हृदय रोगों का कारण और निवारण

April 1974

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विश्व स्वास्थ्य संगठन के सर्वेक्षण के अनुसार एक लाख के पीछे 456 मौतें हृदय रोगी की है। केन्सर की विभीषिका का नम्बर इसके बाद आता है। अन्य सब रोगों का नम्बर इसके बाद का है।

हृदय के दौरे क्यों आते हैं और उनका उपचार क्या हो सकता है यह जानने से पहले हमें इस महत्वपूर्ण अवयव की संरचना की थोड़ी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए।

हृदय चार कक्षों में विभक्त है।दाई ओर के दो का काम यह है कि वे रक्त को फेफड़ों में भेजकर उसमें आक्सीजन का सम्मिश्रण करायें। बाईं ओर के दो कक्षों का काम यह हे कि शुद्ध रक्त को सम्पूर्ण शरीर में भेजें। दो निकास नलियाँ हृदय से निकलती है। (1) पल्मोनरी आटंरी−धमनी, (2) एओर्ट−महाधमनी, पहली फेफड़ों तक जाती है और दूसरी शेष शरीर को। महाधमनी में ऐसे वाल्व होते हैं जो एक ही दिक्षा में खुले और बन्द हों। उसी विशेष व्यवस्था के कारण रक्त उल्टा नहीं लौट सकता।

बुढ़ापे से लेकर आहार−बिहार तक की विकृतियाँ और दुश्चिन्तायें जैसे कारण मिलकर हृदय रोप उत्पन्न करते हैं। खराबी फरीर में अधिक चार्दी वाले रसायन कोलेस्टेरोल−इकठ्ठा होने से आरंभ होती है। इससे धमनियों में जकड़न−आर्थेरोस्वलेरोसिस की शिकायत बढ़ती है। नाड़ियाँ मोटी और बड़ी होती चली जाती है। दूसरी ओर रक्त में चर्बो केंथक्के−थ्रोम्विन− बढ़ते है और वे इन कड़ी नाड़ियों में उलझते हैं। जब तक नाड़ियों में कोमलता रहती है तब तक वे रबड़ की तरह रहती है पर जब ते अकड़ जाती है तो उनकी फूलने फलने की क्षमता कुण्ठित हो जाती है। इसी दशा में थक्के जब अड़ जाते हैं तो रास्ता रुक जाता है और दिल का दौरा सामने आप्त है। नाड़ियों में बढ़ने वाली कठोरता अन्ततः हृदय की कठोरता−स्टेनाकार्डिया−में परिणत होती है और वह कठोरता जब रक्त भिषरण में अड़चन उत्पन्न करती है तो स्थानीय संघर्ष उठ खड़ा होता है और सूजनया घाव का जन्म देता है। इसी परिस्थिति का डाक्टरों की भाषा में मायोकार्डियल इन्फ केशन कहते हैं। क्रमिक रूप से बढ़ती हुई यह विकृतियाँ हृदय रोगों की छोटी−बड़ी साध्य असाध्य−स्थिति के रूप में जानी जाती है।

दिल के दौरे के यों अनेक कारण और अनेक स्वरूप हो सकते है पर ‘हार्ट अटैक’ नाम से प्रचलित व्यथा में अधिकाँश रोगियों को एक ही कठिनाई का सामना करना पड़ता कि हृदय को रक्त लाने ले जाने वाली नाड़ियों का पीलापन घट जाता है और उनकी दीवारें कठोर हो जाती है। एक ओर तो नाड़ियों की यह सिकुड़न तथा कठोरता ओर दूसरी ओर सक्त में चर्बी की तथा खून की फूटकी सी बढ़ने लगती है। यह फुअकी रक्त नाड़ियों में अटके जाती है तो हृदय के और भूख में तड़प कर मरने लगता है। यह तड़पन त्रिल के दर्द के रूप में प्रकट होती है। यह आँशिक क्षति हुई। नसों पर श्रम जन्य दबाव न पड़े तो आहिस्गी के साथ उस अवरोध का कोई न कोई मार्ग निकाल देती है। ऐसा भी हो जाता है कि जो दूसरी नाड़ियाँ उस क्षुधित स्थान को रक्त पहुंचाती थी्रं अधिक सक्रिय होकर अवरोध अड़ गया था उसमें कुछ अधिक बड़ा संकट न रहें।

