जीवन-मुक्ति का अधिकार

May 1969

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शिखिध्वज मालव के महान् यशस्वी सम्राट् थे। सम्राट् होने के साथ शिखिध्वज उदार और सदाचारी भी थे। वे सदैव शास्त्रों की मर्यादा का पालन करते थे। उनका विवाह सौराष्ट्र प्रदेश की राजकन्या चुड़ाला के साथ हुआ। चुड़ाला भी अत्यन्त विदुषी और रूपवती थी। एक दूसरे को पाकर दोनों की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा।

बहुत काल तक दोनों साँसारिक और इन्द्रिय-जन्य सुखों का उपयोग करते रहे पर उससे स्थायी तृप्ति कभी न मिली। घृत डालने से जिस प्रकार अग्नि प्रज्ज्वलित होती है, भोगों से उसी तरह भोगों की इच्छा शांत नहीं प्रज्ज्वलित होती है यह भगवान् का विचित्र विधान है, सम्भवतः ऐसा इसलिये किया गया कि मनुष्य पार्थिव सुखों को सब कुछ मानने की भूल न करें।

बहुत दिन तक भोगों का आनन्द लूटने में उनकी तमाम शारीरिक शक्तियाँ क्षीण हो चलीं। चित वासना में डूबा रहने से घृणा और संसार से विरक्ति हो चली तब राजा और रानी दोनों ने परस्पर विचार किया कि ऐसे आनन्द की खोज में जाये, जिसका कभी अन्त न हो। जिसमें इन्द्रियों की शिथिलता, घृणा मनोमालिन्य आदि कुछ न हो।

राज्य के विद्वान् मनीषियों ने बतलाया-” महाराज! आत्म-ज्ञान ही वह मार्ग है, जो मनुष्य को स्थायी सुख-शांति और आनन्द प्रदान कर सकता है। जब मनुष्य किसी वस्तु की खोज करने लगता है तो उसे उसी क्षेत्र में ऐसी-ऐसी बातों का पता चलता है, जिनके बारे में उसे कभी कल्पना भी न हुई हो। महाराज शिखिध्वज और देवी चुड़ाला दोनों ने आत्म तत्व का विशद ज्ञान प्राप्त किया। उसे प्राप्त करने के अनेक योग साधन और मार्ग दर्शन प्राप्त किये। फिर दोनों ही उस प्रयत्न में जुट गये।

चुड़ाला की बुद्धि सूक्ष्मग्राही भी थी और अपेक्षाकृत पवित्र भी। कोमलता, करुणा, क्षमा और उदारता जैसे गुण नारी में स्वभाव से ही अधिक होते हैं, इसलिये उन्हें आत्म ज्ञान के मार्ग में काम, क्रोध, स्वाध्याय से अरुचि जैसी बाधाओं ने ज्यादा पीछा नहीं किया। स्वल्प काल की साधना और तपस्या से ही उन्हें आत्मानुभूति हुई। उनका मुख मण्डल सौंदर्य और आत्मानन्द से खिल उठा। अब उन्हें संसार के अणु-अणु में आनन्द प्राप्त करती हुई, अपनी ही आत्मा दिखाई देने लगी। सब दुःख द्वन्द्व छूट गये। प्रसन्नता ही प्रसन्नता, उल्लास ही उल्लास, शांति और आनन्द उनके जीवन में भर गया। गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी उन्हें जीवन-मुक्ति प्राप्त हो गई।

शिखिध्वज का मन योग साधना में तब तक ही लगता जब तक इन्द्रियाँ शिथिल होती पर न उनसे स्वाद, संयम सधा और न चित्त-वृत्तियों को रोकने के लिए उन्होंने ज्ञानार्जन की वृत्ति अपनाई इसलिये वे पीछे रह गये। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि चुड़ाला के जीवन में आनन्द का स्रोत कहाँ से फूट रहा है। सामान्य काम-काज में हानि-लाभ जीवन-मरण यश-अपयश से भी अप्रभावित और सदैव प्रसन्न कैसे रहती है। पूछने पर रानी ने बताया-महाराज! हम उस स्थिति में हैं जिसकी खोज के लिये हम दोनों साथ-साथ चले थे।”

चुड़ाला अपने पति को मार्ग सुझाती, किन्तु महाराज शिखिध्वज उसे अपना अपमान समझते। उन्हें किसी विमति पण्डित ने यह बता दिया कि स्त्रियों को आत्म-ज्ञान की साधना का अधिकार नहीं है, क्योंकि आत्म-ज्ञान घर में नहीं मिलता। उसके लिए जंगल में एकान्त वास करना पड़ता है पर स्त्रियाँ एकान्त वास कर ही नहीं सकती इसलिये नारी को आत्म ज्ञान का अधिकार प्रदान नहीं किया गया।

शिखिध्वज उस स्थिति में नहीं थे कि किसी भी बात का समाधान अपनी बुद्धि और विवेक से कर लेते। रानी ने बहुतेरा समझाया कि महाराज ऐसे प्रश्नों पर मनुष्य को किसी की राय सीधे नहीं मान लेनी चाहिये, अपनी बुद्धि से भी सोचना चाहिये। आप स्वयं विचार करें क्या यहाँ रहकर आपको एकान्त में रहने से अधिक सुविधाएँ नहीं है? अपनी इच्छा से आप कितना ही समय योग साधनाओं के लिये नियत कर ले, पूजा, उपासना, स्वाध्याय और मार्ग दर्शन के जितने अच्छे साधन यहाँ है, उतने अच्छे साधन बन में कहाँ मिल सकते हैं?

