मिट्टी के टीले पर बैठे हुए सन्त अनाम अस्ताचल गामी भगवान् सूर्य को बड़े ध्यान से देख रहे थे। वे देख रहे थे, किस प्रकार एक दिन महाशक्तियों का भी वैभव नष्ट हो जाता है।
सन्त अनाम इन्हीं विचारों में डूबे थे कि एक आदमी उनके समीप आया और प्रणाम कर चुपचाप खड़ा हो गया। मुस्कराते हुये सन्त अनाम ने पूछा- "वत्स मुझ से कुछ काम है?”
आगन्तुक ने विनय की- "भगवान मैं पुरु देश का धनी सेठ हूँ। तीर्थयात्रा के लिये चलने लगा तो मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा-आप इतने स्थानों की यात्रा करेंगे कहीं से मेरे लिये शान्ति, सुख और प्रसन्नता मोल ले आना।” मैंने अनेक स्थानों पर ढूँढ़ा पर यही तीन वस्तुयें कहीं नहीं मिलीं। आपको अत्यन्त शान्त, सुखी और प्रसन्न देखकर ही आपके पास आया हूँ, सम्भव है आपके पास ही वह वस्तुयें उपलब्ध हो जायें।
सन्त अनाम फिर मुस्कराए और अपनी कुटिया के भीतर चले गये। एक निमित्त के उपरान्त ही लौटकर आये और एक कागज की पुड़िया देते हुए बोले-यह अपने मित्र को दे देना और तब तक इस कहीं खोलना मत।”
आगन्तुक पुड़िया लेकर चला गया। मित्र ने एकान्त में ले जाकर उसे खोला और उसमें रखी औषधि का सेवन करके कुछ दिन में ही सुखी, शान्त और प्रसन्न हो गया। एक दिन वह उसी मित्र के पास जाकर बोले- ”मित्र मुझे भी अपनी औषधि का कुछ अंश दे तो मेरा भी कल्याण हो जाये।”
मित्र ने पुड़िया खोलकर दिखाई - उसमें लिखा था- "अन्तःकरण में विवेक और सन्तोष से ही स्थायी सुख-शांति और प्रसन्नता मिलती है।”