कभी−कभी हृदय की कोई दीवार ही घायल हो जाती है या कोई अंग ठीक तरह काम कर सकने के अयोग्य हो जाता है तब भी दिल में दर्द या दौरे पड़ने लगते है। बूढ़ा और कमजोर है और उसकी चाल घटने−बढ़ने से लेकर सक्त के अवरोध तथा घर्षण से सह्य या असह्य पीड़ा होने लगती है। कहना न होगा कि हृदय की विपत्ति का प्रभाव समस्त शरीर पर पड़ता है। रक्त का शोधन आर संभरण ठीक तरह न होने पर अंगों को न तो उचित मात्रा में रक्त मिलता और न वह आवश्यक शक्ति देने योग्य शुद्ध होता है ऐसी दशा में शिर चकराने से लेकर पसीना छूटने तक अनेकों प्रकार के उपद्रव विभिन्न स्थानों पर उठ खड़े हो सकते हैं। हृदय का दौरा पड़ने पर शरीर की प्रायः सभी स्वाभाविक क्रिया−प्रक्रियायो लड़खड़ा सकती है।

हृदय रोगों के यों अनेकों भेद, उपभेद हैं पर उनमें तीन मुख्य है−(1) ऐजाईनर पैक्टोरिस, (2) कोरोनरी थ्रोम्बोसिस,, (3) कोरोनरी ऐम्वोलिज्म। कोरोनरी ऐम्वोलिज्म।

ऐंजाइना पैक्ओरिस में दर्द अधिक होता है, रोगी जोर से चिल्लाता है और बेहोश हो जाता है। दर्द का फै लव सरने के दाँये−बाँये, कन्छे, गर्दन और बाजू तक बढ़ जाता है। ऐसे दौरे अक्सर का करत−करते पड़ जाते है। ब्लड़ प्रेसर, डाइविटिज, मिफ लिस जैसे रोग पहले से मौजूद हों तो वे इसे आमंत्रित करते रहते है।

कोरोनरी थ्रोम्बोसिस का दर्द हल्का और लगातार कई दिनों तक टिकने वाला होता है। इस तरह के दौरे प्रायः 40 वर्ष से ऊपर के लोगों पर ही इसका आक्रमण होता है। पसीना छूटना, मुँह से लार गिरना, जैसे लक्षण दिखाई पड़ते हैं।

कोरोनरी एम्बोलिज्म उस स्थिति में जिसमें कोई रक्त की फुटकी हृदय नाड़ी में अड़ी होती हो, हड्डी टूटने पर उस जगह से हवा का रक्त के साथ मिलकर बुलबुला उत्पन्न करना और उसका हृदय में रुक जाना भी इस उपद्रव का कारण होता देखा गया है।

दिल के दौरे का एक कारण फ्योक्रमो साइटोमा एक प्रकार का ट्यूमर भी जो एड्रीनल रस ग्रन्थि में जाया जाता है। मानसिक तनाव बना रहने पर यह संकट भी उत्पन्न होता है और उसका प्रभाव दिल के दौरे तक जा पहुँचता है। अधिक दिमागी काम करने वाले अथवा परेशान रहने वाले ही बहुत करके इस व्यथा से जकड़ जाते है।

हृदय का दौरा पड़ने पर डॉक्टर अपने ढंग से अपना काम करने में लग जाता है। वे उस कारण को ढूँढ़ते हैं।

जिसके कारण व्यथा की उत्पत्ति हुई है। परीक्षण निरीक्षण, इसके बाद दवा−दारु, विश्राम, निद्रा और उतने पर भी कुछ न बन पड़े तो आपरेशन या निकम्मा दिल को हटाकर किसी दूसरे का उस स्थान पर फिट करना; पर देख गया है कि सामयिक उपचार करने के उपरान्त भी जड़ नहीं कटती और दौरे बार−बार पड़ने रहते हैं कुछ दिन विराम मिलने के बाद बीमारी फिर र उभर आती है।

