रोग के साथ रोगी को भी मार डालना उचित न होगा

April 1974

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विचारशीलता का तकाजा यह रहा है कि रोग को मारना चाहिए रोगी को नहीं। अपराध और अपराधी में अन्तर किया जाना चाहिए। अपराध एक प्रवृत्ति है और अपराधी एक सत्ता। दोनों को एक ही समझ लिया जाय और अपराध के प्रति अपने रोष के आवेश में अपराधी को भी समाप्त करने की योजना बनाई जाय तो यह रोग जैसी ही भूल होगी।

प्रवृत्तियाँ सामयिक होती हैं साथ ही अस्थिर भी। उनके उतार−चढ़ाव परिस्थिति वश आते रहते हैं। कई बार बाहरी घटनाऐं सामने की उलझनें अथवा असन्तुलित मनःस्थिति मनुष्य को ऐसे क्रूर कर्म करने के लिए घसीट ले जाती है जैसा करना उसकी मूल प्रकृति में सम्मिलित नहीं था। नशे की बदहवासी में मनुष्य न जाने क्या−क्या कहता और क्या−क्या करता है, पर नशा उतर जाने के बाद वह स्थिति नहीं रहती। ठीक इसी प्रकार आवेशों की स्थिति में मनुष्य न जाने क्या−क्या कहता और क्या करता है पर वह उन्माद उतरते ही उस असन्तुलित स्थिति में किये गये कुकर्मों के प्रति पश्चात्ताप भी कम नहीं होता।

अपराधी मनःस्थिति आवेश ग्रस्तता है—मनुष्य की स्वाभाविक प्रकृति नहीं। ज्वर एक आवेश है जीवन क्रम नहीं। सभी आवेश एक आपत्तिकालीन विपत्ति के समान होते हैं। उनसे बचने और बचाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। यों आपत्तिग्रस्त को हटा देना या मिटा देना भी एक उपाय हो सकता है पर वह है बड़ा महंगा। अपना कोई स्वजन रोगी हो तो चिकित्सा, परिचर्या चिन्ता आदि से बचने का एक उपाय यह भी हो सकता है कि उस रोगी स्वजन को मार डाला जाय। ‘न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी’ वाली उक्ति के अनुसार इस उपाय का भी समर्थन किया जा सकता है। पर, दूरदर्शिता यही कहेगी केवल रोग को हटाया जाय, रोगी को तो जीवित रहना चाहिए। इसी मान्यता के कारण चिकित्सकों, चिकित्सालयों और औषधि निर्माण की गतिविधियाँ चल रही हैं। यदि रोग और रोगी दोनों को ही साथ−साथ मिटा देने वाली बात सही होती तो बीमारों के लिए वध गृह ही विनिर्मित किये जाते और चिकित्सा प्रक्रिया के लिये झंझट भरे आधार खड़े नहीं किये जाते।

अपराधियों से अपना पाला पड़ते रहना स्वाभाविक है। क्योंकि अपच की तरह अनाचार भी अब एक सभ्यता जन्य रोग हो गया है। वह एक फैशन बन गया है। नेक की के बदले बदी—मैत्री के बदले छल और विश्वासघात मिलने की बात पग−पग पर देखी जा सकती है। आतंकवादी, अपराधी, अनाचारी और आततायी तत्व अब बेहिसाब बढ़ रहे हैं। उनके उपद्रव आये दिन कुहराम मचाये रहते हैं। प्रतिरोध के अभाव में उनकी बढ़ती हुई उच्छृंखलता को गले उतारना खून का घूँट पीने के समान कष्टसाध्य होता है।

