आत्मा और परमात्मा को—जड़ और चेतन को—प्रकृति और पुरुष को जोड़ देने की प्रक्रिया का नाम योग है। यह ज्ञान और कर्म के दो युग्मों में विभक्त है। ज्ञान योग वह है जो चिन्तन को हेय स्तर से ऊँचा उठाकर देव स्तर तक ले जाता है और मनोवृत्तियों को ब्रह्म चेतना में नियोजित करता है। कर्म योग वह है जिसमें दैनिक क्रिया−कलाप को परमार्थ प्रयोजन के आधार पर संचालित किया जाता है। शरीर और मन को पूर्व संचित पशु संस्कारों से विरत करके दिव्य जीवन के लिए अभ्यस्त करने की जो शारीरिक, मानसिक व्यायाम पद्धतियाँ हैं वे भी योगाभ्यास के नाम से प्रसिद्ध हैं। आसन प्राणायाम, जप, ध्यान, व्रत, तप, मुद्रावंध आदि साधनायें उसी स्तर की हैं।
ज्ञान और कर्म की दोनों ही धाराऐं जब पशुस्तर से ऊँची उठकर देवस्तर की ओर अग्रसर होती हैं तो उसे समग्र योग साधना कहते हैं। केवल स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन, ध्यान प्रभृति, ज्ञान पक्ष तक सीमित रहने वाली प्रक्रिया अपूर्ण एवं एकांगी है। इसी प्रकार जिन्होंने चिन्तन परिष्कार को तिलाञ्जलि देकर मात्र जप, तप के, हठ योग के, काय−कष्ट तक सीमित विधि−विधान को ही सब कुछ मान लिया है वे भी एक पहिये की गाड़ी चलाने वालों की तरह असफल रहते हैं।
बिजली के ठण्डे और गरम दो तार जब मिलते हैं तब विद्युत प्रवाह संचालित होता है। इसी प्रकार ज्ञान और कर्म का—भावना और साधना का स्तर समान रूप से—समन्वित रूप से—आगे बढ़ाया जाता है तो योग साधना की समग्र प्रक्रिया पूर्ण होती है और उसका वह लाभ मिलता है जो सच्चे योगियों को प्राप्त होता रहा है। अध्यात्म शास्त्र में वर्णित योग साधना का महत्व ऐसी ही सर्वांगपूर्ण साधना से सम्पन्न होता है।
योग के महत्व महात्म्य की कुछ चर्चा इस प्रकार मिलती है—
अभ्यासात्कादिवर्णानि यथाशास्त्राणि बोधयेत्। तथा योगं समासाद्य तत्त्वज्ञानंच लभ्यते॥ —धेरण्ड संहिता 125
जैसे क ख ग ध से अक्षरारंभ का अभ्यास करते हुए शास्त्रज्ञ, विद्वान बन जाते हैं, वैसे ही योग का अभ्यास करते−करते तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाता है।
ज्ञान और कर्म के उभय युग्मों के समन्वय को योग से योग की प्राप्ति कहा जाता है।
योगेन योगो ज्ञातव्यो योगो योगात्प्रवर्तते। योऽप्रमत्तस्तु योगे न सयोगी रमते चिरम्॥ —महायोग विज्ञान
योग साधना से ही योग को जानना चाहिए। साधना से ही योग की प्राप्ति होती है। जो सावधानी के साथ पाता है।
तथेति स होवाच—
योगेन योगो ज्ञातव्या योगो योगात् प्रवर्धते। याऽप्रतत्तस्तु योगेन स रपते चिरम्॥1॥ पौभाग्य लक्ष्म्युपनिषद्1
उन्होंने कहा—योग से योग की अभिवृद्धि होती है। योग के द्वारा ही योग को जानना चाहिए। योग में ही दत्त चित्त रहने वाला व्यक्ति चिर शान्ति उपलब्ध करता है।
