आदर्श विहीन प्रगति हमारा सर्वनाश करके ही छोड़ेंगी

April 1974

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हम दिशा विहीन लक्ष्य विहीन प्रगति की दिशा में अन्धी दौड़ दौड़ रहे हैं। सृजन का नहीं विनाश का लक्ष्य हमारे सामने हैं बुद्धिमत्ता और कुशलता में अपनी पीढ़ी ने भूतकाल के समस्त कीर्तिमान को पीछे छोड़ दिया है। एक से एक बड़े आविष्कार होते जा रहे हैं और उपलब्धियों के चमत्कारी अम्बार लगते जा रहे हैं। जिनके हाथ में यह प्रगति आई है। वे चाहते हैं कि इस धरती आकाश पर उन्हीं का वर्चस्व है। जो उनके पीछे न हों उन्हें जीवित न रहने दिया जाए। जो समर्थों के शोषण का प्रतिरोध करे उसका नाम निशान मिटा दिया जाए। यह आसुरी अहंता नित नये ऐसे आविष्कार कर रही है। जो मरण को सस्ते से सस्ता, सरल से सरल और विशाल से व्यापक बना सके।

जापान पर गिराये गये बम आज के विकसित अणु आयुधों की तुलना में छोटे बच्चे मात्र थे अब उस दिशा में बहुत प्रगति हो चुकी हैं। सन् 54 में विकनी क्षेत्र में जो परीक्षण हुआ था उस विस्फोट की शक्ति हिरोशिमा पर फेंके गये बम की तुलना में 600 गुनी अधिक थी। रूसी अधिनायक श्श्चचेव ने एकबार कहा था कि उनके देश ने इतना बड़ा अणु आयुध बना लिया हैं। जिसका परीक्षण तक कर सकना सम्भव नहीं हो सका। यदि उसका विस्फोट उत्तरी ध्रुव पर किया जाय तो संसार में एक नये समुद्र का जन्म हो जायगा और उसमें ब्रिटेन, फ्राँस जैसे योरोप के कई देश देखते देखते डूब जायेंगे।

ठीक इसी प्रकार का दावा अमेरिका सैनिक अनुसंधान विभाग के अध्यक्ष जनरल गोविन ने किया है। उनका कथन है। कि रूस पर किया गया अणु आक्रमण उसका नामोनिशान नक्शे पर से मिटा देगा। साथ ही योरोप,जापान तथा एशिया के एक बड़े भाग को प्रभावित किये बिना न रहेगा।

अणु बमों से हाइड्रोजन बमों की शक्ति अधिक है। जो काम कितने ही अणु बम मिलकर करते हैं। वह एक ही हाइड्रोजन बम कर सकता है। इसलिए अणु विज्ञान की अधिक विकसित स्थिति में भावी महायुद्ध हाइड्रोजन बमों से ही लड़े जायेंगे। उनके महा विस्फोट की चार प्रति क्रियाएं होती हैँ −(1)धमक (2)ताप (3) न्यूकलीय अभिक्रिया (4) रेडियो धर्मा विकिरण।

एक माध्यम आकार के हाइड्रोजन बम की धमक छः मील के घेरे की वस्तुओं को पूर्णतया नष्ट कर देगी। वरन मील तक गम्भीर नुकसान पहुंचायेगी और 25 मील के घेरे में सामान्य भूकम्प जैसी टूट फूट होगी।

ताप का प्रभाव−10 मील के घेरे तक के प्राणियों में से 65 प्रतिशत तत्काल मर जायेंगे। 17 मील के घेरे में रहने प्राणी इतने जल जायेंगे कि उन्हें कराहते कलपते देर सवेरे में मौत के मुंह में ही जाना पड़ेगा।

रेडियो सक्रियता नापने की इकाई राण्टेजन कहलाती है इसे संक्षेप में ‘आर’ कहते हैं। इसकी 30 इकाइयाँ हीं मनुष्य के लिए असहनीय बन जाती हैं उतने भर प्रभाव से मनुष्य कुछ ही दिनों में मर जाते है। छोटे प्राणियों की मौत तो और भी जल्दी होती है।

