अपनों से अपनी बात- - (2) हमारे प्रेम साधना और उसकी परिणति

May 1969

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मनुष्य अपने आपमें परिपूर्ण प्राणी है। उसके भीतर है ईश्वर की सभी शक्तियाँ बीच रूप से विद्यमान् है। साधना का तात्पर्य उन बीच तत्त्वों को प्रस्तुत स्थिति से जागृत कर सक्रिय एक समर्थ बनाना है। श्रम और जागृत कर सक्रिय एवं समर्थ बनाना है। श्रम और समय से शरीर, स्वाध्याय और विवेक से मन तथा प्रेम और सेवा से अन्तःकरण का विकास होता है। जीवन साधन के यह छः आधार ही व्यक्तित्व के उत्कर्ष में सहायक होते है। जिस प्रकार काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर यह छः शुभ माने गये हैं, उसी प्रकार अन्तरंग में अवस्थित यह छः मित्र भी ऐसे है कि यदि मनुष्य इनका समर्थन प्राप्त कर सके तो अपनी समस्त तुच्छताओं पर विजय प्राप्त कर जीवन लक्ष्य की प्राप्ति में निश्चित रूप से सफलता प्राप्त कर सकता है।

उपासना की दृष्टि से शरीर क्षेत्र में पूजन व्रत, यात्रा, समय, सदाचरण, दान, पुण्य, तप, साधना आदि कर्मकाण्डों का-मनः क्षेत्र में ध्यान, चिन्तन, स्वाध्याय, सत्संग आदि का और अन्तःकरण क्षेत्र में भाव तन्मयता, दृष्टि परिष्कार, समक्ष, समाधि तय, वैराग्य आदि निष्ठाओं का अपना महत्व है। इन प्रकरण को भी वाधि विषानपूर्वक अनुभव मार्ग-दर्शन में अग्रसर किया जाना चाहिये। आस्मिक प्रगति के लिये इनकी भी आवश्यकता है और उनके लिये समुचित प्रयत्न परिश्रम होना चाहिये, किन्तु यह नहीं मान बैठना चाहिये किम उपासना पद्धतियों का डडडड ही आत्मा कल्याण एवं देव अनुग्रह प्राप्त कर लेने के लिये पर्याप्त है। तथ्य यह है कि उपासना के साथ साधना जुड़ी हुई होनी चाहिये। उपासना शरीर है और साधना प्राप्त। दोनों एक दूसरे के पूरक है। बिजली के दो तारों के मिलने पर किया उत्पन्न होती है, दोनों पहिये ठीक होने पर ही गाड़ी चलती है। इसी प्रकार आत्मिक प्रगति कि लिये जीवन के तीनों स्तर पर स्थूल, सूक्ष्म, और कारण-देह-मन और आत्मा-तब विकसित होती है जब उपासना और साधना, की द्वितीय डडडड पर समुचित ध्यान दिया जाय।

उपरोक्त पंक्तियों को हमारा आध्यात्मिक क्रिया-कलाप का आधार और इस क्षेत्र में उपलब्ध अनुभवों का सार कह सकते है। दूसरे लोग है जिन्हें डडडड मार्ग-दर्शन में एकांगी मस्ती और सरल उपासना पद्धतियों के सुट-बुट प्रयोग बनाकर लम्बे-चौड़े आश्वासन दिये और उन वचन प्रयत्नों से ऋद्धि-सिद्धियाँ मिलने एवं मनोकामनायें पूरी होने के सब्जबाग दिखाये। लोग उस मार्ग पर चलें पर

