भीतरी का खोखलापन और सड़ी जडे

April 1974

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दो पेड़ एक ही क्षेत्र में उगे हुए थे। एक बहुत विशालकाय था—दूसरा मामूली और छोटा था। दोनों की तुलना करने पर सहज ही बड़े वाला गौरवशाली प्रतीत होता था।

एक दिन अन्धड़ का तूफान आया। उसने उस क्षेत्र के अनेकों पेड़ उखाड़ दिये? कितनों की ही शाखाएँ तोड़ कर धराशायी कर दी। अंधड़ की इस तोड़−फोड़ का शिकार वह विशालकाय वृक्ष सबसे पहले हुआ जो देखने में सबसे ऊँचा था और सुविस्तृत भी। इतने पर भी कितने ही मामूली पेड़ अपनी जगह यथास्थान खड़े थे। तूफान उन्हें कुछ भी क्षति नहीं पहुँचा सका।

बड़ा पेड़ धराशायी हो गया और उसके पास ही खड़ा सामान्य वृक्ष बिना तनिक भी क्षति−ग्रस्त हुए यथावत खड़ा रहा दर्शकों ने इस आश्चर्य को देखा और रहस्य भरें कारण को तलाश करने का प्रयत्न किया।

गहराई से खोज बीन करने पर पता चला कि सुविस्तृत दीखने वाला पेड़ भीतर ही भीतर खोखला हो गया था और उसकी जड़े सड़ गल गई थीं। इसके विपरीत छोटे पेड़ की ऊँचाई तो कम थी पर उसकी मोटी और मजबूत जड़े काफी गहराई तक जमीन में घुस गई थीं और अपनी खुराक समेटने में मुस्तैदी के साथ लगी हुई थीं।

आँधी तूफान आते ही रहे है और आते ही रहेंगे। प्रिय और अनुकूल परिस्थितियाँ आजीवन बनी रहें—कभी दुख भरे क्षति के अवसर सामने न आयें ऐसा हो ही नहीं सकता। जीवन दुख और सुख के हानि और लाभ के ताने बाने से बुना है। धूप छाँह की तरह अभी अनुकूल अभी प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं और चली जाती है। इस संसार में सब कुछ अस्थिर है—हर चीज बदल रही हैं। जन्म और मरण का चक्र अनवरत गति से चल रहा है। प्रिय के बाद अप्रिय के बाद प्रिय का चक्र अपनी धुरी पर बना किसी के सुख दुख की प्रतीक्षा किये घूमता ही रहता है, उसे रोका नहीं जा सकता। सदा सुखद परिस्थितियाँ बनी ही रहें— यह आशा करना व्यर्थ है। गतिशील जगत को यथास्थिति बनें रहने की अगति में बाँधे रह सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं। परिवर्तन की प्रक्रिया किसी के बूते भी रुकी नहीं है— कोई उसे रोक भी न सकेगा।

जो भीतर से खोखले है वे बाहर से वैभवशाली दीखते हुए भी दुर्बल हैं। उन्हें जरा−सी प्रतिकूलता तोड़ मरोड़ कर रख देती है। उन्हें उखड़ते और धराशायी होते देर नहीं लगती। इसके विपरीत जिनकी जड़े गहरी है जिनने अपने आपको इस संसार सागर में निरन्तर उठते रहने वाले ज्वार−भाटों की सन्तुलित मति से देखना सीखा है वे ही समुद्र तट पर बैठ कर उछलती, उमड़ती लहरों का आनन्द लेते हैं। मजबूत पकड़ उन्हीं को होती है और परिस्थितियों का सामना करने में वे ही समर्थ होते हैं। सम्पत्ति की भाँति विपत्ति भी क्षणिक ही होती है। विपन्नता के बाद भी सम्पन्नता की नई दिशा मिलती है भले ही वह पहले जैसी परिस्थितियों से भिन्न प्रकार की हो।