योग न तो कठिन है, न अशक्य है वह सर्व साधारण के लिए सुलभ है। इस मार्ग पर न्यूनाधिक जितना भी चला जा सके उतना लाभ ही है। हानि की तो आशंका है ही नहीं।
युवा बृद्धोऽतिवृद्धों वा व्याधितो दुर्बलोऽपि वा। अभ्यासात्सिद्धिमाप्नोति सर्वयोगेष्वतन्द्रितः॥
न वेषधारणं सिद्धेः कारणं न च तत्कथा। क्रियैव कारणं सिद्धेः सत्यमेतन्न संशयः॥ —हठयोग प्रदीपिका 1।64-66
युवा वृद्ध, अति वृद्ध, रोगी, दुर्बल कोई भी योगाभ्यास करके सिद्धि प्राप्त कर सकता है॥64
सिद्धि वेष धारण से नहीं मिलती। केवल पढ़ने, सुनने से भी काम नहीं चलता। अभ्यास करने से ही सफलता मिलती है यह निस्संदेह है।66
एते गुणाः प्रवर्तन्ते योगमार्गकृ तश्रमैः। यस्माद्योगं समादाय सर्वदुःखबहिष्कृतः॥ ब्रह्म विद्योपनिषद 58
योगाभ्यास में जो श्रम किया जाता है वह निरर्थक नहीं जाता। प्रयत्नपूर्वक की हुई साधना समस्त दुख, शोकों का निवारण कर देती है।
यह न सोचना चाहिए कि वृद्ध होने पर सब कार्यों से निश्चिन्त होकर योग साधना करेंगे वरन् सही बात तो यह है कि जब तक शरीर और मन समर्थ है तब तक युवावस्था में ही इस पुरुषार्थ को कर गुजरना चाहिए। भगवान कृष्ण ने युवा अर्जुन की योग साधना को प्रशंसनीय एवं उचित बताते हुए कहा—
त्वया साधु समारम्भि न वे वयसि यत्तपः ह्नियन्ते विषयैः प्रायो वर्षीयासोऽपि यादृशाः, (किरातर्जुनीयम्)
“हे अर्जुन! यौवन में तपश्चर्या आरम्भ करके तूने ठीक ही किया है। मेरे जैसे बूढ़े पुरुषों की भी विषय अपनी ओर अकर्षित करते हैं।
साधयेद्या चतुर्वर्ग सैवास्ति नुसाधना॥ —मनु
जिससे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों ही सधते हों, वही सच्ची योग साधना है।
पशु−पक्षी भी मनुष्य के समान ही जीवधारी हैं। उन्हें भी परमेश्वर ने पैदा किया हुआ है उनका पोषण भी हमारी ही तरह धरती माता से मिलता है। सब प्राणियों का एक पिता है—परमेश्वर और एक ही माता है—धरती। इसलिए थोड़ा विशाल दृष्टि से देखें तो प्रतीत होगा कि प्राणी आपस में भाई−भाई ही हैं। विकसित अविकसित का अन्तर तो मनुष्य−मनुष्य के बीच भी पाया जाता है इससे उनके सम्मान एवं अधिकार में कोई अन्तर नहीं आता। मानव मात्र के प्रति जिस प्रकार उदार व्यवहार और सद्भाव बरतने की आवश्यकता समझी जाती है उसी प्रकार उस ममता, आत्मीयता का विकास क्रमशः समस्त जीव−जगत में होना चाहिए। आत्मा का समग्र विकास और विस्तार मनुष्य तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए वरन् उसे प्राणिमात्र तक व्यापक होना चाहिए।
