विचार ही चरित्र निर्माण करते हैं

May 1969

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ड़ड़ड़ड मस्तिष्क में बना रहता है, वह ड़ड़ड़ड स्थान बना लेता है। यही ड़ड़ड़ड स।सकार बन जाता है। संस्कारों ड़ड़ड़ड बहुत महत्व है। सामान्य-विचार ड़ड़ड़ड के लिए मनुष्य को स्वयं प्रयत्न करना ड़ड़ड़ड उसको यन्त्रवत् संचालित कर ड़ड़ड़ड जिसके द्वारा सारी क्रियायें ड़ड़ड़ड विचारों के अधीन नहीं होता है इसके विपरीत इस पर संस्कारों का पूर्ण आधिपत्य होता ड़ड़ड़ड भी शरीर-यन्त्र संस्कारों की प्रेरणा से ड़ड़ड़ड सक्रिय हो सकता है। और तदनुसार आचरण प्रति ड़ड़ड़ड़ करना है। मानव-जीवन में संस्कारों का बहुत महत्व होता है। इन्हें यदि मानव-जीवन का अधिष्ठाता और आचरण का प्रेरक कह दिया जाय तब भी असंगत न होगा।

केवल विचार मात्र ही मानव चरित्र के प्रकाशक प्रतीक नहीं होते। मनुष्य का चरित्र विचार और आचार दोनों से मिलकर बनता है। संसार में बहुत से ऐसे लोग पाये जा सकते हैं, जिनके विचार बड़े ही उदार, महान् और आदर्शपूर्ण होते हैं, किन्तु उनकी क्रियायें उसके अनुसार नहीं होता है। विचार पवित्र हों और कर्म अपावन तो वह सच्चरित्रता नहीं हुई। इसी प्रकार बहुत से लोग ऊपर से बड़े ही सत्यवादी, आदर्शवादी और धर्म-कर्म वाले दीखते हैं, किन्तु उनके भीतर कलुषपूर्ण विचारधारा बहती रहती है। ऐसे व्यक्ति भी सच्चे चरित्र वाले नहीं माने जा सकते। सच्चा चरित्रवान् वही माना जायेगा ओर वास्तव में वही होता भी है, जो विचार और आचार दोनों को समान रूप से उच्च और पुनीत रखकर चलता है।

चरित्र मनुष्य की सर्वोपरि सम्मति है। विचारकों का कहना है-धन चला गया, कुछ नहीं गया। स्वास्थ्य चला गया, कुछ चला गया। किन्तु यदि चरित्र चला गया तो सब कुछ चला गया।” विचारकों का यह कथन शतप्रतिशत भाव से अक्षरशः सत्य है। गया हुआ धन वापस आ जाता है। नित्य प्रति संसार में लोग धनी से निर्धन और निर्धन से धनवान् होते रहते है। धूप-छाँव जैसी धन अथवा अधन की इस स्थिति का जरा भी महत्व नहीं है। इसी प्रकार रोगों, व्याधियों और चिन्ताओं के प्रभावों से लोगों का स्वास्थ्य बिगड़ता और तदनुकूल उपायों द्वारा बनता रहता है। नित्य प्रति अस्वास्थ्य के बाद लोग स्वस्थ होते देखे जा सकते हैं। किन्तु गया हुआ चरित्र दुबारा वापस नहीं मिलता। ऐसी बात नहीं कि गिरे हुए चरित्र के लोग अपना परिष्कार नहीं कर सकते। दुश्चरित्र व्यक्ति भी सदाचार, सद्विचार और सत्संग द्वारा चरित्रवान् बन सकता है। तथापि वह अपना वह असंदिग्ध विश्वास नहीं पा पाता, चरित्रहीनता के कारण जिसे वह खो चुका होता है।

समाज जिसके ऊपर विश्वास नहीं करता, लोग जिसे सन्देह और शंका की दृष्टि से देखते हों, चरित्रवान् होने पर भी दसवें चरित्र का कोई मूल्य, महत्व नहीं है। वह अपनी निज की दृष्टि में भले ही चरित्रवान् बना रहे। आत्मा और अपने परमात्मा की दृष्टि में समान रूप से असंदिग्ध और सन्देह रहित हो। इस प्रकार की साम्य और निःशंक चरित्रमत्ता ही वह आध्यात्मिक स्थित है, जिसके आधार पर सम्मान, सुख, सफलता और आत्मशान्ति का लाभ होता है। मनुष्य को अपनी चारित्रिक महानता की अवश्य रक्षा करनी चाहिये। यदि चरित्र गया।