इन रोगों का निदान करते हुए—रक्त भिषण के कारण उत्पन्न विद्युत प्रवाह की स्थिति जाँचने का काम इलेक्ट्रो कार्डियोग्राम से लिया जाता है। दिल की किसी माँस पेशी के मर जाने से लेकर अवरोध एवं घाव होने तक की स्थिति का पता इस परीक्षा से बनने वाले ग्राफों द्वारा चल जाता है। कार्डि एकमानीटर की क्षमता इससे भी अधिक है वह टेलीविजन के पर्दे पर आने वाली तस्वीरों की तरह दिल की हरकत के चित्र प्रस्तुत करता रहता है।

हृदय के कक्षों में नलियाँ डालकर अन्दर का दबाव जानने का प्रयत्न किया जाता है और रक्त के स्तर का पता लगाया जाता है इस प्रक्रिया को कार्डियेक कैथेटेरा−इजेशन कहते हैं। हृदय में रंग का प्रवेश करके उसके फोटोग्राफ लेना और आन्तरिक स्थिति का पता लगाना ऐंगियो कार्डियोग्राम कहा जाता है। ऐसी ही अन्य परीक्षा प्रक्रियायें हैं जिनके द्वारा हृदय पर कहाँ क्या बीत रही है इसका विवरण जाना जाता है।

दिल का दौरा पड़ने पर चिकित्सक प्रधानतया एक ही काम करते हैं कि रोगी को अधिकाधिक विश्राम करने करने की सलाह देते हैं, यहाँ तक कि करवट बदलने जैसे श्रम में भी दूसरों का सहारा लेने की व्यवस्था करते हैं। स्थिति के अनुसार पूरे या अधूरे विश्राम की व्यवस्था इसलिए कराई जाती है कि रोगी पर शारीरिक श्रम के कारण पड़ने वाले दबाव से उसे बचाया जाय। शारीरिक श्रम स्वभावतः रक्त के अधिक तेज बहाव की माँग करता है इससे दिल पर बोझ पड़ता है और कष्ट के शमन करने में कठिनाई पड़ती है इसलिए ऐसी परिस्थिति में विश्राम अनिवार्य हो जाता है। दर्द घट जाने पर भी रोगी को निश्चिन्त नहीं हो जाना चाहिए वरन् क्षत अंगों को अपनी स्वाभाविक स्थिति में आने तक काम न करने की छुट्टी दी जानी चाहिए। दिल के रोगी दर्द की अधिकता से नहीं आक्सीजन के अभाव से मरते हैं। श्रम बढ़ेगा तो आक्सीजन का खर्च भी बढ़ेगा। रक्त उसे पूरा हो जाय इसलिए दौरा पड़ने दिनों में तो रागी को अधिकाधिक विश्राम करना ही चाहिए और आगे भी जीना चढ़ने, दौड़ने, भारी वजन उठाने जैसे श्रमसाध्य कार्यों से बचना चाहिए। औषधि के रूप में भी इस अवसर पर ऐसी दवाएँ दी जाती हैं जो तन्द्रा एवं निद्रा की स्थिति पैदा करें और रोगी की बेचैनी तथा चिल्लाहट बन्द हो जाय। खाने कि की दवाएँ हों या सुई लगाने की उसमें तन्द्रा निद्रा लाने वाले तत्व आशय रहेंगे। विपत्ति की घड़ी में यह काम चलाऊ उपचार एक प्रकार से आवश्यक हो जाता है।

थके को विश्राम देना—घाव भरने के लिए क्षत−विक्षत स्थान को बिना हिलाये−डुलाये पड़ा रखने उचित भी है। उदर रोगों में उपवास कराके जिस प्रकार उस क्षेत्र को पुनः कार्य के लिए समर्थ बनाया जाता है ठीक उसी प्रकार तन्द्रा उत्पन्न करने वाली औषधियों द्वारा अथवा रोगी को वैसा करने का निर्देश देकर चिकित्सक लोभ क्षति पूर्ति कराते हैं।

ऐड्रिनेलिन, डिजिटेलिस, मेफेन्टिन, आदि औषधियों का डाक्टर लोग समय पर प्रयोग किये जा रहे हैं। नकली दिल बनाये और लगाये जा रहे हैं। एक का दिल निकाल कर दूसरे के सीने में फिट करने के भी कई प्रयोग हुए हैं। दिल की मालिश, से लेकर स्थानीय गड़बड़ी का छोटा ऑपरेशन तक के अनेक उपचार कार्यान्वित किए जा रहे हैं। रूसी विशेषज्ञ प्रो. क्यास्नी कोव, चेकोस्लो− वाकिया के डा. केरोल सिक्का प्रो. नेगोवस्की डा. फासँमान आदि विशेषज्ञों ने हृदय चिकित्सा के नये आधार और नये उपकरण प्रस्तुत किये हैं।

