महाशक्ति कुण्डलिनी और उसका जागरण

May 1969

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देवताओं और असुरों के बारे में हमारी कोई कल्पना न होने से उनके शरीरों के संबन्ध में निश्चित कुछ नहीं कहा जा सकता, किन्तु मनुष्य और पृथ्वी पर पाये जाने वाले अन्य जीव जैसे गाये, बैल, मृग, मगर, कीड़े मकोड़े और अनेक प्रकार के पक्षियों के बारे में नियम पूर्वक कहा जा सकता है कि उनके शरीरों का ढाँचा एक समान नहीं होता किन्हीं में हड्डियाँ बहुत कम और इतनी कमजोर होती है कि साधारण भटके से उन्हें तोड़ा जा सकता है। कछुए आदि सरकने वाले जीवों में हड्डियाँ होती ही नहीं। मस्तिष्क, नाक, कान, मुख आदि कि बाहरी और भीतरी बनावट संसार के सभी जीव-जातियों में अलग-अलग ही पाई जाती है।

प्राणियों की शरीर की रचना में यद्यपि बहुत अन्तर होता है फिर भी आँतों में घिरी हुयी ड़ड़ड़ड़ नाम की एक ऐसी नाड़ी है जो संसार के सभी जीवों में एक सी पायी जाती है। वीणा के मूल भाव में स्थित गोलाई, जल के भंवर और कुण्डल के चक्र के समान आकृति वाली इस नाड़ी का बीच चेतना के महत्त्वपूर्ण सम्भव माना जाता है। वही से सैकड़ों नाड़ियाँ निकलकर शरीर के विभिन्न प्रदेशों तक फैली जाती है।

यह नाड़ी देखने में ऐसी लगती है जैसे शीत से सिकुड़कर कोई सर्पिणी कुण्डली मारकर सो गई हो। उसकी आकृति के अनुसार ही उसे कुण्डलिनी नाम से सम्बोधित किया गया है। यह नाड़ी ही जीव चेतना का सम्पूर्ण आधार है। उसी से जीवधारियों को शक्ति और तेजस्विता मिलती है, सामान्य स्थित में जिस व्यक्ति की कुण्डलिनी शक्ति जितनी मात्रा में स्पन्दन करती है, उतना ही प्रभाव क्षेत्र, उस मनुष्य का होता है। उसी के आधार और अनुपात से लोगों को सुख-दुःख आदर सम्मान, लोक प्रतीक्षा आदि मिलती है। इसीलिये कहना न होगा कि मनुष्य के स्थूल जीवन ही नहीं व्यवहारिक जीवन की सफलता और समुन्नति का आधार भी कुण्डलिनी शक्ति ही है।

पाँचों प्रकार के ज्ञान इन्द्रियाँ भी बिजली के तारों की तरह इसी परम शक्ति से जुड़ गयी है इसलिये वह सूक्ष्म चेतना होने के कारण चिति, जीने से जीव, मनन करने से मन और मोक्ष प्राप्त करने से चेतना को विधि रूप में देखा जाता है। अहंकार रूप से उस ही ड़ड़ड़ड़ कहते है। इस पर विभिन्न नामों का एक ही आधार है। चेतना इन चेतना को शक्तियों को मूलाधार शक्ति को ही कुण्डलिनी कहा जाता है। ज्ञान और अनुभव के पाँचों कोष के बीच रूप से इसी में पायी जाती है, इसलिये कुण्डलिनी शक्ति जागृत कर लेने वाला इन्द्रियों को उसी तरह पक्ष में कर देता है जिस तरह लगाम लगे हुये घोड़ों को वश में कर लिया जाता है जिसने इन्द्रियों को जीते लिया संसार में उसका भय जो निर्भय हो गया वही विजय-विजेता हो गया।

कुण्डलिनी की इन्हीं महान् सामर्थ्यों को बन कर ही योग शाखों ने उसे सर्वाधिक महत्व दिया गाया है उसके साथ अनेक प्रकार की कल्पनायें जोड़ दी गयीं है। अनेक प्रकार से वर्णन किया जाता है। सीधे सरल शब्दों में कुण्डलिनी वह दिव्य मानस तेज है जो आत्म-चेतना के परिसिक्त है। और शरीर भर में व्याप्त है। साधना के फलस्वरूप वह तेज निपट कर ध्यान के समय ज्योति बनकर देह में कार्य करने लगता है।