मिला कुछ नहीं, इसलिये उदास मन से उन सस्ते कर्म-काण्डों को भी छोड़ बैठें। जो अतिशय सरल थे। अनास्था इसी प्रकार बढ़ी है। छछोर मार्ग-दर्शन ने समझा होगा कि नकली वस्तुयें सस्ती होने के कारण महँगी असली वस्तुओं की अपेक्षा भोली भीड़ को अधिक आकर्षित करती है, इसलिये क्यों न आत्मिक क्षेत्र में भी उसी प्रयोग को अपनाया जाय शायद यही उन्हें ठीक लगा होगा और इसलिये छुट-पुट पूजा पद्धतियों के महत्व आकाश-पाताल जितने लिखने और कहने प्रारम्भ किये होंगे डडडड त्रिआसु उभर सलचाँय भी बहुत-इतने कि असली बेचने वाली दुकानें सूची पढ़ी रहें। फिर भी नतीजा कुछ नहीं निकला। शीघ्र और सही मूल्य पर कीमती वस्तुयें प्राप्त करने का सिद्धान्त गलत है। हर वस्तु अपना मूल्य माँगती है। एम॰ ए॰ की पढ़ाई पूरी करने के लिये कठोर परिश्रम के साथ 16 वर्ष ही लगेंगे। आम का बाग 4 वर्ष में ही फल होगा और पानी, खाद, गुड़ाई-निराई की रखवाली अपेक्षा रखेगा। असली हीरा दस पैसे का नहीं मिल सकता, नोटों से भरी जेब खाली करने पर ही मन-पसन्द वस्तु प्राप्त की जा सकती है। फिर अध्यात्म क्षेत्र में ही ड़ड़ड़ड़ सस्ती का प्रयोजन पूरा कैसे होता। छुट-पुट मन्त्र-तन्त्र करके आत्मिक प्रगति की सिद्धियाँ प्राप्त कर सकता है, इसके लिये आत्म-विज्ञान की साड्डोपाड्ड प्रक्रिया को ही धैर्य और साहस के साथ अपनाना पड़ता है, और समुद्र-मन्थन करके अभीष्ट सिद्धियों के रत्न उपहार ड़ड़ड़ड़ करने होते है।

सौभाग्य से हमें आरम्भ में ही सही रास्ता मिल गया और उन बाल-जंगलों में नहीं भटकना पड़ा जिसमें चलने वाले दूसरे उतावली कल्पनाओं में भ्रमाये हुए लोग विवश होकर लौटते है। हमारा हर कदम, हर दिन सफलता का क्रमिक सन्देश लेकर सामने आता रहा है। और यह अहसास दिलाता रहा है कि मंजिल कितनी ही लम्बी क्यों न हो, प्रगति कितनी ही मन्द क्यों न हो, रास्ता यही सही है और इसी प्रकार आगे बढ़ते चलने पर देर-सबेर में ड़ड़ड़ड़ सफलता मिल जोगी।

हमारे मार्ग-दर्शक ने यह बात आरम्भ में ही कूट-कूट कर अन्तरंग में बिठा दी थी कि उपासना आवश्यक है, उसे पुरी तत्परता के साथ अपनाया जाय, किन्तु यह भली भाँति समझ लिया जाय कि इस क्षेत्र की सफलताओं का स्रोत भावनात्मक विकास की जीवन साधना पर ही अवसम्मित है। यदि साधना की उपेक्षा की गई और पूजा-पद्धति के सहारे लम्बे-चौड़े सपने देखे गये तो अन्य असंख्य जाल-जंजालों में भटकने वालों की तरह हमें भी खाली हाथ रहना पड़ेगा “हमने इस शिक्षा को गाँठ बाँध लिया और जिस दिन से उस क्षेत्र में प्रवेश किया, दोनों ही प्रक्रियाओं पर समान रूप से ध्यान दिया। चिकित्सा और पथ्य रोगी के लिए-खाद और पानी पौधे के लिए-पढ़ना और लिखना छात्र के लिए-पूँजी और बुद्धि व्यापार के लिए आवश्यक है, उसी प्रकार आत्मिक प्रगति कि लिए उपासना और साधना का जोड़ा अविच्छिन्न रूप से आवश्यक है। इसमें न तो ढील की गुँजाइश है, न उपेक्षा की। शास्त्रकारों से लेकर तपोनिष्ठ ऋषियों और सफल आराधकों ने सदा इसी तथ्य का प्रतिपादन किया है। सस्ते बेचने वाले कुँजड़े केवल ग्राहकों को भ्रम में डाल सकते है पर आवश्यकता किसी की पूरी नहीं करा सकते। धन्यवाद है भगवान् का जिसने हमें एक घंटे में ईश्वर दर्शन कराने वाले और चेला मूड़ने वाले, जादुई मन्त्र बताने वाले करामाती जंजालियों के चंगुल में फँसने से बचा लिया। धन्यवाद है भगवान जिसने हमें अपने पुरुषार्थ से आत्म-निर्माण करने का राजमार्ग बताया और परावलम्बन की प्रचलित पाखण्ड प्रक्रिया से दूर रहने का आदर्श पहुँचाया।

