पेट और अन्न एक दूसरे को कैसे आत्मसात् करते हैं

April 1974

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शरीर के अवयवों की क्रिया−प्रक्रिया में यों एक स्वसंचालित रीति−नीति मात्र प्रतीत होती है पर उसमें भी नैतिक एवं अध्यात्म सिद्धान्तों का समुचित समावेश है।

यदि मनुष्य बाहर से न सही अपने भीतर अंग−प्रत्यंगों की गतिविधियों को देखकर कुछ कुछ शिक्षा प्राप्त करने का प्रयत्न करे तो जीवन की महत्वपूर्ण गुत्थियों को सुलझाने का प्रखर मार्ग दर्शन मिल सकता है। पेट और अन्न का परस्पर सम्बन्ध भी ऐसा हैं जो प्रेम के स्वरूप और उसकी प्रतिक्रिया पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता हैं।

आमाशय माँस जैसी दुष्पाच्य वस्तुओं को पचा लेता है इसका कारण उसकी ग्रन्थियों में से निरन्तर स्रवित होते रहने वाला हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड है। वह एक तीव्र तेजाब है जो कपड़ों पर गिर पड़े तो उन्हें तुरन्त जला दे, पर यह अचम्भा ही है कि यह अम्ल जिस माँस में से रिसता है—जहाँ भरा रहता है वहां कुछ जलता नहीं— हाँ बाहर से आया हुआ माँस उसी माँस के गड्ढे में गल जाता है।

शरीर में होने वाली रासायनिक प्रतिक्रियाओं का क्रम भी अद्भुत हैं। पेट जितने 38 डिग्री फाल−हीट की ताव पर यदि किसी प्रयोगशाला में कार्य वर्षों में सम्पन्न हो सकेगा वह कुछ घण्टों में ही शरीर पूरा कर लेता है।

इतनी तीव्र गर्मी और तेजाबी रासायनिक क्रिया को यह जरा सी माँस की थैली किस प्रकार सहन करती रहती है। इस तरह का कोई मानव निर्मित उपकरण नहीं बन सकता। उसमें इतनी सहन शक्ति हो ही नहीं सकती। जिसे इतना कठोर काम करना पड़े वह उपकरण देर तक स्थिर रह ही नहीं सकता है। किंतु हमारा पेट है जो जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त अपना काम अनवरत रूप से करता ही चला जाता है।

पेट की प्रकृति ही मनुष्य प्रकृति होनी चाहिए। उत्तेजना, चिन्ता और विपत्ति के क्षण यदि निरन्तर भी बने रहे और अपना अस्तित्व यदि पेट की थैली जैसा तुच्छ और साधन रहित दिखाई देता हो तो भी यह विश्वास रखा जाना चाहिए कि उसकी मूलभूत संरचना उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों द्वारा सम्पन्न हुई है। उसमें अकूत सामर्थ्य भरी पड़ी है और वह सब कुछ सहन कर सकने में समर्थ है, सहन ही नहीं वरन् उसके सामने आते रहने वाले व्यवधान टलते रहने और उसका अस्तित्व अक्षुण्ण बने रहने की व्यवस्था है। ऐसी दशा में न अधीर होने की जरूरत है न चिन्तित होने की वरन् इतना पर्याप्त है कि अपनी संरचना की विलक्षणता और उसके सृजेता की महत्ता पर विश्वास रखते हुए अपने निर्धारित क्रिया−कलाप में हँसते−खेलते पत्थर रहा जाय।

भोजन कितना मूल्यवान, पौष्टिक, स्वादिष्ट था यह बाहरी उपलब्धि स्वरूप है, महान वह क्रिया है जो अन्न को रक्त के, बल के रूप में बदलती है। मुँह में चबाये जाते समय जीभ की ग्रन्थियों में बहुमूल्य तरल पदार्थ निकलता है और वह भोजन में मिल जाता है। इसके बाद संपर्क में आये हुए उस आहार का स्वागत सत्कार होता है। घर में प्रवेश करते ही उसे अनुदान दिया गया इसके बाद आगे बढ़ाने की सारी व्यवस्था जुटाई गई। मुँह से लेकर आमाशय तक पहुँचने के लिए 10 इञ्च लम्बी नली है उसे पार कराने के लिए माँस पेशियाँ जुट पड़ती हैं और उसे हाथों पर बिठाकर वह यात्रा लगभग 5 सेकेंड में पूरी करा देती हैं। प्रत्येक ग्रास के साथ द्वारपाल इसी स्वागत सत्कार भरी प्रक्रिया का परिचय देकर नव आगन्तुक ग्रास का मनमोह लेते हैं और उसे आमाशय की प्रयोगशाला में पहुँचा देते हैं।

