकी अवस्था को देखते हुए शिक्षितों को ही समाज से यह कहना चाहिए कि “लोगों ने हमारी शिक्षा पर ज्यादा खर्च किया है, इसलिए हमें जरा कम तनख्वाह दीजिये और ज्यादा तनख्वाह उन्हें दीजिये जिन पर शिक्षा के लिये ज्यादा खर्च नहीं हुआ है।” पर आज तो शिक्षित लोग इस तरह की माँग करने के बजाय उलटी यह माँग करते हैं कि हमारी शिक्षा पर ज्यादा खर्च हुआ इसलिए अब सारे गृह-जीवन पर भी और ज्यादा खर्च होना चाहिए।

शिक्षा हमें जीने का सही तरीका सिखाती है।

यदि शिक्षित होने के बाद भी हम जीने की कला न सीख पायें तो वह शिक्षा किस काम की?

आज पढ़े लिखे लोग सड़कों पर बेकार घूमते हैं, यह सुनकर मुझे ताज्जुब होता हैं। उनसे तो एक अनपढ़ किसान ही भला, जो कमाकर रोटी खाने की कला तो जानता है। हमें शिक्षा की वास्तविकता समझनी चाहिए।

लंका में रावण को मारने के बाद राम हवाई जहाज में बैठकर अयोध्या की ओर निकले। हवाई जहाज जब पञ्चवटी के ऊपर से जा रहा था, तब सीता ने कहा कि—”मैं जब यहाँ रहती थी, तब मैंने कुछ पेड़ यहाँ लगाये थे। वे अब किस स्थिति में है; यह देखने की मुझे इच्छा है।” हवाई जहाज नीचे लाना पड़ा सीता ने वे पेड़ देखे, वे अच्छी तरह से बढ़ रहे हैं, यह देखने के बाद फिर वे लोग अयोध्या की ओर निकल पड़े। सीता को उन पेड़ों की क्यों इतनी चिन्ता थी? क्योंकि उन पेड़ों की ओर वह उपासना बुद्धि से देखती थी। सीता के वहाँ से जाने के बाद वहाँ के ऋषियों ने उन पेड़ों की उपासना जारी रखी और निभा लिया।

इस तरह से पेड़ उपासना के साधन हैं। उपासना के लिए लोग मन्दिर में जाते हैं। वहाँ हवा भी नहीं होती हैं। पेड़ों पर से फूल निकालकर मूर्ति पर चढ़ाते हैं—उसे उपासना कहते हैं। बहने वट सावित्री के दिन वट वृक्ष की जो पूजा करती हैं, वह अच्छी उपासना है। पेड़ में तो पूजा सजी हुई है। वहाँ भगवान् का दर्शन करना चाहिए। पेड़ को हमने पानी दिया, अर्थात् पेड़ की पूजा हुई। अब पेड़ पर सुन्दर फूल आये यानी पेड़ की पूर्ण यथायोग्य पूजा हुई।

शहर के लोग पंगु हैं, देहात के लोग अन्धे हैं। अन्धों ने पंगुओं को अपने कन्धे पर बिठाया हैं। पंगु लोग जिस दिशा में ले जायेंगे, उस दिशा में अन्धे जाते हैं। इसके बदले में हमें सक्षमों का, समर्थों का सहारा चाहिए, उसी के लिए यह योजना सुझायी है। “तू अपूर्ण, मैं अपूर्ण”, दोनों मिलकर पूर्ण बनेंगे,इस तरह गणित की पूर्णता हमें नहीं चाहिए। तू पूर्ण, मैं पूर्ण दोनों मिलकर परिपूर्ण होना चाहिए। उपनिषद् में कहा ही है, ‘वह पूर्ण है, यह पूर्ण हे, पूर्ण से निष्पन्न होता पूर्ण है।’ जीवन में ऐसी परिपूर्णता आनी चाहिये इस तरह से जैसे हर एक को विद्या, आरोग्य, आहार, हवा मिलनी चाहिये, उस तरह से जैसे हर एक को खेती की उपासना चाहिये। यह मनुष्य की आध्यात्मिक और भौतिक आवश्यकता है।


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