श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है।

February 1968

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मनुष्य अपनी छिपी शक्तियों को पहचाने बिना शक्तिशाली नहीं बन सकता। मानव-देह में एक चिरन्तन आध्यात्मिक सत्य छिपा हुआ है, जब तक वह मिल नहीं जाता इच्छायें उसे इधर से उधर भटकाती, दुःख के थपेड़े खिलाती रहती हैं। सत्यामृत की प्राप्ति नहीं होती तब तक मनुष्य बार-बार जन्मता और मरता रहता है, न कोई इच्छा तृप्त होती है न आत्मसन्तोष होता है। जबकि मनुष्य की सारी क्रियाशक्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उसी की प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहती है।

अपने आपको, अपनी चेतन सत्यता को पहचानना आसान बात नहीं है। विद्यमान परिस्थितियाँ ही धोखा देने के लिए पर्याप्त होती हैं, फिर जन्म-जन्मान्तरों के प्रारब्ध इतने भले नहीं होते जो मनुष्य को साधारण ही क्षमाकर दें। हमारा असली व्यक्तित्व इतना स्पष्ट है कि उसकी भावानुभूति एक क्षण में हो जाती है, वह परदों में नहीं रहता फिर भी वह इतना जटिल और कामनाओं के परदों में छुपा हुआ है कि उसके असली स्वरूप को जानना टेढ़ा पड़ जाता है। साधना, उपासना करते हुए भी बार-बार पथ से विचलित होना पड़ता है। ऐसी असफलतायें ही जीवन लक्ष्य में बाधक हैं।

श्रद्धा वह प्रकाश है जो आत्मा की, सत्य की प्राप्ति के लिए बनाये गए मार्ग को दिखावा रहता है। जब भी मनुष्य एक क्षण के लिए लौकिक चमक-दमक, कामिनी और कंचन के लिये मोहग्रस्त होता है तो माता की तरह ठण्डे जल से मुँह धोकर जगा देने वाली शक्ति यह श्रद्धा ही होती है। सत्य के सद्गुण, ऐश्वर्य-स्वरूप एवं ज्ञान की थाह अपनी बुद्धि से नहीं मिलती उसके प्रति सविनय प्रेम भावना विकसित होती है उसी को श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा सत्य की सीमा तक साधक को साधे रहती है, सँभाले रहती है।

श्रद्धा के बल पर ही मलिन चित्त अशुद्ध चिन्तन का परित्याग करके बार-बार परमात्मा के चिन्तन में लगा रहता है। बुद्धि भी जड़-पदार्थों में तन्मय न रहकर परमात्म ज्ञान में अधिक से अधिक सूक्ष्मदर्शी होकर दिव्य भाव में बदल जाती है। स्वयं का ज्ञान और तार्किक शक्ति इतनी बलवान नहीं होती कि मनुष्य निरन्तर उचित अनुचित, आवश्यक-अनावश्यक के यथार्थ और दूरवर्ती परिणामों की आत्मा के अनुकूल होने का विश्वास दे सके। तर्क प्रायः व्यर्थ से दिखाई देते हैं। ऐसे समय जब अपने कर्मों के औचित्य का अनौचित्य को परम प्रेरक शक्ति के हाथों सौंप देते हैं तो एक प्रकार की निश्चिन्तता मन में आ जाती है। मन का बोझ हलका हो जाता है। जिसकी जीवन पतवार परमात्मा के हाथ में हो उसे किसका भय? सर्वशक्तिमान से सम्बन्ध स्थापित करते ही मनुष्य निर्भय हो जाता है, उसके स्पर्श से ही मनुष्य में अजय बल आ जाता है। व्यक्तित्व में सद्गुणों का प्रकाश और दिव्यता झरने लगती हैं। जीवन में आनन्द झलकने लगता है। यह सम्बन्ध और स्पर्श जब तक सत्य की पूर्ण प्राप्ति नहीं होती तब तक श्रद्धा के रूप में प्रगट और विकसित होता है। वह एक प्रकार से पाथेय है इसलिये उसका मूल्य और महत्व उतना ही है जितना अपने लक्ष्य का, गन्तव्य का, अभीष्ट का, आत्मा, सत्य अथवा परमात्मा की प्राप्ति का।

परमात्मा के प्रति अत्यन्त उदारतापूर्वक आत्मभावना पैदा होती है वही श्रद्धा है। सात्विक श्रद्धा की पूर्णता में अन्तःकरण स्वतः पवित्र हो उठता है। श्रद्धायुक्त जीवन की विशेषता से ही मनुष्य-स्वभाव में ऐसी सुन्दरता बढ़ती जाती है जिसको देखकर श्रद्धावान स्वयं सन्तुष्ट बना रहता है। श्रद्धा सरल हृदय की ऐसी प्रतियुक्त भावना है जो श्रेय पथ की सिद्धि कराती है। इसीलिये शास्त्रकार कहते हैं-

भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ। याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धः स्वान्तस्थमीश्वरम्। (रामायण, बाल कांड)

“हम सर्वप्रथम भवानी और भगवान प्रकृति और परमात्मा को श्रद्धा और विश्वास के रूप में वदन करते हैं जिसके बिना सिद्धि और ईश्वर-दर्शन की आकाँक्षा पूर्ण नहीं होती।”

