बाहर खोजें या अन्दर तथ्य एक ही है

April 1974

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पदार्थ भौतिक विज्ञानी ने सत्य को वस्तुओं में सन्निहित समझा और वह उनके अन्तराल में छिपी प्रकृति शक्तियों को खोजने में लग गया। इस खोज में वह जितना ही गहरा उतरा उतना ही अधिक आश्चर्यचकित रहता चला गया। एक−एक करके उसके सामने ऐसे अद्भुत शक्ति स्रोतों का रहस्योद्घाटन होता गया जिनकी सम्भावना कभी उसकी कल्पना में भी नहीं आई थी। उसे लगा यह विश्व जितना अद्भुत है उतना ही अनन्त भी। शायद इस वस्तु जगत की विलक्षणता को पूरी तरह समझ सकना मनुष्य की तुच्छ बुद्धि और नगण्य शोध उपकरणों द्वारा कभी भी सम्भव न हो सकेगा। प्रकृति की विशालता, सूक्ष्मता और शक्ति सम्पन्नता तो अचिन्त्य जैसी लगती है।

वैज्ञानिक अपने शोध कार्यों में निरत रहा—क्रमशः एक के बाद दूसरे चरण में कुछ अधिक भी पाता चला गया किन्तु उसने यह उत्साह शिथिल कर दिया जिसके अनुसार उसे प्रकृति के समस्त रहस्य जानने थे और भौतिक जगत की समस्त शक्तियों को करतलगत करना था।

योगी अन्तः जगत को खोजता चला गया। सामान्य जीवन क्रम में आन्तरिक क्षमता का जितना उपयोग साधारणतया होता रहता है—उसकी अपेक्षा उसकी शोधक दृष्टि ने जब गहराई में प्रवेश किया तो देखा गया कि जितना सोचा जाता रहा है उससे कहीं अधिक समर्थता और सम्भावना अपने भीतर भरी पड़ी है। योगी आश्चर्यचकित रह गया।

चेतना का विशाल सागर इस ब्रह्माण्ड में बिखरा पड़ा है। उसी ने पदार्थ को उत्पन्न किया और उसमें विविध−विधि विलक्षणताएँ भर दीं—उनके अन्तराल में एक से एक अद्भुत क्षमताएँ नियोजित कर दीं प्रकृति जगत में सूक्ष्म से सूक्ष्म स्तर प्रदेश में प्रवेश करते हुए भौतिक विज्ञानी ने जो कुछ देखा था—और जैसा कुछ अवाक् कर देने वाला वैभव देखा था आत्म विज्ञानी की अनुभूति उससे भी अधिक स्तब्ध कर देने वाली थी। चेतन ने ही तो जड़ को उत्पन्न किया है। शिशु की तुलना में उसकी जननी की सामर्थ्य जितनी अधिक होती है उससे असंख्य गुना अनुपात जड़ और चेतन के बीच पाया गया। वैज्ञानिक जो प्राप्त करता चला जा रहा था—योगी ने उससे कम नहीं अधिक ही पाया। विज्ञानी को प्रकृति विजय पर जिस गर्व गौरव को प्राप्त करने की आशा थी योगी की आशाएँ उसकी तुलना में अत्यधिक ऊंचाई तक चली गई। वह सोचने लगा अनन्त चेतना के साथ संपर्क मिला कर तुच्छ प्राणी अनन्त शक्ति सम्पन्न उसी प्रकार बन सकता है जिस प्रकार वर्षा की एक बूँद समुद्र में अपने आपको घुला कर विशालकाय सागर के रूप में अपने अस्तित्व को सुविस्तृत बना लेती है।

विज्ञानी यह सोचता था कि प्रकृति की गहराई में जितना गहरा उतरा जायगा उतने ही शक्ति शाली आधार हाथ लगते चले जायेंगे और अनन्त उसे सृष्टि का अधिपति एवं संचालनकर्ता नियामक बनने का अवसर मिल जायगा। प्रकृति पर विजय प्राप्त करके वह उत्पादक, पोषक एवं परिवर्तनकर्त्ता की ब्रह्मा, विष्णु, महेश की भूमिका निभा सकेगा। उसके हाथ में जितना ही कर्तृत्व होगा जितना आज प्रकृति पुरुष के हाथ में दिखाई देता है।

