स्वल्प साधन—कठिन मार्ग

April 1974

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चलते−चलते संध्या का झुटपुटा हो गया। समय के रथ पर सवार भगवान भास्कर अस्ताचल गामी होने लगे। अमावस्या की अन्धकारमयी रात्रि थी। हाथ को हाथ दिखाई नहीं देता था। अभी मञ्जिल दो कोस दूर थी। पास ही साधु की एक कुटिया थी। वह वहाँ पहुँचा और बड़े दीन भाव साधु से निवेदन करने लगा—’महात्मन् मुझे अपनी मंजिल पर समय पहुँचना है। अन्धेरी रात है। बीहड़ मार्ग है। यदि मैं आज न पहुँच सका तो जीवन का अलभ्य अवसर मेरे हाथ से निकल जायेगा। ऐसे विपत्तिकाल में आप मेरी सहायता कीजिये।’

‘कुटिया में रखा सकते दीपक यदि आपके काम आ सके तो सहर्ष ले जा सकते हो। शाम का भोजन मैं कर ही चुका। केवल विश्राम करना है उसके लिए प्रकाश की कोई आवश्यकता भी नहीं।

यात्री प्रसन्न हुआ। उसे एक सहारा मिल चुका था। उसने दीपक उठाया और चल पड़ा मंजिल की ओर। दो−चार खेतों को ही पार किया होगा कि उसके कदम मंजिल की ओर न बढ़ कर कुटिया की ओर लौट पड़े। दीपक को यथास्थान रखते हुए उलाहने के स्वर में यात्री ने कहा—’इस दीपक का क्षीण प्रकाश चार−पाँच कदम से आगे पहुँचता ही नहीं फिर मैं दो कोस की मंजिल को कैसे तय करूंगा। जीवन का स्वर्ण अवसर भले ही खो जाये इस क्षीण प्रकाश के सहारे यात्रा करके मैं अपने जीवन को संकट में नहीं डालना चाहता। महात्मन्! मुझे तो आप अपनी कुटिया में रात बिताने की आज्ञा दीजिये। मैं एक किनारे पड़ा रह कर रात्रि काट लूँगा। विश्वास करें मेरे रहने से आपकी साधना में किसी प्रकार की बाधा न आयेगी। सुबह होते ही मंजिल की ओर तेजी में कदम बढ़ाकर पहुँचने का प्रयास करूंगा।’

यात्री को ठहरने में भला साधु को क्यों आपत्ति होती। उन्होंने सहर्ष स्वीकृति दे दी। यात्री थका हुआ तो था ही सोते ही गहरी नींद में खो गया। लगभग एक घण्टे के बाद एक अन्य यात्री उधर से निकला। हाथ में दीपक था जो क्षीण प्रकाश बिखेरता हुआ उसके मार्ग को प्रशस्त करता जा रहा था। यात्री ने कुटिया की ओर एक दृष्टि डाली और बिना रुके आगे बढ़ने लगा। साधु कुटी से बाहर आया। उसने यात्री को रोकते हुए कहा—’ऐसा लगता है कि आप लम्बी यात्रा तय करके आ रहे हैं। काफी थक गये होंगे। दिन भर के भूखे, प्यासे होंगे। क्यों न रात्रि भर यही विश्राम कर लें, प्रातःकाल होते ही यहाँ से चले जाना। एक अन्य यात्री भी कुटिया में विश्राम कर रहा है। दोनों का साथ हो जायगा, बातचीत करने से रास्ता कब कट गया पता भी न चलेगा।’

साधु ने पुनः पूछा—आपके हाथ में यह छोटा सा दीपक है। जिसका क्षीण प्रकाश है। क्या इस प्रकाश में आगे बढ़ते हुए भय नहीं लगता। क्या रास्ता साफ दीख जाता है?’

