सौंदर्य का मूल स्रोत तलाश करें

May 1969

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सौंदर्य एक स्वाभाविक गुण है। जो स्वाभाविक रूप से सुन्दर होगा, वह सुन्दरता के किसी प्रसाधन का प्रयोग नहीं करेगा। उसका ओज-तेज सुन्दरता बनकर उसके मुख-मण्डल पर दमकता रहेगा। फूल-सा खिला हुआ उसका चेहरा स्वाभाविक रूप से दूसरे की दृष्टि आकर्षित कर लेगा। स्वाभाविक रूप से सुन्दर व्यक्ति को किसी भी कृत्रिम उपाय की आवश्यकता नहीं होती और यदि वह किसी प्रसाधन का प्रयोग करेगा तो उसका आकर्षण बढ़ने के बजाय घट जायेगा।

किस देश में कितना स्वाभाविक सौंदर्य है, इसका अन्दाज इसी से लगाया जा सकता है कि उस देश में कृत्रिम सौंदर्य सामग्री की कितनी खपत है। जिस देश में जितनी अधिक प्रसाधन सामग्री बिकती हो समझ लेना चाहिये कि उस देश के लोग उसी अनुपात में स्वाभाविक सुन्दरता से वंचित है और जिस देश में जितनी कम श्रृंगार सामग्री बिकती हो बिना किसी हिचक के विश्वास कर लेना चाहिये कि उस देश के लोग उतने ही स्वाभाविक रूप से सुन्दर है।

सुन्दरता का आगमन बाहर से नहीं अन्दर से होता है। उसका कारण 'प्रसाधन' नहीं बल्कि स्वास्थ्य है। स्वस्थ व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष, कैसे भी फटे पुराने कपड़े क्यों न पहने हुए हो, कितना ही परिश्रम तथा पसीने से लथपथ क्यों न हो देखने में सुन्दर ही लगेगा। उसकी स्वाभाविक सुन्दरता बाह्य दशा में छिप नहीं सकती। उसका भरा हुआ चेहरा, पुष्ट शरीर, सुडौल अवयव, कपोलों की लाली, माथे की चमक और आँखों की सम्पन्नता क्षीण वेशभूषा के ऊपर चढ़कर चमकेगी।

अस्वस्थ व्यक्ति क्यों न मखमल पहने हो, क्यों न कितना ही क्रीम और पाउडर का प्रयोग किये हुए हो, उसके पिचके गाल, उभरी हड्डियाँ, भद्दा शरीर, धँसी आँखें इस बात की गवाही देंगी कि यह व्यक्ति असुन्दर है। इतना ही नहीं अस्वस्थ व्यक्ति पर अच्छी वेशभूषा एक -- जैसी लगकर उसका उपहास ही उड़ाया करती है।

सुन्दरता स्वास्थ्य की देन है और स्वास्थ्य संयम और प्रकृति के संपर्क की देन है। प्रकृति की गोद में स्वास्थ्य और सुन्दरता दोनों का निवास है। जो व्यक्ति अधिक-से अधिक अकृत्रिम और प्राकृतिक जीवन व्यतीत करते हैं, वे अवश्य ही स्वस्थ एवं सुन्दर रहते हैं। प्राकृतिक जीवन बिताने वाला संयमी वृद्ध भी असंयमी युवक से अधिक आकर्षक और सुन्दर लगा करता है। उसके चाँदी जैसे चमकते बाल, भरे हुए अरुणामय गाल और उभरा हुआ ललाट युवकों के लिये ईर्ष्या का विषय बन जाता है।

अपना भारत देश सदा ही धीरों-वीरों और बलवानों का देश रहा है। राम, कृष्ण, भीम, अर्जुन, भीष्म, द्रोण, प्रताप, शिवा, छत्रसाल जैसे वीर योद्धा इसी भूमि के रत्न थे। सिकन्दर की विश्वविजयी वाहिनी को रोक देने वाले पोरस और सेल्युकस जैसे दुर्धर्ष ग्रीक सेनानी को परास्त करने वाले चन्द्रगुप्त इसी भूमि पर उत्पन्न हुये। राममूर्ति, गामा और जोधासिंह पहलवान इसी भारत में हुए हैं, जिन्होंने मल्ल-युद्ध में संसार में ऊँचा किया है।

किन्तु आज उसी भारत भूमि पर पतली टाँगों और बैठी आँखों वाले नौजवान ही अधिक देखने में आते है। देश की तरुण पीढ़ी का स्वास्थ्य और उसके लक्षण देख कर आगे की सम्भावनायें भी कुछ अधिक आशापूर्ण नहीं दीखती। आज फैशन ने संसार में सबसे अधिक इस भारत, इस ऋषि भूमि को ही घेर रखा है। आमदनी को देखते हुए, जिस अनुपात से फैशन और प्रसाधन पर जितना पैसा भारत में व्यय किया जाता है, शायद उतना पैसा संसार में किसी भी देश में व्यय नहीं किया जाता।