योगी की कल्पना भी कुछ−कुछ इसी से मिलती−जुलती थी। उसकी यह आशा बलवती होती चली जा रही थी कि अनन्त चेतना के अधिपति के साथ स्वल्प चेतना की भागीदार बनाया जा सकता है और चित् शक्ति प्राणियों की प्रवृत्ति का जैसा अद्भुत सूत्र−संचालन कर रही है उसका उत्तराधिकार साधना द्वारा उपलब्ध किया जा सकता है। आत्मा को परमात्मा के स्तर पर पहुँचाया जा सकता है।

प्रकृति गत परमाणुओं के भीतर विद्यमान ‘नाभिक’ के भीतर इतना समर्थता संव्याप्त है कि एक ही अणु की सामर्थ्य एक ग्रह पिण्ड का अभिनव सृजन करने में पूरी तरह समर्थ है अथवा एक पूरे नक्षत्र को चूर्ण विचूर्ण करके आकाश में उड़ा सकती है। जब यह तथ्य विज्ञानी की समझ में आया तो उसने नये सिरे से सोचना आरम्भ किया—समस्त जगत में बिखरी पड़ी अनन्त शक्तियों की खोज में भटकने की अपेक्षा एक परमाणु को केन्द्र बनाकर उस पर अपने शोध को सीमाबद्ध किया जाय? क्यों न एक ही अणु विश्लेषण से समस्त सृष्टि का रहस्य जान लिया जाय? जितनी गहराई तक विचार किया उतना ही यह विचार अधिक युक्ति संगत प्रतीत हुआ और वह सुविस्तृत क्षेत्रों में यत्र तत्र विशालकाय शोध संस्थानों को स्थापित करने की योजना छोड़कर परमाणु के मध्य में रहने वाले ‘नाभिक’ का अन्वेषण करने में दत्त−चित्त हो गया।

यही हाल योगी का भी हुआ। आरम्भ में वह अनेक देवताओं की अनेकानेक शक्तियों पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए भयानक तन्त्रानुष्ठानों की योजना बना रहा था—पीछे उसने ब्रह्म उपासना की बात सोची और ब्रह्मवर्चस् उपलब्ध करके आत्मा को परमात्मा के सिंहासन पर बिठाने की तैयारी की। इसकी योजना और भी सुविस्तृत थी। इसके लिए विशालकाय यज्ञानुष्ठानों का आयोजन करना था। तप−साधना और योगाभ्यास की वैसी प्रक्रिया बननी थी जो चेतना के समुद्र को मथकर रख दे। पौराणिक समुद्र मंथन में चौदह रत्न निकले थे योगी ने ब्रह्म मंथन करके न जाने कितने रत्न पाने का स्वप्न देखा था। इसका कुछ ठीक से पता नहीं चल सका।

विशालता के विस्तार से थकी बुद्धि विज्ञानी को अणु के अन्तराल में छिपे ‘नाभिक’ तक सीमाबद्ध होने की बात पर सहमत हो गई थी। योगी को भी यहीं लौटना पड़ा। विशाल ब्रह्म की परिधि अनन्त ब्रह्माण्डों से भी अधिक थी। उसे समग्र रूप से प्रभावित करना और उसके उत्तरदायित्वों को अपने कंधे पर लेना तभी तक अच्छा लगता रहा जब तक उसने अपनी तुच्छता पर विचार नहीं किया। अहम् की स्वल्प सीमा और परम् की असीम सत्ता का जब तुलनात्मक निरीक्षण किया तो योगी की बुद्धि भी थक कर बैठ गई और सोचने लगी जब पिण्ड के भीतर ही ब्रह्माण्ड की सत्ता बीज रूप से विद्यमान है और आत्मा के केन्द्र पर ही परमात्मा के समस्त तत्व केंद्रीभूत हो रहे हैं तो क्यों न अपने निरीक्षण परीक्षण में सीमित हुआ जाय? जब अन्त की प्राप्ति का प्रतिफल ही वही को प्राप्त करना हो सकता है तो अपनी आराधना करने में ही क्या हर्ज है। योगी आत्म साधना में लग गया उसने ब्रह्मोपासना को ध्यान में रखकर बनाई गई विशालकाय योजनाओं का परित्याग कर दिया।