धन और स्वास्थ्य भी मानव-जीवन की सम्पत्तियाँ हैं- इसमें सन्देह नहीं। किन्तु चरित्र की तुलना में वह नगण्य है। चरित्र के आधार पर मन और स्वास्थ्य तो पाये जा सकते हैं किन्तु धन और स्वास्थ्य के आधार पर चरित्र नहीं पाया जा सकता। यदि चरित्र सुरक्षित है, समाज में विश्वास बना है तो मनुष्य अपने परिश्रम और पुरुषार्थ के बल पर पुनः धन की प्राप्ति कर सकता है। चरित्र में यदि दृढ़ता है, सन्मार्ग का त्याग नहीं किया गया है तो उसके आधार पर संयम, नियम और आचार-प्रकार के द्वारा खोया हुआ स्वास्थ्य फिर वापस बुलाया जा सकता है। किन्तु यदि चारित्रिक विशेषता का ह्रास हो गया है तो इनमें से एक की भी क्षति पूर्ति नहीं की जा सकती। इसलिये चरित्र का महत्व धन और स्वास्थ्य दोनों से ऊपर है। इसलिए विद्वान् विचारकों ने यह घोषणा की है, कि-धन चला गया, तो कुछ नहीं गया। स्वास्थ्य चला गया, तो कुछ गया। किन्तु यदि चरित्र चला गया तो सब कुछ चला गया।”

मनुष्य के चरित्र का निर्माण संस्कारों के आधार पर होता है। मनुष्य जिस प्रकार के संस्कार संचय करता रहता है, उसी प्रकार उसका चरित्र ढलता रहता है। अस्तु अपने चरित्र का निर्माण करने के लिए मनुष्य को अपने संस्कारों का निर्माण करना चाहिये। संस्कार, मनुष्य के उन विचारों के ही प्रौढ़ रूप होते हैं, जो दीर्घकाल तक रहने से मस्तिष्क में अपना स्थायी स्थान बना लेते हैं। यदि सद्विचारों को अपनाकर उनका ही चिन्तन और मनन किया जाता रहे तो मनुष्य के संस्कार शुभ और सुन्दर बनेंगे इसके विपरीत यदि अशुद्विचारों को ग्रहण कर मस्तिष्क में बसाया और मनन किया जायेगा तो संस्कारों के रूप में कूड़ा-कर्कट ही इकट्ठा होता जायेगा।

विचारों का निवास चेतन मस्तिष्क और संस्कारों का निवास अवचेतन मस्तिष्क अप्रत्यक्ष अथवा गुप्त होता है। यही कारण है कि कभी-कभी विचारों के विपरीत क्रिया हो जाया करती हैं। मनुष्य देखता है कि उसके विचार अच्छे और सदाशयी है, तब भी उसकी क्रियायें उसके विपरीत हो जाया करती हैं। इस रहस्य को न समझ सकने के कारण कभी-कभी वह बड़ा व्यग्र होने लगता है। विचारों के विपरीत कार्य हो जाने का रहस्य यही होता है कि मनुष्य की क्रिया प्रवृत्ति पर संस्कारों का प्रभाव रहता है और गुप्त मन में छिपे रहने से उनका पता नहीं चल पाता। संस्कार विचारों को व्यर्थ कर अपने अनुसार मनुष्य की क्रियायें प्रेरित कर दिया करते हैं। जिस प्रकार पानी के ऊपर दीखने वाले छोटे से कमल पुष्प का मूल पानी के तल में कीचड़ में छिपा रहने से नहीं दीखता, उसी प्रकार परिणाम रूप क्रिया का मूल संस्कार अवचेतन मन में छिपा होने से नहीं दीखता।

कोई-कोई विचार ही तात्कालिक क्रिया के रूप परिणत हो पाता है अन्यथा मनुष्य के वे ही विचार क्रिया के रूप में परिणत होते हैं, जो प्रौढ़ होकर संस्कार बन जाते हैं। वे विचार जो जन्म के साथ ही क्रियान्वित हो जाते हैं, प्रायः संस्कारों के जाति के ही होते हैं। संस्कार से भिन्न तात्कालिक विचार कदाचित् ही क्रिया के रूप में परिणत हो पाते हैं, बशर्ते कि वे संस्कार के रूप में परिपक्व न हो गये हों। वे संतुलित तथा प्रौढ़ मस्तिष्क वाले व्यक्ति अपने अवचेतन मस्तिष्क को पहले से ही उपयुक्त बनाये रहते हैं, जो अपने तात्कालिक विचारों को क्रिया रूप में बदल देते हैं। इसका कारण इसके सिवाय और कुछ नहीं होता है कि उनके संस्कारों और प्रौढ़ विचारों में भिन्नता नहीं होती-एक साम्य तथा ड़ड़ड़ड़ होती है।