उपासना क्षेत्र में गायत्री महामन्त्र की साधना अनन्य श्रद्धा और विश्वास के साथ करने की शिक्षा हमें मिली थी, उसमें लम्बे-चौड़े विधि-विधान जुड़े हुए नहीं है। कितने ही व्यक्ति विधि-विधानों के अन्तर और कर्मकाण्डों के जोड़-तोड़ से साधना की सफलता, असफलता का कारण मानते है और इस ढूँढ़ खोज में रहते है कि कोई रहस्यमय ऐसी पद्धति हाथ लग जाय जिससे देखते-देखते जादुई चमत्कार का प्रतिफल सामने आ जाय। हमारी मान्यता वैसी नहीं रही। मंत्र शास्त्र का विशाल अध्ययन और अन्वेषण हमने किया है। महामंत्रिकों से हमारे सम्पर्क है और साधना पद्धतियों के सूक्ष्म अन्तर प्रत्यन्तरों को हम इतना अधिक जानते है, जितना बुद्धिमान पीढ़ी के मंत्र ज्ञाताओं से शायद ही कोई जानता हो। लोगों ने एकांकी पढ़ा सीखा होता है- हमने शोध और जिज्ञासा की दृष्टि से इस विद्या को अति विस्तार और अति गहराई के साथ ढूँढ़ा, समझा है। इस जानकारी का भी महत्व हम मानते है और जहाँ उपयोगिता आवश्यक होती है, उसका प्रयोग भी करते-कराते रहते है पर हमारी अपनी क्रिया-पद्धति अति सरल और सीधी-सादी है, यही सीधा सा एक ॐ, तीन ग्याहृति और 24 अक्षरों वाला वेदोक्त गायत्री मंत्र हमें मिला है और इसमें बिना अधिक ॐ, अधिक बीज सम्पुट आदि की लाग लपेट जोड़े जप-साधना में लग जाते है।

शरीर और वस्त्रों की शुद्धि, पूजा उपकरणों की स्वच्छता, शांत और सौम्य वातावरण, प्रफुल्ल मन का ध्यान रखकर पूजा के लिये बैठा जाये नियत समृत और निवास स्थान का ध्यान रखा जाये तो उपासना सरल बन जाती है। प्रातः 2 बजे हम उठते है और शौच, स्नान के नित्य कर्म से नि+वृत् होकर उपासना कक्ष में चले जाते है। अब तक मथुरा रहते हैं यही निवास स्थान है, जो इस घर में जब से ओ है, तब से नियत है। उपासना का समय तथा जप की संख्या भी निर्धारित है। यह तीनों नियभ्तायें सबके अचेतन मन को इस बात के लिए प्रशिक्षित कर देती है कि यथासम्भव यथावत अपने काम पर लग जाये। अन्तरमन की यह विशेषता है कि यह किसी प्रक्रिया को देर में पकड़ता है पर जब एक बार पकड़ लेता है तो नियत समय पर उसी की माँग करता है और सरलतापूर्वक उसी में प्रवृत्त रहता है। शौच, भूख, प्यास, नींद आदि की आदतें नियत समय पर प्रबल होती है। कोई स्थान विशेष भी किसी के लिए ऐसा बन जाता है, जहाँ अमुक मानसिक प्रक्रिया स्वयमेव गतिशील होने लगे। लेखकों, कवियों आदि किसी नियम स्थान पर-नियत समय पर अपना काम करना सरल होता है। अचेतन मन की इस विशेषता को ध्यान में रखकर हर साधक को अपनी उपासना का स्थान, समय और क्रम निर्धारित करना पड़ता है। आरम्भ में मन कुछ गड़बड़ करता है पर पीछे जब अभ्यस्त हो जाता है, तब सारी प्रक्रिया बड़ी शांति और सुविधा से होने लगती है। हमने पुराण काल में तथा सामान्य समय में इन तीनों ही बातों का समुचित ध्यान रखा है, अतएव उसमें स्थिरता बनी रही। मन उचटने जैसी अड़चन नहीं आई। समय स्थान और संख्या की समस्वरता का महत्व हम सभी को बताते रहते और जो उसे अपना लेते है, उन्हें मन उचटने की कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता।

