बड़े कार्य करें

April 1974

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यह करूंगा−−वह करूंगा ऐसी घोषणाएं करते फिरना निरर्थक है। यह निश्चित नहीं कि जो करने के लिए आज कहा जा रहा है उसे अगले दिन किया भी जा सकता है या नहीं। कल संयोग वश ऐसी परिस्थितियाँ आ सकती हैं कि जो कल करने की घोषणा की गई है वह सम्भव ही न रहें।

अप्रत्याशित घटना क्रम का घटित हो जाना असम्भव नहीं कोन जाने अपना शरीर आज जिस स्थिति में हैं कल उसमें रहेगा भी या नहीं। बीमारी और मौत का आक्रमण कब किस पर हो जाय इसे कोन जानता है। ईश्वर न करे अपना शरीर ही कल दस याग्य न रहे कि घष्ए को कार्यान्वित किया जा सके। इसी प्रकार अन्य ऐसी घटनाएँ भी घटित हो सकती हैं जो अपने भविष्य कथन को निरस्त कर दें। चोरी, अग्निकांड, दुष्काल, घाटा आदि ऐसे हो दरिद्र बना कर रख दें। तब उन घोषणाओं की पूर्ति कैसे हो सकेगी जो आज की सुसंपन्न स्थिति को ध्यान में रखकर की गई थी।

भविष्य अनिश्चित है। नियति के गर्भ में कितनी मृदुल और कितनी दुखद सम्भावनाएँ छिपी पड़ी हैं इसे कौन जानता है कल हम क्या करेंगे क्या नहीं—यह निर्णय आज नहीं कल ही किया जा सकता है। समय से पूर्व तो उसकी घोषणा करना तो बचकानापन है। आज तो हमें वही सोचना−−वही कहना और वही करना चाहिए को आश्वासन देना सम्भव है। भविष्य के लिए किसी को आश्वासन देना व्यर्थ है। देना ही हो तो इस शर्त के साथ देना चाहिए कि आज जैसी परिस्थिति कल भी बनी रही तो वह किया जा सकेगा जो आज कहा जा रहा है।

बूढ़े मनुष्य भूतकाल के घटनाक्रम में बहुत दिलचस्पी रखते हैं ओर बीती हुई बातों की चर्चा बड़े उत्साह के साथ करते या सुनते हैं। उनका श्रेष्ठ समय भूतकाल ही था जो अब गुजर गया। वर्तमान नीरस है ओर भविष्य डरावना, इसलिए सुखानुभूति के लिए उन्हें मधुर भूतकाल का स्मरण करते हुए चैन मिलता है। कुछ विचित्र व्यक्ति ऐसे भी होते है जिन्हें दुखों की स्मृति भी ओर विपत्तियों की चर्चा करके अपने घाव हरे करते हैं और अभ्यस्त दुखी मनः स्थिति का जागृत करके विलक्षण प्रकार का आनन्द लेते है। सुखद हो अथवा दुखद जिन्हें भूतकाल जिन्हें भूतकाल की स्मृतियाँ ही सुहाती हैं—कथा पुराणों से लेकर व्यक्ति गत स्मृति की तथा स्वजन संबंधियों की पिछली चर्चाएँ जिन्हें सन्तोष देती हैं समझना चाहिए कि वे बूढ़े हो गये। उनका मन बुढ़ापे से ओत−प्रोत हो गया। भले ही ऐसे लोग आयु की दृष्टि से अधेड़ या युवक दिखाई पड़ते हों।

बालकों का स्वभाव भविष्य की कल्पनाएँ करते रहना होता है। चूँकि उनका भूतकाल कुछ महत्वपूर्ण नहीं था और न उसका स्मरण ही उन्हें होता वर्तमान भी अस्थिरता और अनिश्चितता से भरा रहता है, इसलिए अनेक लिए चिन्तन का एकमात्र आधार भविष्य ही रह जाता है। उसी पर वे तरह−तरह के सुखद आरोपण करते हैं। भविष्य में यह पावेंगे—वहाँ जावेंगे—यह खायेंगे—यह करेंगे जैसी चर्चाएँ ही उनके मुँह सुनी जाती हैं। वे कल्पनाओं को ही वास्तविकता समझने लगते हैं और सम्भावनाओं की सुनिश्चितता का ऐसा बाना पहनाते हैं मानों जो कुछ वे सोच या कह रहे हैं अवश्य ही वैसा होकर रहेगा। उनके इस भोलेपन पर अभिभावक रस लेते हैं, पर साथ ही उस बचपन पर हँसते भी हैं जिसकी कल्पना और यथार्थता के बीच में कितनी बड़ी खाई होती डडडड बाल–कल्पनाओं और घोषणाओं का यदि कोई लेखा−जोखा रखा जा सके तो प्रतीत होगा कि वे जितनी भोली भाली और मृदुल थीं उससे अधिक वे अवास्तविक भी थीं।