‘इसे आप क्षीण प्रकाश कहने है।’ यात्री ने आश्चर्य कहा—’यह प्रकाश तो मुझसे सदैव चार−पाँच कदम आगे ही रहता है। कठिनाई नहीं होती। आन देख नहीं रहे इसी के सहारे मैं दो कोस की यात्रा कर आया हूँ और अब आगे तो उतना ही और चलना भर है।’

साधु अपने प्रश्न से सन्तुष्ट था। वह यात्री के मनोबल की परीक्षा ले चुका था। उसने आशीर्वाद देते हुए कहा—’वत्स! तुम्हारी यह यात्रा बिना किसी विघ्न के पूर्ण हो ऐसी मेरी शुभ कामना है।

यात्री के पास अधिक कहने−सुनने के लिए समय कहाँ था। वह तो दीपक के क्षीण प्रकाश में आगे बढ़ गया। जब कि स्वल्प प्रकाश और घने अन्धकार को उलाहना देने वाला विराम की निद्रा में लम्बी चादर तान कर सो रहा था।क्या हम ईश्वर देख सकते हैं−उससे वार्तालाप कर सकते हैं। इस प्रश्न का उत्तर नहीं में भी दिया जा सकता है और हाँ में भी। नहीं उस स्थिति में जब ईश्वर को कोई आसमान में ठहरा हुआ और मनुष्यों जैसी आकृति प्रकृति का मान कर चला जाय। यह विशुद्ध भावनात्मक कल्पना है जो सम्भवतः ध्यान की एकाग्रता अथवा उत्कृष्टतम मानव का स्वरूप निर्धारण करते हुए उसके सदृश बनने की लक्ष्य स्थापना के लिए की गई प्रतीत होती है उसके अनेक नाम रूप ही नहीं गुण स्वभाव की भारी भिन्नता वाले अगणित स्वरूप भी यही बताते हैं कि यह यथार्थता नहीं काल्पनिक स्थापना है। यदि ईश्वर की कोई यथार्थ आकृति होती तो वह सूर्य, चन्द्र आदि की तरह समस्त विश्व में एक ही प्रकार की दृष्टिगोचर होती। तब देश जाति एवं सम्प्रदायों द्वारा प्रस्तुत अनेकानेक ईश्वरीय आकृतियाँ क्यों दिखाई पड़तीं। तब इन ईश्वरों के बीच मान्यताओं और क्रियाकलापों का जमीन, आसमान जितना अन्तर क्यों रहता।

ऐसे काल्पनिक ईश्वर को देखना और उससे वार्तालाप करना यदि किसी के लिए सम्भव हो सके तो उसे उसका भावातिरेक ही कहा जायगा। अपनी कल्पना और आस्था का समन्वय भी कम विचित्र नहीं है। उससे अन्धेरे में खड़ी झाड़ी भूत बनकर हमें इतना डरा देती है कि प्राण−घातक संकट आ उपस्थित हो। भूत−पलीतों के विविध क्रिया−कौतुक मनुष्य की सघन कल्पनाओं के अतिरिक्त और क्या है? ठीक इसी प्रकार ईश्वर भी संकल्प शक्ति एवं आस्थाओं स मिश्रित भावुकता के आधार पर गढ़ा जा सकता है। उसके दर्शन भी हो सकते हैं और वार्तालाप भी हो सकता है पर इसका परिणाम कुछ नहीं। कल्पना की परिपुष्टि कल्पना के आधार पर कर लेने का रात्रि स्वप्न अथवा दिव स्वप्न किसी का कुछ प्रयोजन पूरा नहीं कर सकता। ऐसे भावुक लोगों की कमी नहीं जो अपने कल्पित देवी−देवताओं के अक्सर दर्शन करते रहते हैं। वे कभी स्वप्न में दिखाई पड़ते हैं, कभी अर्ध जागृत अवस्था में। यदि वह दर्शन वास्तविक रहे होते तो इतना बड़ा देव अनुग्रह प्राप्त करने वाले के व्यावहारिक जीवन में, स्तर में तथा परिस्थितियों में अन्तर अवश्य पड़ा होता। देवता जिस पर इतने प्रसन्न हों कि दर्शन देने दौड़े आवें, उस पर वे अन्य कृपायें भी अवश्य करेंगे और उसका स्तर देवोपम बना देंगे। पर यदि वैसा कुछ नहीं होता और दर्शनों का सिलसिला चलता रहता है तो यथार्थवादी इतना ही कह सकता है कि विनोद की एक अच्छी मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि हाथ लग गई।