कुण्डलिनी शक्ति को अच्छी तरह समझने के लिये ड़ड़ड़ड़ क्रिया और सम्पूर्ण शीर्षक (मेडुला आफ लोगलेटा) का विस्तृत अध्ययन आवश्यक है। पाश्चात्य वैज्ञानिक अभी तक इतना ही जान पाये हैं कि नाक से ली हुयी साँस मन से होती हुई फुपफुमों (फेफड़ों) तक पहुँचती है। फेफड़ों के छिद्रों में भरे हुये रक्त को वायु शुद्ध कर देती है। और रक्त-परिसंचालन की गतिविधि शरीर में चलती रहती है।

किन्तु प्राणायाम द्वारा श्वाँस-क्रिया को बन्द करके भारतीय योगियों ने यह सिद्ध कर दिया कि चेतना जिस प्राण-तत्व को धारण किये हुये जीवित है, उसके लिये श्वाँस- क्रिया आवश्यक नहीं है। साँस ली हुई हवा का स्थूल भाग ही रक्त शुद्धि का काम करता है, उसका सूक्ष्म भाग सुषुम्ना शीर्षक में अवस्थित खड़ा और पिंगला नाड़ियों के माध्यम से नाभि-कम्द स्थित चेतना को उद्दीप्त किये रहता है। ”गोरक्ष पद्धति” में श्लोक 48 में इस क्रिया को शक्ति-चालन महामुद्रा, नाड़ी शोभन आदि नाम दिये है और लिखा है कि सामान्य अवस्था में इड़ा और पिंगला-नाड़ियों का शरीर की जिस ग्रन्थि या इन्द्रिय से सम्बन्ध होता है, मनुष्य उसी प्रकार के विचारों से प्रभावित होता रहता है, इस अवस्था में नाड़ियों के स्वतः संचालन का अपना कोई क्रम नहीं होता। किन्तु जब विशेष रूप (प्राणायाम) से प्राण-वायु को चौंका जाता है तो इड़ा (गर्म नाड़ी) और पिंगला (ठण्डी नाड़ी) दोनों सम-स्वर में प्रवाहित होने लगती है। इस अवस्था के विकास के साथ-साथ नाभि-कन्द में प्रकाश स्वरूप गोला भी विकसित होने लगता है। उसके प्राण-शक्ति का

विद्युत-शक्ति के समान निस्तारण होता है। चूँकि सभी नाड़ियाँ इसी भाग से निकलती है, इसलिये वह इस ज्योति भोले के संस्पर्श में होती है। सभी नाड़ियों में वह विषय-व्यापी शक्ति भरने से सारे शरीर में वह तेज ‘ओजस’ के रूप में प्रकट होने लगता हैं। इन्द्रियों में वही जल के रूप में, नेत्रों में चमक के रूप में परिलक्षित होता है। इस प्राण-शक्ति के कारण प्रबल आकर्षण शक्ति पैदा होती है।

यह शक्ति नाभि प्रवेश में प्रस्फुटित होती है और चूँकि दृष्टि प्रवेश भी उसी के समीप है, इसलिए वह भाग शीघ्र और तेजी से प्रभावित होता है। इसलिये यौन-शक्ति केन्द्रों का नियन्त्रण में रखना अधिक आवश्यक होता है। साधना की अवधि में संयम पर इसीलिये अधिक जोर दिया जाता है, जिससे कुण्डलिनी शक्ति का फैलाव ऊर्ध्वगामी हो जाये उसी से ओज की वृद्धि होती है।