विज्ञानी अपनी शोध में लगा रहा, योगी अपनी साधना में। दोनों इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि विराट् की उपलब्धि के लिए विराट् पर केन्द्रित होने से काम चल सकता है। दोनों ने कुछ दिन एक और भी तथ्य खोजा कि अन्तः का प्रवेश और बहिः का उन्मेष दोनों अन्ततः एक ही स्थान पर जा पहुँचते हैं।

बहिः की विशालता में भटक कर सत्य और तथ्य को प्राप्त करना दोनों को ही कठिन लगा, उनने निश्चय किया अन्तः को ही खोजना उपयुक्त है और सरल भी।

तब से अब तक दोनों ही सत्य शोधक अपने−अपने ढंग से—साधना में निरत हैं। यह समझते हुए भी कि वे दो तथ्यों को खोज रहे हैं और दो दिशाओं में जा रहे हैं। वस्तुतः उनका प्रयास एक ही दिशा में हैं।

प्रजापति ने दोनों को ही सराहा, दुलारा और दोनों का उत्साह अपना−अपना काम करते रहने के लिए उभारा वे जानते थे कि बाह्य को खोजने वाला अन्तः की चरम सीमा तक पहुँच कर ही सकेगा और जो अन्तः को खोज रहा है उसका समाधान विराट् बहिः का स्पर्श किये बिना हो नहीं सकेगा। प्रकृति की उपासना पुरुष तक पहुँचे बिना पूर्ण न हो सकेगी और न पुरुष की उपासना प्रकृति की उपेक्षा करके पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर सकेगी।

अखण्ड−ज्योति परिवार के परिजनों को—उन जागृत आत्माओं को उस मणिमाला के बहुमूल्य मुक्त क माना जाना चाहिए जिन्हें युग देवता का अवतरण अभिषेक करते हुए सर्व प्रथम गले में पहनाया जाता है।

इस परिवार के सदस्य मात्र एक पत्रिका के ग्राहक पाठक नहीं है वरन् उनके व्यक्तित्व में चिरकालीन सुसंस्कारों की एक अति महत्वपूर्ण सम्पदा जुड़ी हुई है। यदि ऐसा न होता तो पिछले कुछ ही समय में उसने युग परिवर्तन की दिशा में इतने अद्भुत कदम न उठाये होते जिसे निकट से देखने वालों को आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण कभी एक सुखद स्वप्न भर समझा जाता था अब वह एक तथ्य सामने आ रहा है। अपना परिवार अगले दिनों नव निर्माण की दिशा में जो भूमिका सम्पादित करने जा रहा है वह ऐतिहासिक साहसिकता भावी पीढ़ियों द्वारा चिरकाल तक भुलाई न जा सकेगी।

अखण्ड−ज्योति परिवार को−जागृत आत्माओं को कुछ विशेष प्रशिक्षण, परामर्श, प्रकाश एवं अनुदान प्राप्त करने के लिए पिछले अंकों में आह्वान किया गया है। सन् 74 की अखण्ड ज्योति में अपनों से अपनी बात स्तम्भ के अंतर्गत परिजनों को ऐसा ही आमन्त्रण भेजा गया है।

प्रकाश पूर्ण प्रशिक्षण के लिए आह्वान—आमन्त्रण

वाला प्रकाश और आत्मबल प्राप्त करने का जो अवसर सामने है उसकी उपेक्षा न की जाय। समय निकल जाने पर पश्चात्ताप ही हाथ रह जाता है।