ज्ञान-भक्ति का निरूपण करते हुए तुलसीदासजी उत्तर कांड में लिखते हैं-

सात्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जो हरि कृपा हृदय बस आई॥

जप तप व्रत जम नियम अपारा। जो श्रुति कह शुभ धर्म अचारा॥

तेई तृन हरित चरै जब गाई।.........॥

एहि विधि लेसै दीप तेजराशि विज्ञानमय। जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब॥

अर्थात्- जब तक मनुष्य के अन्तःकरण में श्रद्धारूपी गाय का जन्म नहीं होता तब तक जप, तप, यम, नियम, व्रत आदि जितने भी धर्माचरण हैं उनमें मनुष्य की बुद्धि स्थिर नहीं रहती। यह श्रद्धा ही जीवन की कठिनाइयों में मनुष्य को पार लगाती है। और आत्मगुणों का विकास करती हुई उसे विज्ञानयुक्त परमात्मा के प्रकाश तक जा पहुँचाती है।

श्रद्धा का आविर्भाव सरलता और पवित्रता के संयोग से होता है। पार्थिव वस्तुओं से ऊपर उठने के लिए सरलता और पवित्रता इन्हीं दो गुणों की अत्यन्त आवश्यकता होती है। इच्छा में सरलता और प्रेम में पवित्रता का विकास जितना अधिक होगा उतना ही अधिक श्रद्धा बलवान होगी। सरलता के द्वारा परमात्मा की भावानुभूति होती है और पवित्र प्रेम के माध्यम से उसकी रसानुभूति। श्रद्धा दोनों का सम्मिलित स्वरूप है। उसमें भावना भी है रस भी। जहाँ उसका उदय हो वहाँ लक्ष्य प्राप्ति की कठिनाई का अधिकाँश समाधान तुरन्त हो जाता है। अविश्वस्त व्यक्तियों के आगे थोड़ा-सा भी काम आ जाता है तो उससे उन्हें बड़ी हड़बड़ाहट होती है। किन्तु यदि उसी काम को साहस और भावना के साथ हाथ में लिया जाता है तो घबराहट और कठिनता भी आनन्द में बदल जाती है। जो बोझ का काम प्रतीत होता था वही सरलता से प्राप्त कर लेने योग्य बन जाता है।

प्राचीन काल में पवित्र अन्तःकरण वाले महान पुरुषों द्वारा अज्ञान अन्धकार में भटकते हुए लोक-जीवन को सत्य मार्ग पर अग्रसर करने का माध्यम उनके द्वारा जगाई हुई श्रद्धा ही होती रही है। शिष्यों को श्रद्धा का पूर्ण पाठ साधना की स्थिरता के लिए तप भी आवश्यक था, युग और परिस्थितियाँ बदल जाने पर आज भी आवश्यक है। परमात्मा सत्य है उसके गुण और स्वभाव अपरिवर्तनशील हैं इसी तरह वहाँ तक पहुँचने का मार्ग और माध्यम भी अपरिवर्तित ही है। उसे आज भी पाया और अनुभव किया जा सकता है, पर उस स्थिति की परिपक्वता के बीच में जो साधनायें, परिवर्तन, हलचल, कठिनाईयाँ और दूरभिसन्धियाँ आती हैं उनमें लक्ष्य प्राप्ति की भावना की स्थिरता के लिए श्रद्धा आवश्यक है।

श्रद्धा तप है। वह ईश्वरीय आदेशों पर निरन्तर चलते रहने की प्रेरणा देती है। आलस्य से बचाती है। कर्तव्य पालन में प्रमाद से बचाती है। सेवा धर्म सिखाती है। अन्तरात्मा को प्रफुल्ल, प्रसन्न रखती है। इस प्रकार तप और त्याग से श्रद्धावान व्यक्ति के हृदय में पवित्रता एवं शक्ति का भण्डार अपने आप भरता चला जाता है। गुरु कुछ भी न दे तो भी श्रद्धा में वह शक्ति है जो अनन्त आकाश से अपनी सफलता के तत्व और साधन को आश्चर्यजनक रूप से खींच लेती है। ध्रुव, एकलव्य, अज, दिलीप की साधनाओं में सफलता का रहस्य उनके अन्तःकरण की श्रद्धा ही रही है। उनके गुरुओं ने तो केवल उनकी परख की है। यदि इस तरह की श्रद्धा आज भी लोगों में आ जाए और लोग पूर्ण रूप से परमात्मा की इच्छाओं पर चलने को कटिबद्ध हो जायें तो विश्वशाँति, चिर-सन्तोष और अनन्त समृद्धि की परिस्थितियाँ बनते देर न लगे। उसके द्वारा सत्य का उदय, प्राकट्य और प्राप्ति तो अवश्यम्भावी ही हो जाता है। इसी बात को शास्त्रों में संक्षेप में इस प्रकार कहा गया है-

श्रद्धायांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमविरेणाधिराच्छति॥ (गीता)

“जितेन्द्रिय तथा श्रद्धावान पुरुषों को ही ज्ञान मिलता है और ज्ञान से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। सत्य समुपलब्ध होता है।”


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