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April 1974

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“अध्यात्म और व्यवहार अलग−अलग अन्धे और पंगु के समान है। दानों अलग रहकर मंजिल नहीं पा सकते। दोनों का संयोग ही योग है।”

—आचार्य तुलसी

व्यसंग सबसे बुरे और सबसे घिनौने डडडड की लोग यह सोचते रहते हैं कि उनके डडडड संग्रहित होगी उसी हिसाब से स्वडडडड बढ़ेगा। लोग उनके भाग्य और डडडड बड़प्पन का गौरव प्रदान अनेकों को बढ़−चढ़कर बहुमूल्य संपदा डडडड प्रोत्साहन दिया। वे उस संचय डडडड लोगों की आँखों को चौंधियाने का डडडड सम्भव है उनके आस−पास घिरे डडडड समर्थन भी किया हो और प्रशंसा डडडड अन्ततः इसका क्या परिणाम हो डडडड सके और न समझ सके।

डडडडत प्रदर्शक ईर्ष्या को जन्म देता है। डडडड करने के लिए अनेकों के मुँह में से डडडड जैसे भी बने वैसे उसे हथियाने के डडडड का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार डडडडन्त्रित करने का श्रेय या दोष उस संग्रह और उसके उद्धत प्रदर्शन को डडडड है।

डडडड इतिहास इसी प्रकार का है। वह जहाँ भी गया, जहाँ भी रहा अपने साथ विपत्ति भी लेकर गया और उसे रखने वाले के लिए प्राणघात की विपत्ति संजोये रहा। शाहजहां ने ‘तख्त ताऊत’ इसलिए बनवाया था कि वह संसार के सबसे वैभवशाली लोगों में गिना जा सके। उसकी पीढ़ियाँ उस पर बैठ कर पुरखों के पुरुषार्थ के गीत गाती रहें, पर वैसा हो न सका जैसा कि चाहा गया था। वैभव का संपादन करने वालों की दुर्भाग्य से एक आँख कानी होती है। वे एक पक्षी—एकाँगी विचार कर पाते हैं यह नहीं देख सोच पाते कि सम्पत्ति संग्रह का एक विपरीत पक्ष भी है और वह इतना घातक है कि महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति को अत्यंत कष्टकारक परिस्थितियों में सदल देता है।

कोहिनूर हीरे का इतिहास भी बड़ा विचित्र और विलक्षण है। भागवत पुराण में उसका उल्लेख स्वमतक मणि के रूप में मिलता है। द्वारिका के एक नागरिक सत्राजित के पास वह था। कृष्ण ने उससे कहा यह मणि राजा के योग्य है। उसे महाराज उग्रसेन के पास पहुँचाना चाहिए। सत्राजित एस पर तैयार न हुआ तो घटना−क्रम ने दूसरा ही मोड़ ले लिया। सत्राजित का भाई प्रसेनजित उसे सदा छाती से लगाये फिरता था एक दिन सिंह ने प्रसेनजित को मार कर वह मणि छीनी, सिंह को रीछ ने मारकर उस पर कब्जा जमाया। रीछ की भी खैर नहीं रही। श्री कृष्ण ने रीछ को परास्त किया उसने न केवल मणि को वरन् उसकी बेटी को भी हथिया लिया। श्री कृष्ण भी उसे पाकर चैन से न बैठ सके और बहेलिये के हाथों मारे गये। उसके बाद वह पाण्डु वंशियों के पास पहुँचा। परीक्षित, जन्मेज, चन्द्रगुप्त मौर्य, बिम्बसार, अशोक, ब्रहद्रथ, पुष्य मित्र—एक के बाद एक के पास पहुँचने की कथाएँ भी बड़ी कष्टकर हैं। उसका हस्तान्तरण शान्ति और सद्भावना पूर्ण नहीं हुआ वरन् दुरभि संधियाँ और हत्याएँ ही उसे इधर−उधर लिये फिरीं।