प्रबुद्ध परिजनों को इस अलभ्य प्रशिक्षण योजना में स्वयं आगे बढ़ कर सम्मिलित होने का प्रयास करना चाहिए। व्यस्तता और कठिनाइयों के रहते हुए भी इस अवसर क लाभ लेना चाहिए। साथ ही यह भी प्रयत्न करना चाहिए कि उपयुक्त अन्य व्यक्तियों को भी इसके लिए प्रोत्साहित किया जाय। उपयुक्त शब्द का इसलिए प्रयोग किया गया है कि अधिकारी और सत्पात्र व्यक्तियों को समुचित लाभ मिल सके। जागृत आत्माओं के लिए इस विशिष्ट अवसर में, प्रायः ऐसे लोग कौतूहलवश अथवा सकाम स्वार्थों की पूर्ति के लिए घुस पड़ते हैं जिनका लक्ष्य आध्यात्मिक प्रगति अथवा महान उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं है। ऐसे लोगों की घुसपैठ रोकने और अधिकारी पात्रों को अवसर से लाभ उठाने के लिए उपयुक्त सत्पात्रों को ही प्रवेश मिल सके तभी मूल प्रयोजन की पूर्ति होगी।

प्रशिक्षण के लिए पाँच स्तर की सजग आत्माओं का आह्वान किया गया है—(1)साधना पथ पर चलते हुए आत्म−बल प्राप्त करने वालों के लिए पाँच−पाँच दिन के प्रत्यावर्तन सत्र, (2) लोक−मंगल के लिए समय दे सकने वाले युग−निर्माण कर्त्ता सैनिकों के लिए दो−दो महीने के वानप्रस्थ सत्र (3) सुशिक्षित एवं स्वाध्यायशील विचारकों के लिए पन्द्रह−पन्द्रह दिन के लेखनी सत्र (4) मधुर कण्ठ एवं संगीत में गति रखने वाले प्रचार प्रयोजन के लिए उपयुक्त स्थिति वाले व्यक्तियों के लिए तीन−तीन महीने के संगीत सत्र (5) महिला जागरण में रुचि लेने वाली—हलके डडडड उत्तरदायित्वों वाली—शिक्षित महिलाओं के लिए तीन−तीन महीने के नारी उत्थान सत्र।

जिनकी स्थिति इन पाँचों में से किसी में सम्मिलित होने के कारण उपयुक्त हो उन्हें उसके लिए अपना विस्तृत परिचय लिखते हुए आवेदन पत्र भेजने चाहिए और स्वीकृति प्राप्त होने के उपरान्त ही आने की तैयारी करनी चाहिए।

प्रशिक्षण शृंखला में ‘प्रत्यावर्तन सत्र’ उनके लिए है जिन्हें आत्म−बल सम्पादन के लिए साधनात्मक मार्ग−दर्शन अपेक्षित है। उन्हें पाँच दिन की—पंचाग्नि विद्या का वह प्रशिक्षण मिलेगा जो कठोपनिषद् में वर्णित है और यम के द्वारा नचिकेता को प्राप्त हुआ था। अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश और आनन्दमयकोश के अनावरण को ही चक्रवेधन भी कहते हैं। कुण्डलिनी जागरण इसे साधना क्रम की चरम परिणति है। यह साधना डडडड जीवन में रहते हुए—सामान्य कार्य व्यवसाय चलते हुए भली प्रकार होता रह सकता है। इसके लिए पंच दिन का प्रशिक्षण निर्धारित है। जो लोग पहले से ही गायत्री उपासना के अभ्यस्त रहे हैं उन्हीं के लिए यह उपयुक्त रहेगा। सर्वथा प्रारम्भिक उपासना आरम्भ करने वालों को यह सब हजम न होगा इसलिए इस वर्ष में उन्हें को भाग लेना चाहिए जो कम से कम एक वर्ष नियमित रूप से गायत्री उपासना कर चुके हों। आशा की जानी चाहिए। इस साधना—क्रम, परामर्श एवं आत्मिक अनुदान ने त्रिविध प्रक्रिया के साथ सम्पन्न प्रशिक्षण के आधार पर आत्मिक प्रगति के पथ पर बढ़ चढ़ने के जिज्ञासु समुचित लाभ प्राप्त कर सकेंगे।