अकारण हम दूसरे जीवों को न सताये। माँसाहार जैसे घृणित कर्म से बचें। जब कि प्रकृति ने हमें भरपूर मात्रा में उपयोगी खाद्य प्रदान किये हैं तो क्यों किसी का प्राणघात करें, क्यों किसी के चीत्कार का शाप ओढ़ें और क्यों अपने ऊपर निर्दयता−निष्ठुरता का कलुष पोतें। पालतू पशुओं के साथ अभी और अधिक सहानुभूति पूर्ण सहृदयता का व्यवहार विकसित होना चाहिए और वन्य जीवों की स्वतंत्रता में व्यर्थ ही बाधक नहीं बनना चाहिए।
पशु−पक्षियों को पालतू और प्रशिक्षित बनाने का प्रयास किया जाय तो वे हमारे लिए बाधक न रहेंगे वरन् सहयोगी के रूप में काम करके हमारी समृद्धि और शाँति में सहायता प्रदान करेंगे। उन्हें नष्ट करने पर उतारू न रह कर यदि मानवी प्रयत्न अन्य प्राणियों को प्रशिक्षित करने में लग जायँ तो न केवल प्राणिमात्र के बीच सद्भावना का विस्तार हो सकता हैं वरन् विश्वव्यापी चेतना तत्व को अधिक गति से विकास की दिशा में बढ़ चलने का अवसर भी मिल सकता है। प्राणियों को प्रशिक्षित करने के लिए जहाँ भी प्रयत्न हुए हैं वहाँ आशाजनक सफलता मिली है।
संसार के विभिन्न भागों में विभिन्न आकृति−प्रकृति के वानर पाये जाते हैं। अफ्रीका का गुयेरेजा कोलोवस बन्दर शरीर में तो तीन फुट का ही होता है पर उसकी पूँछ शरीर से भी अधिक लम्बी अर्थात् साड़े तीन फुट होती है। हाथी जो काम सूंड से लेता है लगभग वैसा ही यह पूँछ से लेता है। दक्षिणी अमेरिका के हाडलर वानर का स्वर बहुत तीखा होता है दो मील दूर तक उसकी आवाज सुनी जाती है और क्रोध, हर्ष, पीड़ा कामोन्माद आदि की अनुभूतियाँ उसकी वाणी से सहज ही पहचानी जा सकती हैं। दक्षिणी अमरीका के अमेजन क्षेत्र में पाये जाने वाले सिवाइड्स वानर, गिलहरी और उल्लू की आकृतियों के सम्मिश्रण से बने हुए अपने ढंग के अनोखे प्रतीत होते हैं।
निशाचर डोरोकोलिस, लम्बी दाड़ी वाला साकी, देखने में सुन्दर और अकल का पुतला केपूचिन मनुष्य के साथ कुत्ते की तरह ही घुल−मिल जाता है वह बर्तन धोना, कपड़े सुखाना, झाड़ू लगाना, बिखरी चीजों को सँभाल कर रखना,पंखा झलना, घर की रखवाली जैसे छोटे−मोटे घरेलू काम करने में मालिकों की सहायता करता है। ड्राइंग का अभ्यास करा दिया जाय तो वह खड़िया हाथ में लेकर सीखी हुई आकृति बिलकुल सही बना देता है। वूली बन्दर पर भेड़ जैसी ऊन होती है। मकड़ी की तरह हाथ पैर और पूँछ के सहारे यह एक डाली से दूसरी डाली पर उलटी सीधी चाल से चढ़ता उतरता और उछलता रहता है इसलिए इस बावन का नाम स्पाइडर मंकी पड़ा है। गले की अतिरिक्त थैली में ढेरों फालतू आहार भर कर फिरते रहने वाले बन्दर बोर्नियों में अधिक होते हैं। पूर्वीय गोलार्ध में पाये जाने वाले मैकेक और रहसीस जीवनी शक्ति और सन्तुलित मानसिक क्षमता वाले होते हैं अन्तरिक्ष उड़ान में एक समय इन्हीं का उपयोग किया गया जा था कुत्ते के जैसे मुँह वाले वेवून अरब देशों में पाये जाते हैं वे पेड़ पर चढ़ने की अपेक्षा जमीन पर रहने में सुख, सरलता अनुभव करते हैं।