छुट−पुट आपरेशन तो कभी−कभी सफल हो जाते हैं पर हृदय प्रत्यारोपण की दिशा में शरीर शास्त्रियों का अत्यधिक उत्साह होने पर भी अभी उस दिशा में कोई कहने लायक सफलता नहीं मिली है। शरीर ने अपने ऊपर दूसरे दिल का आधिपत्य सहन और स्वीकार नहीं किया है।

अमेरिका में 9 व्यक्तियों का, दक्षिण अफ्रीका में 4 का और भारत में 2 का दिल एक से दूसरे को लगाया गया है। यह पंक्तियाँ लिखी जाने तक 22 आपरेशन इस प्रकार के हुए हैं। आगे यह संख्या बढ़ती ही जायगी।

वूस्टर पम्पी को नकली हृदय के रूप में विकसित किया गया है। अमेरिका में 2500 व्यक्ति इसी के सहारे अपने हृदय की गाड़ी, लुढ़का रहे हैं। गैस एण्डटेंकेक्टोनी प्रक्रिया से भी बहुत लोग लाभान्वित हुए हैं।

चिकित्सकों के सहयोग तथा चिकित्सा उपचार की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता है। पर उससे भी अधिक आवश्यक यह है कि हृदय रोगों के मूल कारणों को समझा जाय और उनको समय रहते रोका जाय ताकि इस महारोग की विभीषिका पर अंकुश रखा जा सके। आग लगने पर पानी डालने के लिए दौड़ना अच्छा है, पर इससे भी अच्छा यह है कि आग लगने ही न देने की सावधानी बरती जाय।

यदि हम शारीरिक और मानसिक स्थिति को सन्तुलित बनाये रह सकें तो निश्चित रूप से ऐसी सुदृढ़ता और सशक्त ता बनी रहेगी जिसके रहते किसी हृदय को रोगों की व्यथा से ग्रसित न होना पड़े।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने संसार भर में इन दिनों हृदय रोगों की वृद्धि का कारण मानसिक उद्वेगों को बताया है। बढ़ती हुई नशेबाजी और कामुकता भी इसका एक बड़ा कारण है। अमेरिका, ब्रिटेन आदि देशों में कुपोषण, गरीबी जैसे अभाव जन्य कारण नहीं हैं फिर भी वहाँ हृदय रोग पिछड़े कहे जाने वाले देशों की अपेक्षा अनास्था, अशान्ति, अनिश्चितता और असंयम जन्म उद्वेगों का दिन−दिन उभरते जाना ही कहा जा सकता है।

हृदय विशेषज्ञ डा. ह्वाकनेन्स का कथन है कि— डडडड डडडड डडडड डडडड डडडड दिल के रोगों को बढ़ा रहा है। यदि लोग इतनी ही राशि, फल सब्जियों पर खर्च करने लगें और अपनी खाने सम्बन्धी आदतें सुधार लें तो न केवल दिल के दौरे से वरन् अन्य रोगों से भी रक्षा हो सकती है और सुखपूर्वक जिया जा सकता है।”

हावार्ड विश्वविद्यालय केम्ब्रिज (मेसाचूसेटस) की हृदय रोग अन्वेषी परिषद द्वारा डा. होवार्ड वी.स्प्राग के नेतृत्व में जो शोध कार्य चल रहा था उसकी रिपोर्ट 1923 पृष्ठों में प्रकाशित हुई है उसमें जहाँ संरचना संबंधी खराबियों से उत्पन्न होने वाले हृदय रोगों की चर्चा है वहाँ मानवी रहन−सहन को भी दोषी ठहराया गया है और कहा गया है कि ‘यदि लोग हलका, हरा और सुपाच्य भोजन किया करें, दिनचर्या उद्वेगों से बचे रहें नशेबाजी से परहेज रखें तो बढ़ते हुए हृदय रोगों के संकट से तीन चौथाई मात्रा में छुटकारा मिल सकता है।