बहुतेरा समझाया किन्तु राजा ने एक न सुनी। उन्हें लगा स्त्री की बात मानना पौरुष का अपमान है। इस अहंकार ने ही एक दिन उन्हें घर छुड़ा दिया। महाराज राज्य छोड़कर वन चले गये और आत्म-ज्ञान की साधना में लग गये।

वृत्तियाँ तो आखिर वृत्तियाँ ही है। यहाँ रानी को देखकर उनकी काम-वासना भड़कती थी, वहाँ पक्षियों और दूसरे जीव-जन्तुओं को काम किलोल करते देखकर उनका हृदय क्षुब्ध हो उठता, अतएव पर्वतीय उपत्यिका में आने वाली किसी भी नारी को वे कामुकता की दृष्टि से देखते। काम-संवेग तृप्त नहीं होते, जो क्रोध, क्रोध से मोह पैदा होते ही है। राजा इसी इन्द्रजाल में पड़ा रहा। न स्वर्ग, न मुक्ति। जो थोड़े आराम और प्रसन्नता के साधन थे, सो भी हाथ से छिन गये। अपने अविवेक और उतावलेपन पर स्वयं शिखिध्वज को बहुत दुःख हुआ।

इधर राजा के एकाएक चले जाने से राज्य में विद्रोह और अराजकता की स्थिति उत्पन्न न हो जाये, इसलिये देवी चुड़ाला ने राज्य संचालन अपने हाथ में ले लिया और यह घोषणा कर दी कि महाराज पर्यटन पर गये हैं, जब तक लौटते नहीं तब तक शासन-भार हमें ही सम्भालना है। बिना किसी पक्ष-पात या भेद-भावना से सभी राज्य सम्बन्धी काम-काजों का निपटारा कुशलतापूर्वक करती रही।

अब उन्होंने यह भी जानना चाहा कि राजा की स्थिति क्या है, एक दिन अपने सूक्ष्म शरीर को योग क्रियाओं द्वारा बाहर निकालकर उन्होंने राजा की अब तक की स्थिति का सब पता लगा लिया। अभी तक उन्हें वासनाओं से मुक्ति नहीं मिली, यह देखकर चुड़ाला को बड़ी चिन्ता हुई पर वे हतोत्साह न हुई। राज्य भार सम्भालते हुये भी उन्होंने राजी की सहायता का निश्चय किया। इससे उनकी व्यस्तता तो बढ़ गई, किन्तु मानसिक आल्हाद और आत्मिक प्रसन्नता में कोई अन्तर न आया।

चुड़ाला ने ऋषि-कुमार का छद्म-वेश बनाया और महाराज के सामने जा उपस्थित हुई। महाराज इस वेश में रानी को पहचान नहीं पाये, उन्होंने उन्हें ही मार्ग दर्शक गुरु मान लिया। रानी उन्हें दिन भर योगाभ्यास कराती और निश्चित समय पर राजधानी पहुँचकर राज्य का कार्य-भार भी संभालती। राजा इसलिये प्रसन्न थे कि अब उनकी साधना अच्छी तरह चल रही थी, उन्हें आत्म ज्ञानी गुरु मिल जाने पर बड़ा संतोष था। लेकिन एक बात उन्हें बराबर परेशान किये थी कि उनके गुरु रात्रि में अदृश्य क्यों रहते है।

एक दिन उन्होंने यह प्रश्न ऋषि-कुमार से ही पूछा तो उन्होंने दुःखी होकर बताया कि “उन्हें एक ऋषि ने शाप दे दिया है कि तुम रात्रि में स्त्री हो जाया करोगे।” यह सुनकर राजा हँसे और कहने लगे- “ महात्मन्! इसमें दुःख की क्या बात है, स्त्री हो या पुरुष सब आत्मा है। अपना-अपना कर्त्तृत्व पूरा करने पर भी आत्मा का स्वरूप तो नितान्त पवित्र और दिव्य है, पाप तो आशक्ति और वासनायें हैं। आप उनसे सर्वथा रहित हैं तो फिर दुःख करने की क्या बात?

राजा को इस तरह आत्म-ज्ञान प्राप्त हुआ देखकर चुड़ाला अति प्रसन्न हुई। अब उन्होंने अपने आपको प्रकट कर दिया। महाराज को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने रानी का आभार माना और स्त्री-पुरुषों में भेद मानने के अपने पूर्व हठ पर बड़ा पश्चाताप किया। शिखिध्वज पुनः गृहस्थ और राज्य के उत्तरदायित्वों का पालन करने लगे।

इतनी कथा कहने के बाद महर्षि वशिष्ठ ने राम को समझाया-” युवराज राम! इस उपाख्यान का तात्पर्य यही है कि आत्म-ज्ञान प्राप्ति का अधिकार स्त्री और पुरुष दोनों को है और उसके लिये घर छोड़ने की आवश्यकता नहीं आशक्ति विमुख होना चाहिये।


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