जर्मन प्राणिशास्त्री कोलर ने अपने पालतू चिंपेंजी ‘सुलतान’ की बुद्धिमत्ता बढ़ाने के लिए उसे कितनी ही गुत्थियाँ सुलझा सकने और अड़चनों का सही हल निकालने के लिए प्रशिक्षित किया था। वह अलमारी खोलकर अपने काम की चीजें निकालता और फिर उसे बन्द कर देता था। लम्बे बाँस के सहारे ऊँची टँगी हुई चीजें उतारना उसे अच्छी तरह आता था ऐसे ही वह और भी कई बुद्धिमानी के काम करता था।
मैडम कोट्स का पालतू चिंपेंजी रंगों के भेद उपभेद समझता था और प्रायः तीस तरह के हलके गहरे रंगों का वर्गीकरण कर लेता था। रेखागणित की आकृतियों को पहचान लेने में भी उसने कुशलता प्राप्त करली थी। क्यूवा में मादाम अब्रू के पास एक विनोदी चिंपेंजी था। वह जब पुरुषों को पास आते देखता तो अपनी मादा को फौरन छिपा लेता, किन्तु कोई स्त्री पास आती तो मादा को प्रसन्नता पूर्वक फिरने देता।
गोरिल्ला वनमानुषों में अग्रणी है। उसकी ऊँचाई छै फुट होती है किन्तु दोनों हाथों को मिलाकर लम्बाई नौ फुट तक जा पहुँचती है। वजन 400 से 600 पौण्ड। यह दो−ढाई इंच मोटी लोहे की छड़ आसानी से तोड़−मरोड़ कर फेंक सकता है। इसकी पकड़ में किसी जानवर का कोई अंग आ जाय तो उसे एक ही झटके में उखाड़ कर फेंक सकता है। संसार प्रसिद्ध फिल्म ‘किंग काँग‘ में प्रमुख करतब एक भीम काय गोरिल्ला कर है। इस फिल्म को अत्यधिक ख्याति मिली।
इस जाति का दूसरा वानर चिंपेंजी अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमान होता है उसकी हर क्रिया से बुद्धिमत्ता और विचारशीलता टपकती है। अकारण उसे बेतुकी हरकतें करते नहीं पाया जायगा। परिवार भी उसका व्यवस्थित रहता है। एक नर के साथ कई मादाएं सुख और सुरक्षा पूर्वक जीवनयापन करती हैं। पालतू चिंपेंजी के साथ कभी पेचीदगी भरी स्थिति उपस्थित करदी जाय तो वह सहज ही सुलझा लेता है।
जर्मनी में कुछ समय पूर्व एक विश्वविख्यात घोड़ा था—’क्लेवर हान्स’ वह जर्मन भाषा में पूछे गये गणित के छोटे−छोटे प्रश्नों का उत्तर अपनी टाप के खटके मार कर देता था और दर्शक उसकी गणितज्ञ बुद्धि को देखकर चकित रह जाते थे। अमेरिका और फाँस में भी इस तरह के कई घोड़े हो चुका हैं। इनकी बुद्धिमत्ता जाँचने के लिए पशु मनोविज्ञानी थार्नडाइक ने गम्भीर अध्ययन किये हैं कि बुद्धि पर मनुष्य की ही बपौती नहीं है, वह बीज रूप में दूसरे जीवों के भीतर भी मौजूद है और यदि उन्हें उपयुक्त अवसर मिले तो वे भी अपनी बुद्धिमत्ता को बड़ी हद तक विकसित कर सकते हैं।
