पात्रत्व की परीक्षा

May 1969

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पाटलिपुत्र अपने वैभव के लिये विख्यात थी, कोशा अपने अनुपम सौंदर्य के लिये। मगध-राज्य की पटरानियों को भी नगर-वधू कोशा के रूप-सौंदर्य पर ईर्ष्या होती थी। उसका कल-कण्ठ श्रोताओं के अन्तःकरण ड़ड़ड़ड़ कर देता तो नृत्य के समय नूपुर-झंकार लोगों ड़ड़ड़ड़ उद्दाम वासना से आविर्भूत कर देती। सम्पूर्ण ड़ड़ड़ड़ तक कि सेनापति और सामन्त भी कोशा का ड़ड़ड़ड़ लिये सदैव न्यौछावर रहते थे।

पाटलिपुत्र के प्रधान आमात्य के पुत्र स्थूलिभद्र ने तब यौवन के प्रथम चरण में पदार्पण किया था। शक्ति और सौंदर्य दोनों एक स्थान पर जा मिले। ईर्ष्या, षड्यन्त्र ड़ड़ड़ड़ विशेष के बीच नगर-वधू कोशा ने स्थूलिभद्र को ड़ड़ड़ड़ चुन लिया। आमात्य -पुत्र कोशा के प्रणय में इस तरह आया कि 12 वर्षों तक उसने अपने पिता, भाइयों, परिजनों, सम्बन्धियों किसी की सुध तक न ली। ओर कोशा ने भी अपना सर्वस्व स्थूलिभद्र की भेंट चढ़ा दिया।

दिन जाते देर नहीं लगता फिर सुख के क्षण कब बीत गये पता ही नहीं चलता। कोशा के नेत्रों से अब स्थूलिभद्र का प्रतिबिम्ब हटने लगता है, क्योंकि उसे वासना से विरक्ति हो चली थी। वैभव-वंचित हुये स्थूलिभद्र का अन्तस्तल अब पश्चाताप की अग्नि में जलने लगा और मानसिक सन्ताप की इसी अवस्था में उसने एक दिन पाटलिपुत्र, कोशा सबका परित्याग कर दिया। महलों में सौंदर्य की अर्चना करने वाला स्थूलिभद्र अब आत्मा के दर्शनों की पीड़ा से मुनि विसर्जन की शरण में था। 12 वर्ष तक जिसने कोशा को ही जीवन का सम्पूर्ण रस माना था, उसी स्थूलिभद्र ने अब अपने आपको तपस्या की भेंट चढ़ा दिया।

दिन बीतते गये। स्थूलिभद्र का तप शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह बढ़ने ओर प्रकाशित होने लगा। मुनि विसर्जन यों तो अपने सभी शिष्यों पर स्नेह रखते हैं पर जो स्नेह आत्मीयता उन्हें स्थूलिभद्र के लिये थी, वह अन्य के लिये नहीं। स्थूलिभद्र तपस्वी ही नहीं आज्ञाकारी और चरित्र के प्रति निष्ठावान् भी था।

स्थूलिभद्र पर गुरु का अत्यधिक स्नेह अन्य शिष्यों से देखा न गया। वे मन ही मन कुढ़ते ओर अनेक तरह से उसे नीचा दिखाने का प्रयत्न भी करते, किन्तु स्थूलिभद्र उसका कभी बुरा न मानता। न ही वह अपने गुरु भाइयों के प्रति ईर्ष्या-द्वेष करता। किन्तु शिष्यों में कृतवर्मा ऐसा था, जो इतने पर भी उसे नीचा दिखाने का यत्न करता रहता था।

गुरुदेव यह बात अच्छी तरह समझते थे। अन्य शिष्यों को वह समझाते भी थे किन्तु ईर्ष्या और महत्त्वाकाँक्षा यह दो दुर्गुण ऐसे हैं कि जहाँ जाते हैं, वहाँ बुद्धि और विवेक के लिये सदैव-सदैव के लिये द्वार बन्द कर देते हैं। कृतवर्मा के मन में कोई बात चढ़ी नहीं। वे बराबर यहीं कहता-” न हमारे आचरण में कोई दोष है, न तप में, निष्ठा का भी अभाव नहीं तो भी स्थूलिभद्र में ऐसा कौन-सा गुण है, जो गुरुदेव उसे अधिक प्यार करते हैं।

ग्रीष्म गई वर्षा ऋतु आई। चतुर्मास भर शिष्यों को बाहर भेजकर मुनि विसर्जन एकान्तवास करते थे। उन्होंने कृतवर्मा को विन्ध्याचल की उस गुफा में भेज दिया जहाँ हिंसक सिंह, व्याघ्र रहा करते थे ओर स्थूलिभद्र को फिर वहीं जहाँ से वह आया था- पाटलिपुत्र-कोशा के सौंदर्य पूर भवन में।

कृतवर्मा के तप के प्रभाव ने हिंसक जीवों की मनोवृत्ति बदल दी। वह इतना साहसी था कि वनराज की गुफा में भी वह चैन से सोता था और इसी तरह मृत्यु की विभीषिका के बीचों-बीच अपना चतुर्मास बिताया और जब आश्रम लौटा तो उसके मुख-मण्डल पर विजय अभिमान ड़ड़ड़ड़ बनकर झलक रहा था।