प्रत्यावर्तन रूपों में गत वर्ष जिन्हें सम्मिलित होने का अवसर नहीं मिला था, वे अब पुनः आवेदन पत्र भेज कर इस वर्ष सम्मिलित हो सकते हैं। पुराने आवेदन पत्रों को पड़े हुए बहुत दिन बीत जाने के कारण अब वे रद्द कर दिये गये हैं

दूसरा प्रशिक्षण ‘वानप्रस्थ’ स्तर का हैं। दूसरे शब्दों में इसे युग−निर्माण सेना के सृजन सैनिकों की शिक्षा−दीक्षा कहनी चाहिए। जिनके पारिवारिक उत्तरदायित्व पूरे हो चुके और शेष जीवन लोक−मंगल के लिए दे देना चाहते हैं वे वरिष्ठ वानप्रस्थ हैं। जिनके पारिवारिक उत्तरदायित्व पूरे नहीं हुए हैं जिन्हें अभी घर परिवार को सम्भालना शेष है वे थोड़ा−थोड़ा समय देकर नव−निर्माण की युग साधना में संलग्न रहेंगे।

वानप्रस्थ की सैद्धान्तिक शिक्षा शान्ति−कुञ्ज में एक−एक मास की चलेगी। इसके बाद वरिष्ठ वानप्रस्थों को कई−कई महीनों के लिए और कनिष्ठ वानप्रस्थों को कम से कम एक महीने के कार्य क्षेत्र में अपनी व्यावहारिक शिक्षा पूर्ण करने के लिए जाना पड़ेगा। पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त लोग कई महीने बाहर रहने की तैयारी करके आयें और कनिष्ठ वानप्रस्थ कम−से−कम दो महीने की। छुट्टी तो उन्हें सवा दो महीने की लन चाहिए ताकि पूरे दो महीने शिक्षा में और एक सप्ताह आने जाने में लगाने में कोई अड़चन उपस्थित न हो।

इस प्रशिक्षण में व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण के त्रिविध उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपनाई जाने वाली प्रचारात्मक, रचनात्मक, संघर्षात्मक कार्य−पद्धति का सांगोपांग प्रशिक्षण किया जायगा। धर्म मंच से जन−जागरण का प्रयोजन कैसे पूरा हो सकता है और उसके लिए सृजन सेना के सैनिकों को अपने में क्या−क्या क्षमताएँ उपार्जित करनी चाहिए यह सब सीखने का अवसर मिलेगा। वक्तृत्व कला का आवश्यक अभ्यास कराया जायगा और यह बताया जायगा कि उन्हें लोक नेतृत्व के लिए अपनी क्षमता किस प्रकार बढ़ानी चाहिए। व्यक्ति एवं समाज के सामने प्रस्तुत समस्याओं से निपटने के लिए किस स्थिति में—किस प्रकार क्या कदम उठाने चाहिए। यह जानकारियाँ एक महीने की सैद्धान्तिक शिक्षा में पाई जा सकती है इन प्रशिक्षणों का व्यावहारिक रूप कार्य क्षेत्र में—शाखा संगठनों में जाकर ही प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए उस अवधि को भी शिक्षा में ही सम्मिलित रखा गया है।

