सुरघु की समाधि

May 1969

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कैलाश पर्वत पर हेमजटा नामक जाति रहती थी, सुरघु उनका राजा था। सुरघु बड़ा दयालु, न्यायप्रिय और उदार था तो भी राज्य में कुछ न कुछ ऐसे दुष्ट और दुराचारी तो थे ही जिनके साथ उसे कठोरता बरतनी पड़ती थी। उन्हें दण्ड भी देना पड़ता था।

एक बार राज्य का कर न चुका पाने के अपराध में उसे एक नागरिक को दण्ड देना पड़ा। सुरघु का मन पश्चाताप से भर गया। उसने विचार किया कि राज्यकोष के लोभ में ही उसे दण्ड देना पड़ा इसलिये उसे क्रम के प्रति घृणा हो गई। यह एक दिन चुपचाप तपश्चर्या के लिये घर से भाग निकला।

सुरघु के शान्त तपोवन में आश्रम बनाया और तप करने लगा। तपश्चर्या के प्रभाव से चित-वृत्तियाँ निर्मल होने लगी। भगवान की भक्ति में सुरघु को आनन्द आने लगा।

आश्रम में अनेक पक्षी भी निवास करते थे, उनमें से कुछ शान्त और मधुर प्रकृति के पक्षी थे और दुष्ट और हिंसक स्वभाव के भी। एक दिन प्रातःकाल सुरघु अग्नि-होम समाप्त कर जैसे ही उठे थे कि उनकी दृष्टि सामने वाले आम वृक्ष पर गई जहाँ एक बाज़ एक तोते के बच्चे को पंजों में पकड़े बैठा उसे मारकर खा जाने के प्रयत्न में था। बच्चा चीं -चीं कर अपना दुःख प्रकट करता था पर दुष्ट बाज़ को जरा भी दया न आ रही थी।

सुरघु का न्यायप्रिय हृदय एक बार फिर शक्ति के आक्रोश में जागा। धनुष-बाण तो था नहीं पास ही एक पत्थर पड़ा था। उसे ही निशाना साध कर जो मारा कि बाज़ घायल होकर भूमि पर आ गिरा। तोते का बच्चा मुक्ति पाकर अपनी माँ की गोद में जा लिपटा। दृश्य बदल गया, मृत्यु आई थी शुक शावक को लेने पर हाथ बाज़ लगा।

अपने हाथ बाज़ की मृत्यु देखकर एक बार सुरघु का हृदय फिर काँप गया। उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। जिस कारण राज्य और वैभव का परित्याग किया वही फिर करना पड़ा यह सोचकर उसका चित्त बेचैन हो उठा। आँखों में आँसू भरने लगे। सुरघु सोच रहे थे- विधाता कैसी है तेरी सृष्टि कि न चाहते हुए भी मनुष्य को क्या-क्या करना पड़ता है।

सुरघु यह सोच ही रहे थे कि उधर से मुनि माण्डव्य घूमते-घूमते आ पहुँचे। सुरघु को दुःखी देखकर प्रेम-भावना मुनि सब बात समझ गये। राजन ने मुनि को प्रणाम किया और सविस्तार अपना दुःख उनसे प्रकट कर उससे मुक्ति पाने का उपाय पूछा।

महामुनि माण्डव्य बोलें- “राजन न्याय न किया जाये, कठोरता न करती जाये तो दुराचारी लोगों के हाथों धर्मनिष्ठ सज्जन लोग भी कष्ट पाते है, इसलिये व्यवस्थायें सम्भालना भी भगवान का ही हाथ बटाना है। मनुष्य अपने लिये कुछ न चाह कर ईश्वर की इच्छा मानकर निष्कामभाव से संसार सेवा करें तो यह कठोरता भी पाप नहीं होती। उस स्थिति में आनन्द और शांति का अभाव भी नहीं होता।

सुरघु अब पुनः राजधानी लौट आये और प्रजा की सेवा और उसके विकास में इस तरह लीन हो गये कि अपना हित भी उन्होंने भुला दिया। उनकी कुशल-क्षेत्र भगवान आप वहन करने लगे।

सेवा का सुख, प्रजा के प्यार का सुख पाकर आत्मदर्शी सुरघु की सत्र मानसिक विफलतायें दूर हो गई। उन्हें सर्वत्र आनन्द की निर्झरिणी प्रवाहित अनुभव होने लगी।

उन्हीं दिनों पारसी नरेश परिथ ने आर्यावर्त की यात्रा की। आत्म-ज्ञान और समाधि-सुख की आकांक्षा से परिथ ने सारे भारतवर्ष के सन्त-ज्ञानियों की शरण ली। अनेक प्रकार की साधनायें सम्पन्न की उसने। दम, नियम, ध्यान, धारण प्रत्याहार के द्वारा उसके इन्द्रियों पर नियन्त्रण करना भी सीख लिया। कई तरह की सिद्धियाँ भी उसने अर्जित की, किन्तु न जाने क्यों उसके अन्तःकरण में कुछ सूना-सूना-सा लगता था। पति क अभाव में भूषण-भूषित साधना की जिस तरह की छट–पटाहट और पीड़ा होती है, इसी प्रकार परिष का अंतर्द्वन्द्व समाप्त न होता था। व्याकुलता उसे सदैव घेरे रहती थी।

