गन्ध विहीन फूल है जैसे चंद्र चन्द्रिका हीन।यों ही फीका है मनुष्य का जीवन प्रेम-विहीनप्रेम स्वर्ग है, स्वर्ग प्रेम है, प्रेम अशंक अशोक।ईश्वर का प्रतिबिम्ब प्रेम है, प्रेम हृदय आलोक॥
जग की सब पीड़ाओं से है होता हृदय अधीर।पर मीठी लगती है उर में सत्य प्रेम की पीर॥व्याकुल हुआ प्रेम-पीड़ा से जिसका कभी न प्राण।भाग्यहीन उस निष्ठुर का है उर सचमुच पाषाण॥
जिस पर दया दृष्टि करते है मंगलमय भगवान।पूर्ण प्रेम-पीड़ा से पीड़ित होता है वह प्राण॥जिसने अनुभव किया प्रेम की पीड़ा का आनन्द।उससे बढ़कर कौन जगत में सुखी और स्वच्छन्द।।
प्रेमोन्मत्त हृदय में रहता है न विरोध न क्रोध।दुर्गुण नहीं प्रेम-पथ का कर सकता है अवरोध॥मधुर प्रेम-वेदना-मुग्ध जन सुख-निद्रामय मस्त।है देखते प्रेम-छवि दृग भर फिर कर जगत समस्त॥
फूल पंखुड़ी में पल्लव, में प्रियतम रूप विलोक।भर जाता है महामोद से प्रेमी का उर ओक॥उसे प्रेममय लगता है सब सचराचर संसार।प्रेम मग्न करता है वह नित प्रेमोद्यान विहार॥
प्रेम वेदना व्यथित हृदय से मिथक प्रेम की आह।बढ़कर भूतल में भरती है नव-जीवन उत्साह॥करुणा भरे प्रेम के आँसू ढलकर सुधा समान।सोच दया की जड़ देती है जग को आश्रय दान॥
जन-जन में प्रेमी को दिखती है प्रीतम की कान्ति।इससे उसे लोक सेवा में मिलती है अति शान्ति॥कृशित जाति के उन्नति-पथ के कंटक चुनकर दूर।प्रेमी परम तृप्त होता है, आह्लादित भरपूर॥
राम नरेश त्रिपाठी,
*समाप्त*