समुन्नत बनें ताकि सुविकसित रह सकें

August 1974

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इस संसार में पाने योग्य बहुत कुछ है, पर वह सब उनके लिए सुरक्षित है जो बलवान हैं। बल की उपासना करने के बाद ही अन्य देवताओं की आराधना में सफलता मिल सकती है।

हर वस्तु को मूल्य चुका कर लिया जाय, इस दुनिया के बाजार में यही नियम है। अधिकारियों की भर्ती होती रहती है पर उनमें लिए वे ही जाते हैं जो प्रामाणिकता एवं पात्रता सिद्ध कर सकते हैं। खाली हाथ निकले तो खाली हाथ ही लौटना पड़ेगा। बाजार में कितने ही मूल्यवान पदार्थ भले ही पड़े हों पर खाली हाथ व्यक्ति के लिए कुछ भी प्राप्त कर सकने का द्वार बन्द ही रहेगा।

सफलताओं के रंगीन सपने देखने में जितनी कल्पना शक्ति का प्रयोग किया जाता है उतना ही यदि इस तथ्य पर विचार करें कि अपनी योग्यता किस प्रकार बढ़े और अभीष्ट उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकने योग्य क्षमता का अभिवर्धन कैसे हो? तो समझना चाहिए कि आकाँक्षा पूर्ति का अधिकाँश आधार बन गया। अच्छी परिस्थिति प्राप्त करने के लिए अच्छी मन स्थिति का निर्माण करना आवश्यक है। विकसित व्यक्तित्वों की पूँजी द्वारा ही इस संसार में ऐसा कुछ पाया कमाया जा सकता है जिसे महत्वपूर्ण कहा जा सके।

दुर्बलता एक अभिशाप है जिस पर हर दिशा से विपत्तियाँ टूटती हैं। प्रकृति नहीं चाहती कि उसकी श्रेष्ठ संरचना में सड़े−गले कूड़े−करकट के ढेर लगे रहें। दुर्बलता का ही दूसरा नाम कुरूपता है। हमारी आँखें उसे पसन्द नहीं करतीं फिर प्रकृति ही यह क्यों स्वीकार करेगी कि इस संसार में उस कूड़े−करकट के ढेर लगे रहें जो आन्तरिक समर्थता का मूल्य नहीं समझते और बाहर की उपलब्धियों की आकाँक्षा से उद्विग्न रहकर संसार में विक्षोभ उत्पन्न करते हैं। आलसी और अकर्मण्य के लिए संकटों और अभावों से छुटकारे का कोई उपाय नहीं। जो अपनी उपेक्षा करता है उसे हर दिशा से उपेक्षा और तिरस्कृत ही हाथ लगती है।

दुर्बल शरीर को नई−नई किस्म की बीमारियाँ दबोचती हैं। डरपोक को डराने के लिए जीवित ही नहीं मृतक भी भूत−पलीत बनकर ढूंढ़ते−खोजते आ पहुँचते हैं। आततायियों को अपनी शिकार पकड़ने के लिए कायरों की तलाश करनी पड़ती है। शंकाशील लोगों को बिल्ली भी रास्ता काटकर डरा देती है। अरबों, खरबों मील दूर रहने वाले ग्रह−नक्षत्र भी अपनी प्रकोप मुद्रा उन्हीं को दिखाते हैं जिन्हें अकारण भयभीत होने में मजा आता है। अन्यथा वे बेचारे व्यक्ति विशेष का बिगाड़ उपकार करना उनके बस से सर्वथा बाहर की बात है। दुर्बलताग्रसित व्यक्ति वस्तुतः अपने आपसे ही डरता है, उसकी भय−भीरुता देखकर दूसरे विदूषक भी चिढ़ाने का मजा लेने के लिए आ धमकते हैं।

अपनी दुर्बलताओं को खोजें, उनसे घृणा करें और उन्हें उखाड़ फेंकने के लिए जुट जाँय। समर्थता की उपासना करें। शरीर को बलवान बनाने की योजना बनायें और मन में जमे हुए भीरुता के समस्त आधारों को निरस्त कर दें। प्रगति का आरम्भ भीतर से करें ताकि उस अन्तः भूमि में उगाये अंकुर को समुन्नत व्यक्तित्व एवं वैभव के रूप में सुविकसित देखा जा सके।


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