शीघ्र उठना उनके लिए सम्भव है, जो शीघ्र सोते हैं। देर से सोने वाले शीघ्र नहीं उठ सकते। उपासना का सर्वश्रेष्ठ समय ब्रह्म मुहूर्त-सूर्योदय से पूर्व का है। हम आमतौर से 8-8.30 बजे तक सो जाते है। प्रायः 6 घण्टे में नींद पूरी हो जाती है और प्रातःकाल उठने में कठिनाई नहीं होती स्वतः ही नींद खुल जाती है और अगला क्रम निर्धारित ढर्रे पर चलने लगता है अपने उपासना स्थल की एक विशेषता है, यहाँ होते ड़ड़ड़ड़ अखण्ड यज्ञ। गत 42 वर्ष से हमारा अखण्ड व्रत दीप जलता है। साथ ही अमर पंक्तियों एवं पूणत्तियों के रूप में हवन सामग्री भी यहाँ यथा क्रम जलती रहती है। दीपक का भी और बत्तियों की कामियों निरन्तर बढ़ने से दोनों का समिधित धूम्र, बचंस, तेज तथा प्रभाव उपासना करु में वशीष वातावरण उत्पन्न करता है। अतएव यह केवल अखण्ड दीपक मात्र ही नहीं रहता वरन अखण्ड यज्ञ बन जाता है। ऐसे संयोग, सम्भालने में सतर्कता बहुत रखनी पड़ती है, और व्यय भी काफी आता है। फिर भी इसका प्रतिफल बहुत है। लम्बी अवधि से इस कक्ष में होते रहने वाले जप पुरभ्ररणा के साथ अखण्ड यज्ञ की इस प्रक्रिया में यहाँ का वातावरण अलौकिक बना रहता है। यहाँ उपासना ही हमें अपनी मनोभूमि ड़ड़ड़ड़ रखने और उस स्थिति के महत्त्वपूर्ण साथ लेने में सुविधा मिलती है।

हर किसी के लिये न तो अखण्ड वृत दीप सम्भव है और न ऐसा यज्ञीय वातावरण भरा कक्ष विनिर्मित कर सकना सरल है। यह हमारा एकाकी प्रयोग है। इसकी नकल उसी को करनी चाहिये, जिसकी पीठ पर हमारी ही जैसी संरक्षक शक्ति का बल हो। अन्यथा यह प्रयोग असफल रहेगा। गायत्री उपासना जितने समय चले उतने समय जिनके लिये सम्भव हो धूप, दीप एवं अगरबत्ती जलाने की व्यवस्था बना लेना उत्तम है। यज्ञीय वातावरण में गायत्री उपासना अधिक फलवती होती है। अनुदान काल में यथा सम्भव जप समय तक दीपक और धूप-बत्ती जलाने की व्यवस्था बनानी ही चाहिये।

जिनके लिए सम्भव है पूजा कक्ष ऐसा रहे जहाँ हर किसी का प्रवेश न हो, कोलाहल न हो और शान्ति बनी रहे। स्वच्छता और सुसज्जिता का समुचित ध्यान रखा जाय। पूजा प्रतीक थोड़े रहे पर वे उपेक्षा से मैले-कुचले न पड़े रहने दिये जाये तो उनकी सुरुचिपूर्ण सुसज्जा ऐसी आकर्षक रखी जाये जो मनोरम दिखे और चित वहाँ लगे।

जप आरम्भ करने से पूर्व ड़ड़ड़ड़ पृथ्वी पूजन के छः मध्या कर्म बहुमुक्ति का आह्वान, उपलब्ध गन्ध-पुष्प ड़ड़ड़ड़़ पूजन की विधि सर्वविदित है। पालथी मारकर बैठना, मेरुदण्ड सीधा रखना नेत्र अधखुले उच्चारण ऐसा जिसमें कण्ठ, होठ, जिह्वा की हलचल तो होती रहे पर उसे सुन समझ पास बैठने वाला भी न सके, दाहिने हाथ में माला, ड़ड़ड़ड़ फेरने में दर्जनों उगली का प्रयोग न करना, जा सके अन्त में प्रार्थना-, बारती कलश, रूप में रखे छोटे जल पात्र (आचमन का पंच पात्र नहीं ) को ज पके अन्त में सूर्य भगवान को चढ़ाना विसर्जन यही प्रख्यात उपासना क्रम हमारा भी है, जिसे प्रायः सभी गायत्री उपासक प्रयुक्त करते हैं।