स्थूल रूप से शरीर के वायु मंडल की ही प्रख्यात वैज्ञानिक देख पाते है, वे अभी तक नाड़ियों के भीतर बहने और जीवन की गतिविधियों को मूलरूप से प्रभावित करने वाले प्राण प्रवाह को नहीं जान सके। सूक्ष्म नेत्रों से उसे देखा जाना संभव भी नहीं है। उसे भारतीय योगियों ने चेतना के अति सूक्ष्म-स्तर का चेतन करके देखा। योग शिखोपनिषद् में 101 नाड़ियों का वर्णन करते हुये शास्त्रकार ने सुषुम्ना शीर्षक को परानाड़ी बताया है। यह कोई नाड़ी नहीं है वरन इड़ा और पिंगला के समान विद्युत-प्रवाह से उत्पन्न हुई एक तीसरी धारा है। जिसका स्थूल रूप से अस्तित्व नहीं भी है और सूक्ष्म रूप से इतना व्यापक एवं विशाल है कि जीव की चेतना अब उसमें से होकर चला करती है तो ऐसा लगता है कि वह किसी आकाश गंगा में प्रभावित हो रही हो। वहाँ से विशाल ब्रह्माण्ड की भाँति होती है। अन्तरिक्ष में अव-स्थित अगणित सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह-नक्षत्र की स्थिति समझने का अलभ्य अवसर, जो किसी चन्द्रयान या राकेट के द्वारा भी सम्भव नहीं है, इसी शरीर में मिलता है। उस स्थिति का वर्णन किया जाये तो प्रतीत होगा कि जो कुछ स्थल और सूक्ष्म इस संसार में विद्यमान् है, उन सब के साथ सम्बन्ध मिला लेने और उनका मान उपलब्ध करने की क्षमता उस महान् आत्म-तेज में विद्यमान् है जो कुण्डलिनी के भीतर बीज रूप में मौजूद है।

सुषुम्ना नाड़ी (स्पाइनलकर्ड) मेरुदण्ड में प्रवाहित होती है और ऊपर मस्तिष्क के चौथे निचले भाग (फोर्थ वेन्टिकस) में जाकर सहस्रार चक्र में उसी तरह प्रविष्ट हो जाती है, जिस तरह तालाब के पानी में से निकलती हुई कमल नाल से शत-दल कमल विकसित हो उठता है। सहस्रार चक्र ब्रह्माण्ड लोक का प्रतिनिधि है, यहाँ ब्रह्म की सम्पूर्ण विभूति-बीज रूप से विद्यमान् है और कुण्डलिनी की ज्वाला वहीं जाकर अन्तिम रूप से जा ठहरती है, उस स्थिति में निरन्तर मधुपान का सा, सम्भोग की तरह का सुख (जिसका कभी अन्त नहीं होता) है, उसी कारण कुण्डलिनी शक्ति से ब्रह्म प्राप्ति होना बताया जाता है।

कुण्डलिनी का महत्व इसी शरीर में परिपूर्ण ड़ड़ड़ड़ और सामर्थ्य का स्वामी बनकर आत्मा की अनुभूति और ईश्वर दर्शन प्राप्त करने से निःसन्देह बहुत अधिक बढ़ जाता है। पृथ्वी का आधार जिस प्रकार शेष भगवान को मानते है, उसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति पर ही प्राणि मात्र का जीवन अस्थित्व टिका हुआ है। सर्प के आकर की वह महाशक्ति ऊपर जिस प्रकार मस्तिष्क में अवस्थित शून्य-चक्र से मिलती है, उसी प्रकार नीचे वह यौन-स्थान में विद्यमान् कुण्डलिनी के ऊपर टिकी रहती है। प्राण और अपान वायु के चौंकने से वह धीरे-धीरे मोटी, ड़ड़ड़ड़, सशक्त और पिरपुड होने लगती है। साधना की प्रारम्भिक अवस्था में यही क्रिया धीरे-धीरे होती है। किन्तु साक्षात्कार या सिद्धि की अवस्था में यह सीधी हो जाती है और सुषुम्ना का द्वार खुल जाने से शक्ति का स्फुरण वेग से फूट कर सारे शरीर में-विशेष रूप से मुख्यकृति में-फूट पड़ता है। कुण्डलिनी जागरण दिव्य-ज्ञान दिव्य अनुभूति और अलौकिक सुख का सरोवर इसी शरीर में मिल जाता है।