ऐसी दशा में आक्रमण का उत्तर प्रत्याक्रमण भी हो सकता है। आत्म−रक्षा के लिए इस प्रकार की छूट कानून ने भी दी है और न्याय की आचार संहिता ने भी। पुलिस कानून और न्यायालयों की संरचना उसी उद्देश्य के लिए की गई है। समाज शास्त्र और नागरिक शास्त्र के अनुसार यह मानवी कर्त्तव्य घोषित किया गया है कि आततायी तत्वों का मिल−जुल कर सामना किया जाय। एक को सताया जा रहा है तो दूसरे सब लोग उसका प्रतिरोध करने के लिए उठ खड़े हों। अनीति कर्त्ता का न हो कोई समर्थन करे और न सहयोग दे। इतना ही नहीं, यह सोचकर चुप भी न बैठें कि हमें दूसरों के झंझट में पड़ने से क्या लाभ? जिस पर बीते वह भुगते। इस असामाजिक मनोवृत्ति के कारण ही हर भले मानुष को एक−एक करके गुण्डा तत्वों का शिकार होना पड़ता है और थोड़े से आतंकवादी सौम्य जनता की विशाल जनसंख्या को चुनौती देते रहते हैं और किसी को भी अपने उत्पात का शिकार बनाते रहते हैं। उद्दंड और अपराधी प्रवृत्तियों को पनपने के लिए आवश्यक खाद−पानी—जनसमाज की इस कायरता और स्वार्थपरता भरी उपेक्षा वृत्ति से ही मिलता है। यदि अपराधों के प्रति सर्वत्र सजगता रहे—एक पर अनीतिपूर्वक किया गया आक्रमण समस्त मानव जाति पर किया गया हमला माना जाय तो कहीं भी किसी पर भी किये गये अभ्यास को अपने ऊपर किया गया अनाचार ही माना जायगा। सामूहिक प्रतिरोध के सामने मुट्ठी भर अपराधियों को—अपराधों को—ऐड़ी के नीचे रगड़ कर रख दिया जा सकता है।

अपराधों को रोकने के लिए, अपराध कर्ताओं की दुष्टता से निपटने के लिए आवश्यक जनमत जागृत किया जाना चाहिए और जन सहयोग जुटाया जाना चाहिए। सरकारी विभाग भी यदि सहयोग करे तो उसे लेना चाहिए।

पर यह सभी उपाय फुन्सी उठने के उपरान्त मरहम पट्टी करने के बराबर हैं। मूलोच्छेदन की प्रक्रिया यह नहीं है। रक्त शुद्धि की रीति−नीति बरतना वह वास्तविक उपाय है जिससे न फुन्सी उठे और न मरहम लगानी पड़े। अपराधी को दण्ड देना दुर्घटना के उपरान्त किया जाने वाला उपचार मात्र है। इससे समस्याओं का स्थायी हल नहीं हो सकता। अपराधी मनोवृत्ति उत्पन्न होने के कारणों को ढूँढ़ना होगा और शाँत चित्त से उन उपायों को खोजना होगा जिससे रोग को मारने और रोगी को बचाने का उद्देश्य पूरा हो सके।

आज का अपराधी कल सज्जन बन सकता है। इस तथ्य को ध्यान में रखा ही जाना चाहिए। भूतकाल में बाल्मीकि अंगुलिमाल, अजामिल, विल्व मंगल, अशोक आदि अगणित अपराधी प्रवृत्ति वालों का आमूल चूल परिवर्तन संभव बताने वाले उदाहरण सामने आते रहे हैं। वैसा होना अभी भी—कभी भी संभव हो सकता है। इसलिए अपराधों के सामयिक दमन की आवश्यकता अनुभव करते हुए भी यह दृष्टि रखनी ही होगी कि वह आवेशग्रस्तता आखिर पैदा क्यों होती है? उसकी जड़ कहाँ है? और उसके मूलोच्छेदन के लिए क्या उपाय किये जाने चाहिए?