इस स्तर के ईश्वर का दर्शन करने की बात सोचना बालबुद्धि से अधिक और कुछ नहीं है। वैसा लाभ किसी को मिल भी जाय तो उससे किसी उच्च प्रयोजन की सिद्धि की आशा नहीं करनी चाहिए। विवेकवान व्यक्ति इस जंजाल में नहीं उलझते वरन् तत्व−चिन्तन की गहराई में उतर कर इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अनन्त में संव्याप्त दिव्य चेतना का लाभ ही ईश्वर हे। मनुष्य और इस ईश्वर का मिलन स्थल मानवी अन्तःकरण ही हो सकता है। व्यक्ति की समाविष्ट दिव्य चेतना का केन्द्र स्थल उसका अन्तःकरण ही है। सजातीय के साथ ही सजातीय का मिलना सम्भव है। आत्मिक−चेतना ही ईश्वरीय चेतना के समकक्ष है। अस्तु उन्हीं दोनों का पारस्परिक मिलन सम्भव हो सकता है। हाड़−माँस से बनी शरीर सत्ता और उसके साथ जुड़ी हुई इंद्रियां स्वयं जड़−पदार्थों से बनी हैं अस्तु वह जड़ पदार्थों को ही देख सकती या अनुभव कर सकती हैं। यदि ईश्वर जड़ पदार्थों का बना अचेतना स्थूल वस्तुओं जैसा रहा होता तो ही आँख से उसे देखना और कान से उसकी आवाज सुनना सम्भव हो सकता था। अस्तु जिस प्रकार एक मनुष्य दूसरे को देखता है या अपनी कहता उसकी सुनता है उस स्तर का दर्शन अथवा वार्तालाप सम्भव नहीं हो सकता।

अर्जुन ऐसा ही आग्रह कर रहा था कि मुझे भगवान का दर्शन करना है। इस पर कृष्ण न कहा यह चर्म चक्षुओं से सम्भव नहीं हो सकता। इसके लिए उसे दिव्य चक्षु दिये गये। दिव्य चक्षु अर्थात् दिव्य दर्शन, तत्व दर्शन, विवेक। उसी के माध्यम से अर्जुन ने इस विराट् विश्व ब्रह्माण्ड के दर्शन किये थे। वैसे ही हमारे लिए भी सम्भव हो सकता है। यदि प्रत्यक्ष ईश्वर देखना हो तो यह विश्व उसी का स्वरूप देखा जा सकता है और उसके अन्तराल में सन्निहित विश्वात्मा को परमात्मा सत्ता के रूप में भाव सम्वेदना के क्षेत्र में दर्शन इस प्रकार ही सम्भव है।

उससे वार्तालाप करना हो तो सत् शास्त्रों के स्वाध्याय में—महा मान करके सत्संग सान्निध्य में—तत्व दर्शन के मनन चिन्तन में सम्भव हो सकता है। टेलीफोन वार्ता की तरह भगवान से वार्तालाप करने की और टेलीविजन पर चलते−फिरते ईश्वर को देखने की निरर्थक उड़ानें उड़ना छोड़कर ही हम वास्तविकता के निकट पहुँच सकते हैं। भ्रम जंजाल गढ़ कर तो हम अपने आपको अवास्तविकता के ऐसे जाल में अधिकाधिक फँसाते चले जायेंगे जिसमें बालू से तेल निकालने जैसे निरर्थक प्रयासों की तरह निराशा ही हाथ लगेगी। सुखद कल्पना गढ़ लेना और ईश्वर के साथ क्रीड़ा कल्लोल, हास−विलास करते रहना एक बात है और वैसी यथार्थता का होना दूसरी। कलपना की उड़ानें सम्भव है किसी का भावनात्मक समाधान कर सकें पर वास्तविकता के क्षेत्र में उसके हाथ कोई बड़ी उपलब्धि मिल नहीं सकेगी यह भी सत्य है।