जिसने सम्पन्नता की तरह विपन्नता का भी स्वागत कर सकने का—उनसे निपटने का मनोबल एकत्रित किया है उसकी जड़े गहरी हैं। अन्धड़ आते और जाते रहते है पर उसे तोड़ नहीं पाते। इसके विपरीत बाहरी वैभव की विशालता निरर्थक सिद्ध होती है यदि भीतर खोखलापन घुस पड़ा हो और आशा भरी साहसिकता की जड़े गल गई हों तो एक ही आघात में उखड़ कर धराशायी होना निश्चित है। बाहरी दुनिया की जानकारी चाहे कितनी ही अधिक क्यों न प्राप्त करली जाय पर अपने सम्बन्ध में आवश्यक ज्ञान प्राप्त किये बिना वह बहुत कुछ जानना भी अधूरा रहेगा। यह ठीक है कि हमें साँसारिक वस्तुओं तथा परिस्थितियों से पाला पड़ता है और उनके सहारे प्रगति अवनति का आधार बनता है—इसलिए दुनिया की जानकारी अधिकाधिक मात्रा में प्राप्त करना आवश्यक है। यह भी ठीक है कि संपर्क में आने वाले और विविध सूत्रों से अपने जीवन−क्रम में जुड़ें हुए व्यक्ति हमें असाधारण रूप से प्रभावित करते है—उनकी गतिविधियों का अपनी प्रसन्नता अप्रसन्नता के साथ सघन सम्बन्ध रहता है इसलिए उनके सम्बन्ध में ध्यान देना एवं व्यवस्था बनाना आवश्यक है। पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों का सही तरह निर्वाह किया जा सके, इसलिए लोक व्यवहार की जानकारी संग्रह की जानी चाहिए।

यह दोनों ही बातें आवश्यक हैं। इसलिए उनसे सम्बन्धित जानकारियाँ बढ़ाने और परिस्थितियों के साथ सफलता पूर्वक निपटने के साधन जुटाने में निरत रहना भी आवश्यक है। साँसारिक ज्ञान की उपयोगिता सर्वमान्य है। स्कूल कालेजों से लेकर सभा गोष्ठियों तक विविध विधि क्रिया−कलाप इस प्रयोजन के लिए चलते हैं। साहित्य सृजन और प्रचार तन्त्र इसी निमित्त खड़े किये जाते हैं विचार विनिमय परामर्श और भावनात्मक आदान−प्रदान के लिए लेखन और वाणी के उपयोग अनेक होंगी उतनी ही बुद्धि प्रखर होगी और प्रतिभा निखरेगी। सफलताओं की दिशा में इन्हीं साधनों के सहारे ही तो आगे बढ़ा का जाता है।

इतना सब होते हुए भी यदि अपने सम्बन्ध में अभीष्ट ज्ञान प्राप्त न किया जा सका तो समझना चाहिए कि संसार में सम्बन्धित सुविस्तृत ज्ञान अपूर्ण और अपंग रह गया। अपने सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने का तात्पर्य है आत्म−ज्ञान। मोटी जानकारियाँ तो अपने सम्बन्ध में सभी को होती हैं। नाम, पता, वंश, स्वास्थ्य, शिक्षा, धन, परिवार, पद आदि के सम्बन्ध में पूछने पर कोई भी व्यक्ति आसानी से अपना परिचय दे सकता है पर यह तो बहिरंग परिचय हुआ। भौतिक जानकारी रही। आत्मज्ञान का तात्पर्य इससे गहरा है। अपनी सत्ता का तात्विक स्वरूप—जीवन का लक्ष्य—अन्तः चेतना की गरिमा—इच्छा और संकल्प शक्ति का महत्व—आदतों एवं आस्थाओं की प्रतिक्रिया आदि कितनी ही जानकारियाँ ऐसी है जिन्हें यदि ठीक तरह हृदयंगम न किया जाय तो व्यक्तित्व का विकास सम्भव न हो सकेगा। प्रस्तुत समस्याओं का हल न निकाला जा सकेगा और कोई कहने लायक जीवन—लाभ भी उपलब्ध न किया जा सकेगा। अपूर्ण और अविकसित—विपन्न और उलझे टूटे हुए व्यक्ति प्रायः वही होते हैं जिन्हें अपनी आन्तरिक विशेषताओं और क्षमताओं के सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी से वंचित रहना पड़ा।