पहला उपाय यही है कि हम अपराध और अपराधी के बीच का अन्तर समझें और विश्वास करें कि मनुष्य पत्थर का नहीं मोम का बना है उसकी आकृति न सही प्रकृति तो बदली ही जा सकती है। आज का अपराधी कल सज्जन बन सकता है और बनाया जा सकता है। इस मान्यता को सुदृढ़ बनाकर ही यह सोचा जा सकता है कि दण्ड के अतिरिक्त भी कोई उपाय इस दिशा में किये जा सकते हैं। जब तक हम आतंक के प्रति रोष का एक मात्र प्रतिशोध ही सोचते रहेंगे तब तक वह विवेक बुद्धि कार्यान्वित न हो सकेगी जो चिकित्सा उपचार की आवश्यकता का प्रतिपादन करती है।

आमतौर से सज्जन तत्व अपराधी प्रकृति के लोगों से दूर रहते हैं वे सोचते हैं उससे उन्हें भी बुरा समझा जाने लगेगा और लोग सन्देह करेंगे या उँगली उठावेंगे। यह सोचना उचित नहीं कि अस्पताल में अहर्निश सेवा साधना में संलग्न डाक्टरों, कंपाउंडरों, नर्सों और सेवकों को भी रोगी ही समझा जायगा। अफ्रीका के नरभक्षी आदिवासियों के बीच सुसंस्कृत त योरोपीय पादरी स्थायी रूप से जा बसे और उन्हें सुधारने में बहुत हद तक सफल हुए। उन पादरियों को किसी ने नरभक्षी नहीं कहा। यदि वे ऐसा अपडर, डरा करते तो उनकी इस सज्जनता को दुर्बल और अधूरा ही माना जा सकता था। पिछड़े लोगों को ऊँचा उठाने के लिए उन्हीं के बीच बसना आवश्यक है और अपराधियों के अन्तःकरण को छूकर उनकी कोमल भावनाओं को जगाने के लिए उनके बीच रहना भी आवश्यक है। दूर रहकर यदा−कदा उपदेश देने की लकीर पीट देने से झूठा मनोविनोद किया जा सकता है उसका कुछ स्थायी लाभ नहीं हो सकता।

अपराधियों के सुधार के लिए इन दिनों कई प्रकार के प्रयत्न चलते हैं सुधारगृहों कीद धूम है। जेलों को भी सुधार गृह कहा जाता है और कुछ उसी तरह की व्यवस्था भी बनाई जाती है। अनैतिक वातावरण में फँसी हुई नारियों के उद्धार के लिए भी नारी सुधार गृह स्थापित हैं। बाह्य उपचार की दृष्टि से यह सब कुछ ठीक है पर भीतरी पोल को भरने के लिए ऐसे चरित्रवान आदर्शवादी और कर्मनिष्ठ व्यक्तियों की जरूरत है जो सुधार 48 डडडड डडडड डडडड हो पूरा न कर अपने व्यक्तित्व की छाप उन पर डालें। आग ही गर्मी पैदा कर सकती है। अग्नि की लपटों को व्यक्त करने वाली रंग−बिरंगी स्याहियों से छपा चित्र उस प्रयोजन को पूरा नहीं कर सकता। चरित्र सुधार के लिए कर्मचारी नियुक्त नहीं किये जा सकते। जिसके पास जो चीज स्वयं ही न होगी वह दूसरों को क्या देगा। सुधारगृहों में पब्लिक सर्विस से चुने हुए पच्चीस वर्ष से कम आयु के अनुभव हीन लड़के अफसरी कर रहे होंगे तो इससे किसी बड़े परिणाम की आशा नहीं की जा सकती। ऐसा चुनाव यदि करना ही हो तो उनके जीवन की पुस्तक के पिछले पृष्ठों को पलट कर ही किया जाना चाहिए। इस कार्य के लिए अति संतुलित, अति धैर्यवान ही नहीं अत्यन्त सुदृढ़ और परखे हुए चरित्र के अनुभवी व्यक्तित्व ही किसी कदर उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।

बात सुधारगृहों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए क्योंकि वहाँ तो कोई तब पहुँचता है जब उसका अपराध सिद्ध हो जाता है। यह स्थिति तो फोड़ा पककर फूटने और नासूर बनने जैसी बहुत बाद की स्थिति है। आरंभ इससे बहुत पहले होना चाहिए। जहाँ भी—जिस क्षेत्र में भी अपराधियों के पनपने की आशंका हो सेवाभावी तत्वों के आत्म−विज्ञापन के प्रलोभन से बचकर उन्हीं लोगों के बीच अड्डा जमाना चाहिए।