इस रेडियो धर्मा प्रभाव को जान लेने के बाद वह समझना सरल पड़ेगा कि एक हाइड्रोजन बम से निकली सक्रियता कितने क्षेत्र में कितनी भयानक हानि उत्पन्न करेगी। उस विस्फोट से बारह मील तक 5000,100 मील तक 2300,150 मील तक 600 और 250 मील तक 30 इकाई रेडियो सक्रियता फैलाती हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि मरण संकट उत्पन्न करने वाली रेडियो सक्रियता 250 मील के घेरे में फैलेगी।

रसायन युद्ध के डायरेक्टर राथ्स वाइन्ड ने अपने ग्रन्थ ‘टमारोज वेपन्स’ में निकट भविष्य में प्रयोग होने वाले रासायनिक अस्त्रों का वर्णन किया है। और कहा है कि किसी स्थान पर खड़े होकर गैसें छोड़ी जाँय तो वे बहती हवा के साथ मिलकर किसी बड़े देश को एक दिन में अधमरपा कर सकती है।

अणु आयुधों की तरह ही रासायनिक आयुधों का प्रयोग परीक्षण भी खतरे से खाली नहीं है। जरा सी भूल से वे भी भयंकर उत्पात खड़ा कर सकते है। सन् 68 में उराह परीक्षण केन्द्र द्वारा सैरीन गैस खिड़की जा रही थी। अचानक उत्तर पर्व की हवा चल पड़ी और गैसें ने 20 मील दूर के एक भेड़ पालन,केन्द्र की सात हजार भेड़ों का तत्काल काम तमाम कर दिया। उसके प्रभावित सहस्त्रों रोगी मनुष्य अस्पतालों में भरती हुए और उनमें से अधिकाँश मर गये।

इससे पूर्व डेनवर रासायनिक शस्त्र अनुसंधान केन्द्र का कचरा निकटवर्ती जलाशयों में पहुँचने से जलचरों और पक्षियों का भारी विनाश हुआ था। इतना ही नहीं उस पानी को पीकर अगणित पालतू और वन्य पशु मर गये। इस केन्द्र का क चरा एक कुआँ खोदकर गाढ़ा गया तो उस क्षेत्र में भयंकर भूचाल आया।

फ्रांसीसी वैज्ञानिक मार्सेल फेतिजा और मिचेल मागा ने अपने निबन्ध द−टोक्यिय आर्सेनल में तृतीय महायुद्ध में विषैली गैसों के प्रयोग की सम्भावना इस आधार पर की है कि वे अणु आयुधों की अपेक्षा सस्ती है और आसानी से प्रयोग की जा सकती है द्वितीय युद्ध में इन गैसों को जर्मनी ने बड़ी मात्रा में बनाया था पर उनका प्रयोग नहीं हो सका। अब उनके बहुत सुधार कर लिए गये हैं तद्नुसार किसी बड़े क्षेत्र की जनता की सेना को रुग्ण, मूर्छित से किसी इलाके के वृक्ष वनस्पति समाप्त किये जा सकते हैं− पानी विषैला किया जा सकता है और ऐसा बनाया जा सकता हैं कि उधर से गुजरना असम्भव हो जाय। एल0एस0डी0 जैसे मादक किसी नगर के जलाशय में घोल दिये जाते तो उसे पीकर सारा नगर उन्मत्त पिक्षित जैसा हो सकता है। ब्रह्माण्ड किरणों में से मृत्यु किरण जैसे कई ऐसी है जो कि सी क्षेत्र को प्रवेश करने के अयोग्य अना सकती है। ये प्रचण्ड दावानल उत्पन्न करके सब कुछ मारक कर सकती है।

कारोलिस्का इन्स्टीटयूट स्काटहोम के प्रो0 कार्ल गोरान हेडेन ने अपने लेख ‘दइन्फैक्शन डस्ट क्लाउड’ बताया है कि बादल में कुछ रसायन छिड़क कर उसे वर्षा के अयोग्य बनाया जा सकता है और उस इलाके में सूखा पड़ने से मनुष्य पशु पक्षी और वनस्पति के लिए जीवन संकट उत्पन्न किया जा सकता है। इसी प्रकार रोग कीटाणुओं को हवा में बखेर कर कोई देश रोग अविकसित देशों के लिए सम्भव न हो सका तो वहाँ के लोग ऐसे ही रोते कराहते मर जायेंगे।