फैशन का रोग इस कदर बढ़ गया है कि घर में भले ही कठिनता से रोटी मिल पाती हो, लेकिन बाहर आधुनिक तरह की पोशाक पहनकर निकलना आवश्यक है। लोग एक कपड़े की सिलाई पर इतना पैसा व्यय करते हैं कि उतने ‘में’ एक और कपड़ा बन सकता है। फैशन के दीवाने ऐसे सैकड़ों नवयुवक देखने को मिल सकते हैं, जो एक बार अपनी हविस पूरी करने के लिये बहुत-सा पैसा विचित्र पोशाक बनवाने में लगा देते हैं और फिर उसका निर्वाह न कर सकने पर वही फटी-पुरानी फैशनेबुल ब्रुश-शर्ट और पतलून वर्षों पहनते हुए अपनी और अपने फैशन की मखौल कराया करते हैं। जितने पैसे को उन्होंने एक बार फैशन की हविस पूरी करने में व्यय किया था, यदि उससे वे साधारण से कपड़े बनवाते तो अवश्य ही कई वर्ष तक अच्छी दशा में रह सकते थे। इस प्रकार के उपहासास्पद फैशन से यदि कोई आकर्षक दीखने के स्वप्न देखता है तो वह बहुत बड़ी गलती करता है।

स्वास्थ्य एवं संयम से पाये हुए व्यक्तित्व वाले स्वामी विवेकानन्द जैसे भारतीयों ने साधु की वेशभूषा में ही अमेरिका जैसे आधुनिक और धनवान्, फैशनपरस्त देश के लोगों को यह मानने पर विवश कर दिया कि आकर्षण वेशभूषा में नहीं स्वाभाविक स्वास्थ्य और सादगी में है, जो कि अकृत्रिम एवं स्वाभाविक जीवन पद्धति से ही संभव है। अपनी साधारणतम वेशभूषा पर हँसने वाले अमेरिकियों को अपने जिन शब्दों से स्वामी विवेकानन्द जी ने लज्जित किया था वास्तव में वे शब्द ही भारतीय जीवन का आदर्श है और आज भी होने चाहिये।

हँसने वाले अपटूडेट अमेरिकियों से स्वामी जी ने कहा था-दाई टेलर मेक्स यू जेन्टलमैन, बट इट इज माई कन्ट्री व्हेअर केरेक्टर मेक्स ए मैन जेन्टिल।’ जिसका अर्थ यह है कि- ‘‘आप का दर्जी आपको भद्र पुरुष बनाता है।”

स्वामी विवेकानन्द के इस सारपूर्ण शब्दों का तात्पर्य यही है कि मनुष्य का वास्तविक व्यक्तित्व कपड़ों, वेशभूषा अथवा फैशन से प्रकट नहीं होता बल्कि मनुष्य का आचरण ही उसका वास्तविक व्यक्तित्व है। स्वामी विवेकानन्द जी ने जिस समय यह शब्द अमेरिका में कहे थे, उस समय भारत में फैशन का रोग इतना जोर पर नहीं था। लोग फैशन के बजाय अपने स्वास्थ्य और आचरण पर अधिक ध्यान देते थे। स्वामी जी को उस समय स्वप्न में भी यह मान न रहा होगा कि जिस भारतवर्ष की साधारण वेशभूषा और असाधारण चरित्र को इस गौरवपूर्ण ढंग से आज अमेरिका में रख रहे हैं, वही भारतवर्ष आगे चलकर फैशन में इंग्लैंड, अमेरिका आदि देशों के फैशन का गुलाम हो जायेगा।