चुम्बक लौह कणों को खींचकर अपने इर्द−गिर्द इकट्ठा कर लेता है। मनुष्य का आन्तरिक व्यक्तित्व ऐसा अद्भुत चुम्बक है कि सजातीय परिस्थितियों एवं व्यक्तियों को अनायास ही अपने निकट जमा कर लेता है। भली या बुरी परिस्थितियाँ अनायास ही कहीं से नहीं टपक पड़ती। मनुष्य की निज की जैसी भी स्थिति होती है उसी के अनुरूप समस्त परिकर धीरे−धीरे बनता रहता है और उनका एकत्रीकरण विशिष्ट परिस्थितियों के रूप में सामने आती है। जैसे भी कुछ हम होते है वस्तुतः वैसा बनने का बनाने का पूरा−पूरा उत्तरदायित्व अपना ही रहा होता है। व्यक्तियों तथा परिस्थितियों का योगदान तो उसमें नगण्य जितना ही रहता है।

मनुष्य जिस प्रकार—जिस दिशा में सोचता है—उसी प्रकार की उसकी जानकारी बढ़ती है और क्षमता विकसित होती है। संपर्क बनता है और साधन जुटते है। जो कुछ सोचा जाता रहेगा क्रमशः उसी दिशा में प्रगति होती जायगी। प्रगति की दिशा में सोचा जाय अथवा अवगति की दिशा में यह पूर्णतया अपने हाथ की बात है पर उस प्रतिफल से बचा नहीं जा सकता है। व्यक्ति कर्म करने में स्वतन्त्र है—हाँ फल प्राप्त करने में उसे नियति का पराधीन रहना पड़ता है। अशुभ चिन्तन करते रहें और समुन्नत परिस्थितियाँ प्राप्त हो जायँ यह नहीं हो सकता। यदि हेय स्तर के विचार मन में भरें रहेंगे तो कुकर्म करने की सुविधाएँ बढ़ती चलेगी और निकृष्ट स्तर का कर्तव्य दुखद दुष्परिणामों को दल−बल सहित सामने लाकर खड़ा कर देंगे। इस तथ्य को यदि ठीक तरह समझ लिया जाय तो जिस स्थिति में रहना या पहुँचना अभीष्ट हो उसी प्रकार के विचारों का संचय करने और निरन्तर मस्तिष्क में भरें रहने का सर्वप्रथम कदम बढ़ाना पड़ेगा। चिंतन की अवगति एवं अस्त-व्यस्तता को यदि देखा समझा न जायें उसमें सुधार परिवर्तन न किया जाय तो बाह्य क्षेत्र में भी अभीष्ट परिवर्तन सम्भव न होगा। जैसे विचार होते है वैसा जीवन का स्वरूप बनता है। इसी बात को यों भी कह सकते हैं कि जैसा बनता है उसी स्तर के विचारों की मनः क्षेत्र में स्थापना की जानी चाहिए।

विचारों के आधार पर क्रिया−कलाप की दिशा बनती है। दोनों के समन्वय से अभ्यास या स्वभाव बन जाता है। मन के रुझान को स्वभाव और शरीर के अभ्यास को आदत कहते हैं। स्वभाव और आदतों का नाम ही व्यक्तित्व है। विचारणाओं की असंख्य धाराएं इस संसार में बिखरी पड़ी हैं। वे एक दूसरे से सर्वथा भिन्न स्तर की है। उनमें से किन्हें अपनाया और किन्हें दूर रखा जाय यह निर्णय करना आस्थाओं का काम है। मूल मान्यताएँ इन्हीं को कहते हैं। हमें क्या बनना है —क्या करना है—क्या प्रिय है—क्या हितकर है जैसे महत्वपूर्ण निर्णय आस्थाओं के क्षेत्र में ही किये जाते हैं। बुद्धि इन निर्णयों का सहज समर्थन करने लगती है। उसका काम आस्थाओं के पक्ष में तर्क प्रमाण, उदाहरण आदि एकत्रित करके कुशल की तरह अपने ग्राहक का केस तैयार करना होता है। बुद्धि के निर्णय स्वतन्त्र नहीं होते, उनके पीछे संचित आस्थाओं के साथ पूरा−पूरा पक्षपात जुड़ा रहता हैं। निष्पक्ष चिन्तन कर सकने वाले तत्वदर्शी विवेकवान तो कोई विरले ही होते हैं।