जप के समय ध्यान करते रहने की आवश्यकता इस लिये रहती है कि मन एक सीमित परिधि में ही भ्रमण करता रहे, उसे व्यर्थ की उछल-कूद,भाग -दौड़ का अवसर न मिले। माता का चित्र सामने रहने से उनके ड़ड़ड़ड़ और आवरणों का बारीकी से मनोयोगपूर्वक निरीक्षण करते रहने का ध्यान साधना मन को इधर -उधर न भागने की समस्या हल कर देती है। यह छवि ध्यान थोड़े अभ्यास से तस्वीर को देखे बिना भी विशुद्ध ध्यान कल्पना के माध्यम से आँखें बन्द करके भी होने लगता है। जिन्हें निराकार साधना क्रम पसन्द है, उनके लिए प्रातःकाल उगते हुए अरुण वर्ण सूर्य का ध्यान करना उत्तम है।

मन को भागने से रोकने के लिए इष्टदेव की छवि को मनोयोगपूर्वक निहारते रहने से काम चल जाता है पर इसमें रस -प्रेम,एकता और तादात्म्य उत्पन्न करना और भी शेष रह जाता है और यह प्रयोजन ध्यान में प्रेम भावनाओं का समावेश करने से ही सम्भव होता है। उपासना के आरम्भ में अपनी एक दो वर्ष जितने निश्चिन्त, निर्मल, निष्काम, निर्भय बालक जैसी मनोभूमि बनाने की भावना करनी चाहिये ओर संसार में नीचे नील जल और ऊपर ड़ड़ड़ड़ आकाश के अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ एवं इष्टदेव के अतिरिक्त और किसी व्यक्ति के न होने की साम्यता जमानी चाहिए, बालक और माता, प्रेमी और प्रेमिका,सखा और सखा जिस प्रकार पुलकित हृदय परस्पर मिलते, आलिंगन करते है, वैसी ही अनुभूति इष्टदेव की समीपता की होनी चाहिये। चकोर जैसे चन्द्रमा को प्रेमपूर्वक नितान्त है ओर पतग जैसे दीपक पर अपना सर्वस्व समर्पण करते हुए तदनुरूप हो जाता है, ऐसे ही भावोद्रेक इष्टदेव की समीपता के उस ध्यान साधना में जुड़े रहने चाहिये। इससे भाव -विभोरता की स्थिति प्राप्त होती हैं। और उपासना ऐसी सरस बन जाती है कि उसे छोड़ने को जी नहीं चाहता।

गायत्री उपासना का न्यूनाधिक यही क्रम हमारा इसी प्रकार चलता रहा है। 24 अनुमानों के उपरान्त प्राण विद्या के उच्च स्तरीय प्रयोग एक विशिष्ट योग साधना के रूप में चलते चले है। जिनका चक्र वेधन ओर कुण्डलिनी जागरण से सीमा सम्बन्ध है। वे भावनायें सर्वोपयोगी नहीं ओर हमारे सामान्य साधन कम का कण भी नहीं, वे अतिरिक्त प्रयोजन के लिए है, इसलिए उनकी चर्चा यहाँ अनावश्यक समझी गई और उतना ही, उल्लेख किया गया जो सर्वसाधारण के लिए उपयुक्त था। यह लेख माला लिखी ही इस उद्देश्य से जा रही है कि हमारे अनुभवों के साथ अपने क्रिया-कलाप का ताल -मेल बिठाते हुए परिजन अपनी आत्मिक प्रगति का पथ -प्रशस्त कर सकें और उसी स्तर की सफलता प्राप्त कर सकें,जैसी कि हम कर सके है। इसमें आगे वाली मंजिलों का मार्ग दर्शन इन पंक्तियों में नहीं, अन्य माध्यमों से मिलेगा।