गृह निवृत्त वानप्रस्थ अधिकाधिक समय कार्यक्षेत्र में रहेंगे और कनिष्ठ वानप्रस्थों को दो महीने के शिक्षण काल में भी एक महीने बाहर रहना पड़ेगा और भविष्य में हर वर्ष एक महीना घर से बाहर जन−जागृति का पुण्य प्रयोजन पूरा करने के लिए देते रहना होगा। लोक−मंगल की युग साधना के लिये जिनके मन में भावनाएँ उमड़ती हैं उन्हें इस वानप्रस्थ शिक्षा प्रक्रिया में सम्मिलित होने पर एक अत्यन्त उपयोगी प्रकाश प्राप्त होगा, यह निश्चित है।

तीसरा सत्र—लेखनी शक्ति का जन−जागरण के लिये प्रयोग कर सकने की क्षमता संपन्न लोगों के लिये है। इसमें के वल वे लोग ही लिये जायेंगे जिनकी शैली समुचित स्तर की है, जो विचारक प्रकृति के हैं और स्वाध्यायशील रहे हैं। जिन्हें पहले से भी कुछ लिखते रहने का अभ्यास रहा है। ऐसे ही लोगों को स्वल्प अवधि में निखार देकर पत्र−पत्रिकाओं में लिखने तथा युगान्तरकारी साहित्य सृजन के महत्वपूर्ण कार्य में जुटाया जा सकता है। इन सत्रों में छात्रों को सम्मिलित कर सकना सम्भव न होगा। लेखन के लिए दीर्घकालीन स्वाध्याय होना आवश्यक है। मात्र स्कूली अक्षर ज्ञान से वह विचारकता उत्पन्न नहीं हो सकती जो कुशल और सफल लेखन के लिए आवश्यक है। कभी सुविधा हुई तो छात्रों और नव−युवकों को भी इस प्रकार के शिक्षण की व्यवस्था करेंगे अभी तो प्रौढ़,स्वाध्यायशील और अनुभवी ही इस दिशा में संक्षिप्त मार्ग−दर्शन देकर कार्यक्षेत्र में उतारने की बात है।

यह शिक्षण वर्तमान स्थिति में पन्द्रह−पन्द्रह दिन का है। आवश्यकतानुसार उसे एक महीने का भी किया जा सकेगा। शिक्षा अवधि पन्द्रह दिन की ही है पर तैयारी इस प्रकार की करके भी आना चाहिए कि आवश्यकतानुसार यदि एक महीने रुकना पड़े तो उसमें भी कठिनाइयों न हो।

चौथा शिक्षण संगीत का है। सुगम संगीत पद्धति से निरन्तर परिश्रम करके तीन महीने में इतनी योग्यता हो सकती है कि युग गायक की—भजनोपदेशक की आवश्यकता पूरी की जा सके। जिनके गले मधुर हैं जिन्हें पहले से भी कुछ गाने बजाने का अभ्यास रहा है उन्हें ही उसमें प्रवेश मिलेगा। संगीत प्रक्रिया से सर्वथा अनजान, कण्ठ की मधुरता से रहित लोग इसमें प्रवेश करेंगे तो उन शिक्षार्थियों और अध्यापकों का श्रम, समय बेकार ही नष्ट होगा। इसी प्रकार जो शौकिया अपने व्यक्ति गत मनोरंजन के लिए संगीत सीखना चाहते हैं उनके लिये भी गुंजाइश नहीं है। यह शिक्षण तो केवल उनके लिए आरम्भ किया जा रहा है जिनकी स्थिति प्रचार कार्य में घर से बाहर समय समय पर जाते रहने और जन−जागृति का प्रयोजन पूरा करते रहने के लिये उपयुक्त है। जिनके लिये प्रचार कार्य में बाहर जाते रहना सम्भव नहीं उन्हें व्यक्ति गत योग्यता वर्धन के लिये अपने स्थानीय संगीत शिक्षकों से ही संपर्क बनाना चाहिए। शान्ति−कुञ्ज की समस्त शिक्षाएँ जन−जागरण में परमार्थ बुद्धि से भाग लेते रहने के लिये व्याकुल लोगों के लिये ही है।