हमें क्या बनना है—क्या प्राप्त करना है यह निष्कर्ष आस्थाएँ ही प्रस्तुत करती हैं। इस निर्णय को कार्यान्वित करने के लिए पहले मस्तिष्कीय शक्तियाँ आगे आती है इसके बाद शरीर की हलचलें भी उसी दिशा में चल पड़ती है सबको समान वस्तुएँ या समान परिस्थितियाँ प्रिय नहीं होती। लोगों की अभिरुचियों में जमीन आसमान जैसा अन्तर पाया जाता है। वह दूसरे को फूटी आँखों भी नहीं सुहाता। यह अन्तर पूर्णतया स्वनिर्मित है। भले ही हम उसे आगत या दैव प्रदत्त मानें। वस्तुतः प्रकृति प्रदत्त मूलभूत प्रवृत्ति शरीर रक्षा के मोटे प्रयोजन पूरे करने तक ही सीमित है। व्यक्तित्व को ढालने और उसे दिशा देने का काम पूरी तरह अपनी चेतना ही करती है। इस मर्मस्थल को सही रूप से समझा जा सके और उसे अवांछनीयता से हटा कर दूरगामी श्रेय साधना में लगाया जा सके तो समझना चाहिए कि आत्मज्ञान और आत्मबल की प्रखरता सिद्ध हो गई।

आमतौर से लोग बाह्य परिस्थितियों को ही प्रगति अवगति का—सुख दुख का कारण मानते हैं। इसलिए बाह्य साधनों को तलाशते अथवा मनुष्यों या देवताओं के अनुग्रह की याचना करते रहते है। असफलताओं या कठिनाइयाँ आती है तो भी ये किसी कारणों को अथवा व्यक्तियों को दोषी ठहराते है। सस्ते छूटने के लिए बेचारे ग्रह नक्षत्रों को—अथवा भाग्य प्रारब्ध को दोषी ठहरा कर सन्तोष कर लेते हैं। घटना क्रम गुजर चुका हो और जो हो चुका उसे बदला न जा सकता हो तो भाग्य प्रारब्ध की बात करना मन समझाने की दृष्टि से बुरा नहीं है। पर वस्तुतः वैसा कुछ होता नहीं। किसी का भी भाग्य पूर्व निश्चित नहीं है। प्रयत्नों और परिस्थितियों के आधार पर पूर्व कल्पनाओं, सम्भावनाओं आशंकाओं एवं योजनाओं में जमीन आसमान जैसा अन्तर हो सकता है। प्रारब्ध की बात पर जार दिया जाय जो वह भी पूर्व कृत कर्मों का प्रतिफल ही ठहरता है। ताजी या बासी का विवाद भर ही पुरुषार्थ और प्रारब्ध का झंझट है। कल के पुरुषार्थ को आज का प्रारब्ध परिपाक मानना पड़ता है। प्रारब्ध भी तो हम स्वयं ही बनाते हैं।