तंजानिया (अफ्रीका) में पशु अभियन्ता मि. जार्ज के मकान के पास ही पेड़ पर एक गिलहरी ने घोंसला बना रखा था। संसर्ग के प्रभाव से इस गिलहरी ने अपने में ऐसी आदतें उत्पन्न कर ली थीं जिसमें देखने वालों को बड़ा कौतूहल होता था। शराब का चस्का उसे लग गया था। वह चुपके से आती और घर में रखी शराब की बोतलों के कार्क खोल कर मद्य पान का आनन्द लेती। यह गिलहरी प्रायः अपना भोजन इस परिवार से ही प्राप्त करती थी अस्तु उसे समय और स्वाद का अभ्यास हो गया था। नियत समय ही वह भोजन करती और जो वस्तुयें खाने की शिक्षा दी गई थी उन्हें ही चुनकर ग्रहण करती। उसने ‘कमोड में ही टट्टी जाना सीख लिया था। जब भी मल त्यागना होता नियत स्थान पर जाकर अपनी हाजत पूरी करती इधर−उधर मल विसर्जन करते उसे कभी नहीं देखा गया।
मास्को के एक इञ्जीनियर आनातोली वाइकोव ने दो कबूतरों को मशीनों के अच्छे और खराब पुर्जे पहचानने और उनका अन्तर बता सकने की शिक्षा दी। इस पहचान का आधार त्रुटिपूर्ण पुर्जों से अलग ढंग के ऐसे कम्पनों का निकलता था जो बहुत ही संवेदनशील मशीनों से पहचाने जा सकते थे। कबूतर उस अन्तर को समझने में अभ्यस्त हो गये और अपने पाली वालों की अच्छी सहायता करने लगे।
वाइकोव ने लिखा है—प्रशिक्षित कबूतर जिस बारीकी से याँत्रिक खराबी को पकड़ सकते हैं उतनी जानकारी देने वाले निर्देश उपकरण बहुत ही कठिनता से बनाये जा सकेंगे।
शिशुमार नामक मत्स्य जाति का जल का बहुत ही प्रेमी और सहयोगी प्रकृति का होता है। प्रयत्न करने पर वह मनुष्य के साथ हिलमिल जाता है और खुशी से पालतू बनकर रहने लगता है। जापानी मत्स्य विशेषज्ञ मसाइकी नहाजमा का कथन है कि “यदि शिशुमार थल चर होते तो वे मनुष्य के लिए कुत्तों से भी अधिक स्नेही, सहयोगी सिद्ध होते।” वे अपने परिवार के साथ बहुत ही सज्जनता भरा व्यवहार करते हैं।
शिशुमार कोई तीस तरह की ध्वनियाँ अपने मुख से निकाल सकते हैं और उनके आधार पर अपनी मनः− स्थिति का दूसरों को परिचय दे सकते हैं। शिकार पकड़ने के लिए दौड़ते समय वे कुत्ते की तरह भौंकते है। सफल होने पर बिल्ली की भाँति म्यांऊ−म्यांऊ करके खुशी जाहिर करते हैं। पेट भरने पर वे डकार लेते हैं। चटाख की ध्वनि के साथ होठ चाटते हैं। विरोधियों को डराने के लिए पटाखा चलने जैसी आवाज करते हैं।
सिखाने पर वे कई तरह के खेल करते हैं। सीटी बजाने पर उसका जवाब सीटी बजाकर देते हैं। शिशुमार को ‘सिटासियन’ वंश का ह्वोल जातीय समझा जाता है। दिशा बोध और शब्द ज्ञान की उसे अच्छी जानकारी होती है। 25 गज दूरी से फेकी हुई वस्तु को वह इस तेजी से पकड़ सकता है मानो उस वस्तु के साथ ही वह उड़कर आया हो। समुद्री खोज के लिए गहरे सागर तल में बने हुए अमेरिका खोज केन्द्र−सीलैव−2 के लिए एक कुशल कार्यकर्ता के रूप में पालतू शिंशुमार ‘टैफी’ ने असाधारण सहायता की थी। थके हुए गोताखोरों को उनकी कमर में बँधी रस्सी मुँह से पकड़ कर जहाज तक पहुँचा देने में पालतू शिशुमार बड़ा कौशल दिखाते हैं। वे मनुष्य की तरह हँस भी सकते हैं।