कल−कारखानों के मजदूर बचे हुए समय में जो कुछ करते हैं, जिन प्रवृत्तियों में व्यस्त रहते हैं वे सुखद नहीं हैं। उनके लिए उपयोगी वातावरण हो तो उस बचे समय में अपनी क्षमतायें बढ़ाने और उपयोगी विनोद मनोरंजन करने में लग सकते हैं। छात्रावासों में उपयोगी वातावरण निर्माण कर सकने वाले लोग यदि रह सकें तो वहाँ उफनती रहने वाली उच्छृंखलता सृजनात्मक सौमनस्य में बदल सकती है। ठाली बैठे लोग ही खुराफात सोचते और अकर्म करते हैं। बेकारी का समय आजीविका उपार्जन में प्रयुक्त हो सके ऐसा कुछ न भी बन सके तो ऐसा तो कुछ किया ही जा सकता है जहाँ वे लोग शान्तिपूर्वक समय काटते हुए गुत्थियों को सुलझाने वाला प्रकाश प्राप्त कर सकें। पिछड़े समझे जाने वाले अनेक स्थल अपने समाज में इसी प्रकार के हैं जहाँ सुधार की लकीर पीटने को नहीं उत्कर्षकारी वातावरण बना सकने वाले व्यक्तित्वों को डेरा डालकर बैठ जाने की जरूरत है।

अपने देश के सुधारवादी लोगों की एक भारी दुर्बलता यह है कि वे अपना विज्ञापन करने वाला कोई न कोई स्वतन्त्र अड़ंगा खड़ा करते रहते हैं। कोई नई संस्था गढ़े बिना उन्हें चैन ही नहीं पड़ता। एक आदर्श सुधार संस्था बनाने की सनक में उनका सारा श्रम और सारा उत्साह खर्च हो जाता है और तो भी वह ढाँचा ठीक तरह खड़ा नहीं हो पाता जहाँ निवास करने के लिए पिछड़े हुए लोग आवें और सुधार का लाभ प्राप्त करें। अपने देश का सुधारवादी उत्साह कुछ न कुछ नया शिगूफा खड़ा करने में ही लालायित रहता है। इसके मूल में आत्म−ख्याति का जितना पुट रहता है उतना सेवा−भावना का नहीं। यह ओछापन यदि छूट जाय तो सेवाभावी लोग नई−नई संस्थायें रचने की अपेक्षा उन क्षेत्रों में जाकर बसने लगें जहाँ पिछड़ापन किसी उपदेशक की नहीं ऐसे साथी−सहयोगी की बाट जोह रहा है जो उन्हीं में घुल−मिलकर आत्मीयता उत्पन्न करे और अपनी जलती ज्योति से उनके बुझे हुए दीपक जलावें।

कबीर ने जुलाहे का, रैदास ने चमार का, नामदेव ने दर्जी का, धन्धा अपनाया और उस वर्ग के पिछड़े लोगों को ऊँचा उठाने में अपने को खपा दिया क्या यह आदर्श हम सुधारवादियों के लिए उपयोगी नहीं हो सकता?

जटिल रोगियों के लिए अस्पताल की उपयोगिता हो सकती है और अत्यन्त बिगड़े हुए लोगों को सुधारगृहों ने भी बाधित किया जा सकता है पर स्वास्थ्य शिक्षा तो व्यापक होनी चाहिए उसी तरह चरित्रनिष्ठा के लिए भी सुविस्तृत वातावरण बनाया जाना चाहिए तभी रोग से लड़ने और रोगी को बचाने का प्रयोजन पूरा हो सकेगा। अपराधों से हमें द्वेष हो सो ठीक है पर अपराधी से बिना घृणा किये भी हम उसे स्नेह−सद्भाव प्रदान करते हुए सुधारने में बहुत हद तक सफल हो सकते हैं।


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