सामान्य उपासना क्रम जिसे आमतौर से हमने अपनी उपासना प्रक्रिया में सम्मिलित रखा है, अप्रैल 68 की अखण्ड ज्योति के पूरे अंक में विस्तार पूर्वक लिख चुके हैं। वह हमारे लिये जैसा उपयोगी सिद्ध हुआ,वैसा ही हर साधक के लिए फलप्रद हो सकता है। सर्वसाधारण के लिए गायत्री उपासना की उससे अच्छी पद्धति और कुछ नहीं हो सकती। गायत्री की उच्च-स्तरीय साधना प्राण तत्व की उत्खनन एवं अभिवर्धन प्रक्रिया है। पंच-कोशों का जागरण उसी पर निर्भर है। कई वर्ष पूर्व हमने अत्र भय कोश,मनोमय कोश, प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश,ओर आनन्दमय कोश,के जागरण की पंच-कोसी उच्च-स्तरीय गायत्री साधना पाठको को सिखानी आरम्भ की थी अखण्ड-ज्योति के पृष्ठों में उसका क्रम तीन वर्ष तक चला भी था पर अनुभव यह हुआ कि वह सर्वसाधारण का है। समस्त सत्प्रवृत्तियाँ उसी की सहचरी हैं। कृष्ण-चरित्र में जिस रास और महारास का- असंकारिक रूप से सुविस्तृत और आकर्षक वर्णन हुआ है, उसमें प्रेम-प्रसंग को कृष्ण के रूप में और सत्प्रवृत्तियों को गोपियों के रूप में चित्रित किया गया है। एक प्रेमी और अनेक प्रेमिकायें यह आश्रय अध्यात्म जगत में सम्भव है। प्रेम से भरी आत्मा को अगणित सत्प्रवृत्तियाँ असीम प्यार करती है और ये सभी दौड़ी-दौड़ी प्रियतम से मिलने और उसके साथ तादात्म्य होने चली आती है। महारास से वृन्दावन स्वर्गोपमय बन जाता है। उत्कृष्ट प्रेम और उसके आधार पर एकत्रित हुई सत्प्रवृत्तियाँ जीवन को आनन्द से भरा-पूरा बना देती है। द्वैत की अद्वैत में परिवर्तित-बहता का समर्पण में विषय- इसी का नाम मुक्त है। सच्चिदानन्द की उपलब्धि का यही मम्स्थस है। प्रेम आध्यात्मिक प्रगति का प्रधान अवलम्बन है। हमारी अनुभूतियों और उपलब्धियों का भी निष्कर्ष है और यही निष्कर्ष अब तक इस मार्ग पर सफल यात्रा कर चुकने वालों का है।

उपासना में प्रेम भावना का समावेश करते ही यह नीरस न रहकर अति सरल और मनोरम हो उठती है। कठोर जैसे चन्द्रमा को निहारते हुए सारी रात बिताता भ्रमर जैसे कमल की शोभा ओर सुगन्ध पर मुग्ध बना मंडराता रहता है। तितली जैसे पुष्प को नहीं छोड़ती, चींटी शक्कर पर से हटाये नहीं हटती, पतंगा दीपक की चारों ओर जीवन संकट के मूल्य पर भी खरीदता है, लोहा जैसे ड़ड़ड़ड़ से निपट जाने को सिसकता चलता है, नदी ड़ड़ड़ड़ के लिए आतुरता प्रकट करती है, उसी प्रकार ड़ड़ड़ड़ की दशा भगवान की ड़ड़ड़ड़ वाले के लिये आतुर जैसी होने लगती है। प्रेमिका को अपने प्रेमी की चर्चा और कल्पना में जैसे सुख मिलता है, उसी प्रकार भगवान की सरस कल्पना और ड़ड़ड़ड़ होता है। मीरा, सूर, कबीर, तुलसी, ड़ड़ड़ड़ आदि की ऐसी ही मनोदशा थी। उन्हें पूजा के फूल घण्टे मार नहीं सकते ड़ड़ड़ड़ व मन उचटता था, न फुरसत की कमी रहती थी। ड़ड़ड़ड़ के सामने यह कठिनाइयाँ लेकर नहीं गये कि हमारा मन नहीं लगता, ध्यान नहीं लगता। प्रेम का अभाव ही अन्य मनस्कता का एकमात्र कारण है। प्रेम के पीछे भी बीजांकुर आदि बनेंगे हो तो उपासना के ड़ड़ड़ड़ शायद ही अन्यत्र कहीं दीखें।