स्थूलिभद्र ने शान्त निर्विकार मन से कोशा के भवन में प्रवेश किया। ड़ड़ड़ड़ से आभूषित ड़ड़ड़ड़ स्थूलिभद्र उतना सुन्दर नहीं लगा करता था, जितना आज वह ड़ड़ड़ड़ होने पर लग रहा था। उसके मुख-मण्डल पर प्रभावित तपस्या का ओज वैसे ही लोगों को आकर्षित कर लेता था। कोशा के लिये तो भगवान का वरदान ही था। चिर चिरह की धूप के बाद बरसात का सुहावनापन जिस तरह मन को भा जाता है, वैसे ही वह स्थूलिभद्र को यों अचानक आया देखकर प्रसन्नता से पागल हो उठी। एक बार उस भवन में फिर से बाहर आ गई।

सारा महल चन्दन ड़ड़ड़ड़ जल से धोया गया। पुष्प वेलों और ड़ड़ड़ड़ से घर के सम्पूर्ण द्वार और वातायन महकने लगे। कोशा ने यह वस्त्राभूषण धारण किये जो दुल्हन ससुराल जाने से पूर्व पहली बार धारण करती है।

स्थूलिभद्र को अब सबसे प्रसन्नता थी, मोह नहीं। प्रेम था, आशक्ति नहीं। प्रत्येक वस्तु में उसे केवल सौन्दर्य, परमात्मा का सचेतन सौन्दर्य झलक रहा था, वासना नहीं। स्थूलिभद्र के मन में कोई विकार न था।

रात आई। कोशा के नूपुर बजे ओर शांत हो गये। कोशा ने अपनी बाँहें स्थूलिभद्र के गले में डाली और उसके लिये कोशा और दो वर्ष की चंचल बालिका में कोई अन्तर न था। कोशा ने उसे कामदेवता के रूप में देखा स्थूलिभद्र ने कोशा ईश्वरीय सौंदर्य और प्रकाश की अनुभूति के रूप में। वह कुछ बोला नहीं, कोशा बेचैन थी, पूर्व के समान अब स्थूलिभद्र को उसके शरीर का सौंदर्य से मोह क्यों नहीं? उस बेचारी को क्या पता था कि आत्मा में अनन्त सौंदर्य की अनुभूति प्राप्त कर लेने वाले तपस्वी के लिये शारीरिक सौंदर्य का कितना मूल्य रह गया।

हारकर कोशा निद्रा देवी की गोद में चली गई। एक दिन, दो दिन, तीन दिन मास और चतुर्मास इसी तरह बीता। कोशा की उद्दाम वासना भी तपस्वी के ड़ड़ड़ड़ से ईश्वर-प्रेम में परिणत हो गई और स्थूलिभद्र तो जैसे आश्रम से आया था, वैसे ही आश्रम को लौट गया।

ड़ड़ड़ड़ स्थूलिभद्र का स्वागत करते हुए कृतवर्मा ने कहा-आइये महाशय! कोशा की ड़ड़ड़ड़ से पीड़ित होंगे आपकी कुछ सेवा कर दूँ। “ स्थूलिभद्र मुस्कराये बोले कुछ नहीं। कृतवर्मा के तप और साहस की उसने भी प्रशंसा ही की। उसने कृतवर्मा का अहंकार और भी बढ़ गया। इस प्रकार एक वर्ष और बीता।

सूक्ष्मदर्शी गुरुदेव सब परिस्थितियों का अध्ययन गम्भीरता से कर रहे थे। अगला चतुर्मास आया तो स्थूलिभद्र को सिंह की गुफा में और कृतवर्मा को कोशा के महल में भेजा गया। स्थूलिभद्र ने साहस से नहीं आत्म-प्रेम के विस्तार से हिंसक जीवों को अहिंसक बना लिया और उनके बीच साहस से नहीं वह प्रभाव से बने रहे, जैसे वह भी उस वनचर परिवार का सदस्य हो। चतुर्मास बिताने में कोई भय प्रतीत न हुआ।

किन्तु कृतवर्मा-जिससे सामान्य सौंदर्य का भी सामना नहीं किया था, कोशा के महल में जाते ही भावुकता में बह गये। कोशा और उसका सौंदर्य मस्तिष्क में इस तरह

न जातु काम- कामानामुपभोयेन शाक्यति।

ड़ड़ड़ड़ कृष्णवर्त्मेव भूप एवाभिवर्चते।

- भागवत् ड़ड़ड़ड़

हे वत्स! अग्नि में घृत डालों तो उसकी लौ और भी तीव्र होती है, उसी प्रकार भोग से वासनायें शांत नहीं होती। तात् उनसे बचकर रहने में ही तुम्हारा कल्याण है।

भर गया कि ध्यान, समाधि सब न जाने कहाँ सो गये। कृतवर्मा धीरे-धीरे निस्तेज होते गये। ड़ड़ड़ड़ वासना ने उसकी बौद्धिक प्रखरता को ही नहीं, शरीर को भी निर्बल बना दिया। वह जब आश्रम लौटा तो अकाल से आये हुये पीड़ित की भाँति दुर्बल और शक्तिहीन लग रहा था।

किसी को कुछ कहना पड़े इससे पूर्व ही कृतवर्मा ने आँखें झुका ली। मानो उसने स्वयं ही अपनी हार स्वीकार कर ली हो। आज उसे पता चला- आत्मा जीत लेने वाले ही सम्मान के सच्चे अधिकारी होते हैं।


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