कनष्कि, चन्द्रगुप्त, हर्षवर्धन के बाद डडडड यशोवर्मा के पास पहुँचा। उनके वंशज राजा रामदेव पर अलाउद्दीन खिलजी ने आक्रमण किया और मालव देश को पद दलित करके उस हीरे को हथिया लिया। इसके बाद दिल्ली के बादशाहों के अधिकार में वह देर तक बना रहा। इब्राहीम लोदी की पराजय के बाद उसकी बगम दिल्ली छोड़कर आगरा आ गई थी। उस पर हुमायूं ने हमला कर दिया। इज्जत बचाने के लिए बेगम को हीरा हुमायूँ की भेंट करना पड़ा।

हुमायूँ की मौत सीढ़ी पर से फिसलने के कारण हो गई पीढ़ियों तक उसके वंशजों के पास बना रहा। मुहम्मदशाह पर ईरानी लुटेरे नादिरशाह ने हमला कर दिया और उसकी पगड़ी में छिपा हीरा झटक कर अपने कब्जे में कर लिया। नादिरशाह के मुँह से उसे देखते ही शब्द निकला—कोह—ए—नूर—अर्थात् प्रकाश का पर्वत। इसे लेकर प्रचुर सम्पदा के साथ वह वापिस लौटा तो रास्ते में भयानक तूफान में उसकी सेना तथा सम्पदा का बड़ा भाग नष्ट हो गया। नादिरशाह चैन से न बैठ सका। उसके मतीजे अलीकुली खाँ ने ही उसका काम तमाम कर दिया। उसका यह लाभ अफगान सेनापति अहमदशाह अब्दाली से न देखा गया उसने अलीकुली खाँ को मौत के घाट उतारा और कोहनुन अपने कब्जे में कर लिया।

अहमद शाह अब्दाली के बाद उसका पुत्र तैमूर शाह इस हीरे का अधिकारी बना। वह जब मरा तो अपने पीछे 23 बेटे छोड़ गया। उनमें सत्ता के लिए तुमुल युद्ध हुआ। उसमें जमान शाह जीता। उससे छीनने के लिए उसके विश्वासी भाई महमूदशाह ने ही उसे कैद में डाल दिया और मन्त्रणा देकर आँखें निकलवालीं। महमूद को कुचल कर शाहशुजा ने उसे पाया। शाहशुजा कैद में पड़ा हुआ था। उसने अपनी मुक्ति के लिए पंजाब के महाराज रणजीतसिंह से अपनी बेगम के द्वारा प्रार्थना कराई और बदले में कोहिनूर देने का वायदा किया। महाराज ने काबुल के वजीर फतह खाँ को साथ लेकर शाहशुजा को छुड़ाया। शाहशुजा ने छूटने पर हीरा देने में आनाकानी की तो उसे महाराज ने यन्त्रणा देकर विवश कर दिया। उसे देना तो पड़ा पर वह अन्य हीरों के साथ भाग खड़ा हुआ और अंग्रेजों से जा मिला।

महाराज रणजीत सिंह के मरने के बाद उनका राज्य अंग्रेजों के हाथों में चला गया और साथ ही वह बहुमूल्य हीरा भी। महारानी विक्टोरिया के ताज में उसे और भी खूबसूरत बनाकर जड़ा गया। इसे तराशने और चमकाने में योरोप के कुशलतम रत्न−शिल्पी 38 दिन तक लगे रहे और उसे पहले की अपेक्षा अधिक सुन्दर बनाया।

कोहिनूर प्रख्यात है—बड़ा है इसलिए उसकी चर्चा भी बड़ी है। छोटी−मोटी रत्न राशियाँ भी ऐसी ही विपत्ति सँजोये हुए मिलेंगी। चूँकि छोटी सम्पदाएँ छोटे लोगों के पास होती हैं और उनकी प्रतिक्रिया एवं विपत्ति भी ऐसी होती है जो सम्बद्ध लोगों को तो पूरी तरह संत्रस्त करे पर ऐतिहासिक घटनाओं में अपना स्थान न पा सके। हस्र छोटे और बड़े अनावश्यक संग्रह का प्रायः एक जैसा ही होता है।