इसी अवस्था में परिभ्रमण करते हुए परिधि की भेंट मुनि माण्डव्य से हो गई। माण्डव्य ने नरेश को सम्राट सूरथ के पास जाने और योग-विधा सीखकर आत्म-शांति का परामर्श दिया। महान् जिज्ञासु शीघ्र ही कैलाश के लिये चल पड़ा।

राजधानी पहुँचने पर प्रधान सचिव ने बताया महाराज प्रतिदिन अपनी प्रजा के कष्ट-दुःख देखने के लिये स्वयं वेश बदलकर आया करते है, उन्हें एक सप्ताह हुये लौटे नहीं। राज्य-संचालन महारानी करती है, आप चाहें तो उनसे भेंट कर लें। परिथ में सुना और चुपचाप एक ओर चल पड़ा। सायंकाल हो गई। परिथ एक गाँव में रुका। जिस द्वार पर उसने विश्राम करना निश्चय किया दैवयोग से उस घर में एक वृद्धा माता के अतिरिक्त कोई न था। वृद्धा का पुत्र युद्ध में गया था, वृद्धा आज एक सप्ताह से बीमार थी, कोई अपरिचित व्यक्ति उसकी सेवा सुश्रूषा कर रहे थे। परिथ ने देखा अद्वितीय ओजस्वी का धनी वह व्यक्ति कोई साधारण मनुष्य नहीं था, वृद्धा की सेवा,घर की सफाई जैसे साधारण कार्यों में भी उसकी तल्लीनता देखते ही बनती थी। जिस वृद्धा में कोई सौंदर्य न था जिस वृद्धा को हाथ लगाने के लिए पड़ोसी भी न तैयार ना थे, उसकी इतनी आदर-भाव से सेवा परिध के मन में उस अपरिचित सज्जन का परिचय प्राप्त करने का कौतूहल जाग उठा।

नियमानुसार जैसे ही वृद्धा को औषधि पिलाकर परिचारक आश्वस्त हुये कि किसी जाने-पहचाने स्वर ने उन्हें प्रणाम करते हुये विभव की- ‘‘महाराज, आज सात दिन हो गये आपके न होने से सम्पूर्ण राजधानी और हेमबटा दुःख से छटपटा रही है।”

वह महाराज सुरघु थे। अपने अंग-रक्षक सैनिक की ओर ऐसे देखा जैसे उन्हें पता ही न चला हो कि राजधानी में उनकी अनुपस्थिति को पूरे सात दिन हो चुके है। उनके मुखमण्डल पर सेवा की अपूर्ण शान्ति और आत्म-दर्शन की गम्भीरता स्पष्ट चमक रही थी। उन्होंने सैनिक को सम्बोधित करते हुये कहा-तात मेरी प्रत्येक प्रजा, मेरे धर्म से जुड़ी हुई है-वह भी तो मेरा ही कर्त्तव्य था कि मैं इस वृद्धा की देख-भाल करता। तुम चलो और राजमाता को मेरा सन्देश कहो- वे मेरे न पहुँचने तक वहाँ की व्यवस्था सम्भाले रखें।

सैनिक लोटा और दूसरे सम्राट परिध महाराज सुरघु के समीप थे आज उन्होंने समाधिक का धर्म समक्ष लिया था। सेवा-सेवा-सेवा प्यार-प्यार-प्यार ऐसा आत्मदर्शन जिसमें हर प्राणी की पीड़ा अपनी पीड़ा,

हगंलैंड के विख्यात राजनैतिक लार्ड अस्थिव का बड़ा पुत्र लड़ाई के मोरचे पर गया हुआ था। कई दिनों से उसका कोई समाचार नहीं मिला था।

एक दिन अस्थिव महोदय अपने कार्यालय में काम कर रहे थे टेलीफोन की घंटी बजी उन्होंने संदेश सुना और ‘अच्छा, ऐसी बात है’। यह कह कर रिसीवर रख दिया। उन्होंने कहा-प्रभु की इच्छानुसार ही सब कुछ होता है”। इतना कह कर वह पुनः अपनी मेज़ पर आ गये और पूर्ववत् अपने काम में जुट गये। उनके साथी यह देखकर विस्मय विभूत हो गये कि- इनका बेटा लड़ाई में मारा गया है तब भी उस में कितनी गंभीरता है, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। इसे ही कहते है-स्थिति प्रज्ञता।

जीव का दुःख दर्द अपना दुःख दर्द अनन्त आत्मा की अनुभूति और उसमें खो जाने के सुख से बढ़कर और कोई साधना क्या हो सकती है। परिध को वह जान लेने के बाद और कुछ जानना शेष नहीं रह गया था।

विध्य-भाव से उसमें सम्राट सरघु के चरण स्पर्श किये और अपने देश लौट गया। वो शान्ति परिथ को किसी योग साधना और साँसारिक वैभव न मिल सकी थी, वह निष्काम करम योग के प्रयोग से सहज ही मिल गई।


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