लंदन विश्व विद्यालय कि प्रो.एम.डबल्यू. थ्रिग ने अपने लेख ‘रोवोज आन द मार्च’ में कहा है भविष्य में हाड़−माँस के मनुष्यों का स्थान यान्त्रिक दैत्य ग्रहण करेंगे और वे बिना अपनी जान की परवा किये अति भयानक यन्त्रों का प्रयोग करते हुए किसी से भी −कहीं भी −लड़ने के लिए दनदनाते हुए जाया करेंगे। मनुष्य सैनिक उनसे लड़ने में बहुत हेटे पड़ेंगे।

प्रथम महायुद्ध में फ्रांस ने जर्मनी पर विषैली गैसों के गोले दागे। जवाब में जर्मनी ने फ्राँस की ये प्रस छावनी पर क्लोरी गैस का बादल छोड़ा फलस्वरूप 5 हजार सैनिक मरे, दस हजार घायल हुए और बचे खुचों में भगदड़ मच गई। उस युद्ध में 17000 सैनिकों ने रसायन युद्ध लड़ा। जिसमें लाख मरे और 12 लाख घायल हुए।

यों सन् 1926 में एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता भी गैस आयुधों का प्रयोग न करने के सम्बन्ध में हो चुका है। पर वह प्रकार से निरर्थक ही है। अमेरिका ने तो तब भी उस संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये थे। उस प्रतिबन्ध को बहुत कम देशों ने माना और आवश्यकतानुसार उस संधि का उल्लंघन मनमाने ढंग से करते रहे।

कुनी नोवल ने अपनी पुस्तक ‘विक्टर चार्ली’ में और रिचार्ड उडमैंन ने ‘सेन्ट लुई पोस्ट’ पुस्तक में उन रोमाँचकारी रासायनिक प्रहारों को वर्णन किया है जो अमेरिका द्वारा वियतनाम पर किये गये थे। कोको−डाइलिक और टाई क्लोरोफेन्वस्यामेटिक रसायन छिड़क कर वहाँ के घने जंगल नष्ट कर दिये गये धान, रबड़, आलू और सब्जियों की फसलें और ऐलिफन्टा घास नष्ट कर दी गई। इससे मनुष्यों और पशुओं का ही जीवन दुर्लभ नहीं हुआ वरन् उस क्षेत्र के वन्य पशुओं का ही जीवन दुर्लभ नहीं हुआ वरन् उस क्षेत्र के वन्य पशु और पक्षी भी समाप्त हो गये। जमीन बंजर हो गई और वर्षा का कटाव बढ़ जाने से उपजाऊ भूमि खार बेहड़ बन गई।

विषैली गैसों की अधिकाधिक घातक किस्में ढूँढ़ने की खोज में अमेरिका हर वर्ष 60 करोड़ डालर खर्च करता है। मेरीलैण्ड, अरकन्सास, इण्डियाना, कोलेरेडी, उटाह की प्रयोगशालाओं में बीस हजार कर्मचारी काम करते हैं और अब तक उस कार्य पर 20 खरब डालर से अधिक लागत लग गई है।

कनाडा ब्रिटेन और अमेरिका के विष गैस उत्पादन को चार भागों में विभक्त किया जाता है (1) भीड़ नियंत्रक (2) मनो रसायन (3) निष्क्रियता जनक (4) घातक और मारक।

मारक गैसों में ‘सैरीन’ इतनी घातक है कि उसकी एक बूँद से सैकड़ों व्यक्तियों का सफाया हो सकता है। इसके संपर्क में आते ही मनुष्य इठने लगता है, उलटी आती है, बेहोशी होती है और आधे घण्टे के भीतर दम तोड़ देता है। इस गैस में न रंग होता है न गन्ध। इसलिए उसे पहचाना भी नहीं जा सकता कि उसे कहाँ बखेरा गया है कहाँ नहीं।

निष्क्रिय बनाने वाली गैसों में ‘सी. एन.’ मुख्य है। इससे श्वाँस नली बेकार हो जाती है—मनुष्य हांफने लगता है और घुटन अनुभव करता है। खाँसी आती है और आँसू निकलते हैं, छाती जकड़ती है। इसके संपर्क में आया मनुष्य अर्ध मृतक होकर गिर पड़ता है—उसके लिए लड़ना—हथियार चलाना बिलकुल सम्भव नहीं रहता, एक मिनट से भी कम समय में वह अपने प्रभाव क्षेत्र में निष्क्रियता का साम्राज्य स्थापित कर देती है।