एडिनवरा विश्वविद्यालय के डा. पैसमोर ने बढ़ते हुए हृदय रोगों के कारण तलाश में लम्बा समय लगाने के उपरान्त निष्कर्ष निकाला है कि—”समृद्धिशाली देशों में एक ऐसा समाज बनता जा रहा है जिससे कम से कम शारीरिक श्रम करना पड़ता जो करते हैं वह मानसिक ही होता पर उसमें शारीरिक परिश्रम के लिए कोई स्थान नहीं रहता। लिफ्टों पर नीचे ऊपर उतरने−चढ़ने मोटरों पर चलने तथा दूसरी आवश्यकताओं के लिए यन्त्रों पर निर्भर रहने से शरीर के बहुमूल्य अवयवों को जंग लगना शुरू हो जाती है। आराम अच्छा तो लगता है पर उसका अभिशाप भयंकर विपत्तियों के रूप में सामने आता है इनमें दिल की बढ़ती हुई को अग्रणी कहा जा सकता है।”

दिल के दौरे से मरने वाले लोगों में 63 प्रतिशत अमीर, 25 प्रतिशत मध्यम वर्ग के और 11 प्रतिशत डडडड लोग होते हैं। यहाँ अमीरी और गरीबी का वर्गीकरण आराम तलबी और श्रमशीलता के आधार पर किया गया है।

हैडिलवर्ग (जर्मनी) के हृदय विशेषज्ञ डा. हिमेंज हुव्समैन ने पश्चिमी वर्लिन में हुई मेडीकल काँग्रेस में अपना निष्कर्ष सुनाते हुए कहा—हृदय रोगों का सम्बन्ध उतना शारीरिक कारणों से नहीं जितना मानसिक परिस्थितियों से है। देखने में यह लगता है कि यह एक माँस पिण्ड है और उसे शारीरिक कारण ही रुग्ण कर सकते हैं पर गहरी खो उससे आगे जाती हैं और वे कहती हैं कि मानसिक घुटन एवं उत्तेजना का सबसे बुरा प्रभाव दिल पर पड़ता है इसलिए अधिक भावुक अथवा घुटन भरी परिस्थितियों में रहने वाले लोग अधिक मात्रा में हृदय रोगों से ग्रसित पाये जाते हैं। आहार−बिहार सम्बन्धी दोष न होते हुए भी— शरीर रचना में कोई गड़बड़ी न रहते हुए भी अनेकों रोगियों को हृदय रोगों से ग्रसित पाया जाता है। उसका कारण उनकी घुटन भरी असंतुष्ट मनःस्थिति में ही देखा जाना चाहिए और उनके उपचार के लिए दवादारू तक सीमित न रहकर उनके चिन्तन में सुधार एवं परिस्थिति परिवर्तन के रूप में भी किया जाना चाहिए।

मस्तिष्कीय उथल−पुथल शरीर के संवेदनशील संस्थान को अस्त−व्यस्त करके रख देती है। स्नायु संस्थान की नेत्री ‘वेगस’ सन्त्रिका को लड़खड़ा देने वाले मानसिक विक्षोभ ही होते हैं। इससे सारा नाड़ी संस्थान ही गड़बड़ा जाता है और फिर उस गड़बड़ी का अन्त हृदयजन्य रोगों के रूप में परिणत होता है। स्नायु रोग न्यूरोसिस, अति रुधिर तनाव—हाइपर टेन्शन—हृदय काठिन्य—स्टेनोकार्डिया—अन्ततः विविध स्तर हृदय रोग बन कर मनुष्य के सामने मृत्यु जैसी विभीषिका उत्पन्न करते है।

यदि मानसिक आवेगों उद्वेगों और मनोविकारों से बचकर रहा जा सके, विचारों में प्रौढ़ता विकसित करके जीवन में आये दिन प्रस्तुत होते रहने वाले उतार−चढ़ावों से हँसते−खेलते निबटते रहने की कला सीखी जा सके तो हृदय रोगों की आधी समस्या सहज ही हल हो सकती है। यह प्रयोजन अध्यात्म तत्व ज्ञान के आधार पर ही पूरा हो सकता है। अस्तु हृदय रोगों से सुरक्षित रहने और दौरा पड़ने पर मनोबल बढ़ाकर भीतरी साहस को बनाये रहने वाले अध्यात्म तत्व ज्ञान का भी महत्वपूर्ण उपयोग हो सकता है।


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