ईश्वर दर्शन उचित भी हैं और आवश्यक भी। पर उस लाभ से लाभान्वित तभी हुआ जा सकता है जब उसके लिए उपयुक्त स्थान चुने और आधार अपनायें। मानवी अन्तःकरण ही वह स्थान है जहाँ उत्कृष्ट भावनाओं एवं विचारणाओं के रूप में मनुष्य और परमेश्वर का मिलन सम्भव हो सकता है। उसी मिलन में वार्तालाप की भी पूरी सम्भावना विद्यमान है। मिलन और वार्तालाप की दोनों आवश्यकताएँ एक ही स्थान पर एक ही समय पूरी हो सकती है। इसके लिए अपने अन्तःकरण को छोड़कर अन्यत्र भटकने की जरूरत नहीं है। प्रतीक पूजा का आधार इसी लिए लिया जाता हे कि हमारी जड़ विमूढ़ चेतना क्रमशः ईश्वर के सान्निध्य में पहुँचें इसके लिए श्रद्धा उगाये और तादात्म्य होने के लिए अभ्यास जुटाये। इससे आगे की मंजिल पूरी करने के लिए तो हमें बहिरंग जड़ जगत में से अपने को समेट कर अन्तरंग क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए ही कदम बढ़ाने पड़ते हैं। इट पत्थरों के बने देवालयों में स्थापित पाषाण प्रतिमाएँ आरम्भिक श्रद्धा जागरण की दृष्टि से ही उपयुक्त होती है वे ईश्वर प्राप्ति का—उसके दर्शन अथवा वार्तालाप का उद्देश्य पूरा नहीं करा सकतीं। इसके लिए तो उसी तीर्थ में जाना पड़ेगा जहाँ ईश्वरीय प्रकाश की सीधी किरणें आती हैं और जिसे अंतःकरण के नाम से जाना जाता है। सच्चा देवमन्दिर अपना अन्तः क्षेत्र ही है उसी में अन्तःकरण रूपी सजीव देवप्रतिमा प्रतिष्ठापित है। इसी मर्म स्थल से संपर्क बनाकर हम अपने अध्यात्म लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं। आत्म साक्षात्कार एवं ईश्वर दर्शन के महान लक्ष्य की पूर्ति के लिए हमें इस सुनिश्चित स्थान के साथ ही गहन संपर्क बनाना होगा।

अपने भीतर ही वह सत्ता विद्यमान है जो हमारा श्रेष्ठतम मार्ग दर्शन कर सके और समस्त समस्याओं का हल प्रस्तुत कर सके। अभीष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन जुटा सकना भी पूर्णतया उसकी सामर्थ्य के अंतर्गत है। इस सत्ता केन्द्र का नाम अन्तःकरण है। मनुष्य और ईश्वर का जब कभी—जितना कुछ भी संपर्क बनेगा इस केन्द्र स्थल पर बनेगा। आत्मा और परमात्मा की प्रणयकेलि का सुसज्जित एकान्त उद्यान यही है। वस्तुतः ईश्वर की सत्ता और महत्ता अत्यन्त व्यापक है उसे अचिन्त्य और अनिर्वचनीय कहा जा सकता है।

सुविस्तृत ब्रह्माण्ड में—ग्रह नक्षत्र में एक से दूसरे की दूरी कितनी अधिक है इसकी गणना अंक देखते ही बुद्धि चकरा जाती है और उनकी भ्रमण कक्षाओं के क्षेत्र की कल्पना की जाय तो बुद्धि को प्रतीत होगा कि इतने विस्तार का चिन्तन तक उसके लिए असम्भव है। मानवी जानकारी से बाहर भी न जाने कितनी निहारिकाएँ और होंगी, वे जितने घेरे को स्पष्ट करती होंगी, उनके भीतर भिन्न−भिन्न प्रकार की परिस्थितियां और शक्तियाँ काम कर रही होंगी? उनमें रहने वाले जड़ चेतन पदार्थों की स्थिति में कितनी भिन्नता और कितनी विशेषता होगी उनका सबक नियन्त्रण संचालन का सूत्र संचालन का सूत्र संभालने वाला कितना कार्य किस प्रकार करता होगा? इन सब प्रश्नों पर जब विचार करना आरम्भ करते हैं। तो तत्वदर्शी मनीषियों की तरह हमें भी अचिन्त्य,अनिर्वचनीय अनादि,नेति नेति आदि कहकर अपनी चिंतनात्मक असमर्थता और तुच्छता स्वीकार करनी पड़ती है। समग्र ईश्वर का प्राप्त करना तो दूर उसके विस्तार सम्बन्धी कल्पना तक कर सकना हमारे लिए शक्य नहीं।

ईश्वर को “अणोरणीयान् महती महीयान्” कहा गया है। महती महीयान् को प्राप्त कर सकना अपने साधनों को देखते हुए सम्भव नहीं। हम उसकी अणोरणीयान् सत्ता से ही संपर्क बना सकते हैं और इस मर्मस्थल में तादात्म्यता प्राप्त करके अपनी व्यापकता भी ईश्वर की तरह ही असीम बना सकते हैं। ब्रह्म वेत्त इसी प्रयास की तरह ही असीम बना सकते है। ब्रह्म वेत्ता इसी प्रयास में निरत रहे हैं और उन्होंने तत्व ज्ञान के मार्मिक रहस्योद्घाटन करते हुए यही कहा है कि ईश्वर से संपर्क बनाने का एकमात्र सही स्थान सही स्थान अन्तःकरण ही हो सकता है।