ऐसी ही दुर्गति शाहजहाँ के उन अरमानों की हुई जिनमें वह विपुल सम्पदा का स्वामी बनकर गौरवशाली बनने के स्वप्न देखता रहता था। तख्त ताऊस (मयूर सिंहान−) शाहजहाँ ने बनवाया था, उसमें 12 करोड़ रुपये के रत्न जड़े थे उसके निर्माण में सात वर्ष लगे और तत्कालीन श्रेष्ठतम रत्न शिल्पियों ने उसे बनाने में अपना पूरा श्रम, समय एवं मनोयोग लगाया। इसमें पन्ने से बने पाँच खम्भों पर मीनाकारी का छत्र बना हुआ था। पाये ठोस सोने के बने थे। खम्भों पर दो−दो मोर नृत्य करते हुए बनाये गये थे। प्रत्येक जोड़े के बीच में हीरे—लाल, मोती, पन्ने आदि रत्नों से जड़ा एक−एक पेड़ था। बैठने के स्थान तक पहुँचने के लिए तीन रत्न जटित सीड़ियां थीं। उसमें कुल मिलाकर ग्यारह चौखटे थीं। मीनाकारी का स्वर्ण छत्र देखते ही बनता था। तख्त ताऊस को अपने समय की अद्भुत और बहुमूल्य कलाकृति माना जाता था।

जिन अरमानों के साथ शाहजहाँ ने उसे बनाया था वे पूरे न हुए। वह कुछ ही दिन उस पर बैठ पाया था कि उसके बेटे औरंगजेब ने उसे पकड़ कर कैद में डाल दिया। औरंगजेब के बाद मुगल साम्राज्य का पतन आरम्भ हुआ। मुहम्मद शाह राज्याधिकारी था। उस पर ईरान का नादिरशाह चढ़ दौड़ा और भारी लूट−खसोट के अतिरिक्त तख्त साऊस भी फारस उठा ले गया। उसी के कुटुंबी कुर्दा ने नादिरशाह की हत्या कर दी और उसका सारा माल असबाब छीन लिया और जिसमें यह मयूर जड़ित सिंहासन भी सम्मिलित था। लुटेरों ने उसके टुकड़े−टुकड़े कर डाले और उन्हें आपस में बाँट दिया। बटवारे में उस शानदार शामियाने का भी कतरव्यौंत कर लिया जो उस सिंहासन के ऊपर ताना जाता था और, रत्नों की झिलमिलाहट में आकाश में चमकने वाले सितारों की बहार देता था।

इसके कुछ समय बाद ईरान की सत्ता आगामुहम्मद शाह ने सम्भाली। उसने नादिरशाह के लुटेरे वँशजों को पकड़ कर भारी यातनाएँ दीं और लूट का सारा माल उगलवा लिया। इस वापिसी में तख्त ताऊस के टुकड़े भी शामिल थे। जौहरियों ने उन टुकड़ों को जोड़−तोड़कर एक नया तख्त ताऊस बनाया। इसके बाद भी वहाँ अराजकता और गृह युद्ध का सिलसिला चलता रहा और उसे फिर लूट लिया गया। रत्नों को उखाड़ लिया और कीमती पत्थरों को भविष्य में फिर कभी काम में लाने की दृष्टि से समुद्र में किसी खास जगह छिपा दिया गया। छिपाने वाले उस स्थान को बता नहीं सके और वे अवशेष अभी भी ईरान के समुद्र तट के निकट उथली जल राशि में छिपे पड़े हैं। ढूँढ़−खोज से अभी तक उनका पता नहीं चल सका।

अहंकारी मनुष्य न जाने कब तक सम्पत्तिवान होने पर बड़ा आदमी बनने की साघ सँजोये रहेगा। रावण,हिरण्यकश्यप से लेकर नेपोलियन, सिकन्दर तक इसी मूर्खता में अपनी प्रतिभा को नष्ट कर चुके और दुखदायी अन्त देख चुके। हमारी आँखें यदि उन अनुभवों से खुल सकें और संग्रह की अपेक्षा सदुपयोग के लिए अपना उपार्जन प्रयुक्त कर सकें तो कितना अच्छा हो।


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