भारत की पचास प्रतिशत जनसंख्या नारी समाज के रूप में दयनीय एवं पिछड़ी स्थिति में पड़ी हुई है। उसे ऊँचा उठाने के लिए विशेष प्रयत्नों की आवश्यकता है। नारी संगठन—नारी परिष्कार—नारी शिक्षण के त्रिविध आन्दोलन हमें अगले दिनों खड़े करने ही पड़ेंगे। इसके लिये ऐसी महिलाओं की आवश्यकता पड़ेगी जो शिक्षित भी हों और नारी जागरण आन्दोलन में भाग ले सकने की स्थिति में भी हों। ऐसी महिलाओं के लिये तीन−तीन महीने के शिक्षण सत्र चलाये जा रहे हैं।

जिनके ऊपर पारिवारिक उत्तरदायित्व नहीं हैं वे वर्तमान शाखा संगठनों में जाकर नारी जागरण की त्रिविध प्रवृत्तियों का आरम्भ करने के लिये स्थानीय महिलाओं को प्रशिक्षित करेंगी। उनके प्रयास से देशव्यापी नारी आन्दोलन का शुभारम्भ एवं अभिवर्धन होगा। जिनके ऊपर बच्चों की जिम्मेदारी नहीं है वे घर से बाहर जाकर काम कर सकती हैं, पर रास्ता उनके लिये भी बन्द नहीं है जो घर, परिवार के उत्तरदायित्वों से घिरी हुई हैं। वे स्थानीय महिला प्रौढ़ पाठशाला चला सकती हैं जो अगले दिनों हर शाखा संगठन में मध्याह्न काल दो से पाँच तक तीन घण्टे के लिये चलाया ही जाना चाहिए। युग निर्माण शाखाओं के कार्यकर्ता अपने घर की सुशिक्षित महिलाओं को यदि इस प्रयोजन के उपयुक्त समझे तो तीन महीने के प्रशिक्षण के लिये भेज सकते हैं। उन्हीं महिलाओं को प्रवेश मिलेगा जो बिना बच्चों के शिक्षा में आ सकती हैं। बच्चों के साथ शिक्षणक्रम चल सकना असम्भव है।

इस तीन मास में महिलाओं को सुगम संगीत का आवश्यक ज्ञान कराया जायगा और कई प्रकार के गृह−उद्योग सिखाये जावेंगे, प्रायः सभी प्रकार की घरेलू सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, बिस्कुट, डबलरोटी, लेमजूस, टॉफी आदि बनाना, रबड़ की मुहरें बनाना, साबुन, मोमबत्ती, स्याही, सुगन्धित तेल तथा तरह−तरह के खिलौने बनाना जैसे, वे गृह−उद्योग भी सिखा दिये जायेंगे जिससे महिलाएँ अर्थ उपार्जन करके स्वावलम्बी भी बन सकें।

नारी जागरण के लिए जहाँ भी प्रशिक्षण आरम्भ होगा वहाँ सुगम संगीत का—सिलाई आदि गृह−उद्योगों का—तथा नारी जीवन से सम्बन्धित पारिवारिक तथा अन्यान्य समस्याओं का समाधान सिखाया जायगा। इसके लिये सभी आवश्यक शिक्षाएँ इन तीन महीने के सत्रों में प्रस्तुत की जायेंगी। ताकि प्रशिक्षित महिलाएँ अपने क्षेत्र में नारी जागरण की महती युग आवश्यकता को पूरा कर सकने में समर्थ हो सकें। वे कुशल संगठन कर्त्री एवं प्रचारिका होकर लौटे ऐसा शक्ति भर प्रयास किया जायगा।

उपरोक्त पांचों शिक्षाएँ अगले दिनों शांतिकुंज में चलती रहेंगी। शिक्षार्थियों की संख्या—समय क की माँग—प्रशिक्षण सुविधा इन तीनों ही बातों को ध्यान में रखते हुए सत्र के समय घोषित किये जा सकेंगे। पहले से ही उनका स्थिर कार्यक्रम बन सकना सम्भव नहीं। हाँ छै−छै महीने के कार्यक्रम घोषित किये जाते रहेंगे। अभी−अभी अगली छमाही के लिये जो कार्यक्रम निर्धारित किये गये हैं। वे इस प्रकार हैं—