ईश्वर भक्ति का अभ्यास हमने गुरु भक्ति की प्रयोग शाखा में, व्यायामशाला में आरम्भ किया और विकास करते हुये प्रभु प्रेम के भंवर में जा पहुँचें जिसकी महानता को हर कसौटी पर रख कर खरा पाया हो उसी व्यक्तिगत अधिष्ठाता बढ़ाते चलना, प्रेम भावना के परिष्कार का सरल उपाय है। संसारी लोगों का प्रेम स्थानों पर आधारित होता है और उसमें बनावट भरी रहती है। उसे बदलते और बिगड़ते देर नहीं लगती। कृत्रिमता और स्वार्थपरता का जब भंडाफोड़ होता है, तब प्रेमी का मन टूट जाता है। और सन्देह, आशंका, दुःख तथा निराशा की प्रतिक्रिया, प्रेम को खतरे और जोखिम से भरा मान लेती है। फिर उचित स्थान पर भी प्रेम करने को मन नहीं करता और आत्मिक प्रगति का आधार सदा के लिए नष्ट हो जाता है। प्रेम का अभ्यास करने के लिए ऐसी नाव ढूँढ़नी पड़ती है, जो बीच में डूबने वाली न हो और किनारे पर पहुँचा दे। भावना और तृष्णाओं की पूर्ति के लिए चापलूसी जैसी हरकतें ही आज-कल प्रेम परिच्छेद में उछलती-कूदती दीखती है। वे बबूले की तरह उछलती और झाग की तरह बैठ जाती है। ऐसे प्रसंग प्रेम-साधना को परिपुष्ट नहीं वरन दुर्गम बनाते है। अभ्यास के लिये ऐसे व्यक्ति चुनने चाहिये जो प्रेम-तत्व का मार्ग, रहस्य, मूल्य, उत्तरदायित्व जानते हों और अपने प्रिय पात्र को निराश नहीं, अधिक उत्साह उल्लास उत्पन्न करने की परिस्थिति बनाते होंगे।

सौभाग्य ही कहना चाहिए कि हमें ड़ड़ड़ड़ का अनुभव ऐसा ही मिला जिन्होंने न केवल उपासना, साधना की दिशा से ही मार्ग दर्शन किया- न केवल अपना तन और बल ही हमें दिया वरन उतना वात्सल्य, स्नेह और अपना मन दिया जितना इस संसार में किसी भी प्रसिद्ध के ड़ड़ड़ड़ रिश्ते के प्रिय पात्र एक दूसरे को दे सकते है। हमने भी प्रयत्न किया कि समर्पण कि जितनी सर्वांगपूर्ण भावना और क्रिया चरितार्थ हो सकती हो, उसमें ड़ड़ड़ड़ की जाय। उनका हर आदर्श और हर संकेत ड़डड़ड़ की तरह शिरोधार्य रहा है। माँगना कुछ नहीं, देना सब कुछ’ प्रेम के इस अविच्छिन्न सिद्धान्त को दोनों ने ही चरम सीमा तक निबाहा है। दूसरी ओर से क्या किया गया, इसकी चर्चा हमारी वर्णन शक्ति से बाहर है। अपनी ओर से हम इतना ही कह सकते है कि भगवान से बढ़कर हमने उनके निर्देशों को शिरोधार्य किया है। उनके सन्देशों में ही अपना हित देखा हैं। आगा-पीछा सोचने और अनुनय करने की इच्छा ही नहीं उठी। अरुचिकर और कष्टकर कोई प्रसङ्ग आया तो भी उसी सहज स्वभाव स्वीकार किया। इन दिनों हमें प्रिय परिजनों को छोड़ना बहुत कठिन लग रहा है पर यह नहीं सोचते कि किसी बहाने उस आदेश का उल्लंघन करेंगे। प्रेम की ऐसी ही रीति-नीति है। उसे निबाहने के लिए एक पक्ष यदि पूरी तरह अड़ जाय तो दूसरे को भी द्रवीभूत होना पड़ता है। हमने अपनी ओर से प्रिय पात्र बनने में कुछ उठा नहीं रखा,फलतः गुरुदेव का अनुग्रह अमृत भी अपने ऊपर अजस्र रूप से बरसा है। प्रेम-तत्व के संवर्धन की साधना गुरु भक्ति से आरम्भ होकर ईश्वर भक्ति तक जा पहुँची। हमें इस प्रसङ्ग में उतने अधिक आनन्द-उल्लास का अनुभव होता रहा है कि उसके आगे संसार का बड़े-से बड़ा सुख भी तुच्छ लग सके। यह बढ़ती हुई प्रेम भावना, आत्मा-प्रेम, परिवार -प्रेम ओर विश्व-प्रेम में विकसित होती चली जा रही हैं और देखने वालों को उस अन्तः भूमिका की प्रतिध्वनि एक दिव्य जीवन के रूप में प्रतीत परिलक्षित हो रही हैं।