प्रस्तुत परिस्थितियों से छुटकारा और अभीष्ट आकाँक्षाओं का आधार निर्माण यह दोनों का कार्य हम सरलता पूर्वक स्वयं ही सम्पन्न कर सकते है। इसके लिए करना इतना भार पड़ेगा कि आत्म निरीक्षण की गहराई में उतरें-अपनी आस्थाओं और अभिरुचियों को टटोले—विचार प्रवाह की समीक्षा करे और आदतों का विश्लेषण करने में सूक्ष्म बुद्धि के सहारे जुट जायें। यह आत्म समीक्षा जितनी ही प्रखर होगी उतनी ही सरलता पूर्वक यह समझ में आ जायगा कि प्रस्तुत अवगति के मूलकारण अन्तः क्षेत्र में क्या-क्या हैं—और उन्हें किस प्रकार बदला—सुधारा जा सकता है। अन्तः प्रदेश को सुधारने और बदलने में यदि सफलता मिल सके तो समझना चाहिए कि भविष्य में जो कुछ बनने की आकाँक्षा है उसके लिए रुका हुआ मार्ग खुल गया और प्रगति की संभावना सुनिश्चित हो गई।

भौतिकवाद का अर्थ है सुख साधनों को बाहर खोजना और उसके लिए साधन जुटाना। अध्यात्मवाद का तात्पर्य है अभीष्ट प्रयोजन के लिए आन्तरिक क्षमताओं को विकसित एवं व्यवस्थित बनाना। यदि भौतिक प्रगति ही लक्ष्य हो तो भी यह आवश्यक है कि उसके लिए मान्यताओं, विचारणाओं एवं आदतों को तदनुरूप ढाला जाय। प्रगति की दिशा कुछ भी क्यों न हो सफलता इसी आधार पर मिलेगी। ऊपर से थोपी हुई मात्र समेटे हुए साधनों के आधार पर प्राप्त की गई सफलता न तो स्थिर रहेगी और न लाभदायक सिद्ध होगी। दूसरों के सहारे या आकस्मिक कारणों से यदि कुछ सफलता मिल भी जाय तो उससे दूरगामी प्रगति का आधार नहीं बनता और न आत्म सन्तोष का गर्व गौरव भरा आनन्द ही उपलब्ध होता है।

उच्च आदर्शों के अनुरूप जीवन ढालने—महामानव की भूमिका में विकसित होने—एवं अध्यात्म लक्ष्य प्राप्त करने के लिए सर्व प्रथम साधना, अपनी आस्थाओं—विचारणाओं और आदतों को उसी स्तर का विनिर्मित करना पढ़ता है। कदाचित वैसा लक्ष्य न हो और भौतिक सफलताएँ ही प्राप्त करने तक बात सीमित रखी जानी है तो भी सफल मनोरथ मनस्वी पुरुषार्थी व्यक्तियों के व्यक्तित्व का गहन पर्यवेक्षण करते हुए हमें इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि जा बनना हो उसके अनुरूप आवश्यक है। सफलताएँ चाहे आत्मिक हों चाहें भौतिक, उनके लिए गुण, कर्म, स्वभाव की अनुकूलता का होना अनिवार्य हैं।

वाह्य जगत की जानकारियाँ अधिकाधिक मात्रा में एकत्रित करते रहने में कुछ हर्ज नहीं पर उस ज्ञान के उपार्जन में भी दत्त-चित्त रहना चाहिए कि व्यक्तित्व का विकास ही सर्वतोमुखी प्रगति का केन्द्रबिन्दु है। इसलिए आत्म ज्ञान का गहनतम अनुशीलन होना चाहिए। अवाँछनीय मान्यताएँ एवं आस्थाएँ तो अन्तः स्थल में नहीं जमी बैठी हैं इन्हें परखना चाहिए और बुद्धि को यथार्थवादी समीक्षा कर सकने योग्य बनाना चाहिए। जो इतना कर सकेगा उसके लिए यह भी सम्भव होगा कि अभीष्ट प्रयोजन के लिए आवश्यक क्षमता उत्पन्न करने के लिए मनोयोग पूर्वक जुट जायें और जिन अयोग्यताओं एवं अभावों के कारण मार्ग अवरुद्ध पड़ा था उस व्यवधान का सरलता की किसी दिशा में बढ़ चलने का द्वार खोलता है। यह उपलब्धि आत्म ज्ञान के आधार पर ही प्राप्त की जाती है। इसलिए हमारी उपलब्धियों में उसे प्रथम स्थान की विभूति का स्थान दिया जाना चाहिए।


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