मनो रासायनिक गैसों में ‘बीन्जेड’ मुख्य है। इसके प्रयोग से मनुष्य गूँगा बहरा और अर्ध−विक्षिप्त जैसा हो जाता है। नशेबाज की तरह वह वेसिलसिले की हरकतें करता है। लड़ना उससे बन ही नहीं पड़ता। इससे भी अधिक उन्मादकारी गैस एल. एस. डी. पे बनाई गई है वह मानसिक सन्तुलन को पूरी तरह नष्ट कर देती है पर है इतनी महँगी कि उसे बड़े परिमाण में नहीं बनाया जा सके।

भीड़ नियन्त्रक गैस को आमतौर से अश्रु गैस कहते हैं। इसे भी सरकारें दंगाइयों को भगाने के लिए प्रयोग करती है। इसकी सुधरी किस्म ‘डी. एम.’ और ‘एच. डी.’ हैं। इनके संपर्क से सिर दर्द, उलटी, छाती में लकड़न उत्पन्न होती है और यदि वह साँस में अधिक पहुँच जाय तो मौत भी हो जाती है। इसका प्रयोग अमेरिका ने वियतकाँग छापामारों के विरुद्ध किया था और उन्हें भारी संख्या में हताहत किया था।

रूस में भी विषैली गैस के बड़े−बड़े संयंत्र लगे हैं। द्वितीय महायुद्ध के बाद टावन गैस बनाने को जर्मनी मशीनें रूस चली गई थीं और उसी के सिद्धान्त पर नये कारखाने वहाँ खड़े किये गये हैं। छोटे हथगोलों से लेकर प्रक्षेपणास्त्रों से छोड़े जाने वाले विशालकाय बमों तक जहरीली गैसों से भरकर बनाये गये हैं।

अब तक इन गैसों का कितनी जगह प्रयोग हो चुका है—वियतनाम में हजारों को मौत के घाट उतारा जा चुका है। लाखों यहूदियों को बन्द कमरों में दम घोटकर मारा गया है। यमन में मिश्र वालों ने इसका प्रयोग किया था और दो हजार मनुष्य मारे थे।

अमेरिका में कीटाणु युद्ध की प्रयोगशालाएँ ‘प्रूविंण्ग्राण्डस’ कहलाती हैं। वे फ्लोरिडा के एलगिन पर और कैलीफोर्निया के चीनालेक पर बनी हैं। उन क्षेत्रों में सेना के अधिकारी यह प्रयोग करते रहते हैं कि जल थल और नम के क्षेत्रों में किस प्रकार कीटाणु युद्ध लड़ा जा सकता है। आक्रमण करने और बचने का बेहतर तरीका क्या हो सकता है।

महामारियाँ फैलाने वाले कीटाणुओं का उत्पादन, संग्रह और प्रयोग किस प्रकार हो सकता है इसकी शोध करने में अमेरिका के 70 विश्व विद्यालयों में सुसम्पन्न प्रयोगशालाएँ लगाई गई हैं।

जीव विषों की शृंखला में एक के बाद एक प्रबल कड़ी जुड़ती चली जा रही है। ड्रक्सले (प्रलय कीट) बम पहले से ही बहुचर्चित है। उसके परिवार में एन्थ्रेक्स डडडड, बाटुलस्क, दुलरिमिया, राकी माउन्टेन, सिट्ठोकोसिस, रिफ्टवैली, एन्सफेलो मायटिटिस आदि और भी जीवाणु रसायन सम्मिलित हो गये है। इनके सहारे मनुष्यों और पशुओं में तरह−तरह की ऐसी महामारियाँ फैलाई जा सकती है जो सैकड़ों मील की भूमि को जीवधारियों से रहित बना दें। तेज बुखार, बेहोशी पेचिश, उल्टी, प्लेग, पक्षाघात, हैजा, निमोनिया, दर्द टाइफाइड, जैसी बीमारियाँ इतनी द्रुत गति से और इतने आवेश से फैलती है कि डाक्टर और अस्पताल कुछ भी कर सकने में प्रायः असमर्थ ही रहते है। पीड़ितों को बुरी तरह दिनों तक कराहते हुए दुर्दशा ग्रस्त स्थिति में मरना पड़ना है। यह मौत गोली लगने से महँगी पड़ती है। छूत के भय से कुटुम्बी या पड़ोसी भी रोगी को असहाय छोड़ देते है। जीवाणु आक्रमणों में आक्रांत रोगियों में से 62 प्रतिशत तो तीन दिन के भीतर ही मर जाते है शेष 35 प्रतिशत एक महीना तक खींच ले जाते है। जो बच भी रहे वे अपंग असमर्थ और पीड़ितों व्यथित रहकर ही मौत के दिन पूरे करते हैं।