25 मई से 8 जून तक पन्द्रह दिवसीय प्रथम लेखनी सत्र।

10 जून से 24 जून तक द्वितीय लेखनी सत्र।

1 जुलाई से 30 सितम्बर तक प्रथम महिला शिक्षण सत्र।

1 अक्टूबर से 30 दिसम्बर तक द्वितीय महिला शिक्षण सत्र।

27 अक्टूबर से 10 नवम्बर तक तृतीय लेखनी सत्र।

1 जुलाई से 22 अक्टूबर तक पाँच−पाँच दिन के प्रत्यावर्तन सत्र—लगातार।

20 नवम्बर से 20 दिसम्बर तक वानप्रस्थ शिक्षण सत्र।

संगीत शिक्षण सत्र का समय अभी निर्धारित नहीं किया गया है। छात्रों की संख्या तथा प्रशिक्षण व्यवस्था के अनुरूप उसका समय पीछे घोषित किया जायगा।

उपरोक्त सभी सत्रों में के वल उन्हें ही प्रवेश मिलेगा जो अखण्ड−ज्योति पत्रिका के कम−से−कम एक वर्ष से नियमित पाठक रहे हों—जिन्हें कोई छूत की तथा दूसरों को कष्ट देने वाली खाँसी, दमा, दस्त आदि की बीमारी न हों—जिनमें आलस्य, आवेश, अनुशासन हीनता जैसे दुर्गुण न हों।

शान्ति−कुञ्ज में पर्यटकों एवं दर्शनार्थियों के लिए ठहरने क की व्यवस्था नहीं है। जिन्हें व्यक्ति गत भेंट परामर्श के लिए आना हो वे पहले धर्मशाला आदि में अपने ठहरने का प्रबन्ध करें पीछे निश्चित होकर मिलने आये मिलने का समय एक बजे से पाँच बजे के बीच में ही रहता है और मौसम के अनुरूप उसमें थोड़ा हेर−फेर होता रहता है। दर्शनार्थी बाल−बच्चों समेत यहाँ ठहरने की बात सोच कर आने लगें तो फिर समझना चाहिए कि शिक्षण सत्रों का चलना असम्भव हो जायगा। इसलिये अनिश्चिततापूर्वक यह प्रतिबन्ध लगाना पड़ा है।

उपरोक्त सत्रों में जिन्हें आना हो उन्हें आना (1) नाम (2) पूरा पता (3) आयु (4) शिक्षा (5) व्यवस्थायें (6) पारिवारिक उत्तरदायित्वों का विवरण (7) अखण्ड−ज्योति के नियमित पाठक चले आने क की अवधि (8) अब तक के क्रिया−कलापों का उल्लेख (9) शरीर का रुग्णता और आलस्य, अवज्ञा, आवेश एवं अनुशासनहीनता जैसे दुर्गुणों से रहित होने की पुष्टि (10) शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त जो कर सकने की सम्भावना हो उसका पूर्वाभास इन दस प्रश्नों का विस्तार पूर्वक उल्लेख करना चाहिए। बिना अपना विस्तृत परिचय दिये किसी सत्र में प्रवेश की स्वीकृति माँगने वालों के आवेदन पत्रों पर विचार किया जा सकना सम्भव न होगा।

अखण्ड−ज्योति परिवार के जिन परिजनों को उपरोक्त प्रयोजनों में अभिरुचि हो उन्हें उस प्रशिक्षण व्यवस्था से लाभ उठाने के लिये आग्रह पूर्वक आमन्त्रित किया जा रहा है, और आशा की जा रही है कि जागृत आत्माएँ इस अवसर का उपयोग करके अपना और अपने समाज का महत्वपूर्ण हित साधन कर सकने में समर्थ हो सकेंगी।


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