फैशन प्रदर्शन की महामारी से ग्रस्त भारतीय नवयुवक आज स्वास्थ्य और चरित्र की ओर से पूरी तरह उदासीन होते जा रहे हैं। स्वास्थ्य-जन्य आकर्षण को वे प्रसाधनों के बल पर स्थानापन्न कर लेने और संयम को अप्राकृतिक बन्धन और चरित्र को जड़ता मानने लगे हैं। उन्हें कभी यह चिन्ता नहीं होती कि उनके अंग पुष्ट, उनका शरीर सुडौल, उनका मुख ओजस्वी और उनका चरित्र तेजस्वी बने। उन्हें कभी भी यह धौंस नहीं होता कि वे बिना किसी प्रसाधन के सुन्दर लगे और अपने भरे पूरे शरीर के साथ शेर जैसी चाल से चलते हुए लोगों के लिए हर्ष का विषय बनें। उन्हें यदि चाह होती है तो इसकी कि वे कितनी किसी प्रकार की क्रीम प्रयोग कर पा रहे हैं कितना और कौन-सा पाउडर उनके शरीर को सुगन्धित करता है। आधुनिक तरह के कितने प्रकार के-कितने कपड़े-उनके पास हैं। उन पर किन रंगों और किन डिजाइनों के कपड़े फबते है और किस वेशभूषा में वे लोगों के लिये आकर्षण के पात्र बनते हैं। आज का कोई भारतीय तरुण कदाचित ही यह बतला पाये कि व्यायाम के कितने प्रकार है और उनका अभ्यास किस प्रकार किया जाता है। किस आयु के व्यक्ति को किस प्रकार का कितना व्यायाम करना चाहिये। शरीर को पुष्ट रहने के लिये किस प्रकार का कितना भोजन करना और किस प्रकार रहना-सहना चाहिये। जीवन में शम, दम, नियम, संयम का क्या महत्व है और उनके पालन का क्या अर्थ एवं विधि है। इसके विपरीत वह यह अवश्य प्रामाणिक रूप से बतला सकता है कि अमुक प्रकार का फैशन अमुक देश का है। इस प्रकार की कमीज का नाम यह है। पतलून का यह डिजाइन इस देश से आविष्कृत हुआ है। सबसे आधुनिक फैशन यह है और इस वस्त्र के लिये यह कपड़ा सबसे अच्छा रहता है। वह भोजन के विषय में भले ही कुछ न जानता हो, किन्तु यह अवश्य बतला सकता है कि ड़ड़ड़ड़-प्रकार से बनती है। काफी की इतनी किस्में होती है। किस होटल के मीनू में क्या-क्या वस्तुयें मिल सकती है। उनकी रुचियों में दूध, घी, मलाई, फल, शाक-भाजी और ड़ड़ड़ड का स्थान आलू, कचालू, खटाई, मिठाई, ड़ड़ड़ड़ कचौड़ी, कटलस, पुटैटो, चाय, डबलरोटी, बिस्किट, चाकलेट और सोडा, शराब न ले लिया है। किस खाद्य पदार्थ से क्या हानि लाभ होता है, इसका ज्ञान आज के भारतीय नवयुवक में बिल्कुल भी नहीं रहा है और यदि उसे इस विषय में बताने का प्रयत्न भी किया जाता है तो वह उस पर अविश्वास करता हुआ कह देता है कि यह सब पुराने जमाने की बातें हैं, आज के नये जमाने में उनका कोई मूल्य, महत्व नहीं है।

प्राकृतिक जीवन से तो वह इतना दूर चला गया है, जैसे वह प्रकृति-जन्य प्रणी ही न हो, कमरों के भीतर देर तक जागना ओर देर तक सोना उसका स्वभाव बन गया है। अवसर होने पर भी वह बाहर स्वच्छ हवा में प्रकृति के निकट सोने के स्थान पर कमरे में बन्द होकर बिजली के पंखे की हवा खाना ज्यादा पसन्द करेगा और इसे आज की सभ्यता बतलायेगा।

भारतीय तरुणों का कृत्रिम जीवन आज बहुत बड़े खेद का विषय बन गया है। कृत्रिम जीवन ने उनके स्वास्थ्य और स्वाभाविक सौंदर्य का बहुत बड़ा अंश अपहरण कर लिया है। इसी कृत्रिमता के कारण भारत का तरुण वर्ग परिश्रम एवं पुरुषार्थ से दूर भागने का प्रयत्न करने लगा है। जहाँ अन्य देशों के नवयुवक शहरी जीवन से निकल-निकल कर खेतों में काम करने के लिये पहुँच रहे हैं, वहाँ भारत के नवयुवक खेतों से भाग-भाग कर शहरों में चपरासीगीरी अथवा ड़ड़ड़ड़ ़ दिखाई दे रहे हैं। भारतीय नवयुवक ड़ड़ड़ड भोजन और फैशन बल पहनावे में प्रसन्न रहने लगा है। उसे स्वास्थ्य की उतनी चिन्ता नहीं है, उसे देश की गरीबी और भुखमरी की इतनी परवाह नहीं है, जितनी कि फैशन और प्रदर्शन की। यह वास्तव में बड़े ही खेद का विषय है। आज जब देश के चारों ओर दुश्मनों की गतिविधियाँ सक्रिय हो रही हैं, तब यहाँ के नवयुवक का इस बुरी तरह फैशन परस्त और स्वास्थ्य क प्रति उदासीन होना कम खतरे की बात नहीं है। सारा संसार भारतीय नवयुवक की इस कमजोरी को अपनी नजर में भरे हुए है और किसी अवसर पर वह उस पर लाभ उठाने में कदापि भी नहीं चूकेंगे।

भारतीय तरुण को जागना और सोचना चाहिये कि सुन्दरता प्रसाधन अथवा फैशन में नहीं है। उसका जन्म स्वास्थ्य से होता है वास्तविक स्वास्थ्य उसे ही मिल सकता है, जो सदा, संयमपूर्ण और प्राकृतिक जीवन पद्धति से रहता है। नवयुवकों को फैशनों, प्रसाधनों और होटली वस्तुओं का ज्ञान बढ़ाने के बजाय स्वास्थ्य के नियमों, आचरण की रीतियों, संयम निर्वाह की रीतियों का ज्ञान बढ़ाना और उनका पालन करना चाहिये जिससे वे सादी वेशभूषा में भी अपने दमकते हुये व्यक्तित्व से फैशनेबल देशों को स्वामी विवेकानन्द की तरह प्रभावित कर सकें। साथ ही भीम, अर्जुन, भीष्म, और राणा, शिवा एवं पोरस, चन्द्रगुप्त की तरह आक्रान्ताओं को परास्त कर सकने की शक्ति पा सकें।


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