द्वितीय महायुद्ध के दिनों ब्रिटेन ने स्काटलैंड के समीप के छोटे द्वीप गुइनार्ड पर ‘एन्थ्रेक्स’ नामक विषाणु प्रयोग परीक्षण के लिए छिड़के थे। उस बात को लगभग 30 वर्ष हो चले पर अभी भी वह द्वीप उन कीटाणुओं से आक्रान्त है। अभी अगले सौ वर्ष तक उस क्षेत्र के उन कीटाणुओं से मुक्त होने की सम्भावना नहीं है। तब तक कोई प्राणधारी वहाँ जीवित न रह सकेगा।

ब्रिटिश विज्ञान शास्त्री गार्डरैटरे टैलर ने अपनी पुस्तक ‘द वायलाजिकल टाइम बम’ पुस्तक में कीटाणु युद्ध की विभीषिकाओं का दिग्दर्शन कराते हुए लिखा है कि अब इन आयुधों के प्रहार से यह सम्भव हो गया है कि किसी देश को शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्थायी तौर से दुर्लभ बना कर शताब्दियों तक पराधीन रखा जा सके। यह कितनी चिन्ताजनक, दयनीय और अमानवीय स्थिति होगी। अमेरिका कृ मि विज्ञानी साल्वेडोर लूरिया ने यह आशंका व्यक्त की है कि अब सिर फिर राजनेता ही नहीं—सामान्य रसायन वेत्ता भी किसी देश अथवा समस्त विश्व को बर्बाद करने की शक्ति से सुसज्जित हो गये है। इससे सार्वभौम विनाश को रोक सकना और भी अधिक जटिल हो गया है।

‘वी आल फाल डाउन’ पुस्तक में अणु युद्ध और जीवाणु युद्ध की विस्तृत तुलना की गई है और बताया गया है कि अणु आयुधों की अपेक्षा विष आयुध अधिक सस्ते अधिक प्रभावशाली है। अणु प्रहार से किसी क्षेत्र लाभ नहीं उठा सकता। इसके विपरीत रासायनिक युद्ध में केवल जीवधारी मरंगें और उस क्षेत्र की सम्पदा को आक्रमणकारी हस्तगत कर सकेगा। अणु आयुधों का निर्माण बहुत जटिल और खर्चीला है उस पर सम्पन्न देशों का ही अधिकार रहेगा पर रासायनिक आयुध छोटे और गरीब देश भी कम खर्च में बना सकते है। इस प्रकार छोटे देश भी अपने ढंग कि इन सन्ते हाइड्रोजन बमों से सुसज्जित हो जायेंगे और आत्मघात पर उतर आये तो शत्रु देश का ही नहीं सारे विश्व का विनाश कर सकते है।

इनके प्रयोग के दूर मारक प्रक्षेपणास्त्रों की भी जरूरत नहीं है। एक आदमी छोटी अटैची में रख कर कहीं चला जाय और चुपके से जीवाणुओं को हवा का रुख देखकर छोड़ दें तो सुविस्तृत क्षेत्र को लुञ्ज−पुञ्ज बनाकर रख देगा।’वाशिंगटन विश्व विद्यालय के कीटाणु महा निर्देशक डा. वेरी कामनगर ने कहा है कि जीवाणु आयुधों की तुलना में अणु आयुध बच्चों के खिलौने जैसे रह गये है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्यक्ष डा. ब्रोक चिशोल्य ने कहा था— विषाणु दैत्य का प्रयोग चौराहे की भीड़ के हाथ में चला जाने से अब विश्व विनाश का खतरा और भी अधिक व्यापक बन गया है।

परमाणु बम, हाइड्रोजन बम की विभीषिका अपने स्थान पर जहाँ की तहाँ है। इस महाविनाश के दैत्यों में रासायनिक गैसें और कीटाणु आयुध और सम्मिलित हो गये है। बेचारी मानवी सभ्यता संव्यस्त है कि इस बुद्धिवादी प्रगति से अपनी प्राण रक्षा के लिए वह क्या करें? क्या न करें?


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