मनुष्य जिसे प्यार करता है, उसके उत्कर्ष एवं सुख के लिए बड़े से बड़ा त्याग और बलिदान करने को तैयार रहता है। अपने शरीर,मन,अन्तःकरण एवं भौतिक साधनों का अधिकाधिक भाग समाज और संस्कृति की सेवा में लगाने से रुका ही नहीं जाता। जितना भी कुछ डडडडे दीखता है, उसे अपने प्रिय आदर्श के लिए लुटा डालने की ऐसी हूक उठती है कि कोई भी साँसारिक प्रलोभन उसे रोक सकने में समर्थ नहीं होता। दूसरे लोग अपने छोटी-छोटी सेवाओं और उदारताओं की बार-बार चर्चा करते रहते है और उन्हें इसका प्रतिफल नहीं मिला ऐसी शिकायत करते रहते है। अपने लिए इस तरह सोच सकता सम्भव नहीं। क्योंकि लोक मंगल स्वांत, सुखाय आत्म-तृप्ति के लिए ही बन पड़ता है, किसी पर अहसान जताने या अपनी विशेषता प्रदर्शित करने के लिए नहीं।लोक -सेवा का प्रतिफल जब आत्म संतोष के रूप में तुरन्त मिल गया तो ओर कुछ चाहने की आवश्यकता ही क्या रहे

अपने संपर्क परिवार को विश्व-मानवता की व्यवहारिक सीमा मानते है ओर उससे अपनी आत्मा के समान,परमात्मा की पुनीत प्रतिकृति के समान,प्यार करते हैं। किसी से हमारा कोई स्वार्थ नहीं,न मोह,न प्रतिफल की किसी से इच्छा। बादल की तरह यों ही अपना मन सब पर प्रेम बरसाता रहता है। और उस सहज प्रवृत्ति से प्रेरित होकर दूसरों के दुःख बाँट लेने ओर अपनी विभूतियाँ लुटा देने की ललक निरन्तर उठती रहती हैं। उसी से प्रेरित होकर अपना तप देकर दूसरों के कष्ट हल्के करने का प्रकरण सहज स्वभाव चलता रहता है, न उसमें अपनी कुछ विशेषता दीखती है ओर न बढ़ाई।

विदाई के समय विरह -वेदना की जो हूक उठती।वह साथी सहचरों के साथ देर से बने चले आ रहे सम्बन्धों की स्मृति उभरने के कारण ही है। जब गहनता नहीं तो ममता कैसी? जब लोभ नहीं तो मोह कैसा? विशुद्ध प्रेम ही है,जो साथियों की अधिक समीपता,अधिक सेवा ओर अधिक आत्मीयता के अवसर पाने के लिए मचलता है। इस व्यथा में जो कसक है, वह उसी स्तर की है, जो भगवान की समीपता के लिए तड़पती हुई भक्ति भावना में होती है। परिजन हमारे लिए भगवान की ही प्रति है ओर उनसे अधिकाधिक गहरा प्रेम प्रसङ्ग बनाये रहने की उत्कंठा उमड़ती रहती है। इस वेदना के पीछे भी एक ऐसा दिव्य आनन्द झांकता रहता है। जिसे भक्ति योग के मर्मज्ञ ही जान सकते है।


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