ब्रिटिश नौ सेना से रिटायर होकर नीरेकौक के विचिंग्रहम स्नान में फिलिप वेयरे ने अपने आठ एकड़ के खेत में घरेलू चिड़ियाघर बनाया। उसका उद्देश्य पशु−पक्षियों की प्रकृति का अध्ययन और उनकी नस्लों को सुन्दर सुविकसित बनाने का मार्ग खोजना था। अपने विषय में रुचि पूर्वक तन्मय हो जाने के कारण वेयरे ने दुर्लभ पशु−पक्षी प्राप्त किये और उनकी प्रकृति के बारे में नई−नई जानकारियाँ प्राप्त कीं। चिड़ियाघर की ख्याति फैली तो दर्शकों के झुण्ड भी अपने कौतूहल की तृप्ति के लिए वहाँ आने लगे और टिकट की आमदनी से चिड़िया घर का खर्च चलने में सहायता मिलने लगी। मत्स्य विशेषज्ञ स्टेटर ने विभिन्न प्रकार के संगीत के मछलियों पर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावों का पर्यवेक्षण किया है। कुछ ध्वनियाँ तो मछलियों की इतनी प्रिय लगीं कि वे उन्हें सुनकर उछलने−कूदने और नाचने लगतीं। कुछ ध्वनियाँ उन्हें बिलकुल पसन्द न आई और वे जब बजती तो उपेक्षा पूर्वक मुँह मोड़ कर अन्यत्र चली जातीं। संगीत की विभिन्न ध्वनियों ने उसके शरीर पर भी भिन्न और विचित्र प्रभाव डाले। एक प्रकार के संगीत ने तो उनका वजन और विस्तार बढ़ाने में बहुत सहायता की। एक ध्वनि के कारण उनकी प्रजनन क्रिया दूनी हो गई तथा कहीं अधिक अंडे दिये।
डा. फ्रेंड वाडन ने मछलियों को रंग पहचानना सिखाया और यातायात के नियमों का अभ्यास कराया, वे अपने मालिक और दर्शक का अन्तर करना सीख गई। मिनो जाति की मछलियाँ यह समझने लगीं कि किस प्रकार की आवाज सुनकर उन्हें क्या आचरण करना चाहिए।
प्रो. जे. पी. फ्रोलोफ ने मछलियों को संगीत सुनने का शौकीन बनाने में सफलता प्राप्त की है। वे तालाब में बिजली के तार डालते और संगीत के रिकार्ड बजाते रहे। आरम्भ में मछलियों ने थोड़ा ही ध्यान उस ओर दिया किन्तु धीरे−धीरे उसकी पूरी शौकीन हो गई जैसे ही संगीत की ध्वनि होती वे चारों ओर से वहीं इकट्ठी हो जातीं और ध्वनि केन्द्र को लपकने का प्रयत्न करतीं।
उन्होंने एक तालाब में कुछ मछलियाँ पालीं। भोजन नियत समय पर दिया जाता और चारा डालने से पूर्व घंटी बजाई जाती। थोड़े दिन में घण्टी और चारे का सम्बन्ध वे समझ गई। जब भी समय कुसमय घंटी बजती तभी वे चारे के लिए दौड़ क र इकट्ठी हो जातीं।
पशु−पक्षियों को अपने ही प्राणि परिवार का सम्मानित सदस्य समझ कर उन्हें सुखी−समुन्नत और प्रशिक्षित बनाने की दिशा में यदि हमारी प्रवृत्ति मुड़ सके तो न केवल जीव जगत का उपकार होगा वरन् मानवी उदारता और सद्भावना का एक सुखद अध्याय प्रारम्भ होगा। विश्व चेतना में सदाशयता की वृद्धि करने के प्रयास करके मनुष्य घाटे में नहीं वरन् नफे में ही रहेगा। नये सहयोगियों का नया सद्भाव पाकर मानवी प्रगति में नया उभार ही आवेगा।