पेट में उससे कुछ लिया नहीं जाता वरन् देने की ही क्रिया चलती रहती है। पित्त—पैन्क्रीएस जैसे रस उस आगन्तुक को भरपूर मात्रा में खिलाये−पिलाये जाते हैं। इतनी आत्मीयता पत्थर को भी पसीजने योग्य बना सकती है पर बेचारे आहार ग्रास की तो विसात ही क्या है। वह भी अपनी प्रकृति और स्थिति को बदलना आरम्भ करता है और अन्न का कार्बोहाइड्रेट अब ग्लूकोज और प्रोटीन में बदलना आरम्भ हो जाता है। इस बदलाव के बाद उसकी अगली यात्रा आरम्भ होती है। अभी वह बदला भर है। अपने आपको पेट के लिए समर्पित करने की संभावना भर उत्पन्न हुई है। स्थिति अभी भी नहीं आई। स्वार्थ का परमार्थ में−अहं का समर्पण में बदल जाना बहुत बड़ी परिणति है। इसके लिए लम्बी मंजिल पार करनी पड़ती है और लम्बी साधना जुटानी पड़ती है। पेट वही सब तो करता रहता है। उसकी अपनी तपस्या ही अन्न देवता को वरदान देने के रूप में विवश करती है तब कहीं जाकर वह रक्त बनता है।

आँतों की माँस पेशियाँ एक मिनट में तीन बार के क्रम से सिकुड़ती फैलती हैं उस आमाशय के प्रभाव से प्रभावित—स्वल्प परिवर्तित आहार को आगे बढ़ाने के यात्रा छोटी आँतों की है। उस यात्रा में पग−पग पर उपहार दिये जाते रहते हैं। आगे बढ़ने में सहारा देना यही एक रीति−नीति वहाँ निर्धारित रहती है। आँतें अपने अन्त−करण का रस निचोड़ कर उस पर बरसाती चलती है। इस वातावरण में अन्न, भाव−विभोर हो जाता है। उसका रोम−रोम द्रवित हो जाता हैं। सद्व्यवहार हिंस्र पशुओं और दुष्ट दानवों को भी बदल देता है फिर जिनमें अपना सौजन्य भी मौजूद हैं उन्हें बदलने वाली परिस्थितियाँ बदल कर ही छोड़ती हैं।

आँतों की लम्बी यात्रा में जब आहार इतना पच जाता है कि वह लेते−लेते लज्जित होकर देने के लिए आतुर होने लगे तो उसका वह अनुरोध भी स्वीकार किया जाता है। स्नेह करने वाला अनुदान प्रस्तुत करता है सो ठीक पर उसका रंग इतना गहरा होता है कि प्रिय पात्र को भी वैसा ही अनुदान देने में संकोच नहीं पड़ता वरन् उसका अन्तःकरण भी वैसा ही आतुरता ग्रस्त हो जाता है जैसा कि प्रथम पग उठाने वाले ने साहस पूर्वक उठाया है। पेट और अन्न के भाव भरे आदान−प्रदान में यही रीति−नीति चलती है। आँतों की राह आगे चलने वाला अन्न अपने को अनुदान के रूप में प्रस्तुत करता है। यह अनुदान पेट यकायक स्वीकार नहीं करता वरन् बड़ी मनुहार के साथ थोड़ा−थोड़ा करके ग्रहण करता हैं।

छोटी आँतों में खाइयाँ, गड्ढे और अंकुर होते हैं। इनका काम है पचे हुए भोजन के उपयोगी अंश को चूसना और उसे शुद्धि के लिए अन्यत्र भेजना। निकम्मे अंश को बाहर निकाल फेंकना।

मनुष्य में उत्कृष्टता की यात्रा विद्यमान है। उसी को स्वीकार किया जाना चाहिए और उसे भी परिष्कृत किया जाना चाहिए। हर मनुष्य में कुछ निकम्मापन भी मौजूद है। उसे अस्वीकार किया जाय। उसकी प्रतिक्रिया विरोध के रूप में खड़ी करने की अपेक्षा उपयुक्त यह है कि उस अंश को उपेक्षित बहिष्कृत कर दिया जाय।

यही है दूसरों को आत्मसात करने का तरीका। पेट इस विद्या प्रवीण है। उसका अन्न के प्रति यही व्यवहार है। जो अपने पास है उसे प्रिय पात्र के ऊपर रुचि मन से उड़ेलता चला जाता है उसकी प्रतिक्रिया यह होती है कि अन्न को अपना स्वतन्त्र अस्तित्व ही समाप्त करना पड़ता है वह प्रेमी के साथ रहना ही स्वीकार नहीं करता वरन् उसी के रंग रूप में परिणित हो जाता है, वही बन जाता है। हम यदि ईश्वर को अपना बनाना चाहें, तो उसके साथ वही व्यवहार करे जो पेट अन्न के साथ करता है। जिन स्वजन साथियों को अपना बनाना है, उन्हें अपने आत्मसात् कर सकने की उदारता, मृदुलता, सद्भावना अपने भीतर पैदा की जानी चाहिए तभी अभीष्ट सफलता मिलती है। देने के लिए कृपणता और लेने के लिए आतुरता की नीति अपना कर मनुष्य जीवन के हर क्षेत्र में असफल रहता है। प्रेम क्षेत्र में तो कृपणता को असफलता ही मिलती है।


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