संस्कारों के अनुरूप मनुष्य का चरित्र बनता है और विचारों के अनुरूप संस्कार। विचारों की एक विशेषता यह होती है कि यदि उनके साथ भावनात्मक अनुभूति का समन्वय कर दिया जाता है तो वे न केवल तीव्र और प्रभावशाली हो जाते हैं, बल्कि शीघ्र ही पक कर संस्कारों का रूप धारण कर लेते हैं। किन्हीं विषयों के चिन्तन के साथ यदि मनुष्य की भावनात्मक अनुभूति जुड़ जाती है तो वह विषय मनुष्य का बड़ा प्रिय बन जाता है। यही प्रियता उस विषय को मानव-मस्तिष्क पर हर समय प्रतिबिम्बित बनाये रहती है। फलतः उसी विषयों में चिन्तन, मनन की प्रक्रिया भी अबाध गति से चलती रहती है और वह विषय अवचेतन में जा-जाकर संस्कार रूप में परिणत होता रहता है। इसी नियम के अनुसार बहुधा देखा जाता है कि अनेक लोग, जो कि प्रियता के कारण भोग वासनाओं को निरन्तर चिन्तन से संस्कारों में सम्मिलित कर लेते हैं, बहुत कुछ पूजा-पाठ सत्संग और धार्मिक साहित्य का अध्ययन करते रहने पर भी उनसे मुक्त नहीं ड़ड़ड़ड़ चाहते है कि संसार के नश्वर भोगों और ड़ड़ड़ड़ वासनाओं से विरक्ति हो जाये, लेकिन उनकी ड़ड़ड़ड पूरी नहीं हो पाती

कर्म और विरक्ति भाव में रुचि होने पर भी-- वासनायें उनका साथ नहीं छोड़ पाती। विचार जब तक संस्कार नहीं बन जाते मानव-वृत्तियों में परिवर्तन नहीं ला सकते। संस्कार रूप भोग वासनाओं से छूट सकना तभी सम्भव होता है जब अखण्ड प्रयत्न द्वारा पूर्व संस्कारों को धूमिल बनाया जाये और वाँछनीय विचारों को भावनात्मक अनुभूति के साथ, चिन्तन-मनन और विश्वास के द्वारा संस्कार रूप में प्रौढ़ और परिपुष्ट किया जाय। पुराने संस्कार बदलने के लिये नये संस्कारों की रचना परमावश्यक है।

चरित्र मानव-जीवन की सर्वश्रेष्ठ सम्पदा है। यही वह धुरी है, जिस पर मनुष्य का जीवन सुख-शांति और मान-सम्मान की अनुकूल दिशा अथवा दुःख दारिद्रय तथा अशान्ति, असन्तोष की प्रतिकूल दिशा में गतिमान होता है। जिसने अपने चरित्र का निर्माण आदर्श रूप में कर लिया उसने मानो लौकिक सफलताओं के साथ परलौकिक सुख-शांति की सम्भावनायें स्थिर कर ली और जिसने अन्य नश्वर सम्पदाओं के माया-मोह में पड़कर अपनी चारित्रिक सम्पदा की उपेक्षा कर दी उसने माने लोक से लेकर परलोक तक के जीवन-पथ में अपने लिये नारकीय पड़ाव का प्रबन्ध कर लिया। यदि सुख की इच्छा है तो चरित्र का निर्माण करिये। धन की कामना है ते आचरण ऊँचा करिये, स्वयं की ड़ड़ड़ड है तो भी चरित्र को देवोपम बनाइए और यदि आत्मा, परमात्मा अथवा मोक्ष मुक्ति की जिज्ञासा है तो भी चरित्र को आदर्श एवं उदार बनाना होगा। जहाँ चरित्र है वहाँ सब कुछ है, जहाँ चरित्र नहीं वहाँ कुछ भी नहीं। भले भी देखने-सुनने के लिये भण्डार क्यों न भरे पड़े हों।

चरित्र की रचना संस्कारों के अनुसार होती है और संस्कारों की रचना विचारों के अनुसार। अस्तु आदर्श चरित्र के लिये, आदर्श विचारों को ही ग्रहण करना होगा। पवित्र कल्याणकारी और उत्पादक विचारों को चुन-चुनकर अपने मस्तिष्क में स्थान दीजिये। अकल्याणकारी दूषित विचारों को एक क्षण के लिये भी पास मत आने दीजिये। अच्छे विचारों का भी चिन्तन और मनन करिये। अच्छे विचार वालों से संसर्ग करिये, अच्छे विचारों का साहित्य पढ़िये और इस प्रकार हर ओर से अच्छे विचारों से ओत-प्रोत हो जाइये। कुल ही समय में आपके उन शुभ विचारों से आपकी एकात्मक अनुभूति जुड़ जायेगी, उनके चिन्तन-मनन में निरन्तरता आ जायेगी, जिसके फलस्वरूप वे मांगलिक विचार चेतन मस्तिष्क से अवचेतन मस्तिष्क में संस्कार बन-बनकर संचित होने लगेंगे और तब उन्हीं के अनुसार आपका चरित्र निर्मित और आपकी क्रियायें स्वाभाविक रूप से आपने आप संचालित होने लगेंगी। आप एक आदर्श चरित्र वाले व्यक्ति बनकर सारे श्रेयों के अधिकारी बन जायेंगे


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