सुविकसित व्यक्तित्व वाले प्रौढ़ व्यक्तित्व को न तो बूढ़ों की तरह भूत उपासक होना चाहिए ओर न बालकों की तरह भविष्य वक्त बनने का उपहासात्मक उपक्रम बनाना चाहिए। यथार्थवादी होना चाहिए और वर्तमान पर सारा ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। प्रौढ़ता में ही वह साहस होता है जो वर्तमान की कठिन चुनौती को स्वीकार कर सके।

वर्तमान,आज की जटिल समस्याओं को लेकर सामने आता है और सामाधान के ऐसे हल चाहता है जो प्रबल पुरुषार्थ और प्रखर मनोबल के आधार पर ही ढूंढ़े निकाले जा सकते है पौरुष जितना गौरवशाली है उतना ही उन उत्तरदायित्वों से लदा हुआ भी है जो मनस्वी एवं दूरदर्शी आन्तरिक स्थिति होने पर ही निबाहे जा सकते हैं।

कल क्या करना है − इसकी रूपरेखा सामने रहनी चाहिए ताकि उस आधार पर वर्तमान प्रयासों को अग्रसर किया जा सके। किन्तु भविष्य को सुनिश्चित मानकर नहीं चला जाना चाहिए। मनुष्य की अकेली इच्छा ही सब कुछ नहीं है −परिस्थिति कल बदल सकती है और आज की इच्छा भी कल किसी कारण शिथिल हो सकती है। ऐसी दशा में दूसरों को आकर्षक आश्वासन देने या आशान्वित करने का मूल्य ही कितना रह जाता है।

भविष्य में यह करने की इच्छा है इस प्रकार विचार व्यक्त करने में और उस संदर्भ में दूसरे से परामर्श लेने में हर्ज नहीं। भावी योजनाएँ बनती है और बनाई जाती हैं सो उचित भी हैं और आवश्यक भी। पर मैं यह कर ही लूँगा ऐसा उद्घोष नहीं करना चाहिए। हाँ वैसा करने के लिए शक्ति भर और पूरी ईमानदारी से प्रयत्न करने का संकल्प किया जा सकता है और उस निश्चय को कार्यान्वित करने में तत्परता पूर्वक जुटा जा सकता है। ऐसे साहसिक प्रयत्नशीलता सम्भवतः अपने आज के संकल्प को बहुत हद तक पूरी भी रह सकती है। तब सफलता जितनी भी मिल सकी वह प्रशंसनीय कही जा सकता। इसके विपरीत यदि लम्बी−चौड़ी उद्घोष किये गये हैं और वे आवेश मात्र सिद्ध हुए तो इससे अपना शिर लज्जा से नीचा होगा और दूसरों को व्यंग करने का अवसर मिलेगा।

उचित यही है कि हम आज की बात सोचे ओर आज के काम आज ही निपटाने क प्रयत्न करें। आज के उत्तरदायित्व भी इतने बड़े और इतने अधिक हैं कि उनकी पूर्ति सही रीति से कर सकने में बढ़े चढ़े प्रयास, साहस, साधन, और बुद्धिबल को नियोजित करने ही कुछ काम चलता है हमें इसी केन्द्र पर अपने को केन्द्रित करना चाहिए।,कोई सत्कर्म करना है तो आज ही करना चाहिए। महा प्रभु ईसा कहते थे कि जो सत्कर्म करना है सो आज ही कर। बांये हाथ में जो दान के लिए है उसे दाहिने हाथ मत लेजा। ऐसा न हो कि इस फेर बदल में तेरा मन बदल जाय और जो देना चाहता है वह न दे सके।’ बुद्धि मान सदा से यही कहते रहे है कि −सौ मन कथनी की अपेक्षा एक सेर ‘करनी’ का महत्व अधिक है। घोषणाएँ करते फिरने की अपेक्षा यह अच्छा है कि हम अपनी सदाशयता का परिचय आज की कर्मनिष्ठा द्वारा व्यक्त करें।’

जीभ छोटी बनाई गई है हाथ बड़े। जीभ एक है और हाथ दो। यह अनुपात इसलिए रखा गया है कि हम कहें कम, करें अधिक। क्रिया ही किसी की सद्भावना का सच्चा प्रमाण है जीभ तो भावावेश में कुछ भी कह सकती है। जीभ तो भावावेश में कुछ भी कह सकती है और वह उन्माद उतरते ही पिछली बात को बदल भी सकती है पर क्रिया तो क्रिया ही रहेगी। संकल्प में जितना अन्तर हैं उतना घोषणा और क्रिया में भी रहता है आमतौर पर लम्बी चौड़ी घोषणाएँ आवेशग्रस्त ही करते है अत्युत्साह की मनः स्थिति में प्रायः स्थिति में प्राय यह स्मरण नहीं रहता कि जो कहा जा रहा है उसे कल कार्यान्वित किया भी जा सकेगा या नहीं। जो न किया जा सके उनके कहने से क्या लाभ? जो कहने को जी चाहती ही उसके पीछे दूरगामी चिन्तन −उपयुक्त साधन ओर अविचल संकल्प −बल हो तो ही घोषणा के लिए कदम बढ़ाना चाहिए, अन्यथा जो बन पड़ेगा वह अधिक से अधिक तत्परता एवं सदाशयता के साथ करते इतना कथन ही पर्याप्त हैं।


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