आमतौर से हमारी अभिरुचि ब्रह्म जगत में बिखरी पड़ी रहती है। तरह तरह की वस्तुओं के आकर्षण में मन भ्रमर जहाँ जहाँ संपर्क होने पर तरह तरह के स्वादों की अनुभूति होती है। इन स्वादों की रसानुभूति के लिए जी मचलता रहता है। इससे आगे और एक कदम बढ़ा तो जिन वस्तुओं या व्यक्तियों में आत्मीयता आरोपित कर ली गई थी उन्हें छाती से चिपकाये रहने की एक ओर ललक पैदा कर ली जाती है। इन दोनों प्रक्रियाओं को तृष्णा और वासना कहते है। बहिर्मुखी जीवन की अहंता इन्हीं के माध्यम से तृप्त होती है। बड़प्पन पाने क की लालसा उससे ऐसे उद्धत आचरण कराती है जिनके लिए साधन जुटाते रहना जीवन का समग्र रस निचोड़ देने पर भी स्वल्प मात्रा में ही सम्भव होता है। आकाँक्षाओं की तुलना में तृप्ति नगण्य जितनी ही मिल पाती है। बहिर्मुखी चिन्तन में निरत और लिप्सा, लालसाओं के साधन जुटाने में व्यत मनुष्य के लिए यह सम्भव ही नहीं हो पाता कि अन्त क्षेत्र में प्रवेश करके वहाँ करके वहाँ भरे पड़े अमृत भण्डार को कल्प वृक्ष को पारस को देखने और समझने में समर्थ हो सके। जब इतना ही नहीं बन पड़ो उस रतन भण्डार को कुरेद कर बहुमूल्य रत्नों को प्राप्त कर सकना तो बन ही कैसे पड़ेगा?

ईश्वर को प्राप्त कर सकना मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सफलता है। इससे बड़ी सम्पदा एवं उपलब्धि दूसरी हो ही नहीं सकती। विश्व की समस्त विभूतियों के अधिपति के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेने पर उसकी समस्त सत्ता से भी अपना सम्बन्ध बन जाता है। इसी स्थिति में जो पहुँच गया उसके लिए हर वस्तु करतल गत हो गई। उसे और कुछ प्राप्त कर सकना शेष नहीं रह गया। इस स्थिति की गरिमा को देखते हुए तत्वदर्शी ईश्वर प्राप्ति का महात्म्य वर्णन करते रहे हैं और विचारवान लोगों को उस उपलब्धि के लिए प्रयत्न करने की प्रेरणा देते रहे हैं। स्वाध्याय सत्संग −मनन चिन्तन− योग तप आदि के समस्त साधन,उपचार,ईश्वर प्राप्ति का लक्ष्य पूरा करने के लिए ही बनाये गये हैं।

यह ईश्वर कहाँ मिले? कैसे मिले? इस प्रश्न का उत्तर बालबुद्धि के प्राथमिक विद्यार्थियों को पूजा परक बाह्योपचारों की ओर इशारा करके दिया जाता है। इन्हें तीर्थयात्रा,देव दर्शन, नदी स्नान,व्रत उपवास,दान पुण्य,कथा कीर्तन,विधान कर्मकाण्ड आदि के साधन बताये जाते है। पर जिन्हें विवेक जन्य प्रौढ़ता प्राप्त हो गई उन्हें दूसरी बात बतानी पड़ती है उन्हें अन्तः भूमिका में प्रवेश करने अन्त करण को टटोलने के लिए कहा जाता है। वस्तुतः ईश्वरीय सत्ता के साथ संपर्क बना सकना और उस संपर्क बना सकना और उस संपर्क के साथ जुड़े हुए अनुदानों को प्राप्त कर सकना अन्तःकरण के इस सजीव तीर्थ में ही संभव होता है जिसकी की तुलना में बहिरंग जगत के समस्त साधन अनुदान तुच्छ पड़ते है। ईश्वर का दर्शन,वार्तालाप कर सकना इसी स्थान पर सम्भव हो सकता है।


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