सुषुम्ना नाड़ी का रुका हुआ छिद्र जब खुल जाता है तो साधक को एक ध्वनि प्रारम्भ में मेघ के गर्जन, वर्षा समुद्र की हहराहट, घण्टा, भक्ति, विराग और भ्रमर-गुजार के तुल्य विकसित होती है, यही बाद में अनहद नाद में परिवर्तित हो जाती है। नाभि से 4 उंगल ऊपर यह आवाज सुनाई देती है, उसे सुनकर चित्त उसी प्रकार मोहित होता है, जिस प्रकार वेणुनाद सुनकर सर्प सब कुछ भूल जाता है। अनहद नाद से साधक के मन पर चढ़े हुए जन्म-जन्मान्तरों के सुसंस्कार छूट जाते हैं।

नाद ही नहीं कुण्डलिनी शक्ति अपने जिस पुर्यष्टक नाम प्राण-स्वरूप में स्थिर है उसमें ऐसी सुगन्ध प्रस्फुटित होती है, जैसे वहाँ कोई मञ्जरी या कस्तूरी बड़े यत्न से सुरक्षित रखी गई है।

कुण्डलिनी जाग्रत करने के लिये जितनी दुस्तर उसकी सिद्धियाँ है, उतना कठिन साहस भी करना पड़ता है, किन्तु यह शक्ति जब जागृत हो जाती है और उसके प्रवाह का अन्त नाड़ियों में फैलने से रोककर ब्रह्म नाड़ी से ऊपर की ओर से जाते है (ब्रह्म नाड़ी सुषुम्ना की भी मध्यवर्ती और अत्यन्त सूक्ष्म नाड़ी है। नाड़ियों के विषय पाठक पढ़ेंगे सुषुम्ना के भीतर भी केले के पत्तों की तरह बज्व्रा और चित्रणी नाड़ी है, उनकी विषम धारा का नाम ब्रह्म नाड़ी है, इन नाड़ियों को पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने एक धूमर पदार्थ (ग्रे कैटर) के रूप में जानने का प्रयत्न किया है पर वे अभी तक इस सम्बन्ध में कोई यांत्रिक जानकारी उपलब्ध नहीं कर सके ) तो वह इस शरीर को आकाश गगन की शक्ति से भर देती है। योग वसिष्ठ में कुण्डलिनी साधन की दिव्य सिद्धियों का वर्णन करते हुए लिखा है-

ड़ड़ड़ड़ मुहूर्त स्थितिमाप्नोति तथा ड़ड़ड़ड़

मुखाह्नाहिद्धविशान्ते रेचकाम्यासयुक्तिः। प्राणे चिरं स्यितं नीते प्रविशत्यवशं पुरीम॥

रेवकाभयासयोगेन जीवः कण्डरिलिनीव्रह्मत। उदृघत्य योज्यते यावदामोदः पवनादिव॥

त्याज्यते विरतस्वम्वो देह्मयं कोष्ठोष्टव्त। छेहेऽपि जोथेऽपि मताषा सेवक उपचारः॥

स्थाचरे जंगमे थापि यथाभिमतयेचहया। भोक्तु तत्सपद सम्यग्जीवोऽन्तविनिवेश्यते॥

इति सिद्धिमियं भुक्त्वा स्थित चेतहपुः पुः। प्रविश्ते स्वमन्यद्वा यधत्तात विरोचते॥

देहादयस्तथा विम्वामयाप्सवश्यापिलमय। संविदा जगदापूर्य संपुर्ण स्थीयतेऽथवा॥

अर्थात्-रेचक के प्रयोग से जब कुण्डलिनी शक्ति मस्तिष्क में थोड़ी देर के लिये टिक जाती है तो उन सिद्ध पुरुषों के दर्शन होते है जो बहुत पहले इस नश्वर देह का परित्याग कर चुके है। प्राणों को मुख से 12 गुना बाहर रखने का अभ्यास कर लेने वाला योगी किसी दूसरे शरीर में प्रवेश कर सकता है। इन्हीं युक्तियों से योगी में जीव को कुण्डली से उसी प्रकार बाहर निकालने की क्षमता मिल जाती है, जिस प्रकार वायु से सुगन्ध खींच ली जाये। इस स्थिति में शरीर कही भी पड़ा रहे चेतना उससे अलग होकर बाहर के दृश्यों का उसी प्रकार घूम कर आनन्द ले सकती है, जैसे कोई इस शरीर से ही कहीं भ्रमण कर रहा हो। दूसरे शरीर चाहे यह जड़ जैसे वृक्ष ही क्यों न हों उसमें भी यह चेतना प्रवेश करके यहाँ के सब ड़ड़ड़ड़ जान सकती है, किसी और के शरीर में प्रवेश करके उस शरीर को मिलने वाले भोग आदि सुखों का रसा- ड़ड़ड़ड़ किया जा सकता है। अपने शरीर से भोग-भोग कर चेतना को किसी और के शरीर में बदलता रहे तो बहुत काल तक भौतिक सुख और उसे सारे संसार में फैला कर वह सर्व-व्यापी और अन्तर्यामी हो सकता है।

कुण्डलिनी शक्ति की सिद्धियों का कोई आर-पार नहीं है। अन्य योगों की अपेक्षा यह योग सरल भी है, किन्तु साधना काल के विक्षेप और कठिनाइयों को सम्भालने के लिये उसमें भी बड़े साहस और कठोर तप की आवश्यकता होती है। कुण्डलिनी शक्ति मूलतः नाड़ियों से सम्बन्धित है। और नाड़ी जाल के द्वारा ही वह सारे शरीर में फैलती है। इसलिये उसे जाग्रत करने का सम्पूर्ण विश्राम नाड़ियों के उत्तेजन से ही सम्भव होता है। साधना काल में साधक को अपनी मन स्थिति को वशवर्ती और स्थिर बनाये रखने के लिये यधति यम, नियम, ध्यान, धारण, प्रत्याहार आदि का भी अभ्यास करना आवश्यक होता है किन्तु कुण्डलिनी प्राण-शक्ति है, इसलिये उनका जागरण मूलतः प्राणायाम की क्रियाओं से होता है। कुछ साधन ऐसे भी है जिनमें प्राणायाम के साथ मूलबन्ध और उद्धिमान-ग्रन्ध भी करने पड़ते है। यह क्रियायें हठवादी होने से कई जोखिम भी हो सकते है यद्यपि इनमें कुण्डलिनी शक्ति का जागरण थोड़े समय में ही हो जाता है, किन्तु योनियों में उन कठिनाइयों और बाधाओं को देखकर ऐसे सुगम प्राणायाम में खोज निकाले जो किसी भी स्वरूप, निर्मल, युवक, वृद्ध या नारियों द्वारा किये जा सके और कुण्डलिनी के क्रमिक विकास का लाभ प्राप्त कर सकें।

प्राणायाम के अभ्यास से यहाँ शरीर में प्राण शक्ति बढ़ती है, वहाँ कुण्डलिनी जागरण के लिये आवश्यक साहस और आत्मबल भी प्राप्त होता है। आत्मबल के ड़ड़ड़ड़ में कठिन साधनायें लोग स्वरूप समय में ही छोड़ बैठते है, किन्तु प्राणायाम के शारीरिक और मानसिक लाभ तुरन्त मिलते है, जिससे मनोबल बढ़ता है और आगे का मार्ग साफ होता चला जाता है। बुद्धि के सूक्ष्म ड़ड़ड़ड़ का विकास होने से स्थूल भागो और दुर्बल साधनाओं से भी अधिक होने लगती है और पारलौकिक साधना में आस्था बढ़ने लगती है इस विधि से मार्ग में पड़ने वाली कठिनाइयों के प्रति उसी तरह साहस बढ़ता जाता है जिस तरह किसी को यदि यह मालूम हो जाये कि यहाँ से इतनी दूरी पर रत्नों का भण्डार छिपा हुआ है तो वह मनुष्य रत्नों के लोभ में मार्ग में आने वाली व्यक्तियों को भी ड़ड़ड़ड़ ठहराकर उन्हें प्राप्त करने के लिये चल पड़ता है।


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